हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ निबंध लेखक (चंद्रधर गुलेरी)

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पं॰ चंद्रधर गुलेरी का जन्म जयपुर में एक विख्यात पंडित् घराने में २५ आषाढ़ संवत् १९४० में हुआ था। इनके पूर्वज काँगड़े के गुलेर नामक स्थान से जयपुर आए थे। पं॰ चंद्रधरजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् और अँगरेजी की उच्च शिक्षा से संपन्न व्यक्ति थे। जीवन के अंतिम वर्षों के पहले ये बराबर अजमेर के मेयो कालेज में अध्यापक रहे। पीछे काशी हिंदू-विश्वविद्यालय के ओरियंटल कालेज के प्रिंसिपल होकर आए। पर हिंदी के दुर्भाग्य से थोड़े ही दिनों में सं॰ १९७७ में इनका परलोकवास हो गया। ये जैसे धुरंधर पंडित थे वैसे ही सरल और विनोदशील प्रकृति के थे।

गुलेरीजी ने 'सरस्वती' के कुछ ही महीने पीछे अपनी थोड़ी अवस्था में ही जयपुर से 'समालोचक' नामक एक मासिक-पत्र अपने संपादकत्व में निकलवाया था। उक्त पत्र द्वारा गुलेरीजी एक बहुत ही अनूठी लेख-शैली लेकर साहित्यक्षेत्र में उतरे थे। ऐसी गंभीर और पांडित्यपूर्ण हास, जैसा इनके लेखों में रहता था, और कही देखने में न आया। अनेक गूढ़ शास्त्रीय विषयों तथा कथा-प्रसंगों की ओर विनोदपूर्ण संकेत करती हुई इनकी वाणी चलती थी। इसी प्रसंग-गर्भत्व (Allusiveness) के कारण इनकी चुटकियों का आनंद अनेक विषयों की जानकारी रखनेवाले पाठकों को ही विशेष मिलता था। इनके व्याकरण ऐसे रूखे विषय के लेख भी मजाक से खाली नहीं होते थे।

यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली की जो विशिष्टता और अर्थगर्भित वक्रता गुलेरीजी में मिलती है, वह और किसी लेखक में नहीं। इनके स्मित हास की सामग्री ज्ञान के विविध क्षेत्रों से ली गई है। अतः इनके लेखों का पूरा आनंद उन्हीं को मिल सकता है जो बहुज्ञ या कम से कम बहुश्रुत हैं। इनके [ ५२२ ]"कछुआ धरम" और "मारेसि मोहिं कुठाउँ" नामक लेखों से उद्धरण दिए जाते हैं।

(१) मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत् कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या और कहीं उठकर चला जाय। मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक कथा सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तान कर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे।

पुराने से पुराने आर्य्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे; आर्य्य सप्त-सिंधुओं को आर्य्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। विष्णु ने अग्नि, यज्ञपात्र और अरणी रखने के लिये तीन गाड़ियाँ बनाईं। उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घी से आँच दिया। ऊखल, मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह 'कारवाँ' में मूँजवत् हिंदूकुश के एक मित्र दर्रे खैबर में होकर सिंधु की एक घाटी में उतरा। पीछे से श्वान, भ्राज, अभारि, भारि, हस्त, सुहस्त, कृशन, शंढ, मर्क मारते चले आते थे। वज्र की मार से पिछली गाड़ी-भी आधी टूट गई, पर तीन लंबे डग मरने वाले विष्णु ने पीछे फिर कर नहीं देखा और न जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृज्यों के पास छोड़ आए और यहाँ 'भ्रातृव्यस्य वधाय' (सजातानां मध्यमेष्ट्याय) देवताओं को आहुति देने लगे। जहाँ जहाँ रास्ते में टिके थे वहँ वहाँ यूप खड़े हो गए। यहाँ की सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला, भूमि में ये बुलबुले चहकने लगीं।

पर ईरान के अंगूरों और गुलों का, मूँजवत् पहाड़ की सोमलता का, चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुरानै गंधर्व मारने दौड़ते। हाँ, उनमें से कोई कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएँ थी। जैसे आजकल लखपती, करोड़पती कहलाते हैं, वैसे तब "शतगु", "सहस्रगु" कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचंद अपने "नवग्वाः", "दशग्जाः" पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचनेवाले पेशावरियों की तरह कोई कोई 'सरहदी' यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते [ ५२३ ]थे। कोई आर्य्य सीमाप्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे! मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी, जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुँजडिनो से हुआ करती है। ये कहते कि गौ की एक कला में सोम बेच दो। वे कहता, वाह! सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिये कहा था कि 'याही में बेटा, और याही में बेटी' वैसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है। पर काबुली काहे को मानता? उसके पास सोम को "मनोपली" थी और इनका बिना लिए सरता नही। अंत में गौ को एक पाद, अर्ध होते होते दाम तै हो जाते।, भूरी आंखों वाली एक बरस की बछिया में सोम राजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते।

अच्छा, अब उसी पचनद में 'वाहीक' आकर बसे। अश्वघोष की फडकती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंड कमडंल लेकर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षि देश और आर्यावर्त्त की महिमा हो गई; और वह पुराना देश––'न तत्र दिवस वसेत्'। बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लुटते मारते तो थे ही, बेधरम भी कर देते थे। बस समुद्र-यात्रा बंद! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जानेवाले द्विज का प्रायश्चित्त करा कर भी संग्रह बंद! वही कछुआ धर्म! ढाल के अंदर बैठे रहो।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुःख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। संसार में विविध दुःख दिखाई पड़ने लगे। इन्हें मिटाने के लिये उपाय भी किए जाने लगे। 'दृष्ट' उपाय हुए। उनसे संतोष न हुआ तो सुनै सुनाए (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। साख्यों ने काठ कडी गिन गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पड़कर उपाय खोजा। किसी न किसी तरह कोई उपाय मिलता गया। कछुओं ने सोचा, चोर को क्या मारें, चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। लगीं प्रार्थनाएँ होने––

"मा देहि राम! जननी जठरे निवासम्"।

और यह उस देश में जहाँ सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों [ ५२४ ]का यह कहते कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस बढ़ चढ़ कर बोलें, सी-बरस अदीन होकर रहें।

हयग्रोव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। सुरपुर में अफवाह पहुँची। बस, इंद्र ने किवाड़ बंद कर दिए, आगल डाल दी। मानों अमरावती ने आँखें बंद कर ली। यह कछुआ धरम का भाई शुतुरमुर्ग धरम है।

(२) हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पटा, चाहे और बातों में हम ठगे गए, पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं करती गई। x x x x यही नहीं जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।

पहले हमें काम असुरों से पढ़ा, असिरियावालों से। उनके यहाँ 'असुर' शब्द बड़ी शान का था। 'असुर' माने प्राणवाला, जबरदरत। हमारे इंद्र को भी यह उपाधि हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। x x x पारस के पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि 'क्षत्रप' 'क्षेत्रपावन' या 'महाक्षत्रप' हमारे यहाँ रख गए और गुस्ताल्प, विस्तास्प के वजन के कृशाश्र्व, स्यावाच, वृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गए। यूनानी यवनों से काम पढ़ा तो वे, यवन की स्त्री यवनी तो नही पर यवन की लिपि 'यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गए। साथ ही मैष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँच गए। पुरानें ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि ही काम में लाते थें। वराहमिहिर की स्त्री खना चाहे यवनी रही हो, या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योति:शास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहे 'वैल्यूपैवल सिरटम' भी वेद में निकाला जाये, घर पुराने हिदू कृतघ्न और गुरुमार न थे। x x x यवन राजाओं की उपाधि 'सोटर' त्रातार का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आ लगी। x x x शंका के हमले हुए तो 'शकपार्थिव' वैयाकरणों के हाथ लगा और शक संवत् या शाका सर्वसाधारण के। हूण वक्षु (Oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आए तो कवियो को नारंगी की उपमा मिली कि ताजे मुटे हुए हूण की ठुड्डी की सो नारंगी।

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बकौल शेक्सपियर के जो मेरा धन छीनता है वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि [ ५२५ ]कुछ कहा नहीं जाता। हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। गैरों ने तो गाँठ का कुछ न दिया, पर इन्होंने तो अच्छे अच्छे शब्द छीन लिए। इसी से कहते हैं कि "मारेसि मोहिं कुठाऊँ"। अच्छे-अच्छे पद तो यो सफाई से ले लिए है कि इस पुरानी जमी हुई दूकान का दिवाली निकल गया है।

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, हिंदू कहते है। x x x और तो क्या 'नमस्ते' को वैदिक फिकरा हाथ से गया। चाहे 'जय रामजी' कह लो चाहे 'जय श्रीकृष्ण', नमस्ते मत कह बैठना। ओंकार बड़ा मांगलिक, शब्द है। कहते हैं कि पहले यह ब्रह्मा का कंठ फाड़कर निकला था।

इस द्वितीय उत्थान के भीतर हम दो ऐसे निबंध-लेखको का नाम लेते हैं। जिन्होंने लिखा तो कम है पर जिनके लेखों में भाषा की एक नई गति-विधि तथा आधुनिक जगत् की विचारधारा से उद्दीप्त नूतन भाव-भंगी के दर्शन होते हैं। 'सरस्वती' के पुराने पाठकों में से बहुतों को अध्यापक पूर्णसिंह के लेखो का स्मरण होगा। उनके तीन-चार निबंध ही उक्त पत्रिका में निकले, उनमें विचारों और भावों को एक अनूठे ढंग से मिश्रित करने वाली एक नई शैली मिलती है। उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य साहित्य में एक नई चीज थी। भाषा की बहुत कुछ उड़ान, उसकी बहुत कुछ शक्ति, 'लाक्षणिकता' में देखी जाती है। भाषा और भाव की एक नई विभूति उन्होंने सामने रखी। योरप के जीवन-क्षेत्र की अशांति से उत्पन्न अध्यात्मिकता की, किसानो और मजदूरो की महत्व-भावना की जो लहरे उठीं उनमें वे बहुत दूर तक बहे। उनके निबंध भावात्मक कोटि मे ही आएँगे यद्यपि उनकी तह में क्षीण विचारधारा स्पष्ट लक्षित होती है। इस समय उनके तीन निबंध हमारे सामने हैं "आचरण की सभ्यता" "मजदूरी और प्रेम" और "सच्ची वीरता"। यहाँ हम उनके निबधों से कुछ अंश उद्धृत करते हैं––

'आचरण की सभ्यता' से

"पश्चिमी ज्ञान से मनुष्य मात्र को लाभ हुआ हैं। ज्ञान का वह सेहरा––बाहरी सभ्यता की अंतवर्त्तनी आध्यात्मिक सभ्यता का वह मुकुट––जो आज मनुष्य जाति ने पहन रखा है, युरोप को कदापि प्राप्त न होता, यदि धन और तेज को एकत्रित करने के [ ५२६ ]लिये युरोप-निवासी इतने कमीने न बनते। यदि सारे पूरबी जगत् में इस महत्ता के लिये अपनी शक्ति से अधिक भी चंदा देकर सहायता की तो बिगड़ क्या गया? एक तरफ जहाँ युरोप के जीवन का एक अंश असभ्य प्रतीत होता है––कमीना और कायरता से भरा मालूम होता है––वहीं दूसरी और युरोप के जीवन का वह भाग जहाँ विद्या और दान का सूर्य चमक रहा है, इतना महान् है कि थोड़े ही समय में पहले अंश को मनुष्य अवश्य भूल जायँगे।

x x x आचरण की सभ्यता की देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक। x x x जब पैगंबर मुहम्मद ने ब्राह्मण को चीरा और उसके मौन आचरण को नंगा किया तब सारे मुसलमानों को आश्चर्य हुआ कि काफ़िर में मौमिन किस प्रकार गुप्त था। जय शिव ने अपने हाथ से ईसा के शब्दों को परे फेक कर उसकी आत्मा के नंगे दर्शन कराए तो हिंदू चकित हो गए कि वह नग्न करने अथवा नग्न होनेवाला उनका कौन सा शिव था।"

'मज़दूरी और प्रेम'से

"जब तक जीवन के अरण्य में पादरी, मौलवी, पंडित और साधु-संन्यासी हल, कुदाल और खुरपा लेकर मज़दूरी न करेंगे तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि अनंत काल बीत जाने तक मलिन मानसिक जुआ खेलती रहेगी। उनका चितन बासी, उनकी ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनका विश्वास बासी और उनका खुदा भी बासी हो गया है।"

इस कोटि के दूसरे लेखक हैं बाबू गुलाबराय, एम॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰। उन्होंने विचारात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार के निबंध थोड़े-बहुत लिखे हैं––जैसे, 'कर्तव्य संबंधी रोग, निदान और चिकित्सा', 'समाज और कर्तव्य, पालन', 'फिर निराशा क्यों'? 'फिर निराशा क्यों' एक छोटी सी पुस्तक है जिसमें कई विषयों पर बहुत छोटे छोटे आभासपूर्ण निबंध है। इन्हीं में से एक 'कुरूपता' भी है जिसका थोड़ा सा अंश नीचे दिया जाता है––

"सौंदर्य की उपासना करना उचित है सही, पर क्या उसी के साथ साथ कुरूपता घृणास्पद वा निंद्य है? नहीं, सौंदर्य का अस्तित्व ही कुरूपता के ऊपर निर्भर है। सुंदर [ ५२७ ]पदार्थ अपनी सुंदरता पर चाहे जितना मान करे, किंतु असुंदर पदार्थ की स्थिति में ही वह सुंदर कहलाता है। अंधों में काना ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

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सत्ता-सागर में दोनों की स्थिति है। दोनों ही एक तारतम्य में बँधे हुए हैं। दोनों ही एक दूसरे में परिणत होते रहते हैं। फिर कुरूपता घृणा का विषय क्यों? रूपहीन वस्तु से तभी तक घृणा है जब तक हम अपनी आत्मा को संकुचित बनाए हुए बैठे हैं। सुंदर वस्तु को भी हम इसी कारण सुंदर कहते हैं कि उसमें हम अपने आदर्शों की झलक देखते हैं। आत्मा के सुविस्तृत और औदार्य्यपूर्ण हो जाने पर सुंदर और असुंदर दोनों ही समान प्रिय बन जाते हैं। कोई माता अपने पुत्र को कुरूपवान् नहीं कहती। इसका यही कारण है कि वह अपने पुत्र में अपने आपको ही देखती है। जब हम सारे संसार में अपने आपको ही देखेंगे तब हमको कुरूपवान् भी रूपवान् दिखाई देगा।"

अब निबंध का प्रसंग यहीं समाप्त किया जाता है। खेद है कि समास-शैली पर ऐसे विचारात्मक निबंध लिखनेवाले, जिनमें बहुत ही चुस्त भाषा के भीतर जिसमें एक पूरी अर्थ-परंपरा कसी हो, अधिक लेखक हमें न मिले।