हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण २ भारतेंदु हरिश्चंद्र

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भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म काशी के एक संपन्न वैश्य-कुल में भाद्र शुक्ल ५ संवत् १९०७ को और मृत्यु ३५ वर्ष की अवस्था में माघ कृष्ण ६ सं॰ १९४१ को हुई।"

संवत् १९२० में वे अपने परिवार के साथ जगन्नाथजी गए। उसी यात्रा में उनका परिचय बंग देश की नवीन साहित्यिक प्रगति से हुआ। उन्होंने बँगला में नए ढंग के समाजिक, देश-देशांतर-संबंधी, ऐतिहासिक और पौराणिक नाटक, उपन्यास आदि देखे और हिंदी में ऐसी पुस्तकों के अभाव का अनुभव किया। संवत् १९२५ में उन्होंने 'विद्यासुंदर नाटक' बँगला से अनुवाद करके प्रकाशित किया। इस अनुवाद में ही उन्होंने हिंदी-गद्य के बहुत ही सुडौल रूप का आभास दिया। इसी वर्ष उन्होंने "कविवचनसुधा" नाम की एक पत्रिका निकाली जिसमें पहले पुराने कवियों की कविताएँ छपा करती थीं पर पीछे गद्य लेख भी रहने लगे। संवत् १९३० में उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम ८ संख्याओं के उपरात "हरिश्चंद्र-चंद्रिका" हो गया। हिंदीगद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले पहले इसी 'चंद्रिका' में प्रकट हुआ। जिस प्यारी हिंदी को देश ने अपनी विभूति समझा, जिसको जनता ने उत्कंठापूर्वक दौड़कर अपनाया, उसका दर्शन इसी पत्रिका में हुआ। भारतेंदु ने नई सुधरी हुई हिंदी का उदय इसी समय से माना है। उन्होंने 'कालचक्र' नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि "हिंदी नई चाल में ढली, सन् १८७३ ई॰"।

इस "हरिश्चंद्री हिंदी" के आविर्भाव के साथ ही नए नए लेखक भी तैयार होने लगे। 'चंद्रिका' में भारतेंदुजी आप तो लिखते ही थे, बहुत से और लेखक भी उन्होंने उत्साह दे-देकर तैयार कर लिए थे। स्वर्गीय पंडित बदरीनारायण चौधरी बाबू हरिश्चंद्र के संपादन-कौशल की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। बड़ी तेजी के साथ वे चंद्रिका के लिये लेख और नोट लिखते [ ४६२ ]और मैटर को बड़े ढंग से सजाते थे। हिंदी गद्य-साहित्य के इस आरंभ काल में ध्यान देने की बात यह है कि इस समय जो थोड़े से गिनती के लेखक थे उनमें विदग्धता और मौलिकता थी और उनकी हिंदी हिंदी होती थी। वे अपनी भाषा की प्रकृति को पहचाननेवाले थे। बँगला, मराठी, उर्दू, अँगरेजी के अनुवाद का वह तूफान जो पचीस तीस वर्ष पीछे चला और जिसके कारण हिंदी का स्वरूप ही संकट में पड़ गया था, उस समय नहीं था। उस समय ऐसे लेखक न थे जो बँगला की पदावली और वाक्य ज्यों के त्यों रखते हों या अँगरेजी वाक्यों और मुहावरों का शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करके हिंदी लिखने का दावा करते हों। उस समय की हिंदी में न 'दिक् दिक् अशांति' थी, न 'काँदना, सिहरना और छल छल अश्रुपात'; न 'जीवन होड़' और 'कवि का संदेश' था न "भाग लेना" और "स्वार्थ लेना"।

मैगजीन में प्रकाशित हरिश्चंद्र का "पाँचवें पैगंबर", मुंशी ज्वालाप्रसाद का "कलिराज की सभा" बाबू तोताराम का "अद्भुत अपूर्व स्वप्न", बाबू कार्त्तिकप्रसाद का 'रेल का विकट खेल" आदि लेख बहुत दिनों तक लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। संवत् १९३१ में भारतेंदुजी ने स्त्रीशिक्षा के लिये "बालाबोधिनी" निकाली थी। इस प्रकार उन्होंने तीन पत्रिकाएँ निकालीं। इसके पहले ही संवत् १९३० में उन्होंने अपना पहला मौलिक नाटक 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नाम का प्रहसन लिखा, जिसमें धर्म और उपासना के नाम से समाज में प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र मे रहनेवालों पर भी छींटे छोड़े। भारत के प्रेम में मतवाले देशहित की चिंता में व्यग्र, हरिश्चंद्र जी पर सरकार की जो कुदृष्टि हो गई थी उसके कारण बहुत कुछ राजा साहब ही समझे जाते थे।

गद्य-रचना के अंतर्गत भारतेंदु का ध्यान पहले नाटकों की ओर ही गया। अपनी 'नाटक' नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिंदी मे नाटक उनके पहले दो ही लिखे गए थे-महाराज विश्वनाथसिंह का "आनंद रघुनंदननाटक" और बाबू गोपालचंद का "नहुष नाटक"। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ब्रजभाषा में थे। भारतेंदु-प्रणीत नाटक ये हैं[ ४६३ ]

(मौलिक)

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत-दुर्दशा, नीलदेवी, अंधेर नगरी, प्रेम-जोगिनी, सती-प्रताप (अधूरा)।

(अनुवाद)

विद्यासुंदर, पाखंड विडंबन, धनंजय-विजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्य हरिश्चंद्र, भारतजननी।

'सत्यहरिश्चंद्र' मौलिक समझा जाता है, पर हमने एक पुराना बंगला नाटक देखा है जिसका वह अनुवाद कहा जा सकता है। कहते हैं, कि 'भारतजननी' उनके एक मित्र का किया हुआ बंगभाषा में लिखित 'भारतमाता' का अनुवाद था जिसे उन्होंने सुधारते सुधारते सारा फिर से लिख डाला।

भारतेंदु के नाटकों में सब से पहले ध्यान इस बात पर जाता है कि उन्होंने सामग्री जीवन के कई क्षेत्रों से ली है। 'चंद्रावली' में प्रेम का आदर्श है। 'नीलदेवी' पंजाब के एक हिंदू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का ऐतिहासिक वृत्त लेकर लिया गया है। 'भारतदुर्दशा' में देश-दशा बहुत ही मनोरंजक ढंग से सामने लाई गई है। 'दिषस्य विषमौषधम्' देशी रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखाने के लिये रचा गया है। 'प्रेमजोगिनी' में भारतेंदु ने वर्तमान पाखंडमय धार्मिक और सामाजिक जीवन के बीच अपनी परिस्थिति का चित्रण किया है, यही उसकी विशेषता है।

नाटकों की रचना-शैली में उन्होंने मध्यम मार्ग का अवलंबन किया। न तो बँगला के नाटकों की तरह प्राचीन भारतीय शैली को एकबारगी छोड़ वे अँगरेजी नाटकों की नकल पर चले और न प्राचीन नाट्यशास्त्र की जटिलता में अपने को फँसाया। उनके बड़े नाटकों में प्रस्तावना बराबर रहती थी। पताका-स्थानक आदि का प्रयोग भी वे कहीं कहीं कर देते थे।

यद्यपि सब से अधिक रचना उन्होंने नाटकों ही की की, पर हिंदी-साहित्य के सर्वतोमुख विकास की ओर भी वे बराबर दत्तचित्त रहे। 'काश्मीरकुसुम', 'बादशाहदर्पण' ग्रादि लिखकर उन्होंने इतिहास रचना का मार्ग दिखाया। अपने पिछले दिनों में वे उपन्यास लिखने की ओर प्रवृत्त हुए थे, पर चल बसे। [ ४६५ ]शैली दूसरी। भावावेश की भाषा में प्रायः वाक्य बहुत छोटे छोटे होते है और पदावली सरल बोल-चाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित साधारण फारसी अरबी के शब्द भी कभी कभी, पर बहुत कम, आ जाते है। 'चद्रावली नाटिका' से उद्धत यह अंश, देखिए––

"झूठे झूठे झूठे! झूठे ही नहीं विश्वासघातक। क्यों इतना छाती ठोंक और हाथ उठा-उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते, चाहे जहन्नुम में पड़ते।...... भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और जाल करने को कहा था? कुछ न होता, तुम्हीं तुम रहते, बस चैन था, केवल आनंद था। फिर क्यों यह विषमय संसार किया? बखेडिए और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परले सिरे की। नाक विके, लोग झूठी कहें, अपने मारे फिरें पर वाह रे शुद्ध बेहयाई––पूरी निर्लज्जता! लाज को जूती मार के, पीट पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं लाज की हवा भी नहीं जाती हाय एक बार भी मुँह दिखा दिया होता तो मतवाले मतवाले बनें क्यों लड़ लड़कर सिर फोड़ते? काहे को ऐसे बेशरम मिलेंगे? हुकमी बेहया हो।"

जहाँ चित्त के किसी स्थायी क्षोभ की व्यंजना है और चिंतन के लिये कुछ अवकाश है वहाँ की भाषा कुछ अधिक साधु और गंभीर तथा वयि कुछ बड़े है, पर अन्वय जलिट नहीं हैं, जैसे 'प्रेमयोगिनी' में सूत्रधार के इस भाषण में––

"क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बंधु, पिता, मित्र, पुत्र, सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सौजन्य का एक मात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिंदी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चंद्र ही दुखी हो? (नेत्र में जल भरकर) हा सज्जनशिरोमणी! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना। x x x मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार और अपना, उपकार दोनों भूल जाते हो, तुम्हें इनकी निंदा से क्या? इतना चित्त, क्यों क्षुब्ध करते हो? स्मरण रखो, ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकबहिष्कृत होकर इनके सिर पर पैर रख के विहार करोगे।"

तथ्य-निरूपण या वस्तु-वर्णन के समय कभी कभी उनकी भाषा में संस्कृत [ ४६६ ] पदावली का कुछ अधिक समावेश होता है। इसका सब से बढ़ा चढ़ा उदाहरण 'नीलदेवी' के वक्तव्य में मिलता है। देखिए––

"आज बड़ा दिन है, क्रिस्तान लोगों को इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है। किंतु मुझको आज उलटा और दुख है। इसका कारण मनुष्य-स्वभाव-सुलभ ईर्षा मात्र हैं। मैं कोई सिद्ध नहीं कि राग-द्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे अँगरेजी रमणी लोग मेदसिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्या रत्नाभरण, विविध-वर्ण वसन से भूषित, क्षीण कटिदेश कसे, निज निज पतिगण के साथ प्रसन्नवदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है"।

पर यह भारतेंदु की असली भाषा नहीं। उनकी असली भाषा का रूप पहले दो अवतरणों में ही समझना चाहिए। भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती है उनके लेखों में भावों की मार्मिकता पाई जाती हैं, वाग्वैचित्र्य या चमत्कार की प्रवृत्ति नही।

यह स्मरण रखना चाहिए कि अपने समय के सब लेखको में भारतेंदु की भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी। उसमें शब्दों के रूप भी एक प्रणाली पर मिलते है और वाक्य भी सुसंबद्ध पाए जाते है। 'प्रेमघन' आदि और लेखकों की भाषा में हम क्रमशः उन्नति और सुधार पाते हैं। सं॰ १९३८ की 'आनंदकादंबिनी' का कोई लेख लेकर १० वर्ष पश्चात् के किसी लेख से मिलान किया जाये तो बहुत अंतर दिखाई पड़ेगा। भारतेंदु के लेखों में इतना अंतर नहीं पाया जाता। 'इच्छा किया', 'आज्ञा किया' ऐसे व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते है।