हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ निबंध लेखक (महावीरप्रसाद द्विवेदी)

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मोटे अक्षर

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पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म दौलतपुर (जि॰ रायबरेली) में वैशाख शुक्ल ४ सं॰ १९२७ को और देहावसान पौष कृष्ण ३० सं॰ १९९५ को हुआ।

द्विवेदीजी ने सन् १९०३ में "सरस्वती" के संपादन का भार लिया। तब से अपना सारा समय उन्होंने लिखने में ही लगाया। लिखने की सफलता वे इस बात में मानते थे, कि कठिन से कठिन विषय भी ऐसे सरल रूप में रख दिया जाए कि साधारण समझने वाले पाठक भी उसे बहुत कुछ समझ जायँ। कई उपयोगी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने फुटकल लेख भी बहुत लिखे। पर इन लेखों में अधिकतर लेख 'बातों के संग्रह' के रूप में ही है। भाषा के नूतन शक्ति-चमत्कार के साथ नए नए विचारों की उद्भावनावाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं। स्थायी निबंधों की श्रेणी में दो ही चार लेख, जैसे 'कवि और कविता', 'प्रतिभा' आदि आ सकते हैं। पर ये लेखनकला या सूक्ष्म विचार की दृष्टि से लिखे नहीं जान पड़ते। 'कवि और कविता' कैसा गंभीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इसमें इसी विषय की बहुत मोटी मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गई हैं, जैसे––

"इससे स्पष्ट है कि किसी किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती हैं, ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी। वह निरर्थक नहीं हो सकती। उससे समाज को अवश्य कुछ न कुछ लाभ पहुँचता है। [ ५११ ]"कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि इसे सुनकर कुछ असर न हो। कविता से दुनिया में आज तक बड़े बड़े काम हुए हैं। x x x कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश जरूर रहता है। असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य लोगो को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगो को बहुत। x x x संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदीजी के लेख या निबंध विचारात्मक श्रेणी में आएँगे। पर विचारों की वह गूढ-गुफित परंपरा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचारपद्धति पर दौड़ पड़े। शुद्ध विचारात्मक निबंधो का चरम उत्कर्ष वहीं कहा जा सकता है जहाँ एक एक पैराग्राफ में विचार दबा दबाकर कसे गए हो और एक एक वाक्य किसी संबंध विचार-खंड को लिए हो। द्विवेदीजी के लेखो को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता हैं कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिये लिख रहा है। एक एक सीधी बात कुछ हेर फेर––कहीं कहीं केवल शब्द के ही––के साथ पाँच छः तरह से पाँच छः वाक्यों में कही हुई मिलती है। उनकी यही प्रवृत्ति उनकी गद्य-शैली निर्धारित करती हैं। उनके लेखो में छोटे-छोटे वाक्यो का प्रयोग अधिक मिलता है। नपे-तुले वाक्य को कई बार शब्दो के 'कुछ' हेर-फेर के साथ कहने का ढंग वही है जो वाद या संवाद में बहुत शान होकर समझाने बुझाने के काम में लाया जाता है। उनकी यह व्यास-शैली विपक्षी को कायल करने के प्रयत्न में बड़े काम की है।

इस बात के उनके दो लेख "क्या हिदी नाम की कोई भाषा ही नहीं" (सरस्वती सन् १९१३) और "आर्यसमाज का कोंप" (सरस्वती १९१४) अच्छे उदाहरण है। उनके कुछ अंश नीचे दिए जाते हैं––

(१) आप कहते हैं कि प्राचीन भाषा मर चुकी, और उसे मरे तीन सौ वर्ष हुए। इस पर प्रार्थना है कि न वह कभी मरी और न उसके मरने के कोई लक्षण ही दिखाई देते हैं। यदि आप कमी अगिरा, मथुरा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी और इटावे तशरीफ ले जाँय तो कृपा करके वहाँ के एक आध अपर प्राइमरी या मिडिल स्कूल का मुआइना न [ ५१२ ]सही तो मुलाहजा अवश्य ही करें। ऐसा करने से आपको मालूम हो जाएगा कि जिसे आप मुर्दा समझ रहे हैं, वह अब तक इन जिलों में बोली जाती है। अगर आपको इस 'भाखा' नामक भाषा को मरे तीन सौ बर्ष हुए तो कृपा करके यह बताइए कि श्रीमान् के ही के सधर्मी काजिम अली आदि कवियों ने किस भाषा में कविता की है। १७०० ईसवी से लेकर ऐसे अनेक मुसलमान कवि हो चुके है, जिन्होंने भाषा में बड़े-बड़े ग्रंथ बनाए है। हिंदू-कवियों की ब्याप ख़बर न रखने तो कोई विशेष ख्याति की बात न थी।

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आनरेवल असगर अली खां की पांचवी उक्ति यह है, उर्दू या हिंदुस्तान ही यहां की सार्वदेशिक भाषा है। आपके इन कथन की सच्चाई की जांच समाज में ही हो सकती है। ऊपर हाला साहब के दीवान और दूसरे साहित्य-सम्मेलन में सभापति के भाषण से जो अवतरण दिए गए हैं उन्हें खाँ साहब बारी-बारी से एक बंगाली, एक मदरासी, एक गुजराती और एफ महाराष्ट्र को, जो इन प्रांत के निवासी न हों, दिखायें और उनसे यह कहे कि इनका मतलब हमें समझा दीजिए। बस तत्काल ही आपको मालूम हो जाएगा कि दो में से कौन भाषा अन्य प्रांतवाली अधिक समझते हैं।

श्रीयुत असगर अली खाँ के इस कथन से कि "Urdu or Hindustari is the lingua france of the country" एक भेद की बात खुल गई। वह यह कि आप लोगों की राय में यह हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, उर्दू ही का एक नाम है। अतएव समझना चाहिए कि जब हिंदुस्तानी भाषा के प्रयोग पर जोर दिया जाता है तब "हिंदुस्तानी" नाम की आड़ में उर्दू ही का पक्ष लिया जाता है, और बेचारी हिंदी के बहिष्कार की चेष्टा की जाती है।

(२) जिस समाज के विद्यार्थी बच्चों तक को अपने दोषों पर धूल डालकर दूसरों को धमकाने और बिना पूछे ही उन्हे "नेक सलाह" देने का अधिकार है उसके बड़ों और विद्वानों के पराक्रम की सीमा कौन निर्दिष्ट कर सकेगा?

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हमारे पास इससे भी बढ़कर कुतूहलजनक पत्र आए हैं। बनावटी या सच्चा नाम देकर बी॰ सिंह नाम के एक महाशय ने आगरे से एक पोस्टकार्ड हमें उर्दू में भेजा है। उसमें अनेक दुर्वचनों और अभिशापों के अनंतर इस बात पर दुःख प्रकट किया गया है। [ ५१३ ]कि राज्य अँगरेजी है, अन्यथा हमारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाता। भाई सिंह दुःख मत करो। आर्यसमाज की धर्मोन्नति होती हो तो––

"कर कुठार, आगे यह सीसा"

पं॰ माधवप्रसाद मिश्र का जन्म पंजाब के हिसार जिले में भिवानी के पास कूँगड़ नामक ग्राम में भाद्र शुक्ल १३ संवत् १९२८ को और परलोकवास उसी ग्राम में प्लेग से चैत्र कृष्ण ४ संवत् १९६४ को हुआ। ये बड़े तेजस्वी सनातनधर्म के कट्टर समर्थक, भारतीय संस्कृति की रक्षा के सतत अभिलाषी विद्वान् थे। इनकी लेखनी में बड़ी शक्ति थी। जो कुछ ये लिखते थे बड़े जोश के साथ लिखते थे, इससे इनकी शैली बहुत प्रगल्भ होती थी। गौड़ होने के कारण मारवाड़ियों से इनका विशेष लगाव था और उनके समाज का सुधार ये हृदय से चाहते थे, इसी से "वैश्योपकारक" पत्र का संपादन-भार कुछ दिन इन्होंने अपने ऊपर लिखा था। जिस वर्ष "सरस्वती" निकली (सं॰ १९५७) उसी वर्ष प्रसिद्ध उपन्यासकार बा॰ देवकीनंदन खत्री की सहायता से काशी से इन्होंने "सुदर्शन" नामक पत्र निकलवाया जो सवा दो वर्ष चलकर बंद हो गया। इसके संपादनकाल में इन्होंने साहित्य-संबंधी बहुत से लेख, समीक्षाएँ और निबंध लिखे। जोश में आने से ये बड़े शक्तिशाली लेख लिखते थे। 'समालोचक' संपादक पं॰ चंद्रधर शर्मा गुलेरीजी ने इसी से एक बार लिखा था कि––

"मिश्रजी बिना किसी अभिनिवेश के लिख नहीं सकते। यदि हमें उनसे लेख पाने है तो सदा एक न एक टटा उनसे छेड़ ही रक्खा करें।"

इसमें संदेह नहीं कि जहाँ किसी ने कोई ऐसी बात लिखी जो इन्हे सनातनधर्म के संस्कारों के विरुद्ध अथवा प्राचीन ग्रंथकारो और कवियों के गौरव को कम करनेवाली लगी कि इनकी लेखनी चल पड़ती थी। पाश्चात्य संस्कृताभ्यासी विद्वान् जो कुछ कच्चा पक्का मत यहाँ के वेद, पुराण, साहित्य आदि के संबंध में प्रकट किया करते थे इन्हे खल जाते थे और उनका विरोध ये डटकर करते थे। उस विरोध में तर्क, आवेश और भावुकता सब का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। 'वेबर का भ्रम' इसी झोक में लिखा गया था। पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी [ ५१४ ]ने अपनी 'नैषध-चरित-चर्चा' में नैषध के कई एक बड़ी दूर की सूझवाले अत्युक्तिपूर्ण पद्यों को अस्वाभाविक और सुरुचि-विरुद्ध कह दिया। फिर क्या था, ये एकबारगी फिर पड़े और उनकी बातों का अपने ढंग पर उत्तर देते हुए लगे हाथों पं॰ श्रीधर पाठक के 'गुनवंत हेमंत' नाम की एक कविता की जिसकी द्विवेदी जी ने बड़ी प्रशंसा की थी, नीरसता और इतिवृत्तात्मकता भी दिखाई। यह विवाद कुछ दिन चला था।

मिश्रजी का स्वदेश-प्रेम भी बहुत गंभीर था। ये संस्कृत के और पंडितो के समान देशदशा के अनुभव से दूर रहनेवाले व्यक्ति न थे। राजनीतिक आंदोलनों के साथ इनका हृदय बराबर रहता था। जब देशपूज्य मालवीयजी ने छात्रों को राजनीतिक आदोलनों से दूर रहने की सलाह दी थी तब इन्होंने एक अत्यंत क्षोभ पूर्ण "खुली चिट्ठी" उनके नाम छापी थी। देशदशा की इस तीव्र अनुभूति के कारण इन्हे श्रीधर पाठक की कविताओं में एक बात बहुत खटकी। पाठकजी ने जहाँ ऋतुशोभा या देशछटा का वर्णन किया है। वहाँ केवल सुख, आनंद और प्रफुल्लता के पक्ष पर ही उनकी दृष्टि पड़ी है, देश के अनेक दीन-दुखियों के पेट की ज्वाला और कंकालवत् शरीर पर नहीं।

मिश्रजी ने स्वामी विशुद्धानदजी के बड़े जीवन-चरित्र के अतिरिक्त और भी बीसों व्यक्तियों के छोटे छोटे जीवन-चरित्र लिखे जिनमें कुछ संस्कृत के पुराने ढाँचे के विद्वान् तथा सनातन धर्म के सहायक सेठ साहूकार आदि हैं। 'सुदर्शन' में इनके लेख प्रायः सब विषयों पर निकलते थे, जैसे––पर्वत्यौहार, उत्सव, तीर्थस्थान, यात्रा, राजनीति इत्यादि। पर्वत्योहारो तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में पड़नेवाले उत्सवों पर निबंध लिखने की जो परंपरा भारतेंदु के सहयोगियों ने चलाई थीं वह इस द्वितीय उत्थान में आकर इन्हीं पर समाप्त हो गई। हाँ, संवाद-पत्रों के होली, दीवाली के अंकों में उसका आभास बना रहा। लोकसामान्य स्थायी विषयों पर मिश्रजी के केवल दो लेख मिलते है––'धृति' और 'क्षमा'।

द्वितीय उत्थानकाल में इस प्रभावशाली लेखक के उदय की उज्ज्वल आभा हिंदी साहित्य-गगन में कुछ समय के लिये दिखाई पड़ी, पर खेद है कि अकाल हीं विलीन हो गई। पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के मार्मिक और ओजस्वी [ ५१५ ]लेखों को जिन्होंने पढ़ा होगा उनके हृदय में उनकी मधुर स्मृति अवश्य बनी होगी। उनके निबंध अधिकतर भावात्मक होते थे और धारा-शैली पर चलते थे। उनमें बहुत सुंदर मर्मपथ का अनुसरण करती हुई स्निग्ध वाग्धारा लगातार चली चलती थी। इनके गद्य के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––

(क) "आर्य-वंश के धर्म, कर्म अर भक्ति-भाव का वह प्रबल प्रवाह जिसने एक दिन जगत् के बड़े बड़े सन्मार्ग-विरोधी भूघरों का दर्प दलन कर उन्हें रज में परिणत कर दिया था और इस परम पवित्र वंश का वह विश्वव्यापक प्रकाश जिसने एक समय जगत् में अंधकार का नाम तक न छोड़ा था, अब कहाँ है? इस गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यहीं उत्तर मिलता है कि सब भगवान् महाकाल के पेट में समा गया। x x x जहाँ महा महा महीधर लुढ़क जाते थे और अगाध अंतलस्पर्शी जल था वहाँ अब पत्थरों में दबी हुई। एक छोटी सी किंतु सुशीतल वारिधार बह रही है। जहाँ के महा प्रकाश से दिग्दिगत उद्भासित हो रहे थे वहाँ अब एक अंधकार से घिरा हुआ स्नेहशून्य प्रदीप टिमटिमा रहा है। जिससे कभी-कभी यह भूभाग प्रकाशित हो जाता है। x x x भारतवर्ष की सुखशांति और भारतवर्ष का प्रकाश अब केवल राम नाम पर अटक रहा है। x x x पर जो प्रदीप स्नेह से परिपूर्ण नहीं है तथा जिसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है, वह कब तक सुरक्षित रहेगा?"

(ख) अब रही आपके जानने की बात, सो जहाँ तक आप जानते हैं वहाँ तक तो सब सफाई है! आप जहाँ तक जानते हैं, महाकवि श्रीहर्ष के काव्य में 'सर्वत्र गाँठै ही गाँठै हैं और पं॰ श्रीधरजी की कविता 'सर्वतो भाव से प्रशंसित' है। आप जहाँ तक जानते हैं, आप संस्कृत, हिंदी, बँगला आदि इस देश की सब भाषाएँ जानते है और हम वेबर साहब की करतूत से भी अनभिज्ञ हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, श्रीहर्ष, 'लाल बुझक्कड़ को भी मात करता है' और वेबर साहब याझवल्क्य के समान ठहरता है? आप जहाँ तक जानते हैं, हमारे तत्वदशी पंडितों ने कुछ न लिखा और अँगरेजों ने इतना लिखा कि भारतवासी उनके ऋणी हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, नैषध की प्रशंसा तो सब पक्षपाती पंडितों ने की है और निंदा दुराग्रह-रहित पुरुषों ने की है। आप जहाँ तक जानते हैं डाक्टर बूलर, हाल आदि साहबों ने जो कुछ लिखा है युक्तिपूर्वक लिखा है और मिश्र राधाकृष्ण ने युक्तिशून्य। आप जहाँ तक जानते हैं, प्रोफेसर वेबर की पुस्तक का अभी तक अनुवाद नहीं हुआ और बेवर साहब का ज्ञान हमें 'नैषध-चरित-चर्चा' से हुआ है। [ ५१६ ](ग) लोग केवल घर ही के नष्ट होने पर 'मिट्टी हो गया' नहीं कहते हैं और और जगह भी इसका प्रयोग करते हैं। किसी का जब बड़ा भारी-श्रम विफल हो जाय तब कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। किसी का धन खो जाय, मान-मर्यादा भंग हो जाय, प्रभुता और क्षमता चली जाय तो कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। इससे जाना गया कि नष्ट होना ही मिट्टी होता है। किंतु मिट्टी को इतना बदनाम क्यों किया जाता है? अकेली मिट्टी ही इस दुर्नाम को क्यों धारण करती है? क्या सचमुच मिट्टी इतनी निकृष्ट है? और क्या केवल मिट्टी ही निकृष्ट हैं, हम निकृष्ट नहीं हैं? भगवती वसुंधरे! तुम्हारी 'सर्वसहा' नाम यथार्थ है।

अच्छा मां! यह तो कहो तुम्हारा नाम 'वसुंधरा' किसने रखा? यह नाम तो उस समय का हैं। यह नाम व्यास, वाल्मीकि, पाणिनि, कात्यायन आदि सुसंतानों का दिया हुआ है। जाने वे तुम्हारे सुपुत्र कितने आदर से, कितनी श्लाघा से और श्रद्धा से तुम्हें पुकारते थे।

उपन्यासों से कुछ छुट्टी पाकर बाबू गोपालरास (गहमर निवासी) पत्र-पत्रिकाओं में कभी कभी लेख और निबंध भी दिया करते थे। उनके लेखो और निबधों की भाषा बड़ी चंचल, चटपटी, प्रगल्भ और मनोरंजक होती थी। विलक्षण रूप खड़ा करना उनके निबंधों की विशेषता है। किसी अनुभूत बात का चरम दृश्य दिखानेवाले ऐसे विलक्षण और कुतूहलजनक चित्रों के बीच से वे पाठक को ले चलते हैं कि उसे एक तमाशा देखने का सा आनंद आता है। उनके "ऋद्धि और सिद्धि" नामक निबंध का थोड़ा सा अंश उद्ददृत किया जाता है––

"अर्थ या धन अलाउद्दीन का चिराग है। यदि यह हाथ में है तो तुम जो चाहो पा सकते हो। यदि अर्थ के अधिपति हो तो ब्रज मूर्ख होने पर भी विश्वविद्यालय तुम्हे डी॰ एल॰ की उपाधि देकर अपने नई वन्य समझेगा। x x x बरहे पर चलनेवाला नन्हें हाथ में बाँस लिए हुए रास्ते पर दौड़ते समय, 'हाय पैसा, हाय पैसा' करके चिल्लाया करता है। दुनिया के सभी आदमी वैसे ही नट हैं। मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि खुद पृथ्वी भी अपने रास्ते घर 'हाय पैसा, हाय पैसा' करती हुई सूर्य की परिक्रमा कर रही है।

काल माहाल्य और दिनों के फेर से ऐश्वर्यशाली भगवान् ने तो अब स्वर्ग से उतरकर [ ५१७ ]दरिद्र के घर शरण ली है और उनके सिंहासन पर अर्थ जा बैठा है। x x x अर्थ ही इस युग का परब्रह्म है। इस ब्रह्मवस्तु के बिना विश्व-संसार का अस्तित्व नहीं रह सकता। यही चक्राकार चैतन्यरूप कैशवाक्स में प्रवेश करके संसार को चलाया करते हैं। x x x साधकों के हित के लिये अर्थनीति-शास्त्र में इसकी उपासना की विधि लिखी है। x x x x बच्चों की पहली पोथी में लिखा है––"बिना पूछे दूसरे का माल लेना चोरी कहलाता है।" लेकिन कहकर जोर से दूसरे का धन हड़प कर लेने से क्या कहलाता है, यह उसमें नहीं लिखा है। मेरी राय में यही कर्मयोग का मार्ग है।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि उद्धृत अंश में बंगभाषा के प्रसिद्ध ग्रंथकार बंकिमचंद्र की शैली का पूरा आभास है।