हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ समालोचना

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समालोचना

समालोचना का उद्देश्य हमारे यहाँ गुण-दोष विवेचन ही समझा जाता रहा है। संस्कृत-साहित्य में समालोचना का पुराना ढंग यह था कि जब कोई आचार्य या साहित्य-मीमांसक कोई नया लक्षण-ग्रंथ लिखता था तब जिन काव्य-रचनाओं को वह उत्कृष्ट समझता था उन्हें रस, अलंकार आदि के उदाहरणों के रूप में उद्धत करता था और जिन्हें दुष्ट समझता था उन्हें दोषों के उदाहरण में देता था। फिर जिसे उसकी राय नापसंद होती थी वह उन्हीं उदाहरणों में से अच्छे ठहराए हुए पद्यों में दोष दिखाता था और बुरे ठहराए हुए पद्यों के दोष का परिहार करता था[१]। इसके अतिरिक्त जो दूसरा उद्देश्य [ ५२८ ] समालोचना का होता है––अर्थात् कवियों की अलग-अलग विशेषताओं का दिग्दर्शन––उसकी पूर्ति किसी कवि की स्तुति में दो-एक श्लोकबद्ध उक्तियाँ कहकर ही लोग मान लिया करते थे, जैसे––

निर्गतासु न वा कस्य कालिदामस्य सूक्तिषु।
प्रीतिः मधुरसांद्रासु मंजरीष्विव जायते॥



उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम्।
नेषधे पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥

किसी कवि या पुस्तक के गुणदोष या सुक्ष्म विशेषताएँ दिखाने के लिये एक दूसरी पुस्तक तैयार करने की चाल हमारे यहाँ न थी। योरप में इसकी चाल खूब चली। वहाँ समालोचना काव्य-सिद्धांत-निरूपण से स्वतंत्र एक विषय ही हो गया। केवल गुण-दोष दिखाने वाले लेख या पुस्तकों की धूम तो थोड़े ही दिनों रहती थी, पर किसी कवि की विशेषताओं का दिग्दर्शन करानेवाली, उसकी विचारधारा में डूबकर उसकी अंतर्वृत्तियों की छानबीन करानेवाली पुस्तक, जिसमें गुणदोष-कथन भी आ जाता था, स्थायी साहित्य में स्थान पाती थी। समालोचना के दो प्रधान मार्ग होते हैं––निर्णात्मक (Judicial Method) व्याख्यात्मक (Inductive Criticism)[२]। निर्णयात्मक आलोचना किसी रचना के गुण-दोष निरूपित कर उसका मूल्य निर्धारित करती है। उसमें लेखक या कवि की कहीं प्रशंसा होती हैं, कहीं निंदा। व्याख्यात्मक आलोचना किसी ग्रंथ में आई हुई बातों को एक व्यवस्थित रूप में सामने रखकर उनका अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करती है। यह मूल्य निर्धारित करने नहीं जाती। ऐसी आलोचना अपने शुद्ध रूप में काव्य-वस्तु ही तक परिमित रहती है अर्थात् उस के अंग-प्रत्यंग की विशेषताओं को ढूंढ़ निकालने और भावों की व्यवच्छेदात्मक व्याख्या करने में तत्पर रहती है। पर इस व्याख्यात्मक समालोचना के अंतर्गत बहुत सी बाहरी बातों का भी विचार होता [ ५२९ ]है––जैसे, सामाजिक, राजनीतिक, सांप्रदायिक परिस्थिति आदि का प्रभाव। ऐसी समीक्षा को 'ऐतिहासिक समीक्षा' (Historical Criticism) कहते हैं। इसका उद्देश्य यह निर्दिष्ट करना होता है कि किसी रचना का उसी प्रकार की और रचनाओं से क्या संबंध है और उसका साहित्य की चली आती हुई परंपरा में क्या स्थान है। बाह्य पद्धति के अंतर्गत ही कवि के जीवनक्रम और स्वभाव आदि के अध्ययन द्वारा उसकी अंतर्वृत्तियों का सूक्ष्म अनुसंधान भी है, जिसे "मनोवैज्ञानिक आलोचना" (Psychological Criticism) कहते है। इनके अतिरिक्त दर्शन, विज्ञान आदि की दृष्टि से समालोचना की और भी कई पद्धतियाँ हैं और हो सकती हैं। इस प्रकार समालोचना के स्वरूप का विकास योरप में हुआ।

केवल निर्णयात्मक समालोचना की चाल बहुत कुछ उठ गई है। अपनी भली बुरी रुचि के अनुसार कवियों की श्रेणी बाँधना, उन्हें नंबर देना अब एक बेहूदः बात समझी जाती है[३]

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे हिंदी-साहित्य में समालोचना पहले पहल केवल गुण-दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ। लेखों के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना उपाध्याय पंडित बदरीनायण चौधरी ने अपनी "आनंदकादंबिनी" में शुरू की। लाला श्रीनिवासदास के "संयोगिता स्वयंवर" नाटक की बड़ी विशद और कड़ी आलोचना, जिसमें दोषों का उद्घाटन बड़ी बारीकी से किया गया था, उक्त पत्रिका में निकली थी। पर किसी ग्रंथकार के गुण अथवा दोष ही दिखाने के लिये कोई पुस्तक भारतेंदु के समय में न निकली थी। इस प्रकार की पहली पुस्तक पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की "हिंदी कालिदास की आलोचना" थी जो इस द्वितीय उत्थान के आरंभ में ही निकली। इसमें लाला सीताराम बी॰ ए॰ के अनुवाद किए हुए नाटकों के भाषा तथा भाव संबंधी दोष बड़े विस्तार से दिखाए गए हैं। यह अनुवादों की समालोचना थी, [ ५३० ] अतः भाषा की त्रुटियों और मूल भाव के विपर्य्यय आदि के आगे जा ही नहीं सकती थी। दूसरी बात यह कि इसमें दोषों का ही उल्लेख हो सका, गुण नहीं ढूँढ़े गए।

इसके उपरांत द्विवेदीजी ने कुछ संस्कृत कवियों को लेकर दूसरे ढंग की––अर्थात् विशेषता-परिचायक––समीक्षाएँ भी निकालीं। इस प्रकार की पुस्तकों में "विक्रमांकदेव-चरितचर्चा" और "नैषधचरित-चर्चा" मुख्य है। इनमें कुछ तो पंडित-मंडली में प्रचलित रूढ़ि के अनुसार चुने हुए श्लोकों की खूबियों पर साधुवाद है (जैसे, क्या उत्तम उत्प्रेक्षा है!) और कुछ भिन्न-भिन्न विद्वानों के मतों का संग्रह। इस प्रकार की पुस्तकों से संस्कृत न जानने वाले हिंदी-पाठकों को दो तरह की जानकारी हासिल होती है––संस्कृत के किसी कवि की कविता किस ढंग की है, और वह पंडितों और विद्वानों के बीच कैसी समझी जाती है। द्विवेदीजी की तीसरी पुस्तक "कालिदास की निरंकुशता" में भाषा और व्याकरण के वे व्यतिक्रम इकट्ठे किए गए हैं जिन्हें संस्कृत के विद्वान् लोग कालिदास की कविता में बताया करते हैं। यह पुस्तक हिंदी वालों के या संस्कृतवालों के फायदे के लिये लिखी गई, यह ठीक ठीक नहीं समझ पड़ता। जो हो, इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्लेवालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।

यद्यपि द्विवेदीजी ने हिंदी के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नई निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिंदी-साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदीजी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण-विरुद्ध और ऊटपटाँग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती। उनके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया।

कवियों का बड़ा भारी इति-वृत्त-संग्रह (मिश्रबंधु-विनोद) तैयार करने के पहले मिश्रबंधुओं ने "हिंदी नवरत्न" नामक समालोचनात्मक ग्रंथ निकाला था [ ५३१ ] जिसमें सबसे बढ़कर नई बात यह थी कि 'देव' हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं। हिंदी के पुराने कवियों को समालोचना के लिये सामने लाकर मिश्रबंधुओं ने बेशक बड़ा जरूरी काम किया। उनकी बातें समालोचना कही जा सकती हैं या नहीं, यह दूसरी बात है। रीतिकाल के भीतर यह सूचित किया जा चुका कि हिंदी में साहित्य-शास्त्र का वैसा निरूपण नही हुआ जैसा संस्कृत में हुआ। हिंदी के रीति-ग्रंथों के अभ्यास से लक्षणा, व्यंजना, रस आदि के वास्तविक स्वरूप की सम्यक् धारणा नहीं हो सकती। कविता की समालोचना के लिये यह धारणा कितनी आवश्यक है, कहने की जरूरत नहीं। इसके अतिरिक्त उच्च कोटि की आधुनिक शैली की समालोचना के लिये विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म अन्वीक्षण-बुद्धि और मर्मग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। "कारो कृतहि न मानै" ऐसे-ऐसे वाक्यों को लेकर यह राय जाहिर करना कि "तुलसी कभी राम की निंदा नहीं करते, पर सूर ने दो-चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है," साहित्य-मर्मज्ञों के निकट क्या समझा जायगा?

"सूरदास प्रभु वै अति खोटे", "कारो कृतहि न मानै" ऐसे ऐसे वाक्यों पर साहित्यिक दृष्टि से जो थोड़ा भी ध्यान देगा, वह जान लेगा कि कृष्ण न तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, न काले कलूटे कृतघ्न। पहला वाक्य सखी की विनोद या परिहास की उक्ति है, सरासर गाली नहीं है। सखी का यह विनोद हर्ष का ही एक स्वरूप है जो उस सखी का राधाकृष्ण के प्रति रति-भाव व्यंजित करता है। इसी प्रकार दूसरा वाक्य विरहाकुल गोपी का वचन है जिससे कुछ विनोद-मिश्रित अमर्ष व्यंजित होता है। यह अमर्ष यहाँ विप्रलंभ शृंगार में रतिभाव का ही व्यंजक है।[४] इसी प्रकार कुछ 'दैन्य' भाव की उक्तियों को लेकर तुलसीदासजी खुशामदी कहे गए हैं। 'देव' को बिहारी से बड़ा सिद्ध करने के लिये बिहारी में बिना दोष के दोष ढूँढ़े गए हैं। 'सक्रोन' को 'संक्रांति' का (संक्रमण तक ध्यान कैसे जा सकता था?) अपभ्रंश समझ आप लोगों ने उसे बहुत बिगाड़ा हुआ शब्द माना है। 'रोज' शब्द 'रुलाई' के अर्थ में कबीर, जायसी आदि पुराने कवियों में न जाने कितना [ ५३२ ]जगह आया है और आगरे आदि के आस-पास अब तक बोला जाता है, पर वह भी 'रोजा' समझा गया हैं। इसी प्रकार की वे-सिर-पैर की बातों से पुस्तक भरी है। कवियों की विशेषताओं के मार्मिक निरूपण की आशा से जो इसे खोलेगा, वह निराश ही होगा।

इसके उपरांत पंडित् पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी पर एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक निकाली। इसमें उस साहित्य-परंपरा को बहुत ही अच्छा उद्घाटन है जिसके अनुकरण पर बिहारी ने अपनी प्रसिद्ध सतसई की रचना की। 'आर्यासप्तशती' और 'गाथासप्तशती' के बहुत से पद्यों के साथ बिहारी के दोहों का पूरा मेल दिखाकर शर्मा जी ने बड़ी विद्वत्ता के साथ एक चली आती हुई साहित्यिक परंपरा के बीच बिहारी को रखकर दिखाया। किसी चली आती हुई साहित्यिक परंपरा का उद्घाटन साहित्य-समीक्षक का एक भारी कर्तव्य हैं। हिंदी के दूसरे कवियों के मिलते-जुलते पद्यों की बिहारी के दोहों के साथ तुलना करके शर्मा जी ने तारतम्यिक आलोचना का शौक पैदा किया। इस पुस्तक में शर्माजी ने उन आक्षेपों का भी बहुत कुछ परिहार किया जो देव को ऊँचा सिद्ध करने के लिये बिहारी पर किए गए थे। हो सकता है कि शर्माजी ने भी बहुत से स्थलो पर बिहारी का पक्षपात किया हो, पर उन्होंने जो कुछ किया हैं वह अनूठे ढंग से किया है। उनके पक्षपात का भी साहित्यिक मूल्य हैं।

यहाँ पर यह बात सूचित कर देना आवश्यक हैं कि शर्माजी की यह समीक्षा भी रूढ़िगत (Conventional) है। दूसरे शृंगारी कवियों से अलग करनेवाली बिहारी की विशेषताओं के अन्वेषण और अंतःप्रवृत्तियों के उद्घाटन का––जो आधुनिक समालोचना का प्रधान लक्ष्य समझा जाता है––प्रयत्न इससे नही हुआ है। एक खटकनेवाली बात है, बिना जरूरत के जगह जगह चुहलबाजी और शाबाशी का महफिलो तर्ज।

शर्मा जी की पुस्तक से दो बातें हुई। एक तो "देव बड़े कि बिहारी" यह भद्दा झगड़ा सामने आया, दूसरे "तुलानात्मक समालोचना" के पीछे लोग बेतरह पड़े। [ ५३३ ]"देव और बिहारी" के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक पं॰ कृष्णबिहारी मिश्र बी॰ ए॰ एल-एल॰ बी॰ की मैदान में आई। इस पुस्तक में बड़ी शिष्टता, सभ्यता और मार्मिकता के साथ दोनो बड़े कवियों की भिन्न भिन्न रचनाओं का मिलान किया गया है। इसमें जो बातें कही गई है, वे बहुत कुछ साहित्यिक विवेचन के साथ कही गई है, 'नवरत्न' की तरह यों ही नहीं कही गई है। यह पुरानी परिपाटी की साहित्य-समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने के योग्य है। मिश्रबंधुओं की अपेक्षा पं॰ कृष्णबिहारीजी साहित्यिक आलोचना के कही अधिक अधिकारी कहे जा सकते है। "देव और बिहारी" के उत्तर में लाला भगवानदीनजी ने "बिहारी और देव" नाम की पुस्तक निकाली जिसमे उन्होंने मिश्रबंधुओं के भद्दे आक्षेपों का उचित शब्दों से जवाब देकर पंडित कृष्णबिहारीजी की बातों पर भी पूरा विचार किया। अच्छा हुआ कि 'छोटे बड़े' के इस भद्दे झगड़े की शोर अधिक लोग आकर्षित नहीं हुए।

अब "तुलनात्मक समालोचना" की बात लीजिए। उसको ओर लोगो का कुछ आकर्षण देखते ही बहुतों ने 'तुलना' को ही समालोचना का चरम लक्ष्य समझ लिया और पत्रिकायों में तथा इधर उधर भी लगे भिन्न भिन्न कवियों के पद्यों को लेकर मिलान करने। यहाँ तक कि जिन दो पद्यों में वास्तव में कोई भाव-साम्य नहीं, उनमें भी बादरायण संबंध स्थापित करके लोग इस "तुलनात्मक समालोचना" के मैदान में उतरने का शोक जाहिर करने लगे। इसका असर कुछ समालोचकों पर भी पड़ा। पंडित् कृष्णबिहारी मिश्रजी ने जो "मतिराम ग्रंथावली" निकाली, उसकी भूमिका का आवश्यकता से अधिक अंश उन्होने इस 'तुलानात्मक आलोचना' को ही अर्पित कर दिया; और बातों के लिये बहुत कम जगह रखी।

द्वितीय उत्थान के भीतर 'समालोचना' की यद्यपि बहुत कुछ उन्नति हुई, पर उसका स्वरूप प्रायः रूढ़िगत (Conventional) ही रहा कवियों की विशेषताओं का अन्वेषण और उनकी अंतःप्रकृति की छानबीन करनेवाली उच्च कोटि की समालोचना का प्रारंभ तृतीय उत्थान में जाकर हुआ।


  1. साहित्य-दर्पणकार ने शृंगार रस के उदाहरण में "शून्य वासगृहं विलोक्य" यह श्लोक उद्धृत किया। रस-गंगाधरकार ने इस श्लोक में अनेक दोष दिखलाए और उदाहरण में अपना बनाया श्लोक भिड़ाया। हिंदी-कवियों में श्रीपति ने दोषों के उदाहरण में केशवदास के पद्य रखे हैं।
  2. Methods and Materials of Literary Criticism.––Gayley & Scott.
  3. The ranking of writers in order of merit has become obsolete.––The New Criticism by J. E Spingarn (1911)
  4. देखिए "भ्रमरगीतसार" की भूमिका।