हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण २ प्रतापनारायण मिश्र

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प्रतापनारायण मिश्र के पिता उन्नाव से आकर कानपुर में बस गए थे, जहाँ प्रतापनारायणजी का जन्म सं॰ १९१३ मे और मृत्यु सं॰ १९५१ में हुई है। ये इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवा करते थे। कभी लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते थे, कभी मेलो और तमाशो में बंद इक्के पर बैठे जाते दिखाई देते थे।

प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखन-कला में भारतेंदु को ही आदर्श मानते [ ४६७ ] थे पर उनकी शैली में भारतेंदु की शैली से बहुत कुछ विभिन्नता भी लक्षित होती है। प्रतापनारायणजी में विनोद-प्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में व्यंग्यपूर्ण वक्रता की मात्रा प्रायः रहती है। इसके लिये वे पूरबीपन की परवा न करके अपने बैसवारे की ग्राम्य कहावतें और शब्द भी कभी कभी बेधड़क रख दिया करते थे। कैसा ही विषय हो, वे उसमें विनोद और मनोरंजन की सामग्री ढूँढ़ लेते थे। अपना 'ब्राह्मण' पत्र उन्होंने विविध विषयों पर गद्यप्रबंध लिखने के लिये ही निकाला था। लेख हर तरह के निकलते थे। देशदशा, समाज-सुधार, नागरी-हिंदी-प्रचार, साधारण मनोरंजन आदि सब विषयों पर मिश्रजी की लेखनी चलती थी। शीर्षकों के नामों से ही विषयों की अनेकरूपता का पता चलेगा जैसे, "घूरे क लत्ता बिनै, कनातन क डौल बाँधै", "समझदार की मौत है", "बात", "मनोयोग", "वृद्ध", "भौ"। यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्य-विनोद की ओर ही अधिक रहती थी, पर जब कभी कुछ गंभीर विषयो पर वे लिखते थे, तब संयत और साधु भाषा का व्यवहार करते थे। दोनों प्रकार की लिखावटों के नमूने नीचे दिए जाते हैं––

समझदार की मौत है।

सच है "सब ते भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापै जगतगति"। मजे से पराई जमां गपक बैठना, खुशामदियों से गप मारा करना, जो कोई तिथ-त्योहार आ पड़ा तो गंगा में बदन धो आना, गंगापुत्र को चार पैसे देकर सेंत-मेत में धरममूरत, धरमऔतार का खिताब पाना; संसार परमार्थ दोनों तो बन गए, अब काहे की है है और काहे की खै खै? आफत तो बिचारे जिंदादिलों की है जिन्हें न यों कल न वो कल; जब स्वदेशी भाषा का पूर्ण प्रचार था तब के, विद्वान् कहते थे "गीर्वाणवाणीषु विशालुबुद्धिस्तथान्यभाषा-रसलोलुपोहम्"। अब आज अन्य भाषा वरंच अन्य भाषाओं का करकट (उर्दू) छाती का पीपल हो रही है; अब यह चिंता खाए लेती है कि कैसे इस चुड़ैल से पीछा छूटे।

मनोयोग

शरीर के द्वारा जितने काम किए जाते हैं, उन सब में मन का लगाव अवश्य रहता है। जिनमें मन प्रसन्न रहता है वही उत्तमता के साथ होते हैं और जो [ ४६८ ]उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं होते वह वास्तव में चाहे अच्छे कार्य भी हो किंतु भले प्रकार पूर्ण रीति से संपादित नहीं होते, न उनका कर्ता ही यथोचित आनंद लाभ करता है। इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर-रूपी नगर का राजा हैं और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छंद रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावसान रहता है। यदि रोका न जाय तो कुछ काल में आलस्य और अकृत्य का व्यसन उत्पन्न करके जीवन को व्यर्थ एवं अनर्थपूर्ण कर देता है।"

प्रतापनारायणजी ने फुटकल गद्यप्रबंधों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे। 'कलिकौतुक रूपक' में पाखंडियों और दुराचारियों का चित्र खींचकर उनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है। 'संगीत शाकुंतल' लावनी के ढंग पर गाने योग्य खड़ी बोली में पद्यबद्ध शकुंतला नाटक है। भारतेंदु के अनुकरण पर मिश्र जी ने 'भारतदुर्दशा' नाम का नाटक भी लिखा था। 'हठी हम्मीर रणथंभौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का वृत्त लेकर लिखा गया है। 'गोसकट नाटक' और 'कलि-प्रभाव नाटक' के अतिरिक्त 'जुआरी खुआरी' नामक उनका एक प्रहसन भी है।

पं॰ बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में सं॰ १९०१ में और परलोकवास सं॰ १९७१ में हुआ। वे प्रयाग के 'कायस्थ-पाठशाला कालेज' में संस्कृत के अध्यापक थे।

उन्होंने संवत् १९३३ में अपना "हिंदी-प्रदीप" गद्य-साहित्य का ढर्रा निकालने के लिये ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध वे अपने पत्र में तीस-बत्तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पंडित प्रतापनारायण के ढंग से मिलता जुलता है। मिश्रजी के समान भट्टजी भी स्थान-स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे, पर उनका झुकाव मुहावरो की ओर कुछ अधिक रहा है। व्यंग और वक्रता उनके लेखों में भी भरी रहती हैं और वाक्य भी कुछ बड़े बड़े होते हैं। ठीक खड़ी चोली के आदर्श का निर्वाह भट्टजी ने भी नहीं किया है। पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं। "समझा बुझाकर" के स्थान पर "समझाय बुझाय" वे प्रायः लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे [ ४६९ ]अँगरेजी पढ़े-लिखे नवशिक्षित लोगो को हिंदी की ओर आकर्षित करने के लिये लिख रहे हैं। स्थान स्थान ब्रैकेट में घिरे "Education," "Society," "National vigour and strength," "Standard," "Character" इत्यादि अँगरेजी शब्द पाए जाते है। इसी प्रकार फारसी अरबी के लफ्ज ही नहीं बड़े-बड़े फिकरे तक भट्टजी अपनी मौज में आकर रखा करते थे। इस प्रकार उनकी शैली में एक निरालापन झलकता है। प्रतापनारायण के हास्यविनोद से भट्टज़ी के हास्यविनोद में यह विशेषता है कि वह कुछ चिड़चिड़ाहट लिए रहता था। पदविन्यास भी कभी-कभी उनका बहुत ही चोखा और अनूठा होता था।

अनेक प्रकार के 'गद्य-प्रबंध' भट्टजी ने लिखे हैं, पर सब छोटे छोटे। वे बराबर कहा करते थे कि न जाने, कैसे, लोग बड़े-बड़े लेख लिख डालते है। मुहावरों की सूझ उनकी बहुत अच्छी थी। "आंख", "कान", "नाक" आदि शीर्षक देकर उन्होंने कई लेखों में बड़े ढंग के साथ मुहावरों की झड़ी बाँध दी हैं। एक बार वे मेरे घर पधारे थे। मेरा छोटा भाई आँखों पर हाथ रखे उन्हें दिखाई पड़ा है।‌ उन्होंने पूछा "भैया! आँख में क्या हुआ है?" उत्तर मिला "आँख,आई है।" वे चट बोल उठे "भैया! यह आँख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है" अनेक विषयों पर गद्य-प्रबंध लिखने के अतिरिक्त "हिंदी-प्रदीप" द्वारा भट्टजी संस्कृत-साहित्य और संस्कृत के कवियों का परिचय भी अपने पाठकों को, समय समय पर कराते रहे। पंडित प्रतापनारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्यसाहित्य में वही काम किया है जो अँगरेजी गद्य-साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था। भट्टजी की लिखावट के दो नमूने देखिए––

कल्पना

x x x यावत् मिथ्या और दरोग की किबलेगाह इस कल्पना पिशाचिनी का कहीं ओर छोर किसी ने पाया है? अनुमान करते करते हैरान गौतम से मुनि 'गोतम' हो गए। कणाद तिनका खा खाकर किनका बीनने लगे पर मैन की मनभावनी कन्या कल्पना को पार न पाया। कपिल बेचारे पचीस तत्वों [ ४७० ]की कल्पना करते करते 'कपिल' अर्थात् पीले पड़ गये। व्यास ने इन तीनों दार्शनिकों की दुर्गति देख मन में सोचा, कौन इस भूतनी के पीछे दौड़ता फिरे, यह संपूर्ण विश्व जिसे हम प्रत्यक्ष देख सुन सकते हैं सब कल्पना ही कल्पना, मिथ्या, नाशवान् और क्षणभंगुर है, अतएव हेय है।

आत्म-निर्भरता

इधर पचास-साठ वर्षों से अँगरेजी राज्य के अमनचैन को फ़ायदा पाय हमारे देशवाले किसी भलाई की ओर न झुके वरन् दस वर्ष की गुड़ियो का व्याह कर पहिले से ड्योढ़ी दूनी सृष्टि अलबत्ता बढ़ाने लगे। हमारे देश की जन संख्या अवश्य घटनी चाहिए। × × × आत्म निर्भरता में दृढ़, अपने कूबते-बाज़ू पर भरोसा रखनेवाला पुष्टवीर्य्य, पुष्ट-बल, भाग्यवान् एक संतान अच्छा। 'कुकर सूकर से' निकम्मे, रग रग में दास-भाव से पूर्ण परभान्यौपजीवी दस किस काम के?"

निबंधो के अतिरिक्त भट्टजी ने कई छोटे-मोटे नाटक भी लिखे है जो क्रमशः उनके 'हिंदी-प्रदीप' में छपे हैं, जैसे––कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बालविवाह नाटक, चंद्रसेन नाटक। उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्त के 'पद्मावती' और 'शर्मिष्ठा' नामक बंगभाषा के दो नाटकों के अनुवाद भी निकाले थे।

सं॰ १९४३ में भट्टजी ने लाला श्रीनिवासदास के 'संयोगता-स्वयंवर' नाटक की 'सच्ची समालोचना' भी, और पत्रों में उसकी प्रशंसा ही प्रशंसा देखकर, की थी। उसी वर्ष उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी ने बहुत ही विस्तृत समालोचना अपनी पत्रिका में निकाली थी। इस दृष्टि से सम्यक् आलोचना का हिंदी में सूत्रपात करनेवाले इन्हीं दो लेखकों को समझना चाहिए।

उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी का जन्म मिर्जापुर के एक अभिजात ब्राह्मण-वंश में भाद्र कृष्ण ६ सं॰ १९१२ को और मृत्यु फाल्गुन शुक्ल १४ सं॰ १९७९ को हुई। उनकी हर एक बात से रईसी टपकती थी। बातचीत का ढंग उनका बहुत ही निराला और अनूठा था। कभी कभी बहुत ही सुंदर वक्रतापूर्ण वाक्य उनके मुँह से निकलते थे। लेखन-कला के उनके [ ४७१ ]सिद्धांत के कारण उनके लेखों में यह विशेषता नहीं पाई जाती। वे भारतेंदु के घनिष्ट मित्रों में थे और वेश भी उन्हीं का-सा रखते थे।

उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी (प्रेमधन) की शैली सबसे विलक्षण थी। वे गद्य-रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करनेवाले––कलम की कारीगरी समझनेवाले––लेखक थे और कभी कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधते थे कि पाठक एक एक डेढ़ डेढ़ कालम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था। अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास की ओर भी उनका, ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कह जाने को ही वे लिखना नहीं कहते थे। वे कोई लेख लिखकर जब तक कई बार उसका परिष्कार और मार्जन नहीं कर लेते थे तब तक छपने नहीं देते थे। भारतेंदु के वे घनिष्ट मित्र थे पर लिखने में उनके "उतावलेपन" की शिकायत अकसर किया करते थे। वे कहते थे कि बाबू हरिश्चद्र अपनी उमंग में जो कुछ लिख, जाते थे उसे यदि एक बार और देखकर परिमार्जित कर लिया करते तो वह और भी सुडौल और सुंदर हो जाता। एक बार उन्होंने मुझसे, कांग्रेस के दो दल हो जाने पर एक नोट लिखने को कहा। मैंने जब लिखकर दिया तब उसके किसी वाक्य को पढ़कर वे कहने लगे कि इसे यों कर दीजिए––"दोनो दलों की दलादली में दलपति का विचार भी दलदल में फँसा रहा।" भाषा अनुप्रासमयी और चुहचुहाती हुई होने पर भी उनका पद-विन्यास व्यर्थ आडंबर के रूप में, नहीं होता था उनके लेख अर्थगर्भित और सूक्ष्म-विचारपूर्ण होते थे। लखनऊ की उर्दू का जो आदर्श था वही उनकी हिंदी का था।

चौधरी साहब ने कई नाटक लिखे हैं। 'भारत-सौभाग्य’ कांग्रेस के अवसर पर खेले जाने के लिये सन् १८८८ में लिखा गया था। यह नाटक विलक्षण है। पात्र इतने अधिक और इतने प्रकार के है कि अभिनय दुस्साध्य ही समझिए। भाषा भी रंग-बिरंगी है––पात्रों के अनुरूप उर्दू, मारवाड़ी, बैसवाड़ी, भोजपुरी, पंजाबी, मराठी, बंगाली सब कुल मिलेगी। नाटक की कथावस्तु है बद-एकबाल-हिंद की प्रेरणा से सन् १८५७ का गदर, अँगरेजों के अधिकार की पुनः प्रतिष्ठा और नेशनल कांग्रेस की स्थापना। नाटक के आरंभ के दृश्यों में लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का भारत से प्रस्थान भारतेंदु के "पै धन बिदेस [ ४७२ ]चलि जात यह अति ख्वारी" से अधिक काव्योचित और मार्मिक है।

'प्रयाग-रामबागमन' नाटक में राम का भरद्वाज आश्रम में पहुँचकर आतिथ्य ग्रहण है। इसमें सीता की भाषा ब्रज रखी गई है 'वारागना रहस्य महानाटक (अथवा वेश्याविनोद सहाफाटक)' दुर्व्यसन-ग्रस्त समाज का चित्र खींचने के लिये उन्होंने सं॰ १९४३ से ही उठाया और थोड़ा थोड़ा करके समय समय पर अपनी 'आनंद-कादंबिनी' में निकालते रहे, पर पूरा न कर सके। इसमें जगह जगह शृंगाररस के श्लोक, कवित्त-सवैये, गजल, शेर इत्यादि रखे गए हैं।

विनोदपूर्ण प्रहसन तो अनेक प्रकार के ये अपनी पत्रिका में बराबर निकालते रहे।

सच पूछिए तो "आनंद-कादंबिनी" प्रेमघनजी ने अपने ही उमड़ते हुए विचारों और भावों को अंकित करने के लिये निकाली थी। और लोगों के लेख इसमें नहीं के बराबर रहा करते थे। इस पर भारतेंदुजी ने उनसे एक बार कहा था कि "जनाब! यह किताब नहीं कि जो अप अकेले ही इरकाम फरमाया करते हैं, बल्कि अखबार है कि जिसमें अनेक जन लिखित लेख होना आवश्यक है; और यह भी जरूरत नहीं कि सब एक तरह के लिक्खाड़ हो।" अपनी पत्रिका में किस शैली की भाषा लेकर चौधरी साहब मैदान में आए इसे दिखाने के लिये हम उसके प्रारंभ काल (संवत् १९३८) की एक संख्या से कुछ अंश नीचे देते हैं––

परिपूर्ण पावस

जैसे किसी देशाधीश के प्राप्त होने से देश का रंग ढंग बदल जाता है तद्भूप पावस के आगमन से इस सारे संसार ने भी दूसरा रंग पकड़ा, भूमि हरी-भरी होकर नाना प्रकार की वासों से सुशोभित भई, मानों मारे मोद के रोमांच की। अवस्था को प्राप्त भई। सुंदर हरित पत्रावलियों से भरित तरुगनों की सुहावनी लताएँ लिपट लिपट मानो मुग्ध मयकमुखियों को अपने प्रियतम के अनुरागालिंगन की विधि बतलातीं। इनसे युक्त पर्वत के शृंगों के नीचे सुंदरी-दरी-समूह से स्वच्छ श्वेत जल-प्रवाह ने मानो पारा की धारा और बिल्लौर की ढार को तुच्छ कर युरोल पार्श्व की हरी-भरी भूमि के, कि जो [ ४७३ ]मारे हरेपन के श्यामता की झलक दे अलक की शोभा लाई है, बीचोबीच माँग सी काढ मन माँग लिया और पत्थर की चट्टानो पर सुंबुल अर्थात् हंसराज की जटाओं को फैलना बिथरी हुई लटों के लावण्य को लाना है।"

कादंबिनी में समाचार तक कभी कभी बड़ी रंगीन भाषा में लिखे जाते थे। संवत् १९४२ की संख्या का "स्थानिक संवाद" देखिए––

"दिव्यदेवी श्री महाराणी बडहर लाख झंझट झेल और चिरकाल पर्यंत बड़े-बड़े उद्योग और मेल से दु:ख के दिन सकेल, अचल 'कोर्ट' पहाड़ ढकेल, फिर गद्दी पर बैठ गई। ईश्वर का भी क्या खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुःख की रेल पेल और कभी उसी पर सुख की कुलेल है"।

पीछे जो उनका साप्ताहिक पत्र "नागरी नीरद" निकला उसके शीर्षक भी वर्षा के खासे रूपक, हुए; जैसे, "संपादकीय-संमति-समीर", "प्रेरित-कलापिकलरव", "हास्य-हरितांकुर", "वृत्तांत बलाकावलि", "काव्यामृत, वर्षा", "विज्ञापन-बीर-बहूटियाँ", "नियम-निर्घोष"।

समालोचना का सूत्रपात हिंदी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधरी साहब ने ही किया। समालोच्य, पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण-दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्हीं ने चलाई। बाबू गदाधरसिंह ने "बंगविजेता" का जो अनुवाद किया था उसकी आलोचना कादंबिनी में पाँच पृष्ठों में हुई थी। लाला श्रीनिवासदास के "संयोगिता स्वंयवर" की बड़ी विस्तृत और कठोर समालोचना चौधरीजी ने कादंबिनी के २१ पृष्ठों में निकाली थी। उसका कुछ अंश नमूने के लिये नीचे दिया जाता है।

"यद्यपि इस पुस्तक की समालोचना करने के पूर्व इसके समालोचकों की समालोचनाओं की समालोचना करने की आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि जब हम इस नाटक की समालोचना अपने बहुतेरे सहयोगी और मित्रों को करते देखते हैं, तो अपनी ओर से जहाँ तक खुशामद और चापलूसी का कोई दरजा पाते हैं, शेष छोड़ते नहीं दिखाते।

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नाट्य-रचना के बहुतेरे दोष 'हिंदी-प्रदीप' ने अपनी 'सच्ची-समालोचना' में दिखलाए हैं। अतएव उसमें हमें विस्तार नहीं देते, हम केवल यहाँ अलग अलग उन दोषों को दिखलाना चाहते हैं जो प्रधान और विशेष हैं। तो जानना चाहिए कि यदि यह [ ४७४ ]संयोगिता स्वयंवर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयंवर का न रखना मानो इस कविता का नाश कर डालना है, क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय है।

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नाटक के प्रबंध का कुछ कहना ही नहीं, एक गँवार भी जानता होगा कि स्थान परिवर्तन के कारण गर्भांक की आवश्यकता होती है, अर्थात् स्थान के बदलने में परदा बदला जाता है और इसी पर्दे के बदलने को दूसरा गर्भांक मानते हैं, सो आपने एक ही गर्भांक में तीन स्थान बदल डाले।

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गर्जे कि इस सफहे की कुल स्पीचें 'मरचेंट आफ वेनिस' से ली गईं। पहिले तो मैं यह पूछता हूँ कि विवाह में मुद्रिका परिवर्त्तन की रीति इस देश की नहीं, बल्कि यूरोप की (है)। मैंने माना कि आप शकुंतला को दुष्यंत के मुद्रिका देने का प्रमाण देंगे, पर वो तो परिवर्त्तन न था किंतु महाराज ने अपना स्मारक-चिह्न दिया था।