हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ (कहानी)

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छोटी कहानियाँ

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, छोटी कहानियों का विकास तो हमारे यहाँ [ ५४५ ] और भी विशद और वितृस्त रूप में हुआ है और उसमें वर्त्तमान कवियों का भी पूरा योग रहा है। उनके इतने रूप-रंग हमारे सामने आए हैं कि वे सब के सब पाश्चात्य लक्षणों और आदर्शों के भीतर नहीं समा सकते। न तो सब में विस्तार के किसी नियम का पालन मिलेगा, न चरित्र-विकास का अवकाश। एक संवेदना या मनोभाव का सिद्धांत भी कहीं कहीं ठीक न घटेगा। उसके स्थान पर हमें मार्मिक परिस्थिति की एकता मिलेगी, जिसके भीतर कई ऐसी संवेदनाओं का योग रहेगा जो, सारी परिस्थिति को बहुत ही मार्मिक रूप देगा। श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' की 'उन्मादिनी' का जिस परिस्थिति में पर्य्यवसान होता है उसमें पूरन का सत्त्वोद्रेक, सौदामिनी का अपत्यस्नेह और कालीशंकर की स्तब्धता तीनों का योग है। जो कहानियाँ कोई मार्मिक परिस्थिति लक्ष्य में रखकर चलेंगी उनमें बाह्य प्रकृति के भिन्न भिन्न रूप रंगों के सहित और परिस्थितियों का विशद चित्रण भी बराबर मिलेगा। घटनाएँ और कथोपकथन बहुत अल्प रहेंगे। 'हृदयेश' जी की कहानियाँ प्रायः इसी ढंग की हैं। 'उन्मादिनी' में घटना गतिशील नहीं। 'शांति-निकेतन' में घटना और कथोपकथन दोनों कुछ नहीं। यह भी कहानी का एक ढंग है, वह हमें मानना पड़ेगा। पाश्चात्य आदर्श का अनुसरण इसमें नहीं है; न सही।

वस्तु-विन्यास के ढंग में भी इधर अधिक वैचित्र्य आया है। घटनाओं में काल के पूर्वापर क्रम का विपर्य्यय कहीं कहीं इस तरह का मिलेगा कि समझने के लिये कुछ देर रुकना पड़ेगा। कहानियों में 'परिच्छेद' न लिखकर केवल १, २, ३, आदि संख्याएँ देकर विभाग करने की चाल है। अब कभी कभी एक ही नंबर के भीतर चलते हुए वृत्त के बीच थोड़ी सी जगह छोड़कर किसी पूर्वकाल की परिस्थिति पाठकों के सामने एकबारगी रख दी जाती है। कहीं कहीं चलते हुए वृत्त के बीच में परिस्थिति का नाटकीय ढंग का एक छोटा सा चित्र भी आ जाता है। इस प्रकार के चित्रों में चारों ओर सुनाई पड़ते हुए शुब्दों का संघात भी सामने रखा जाता है, जैसे, बाजार की सड़क का यह कोलाहल––

"मोटरों, ताँगो और इक्कों के आने जाने का मिलित स्वर। चमचमाती हुई कार का म्युज़ीकल हार्न।........बचना भैये। हटना, राजा बाबू......अक्खा! तिवारीजी [ ५४६ ]है नमस्कार!......हटना भा-आई।.......आदाब अर्ज़ दारोगा जी"।

(पुष्करिणों, में चोर, नाम की कहानी––भगवतीप्रसाद वाजपेयी)

हिंदी में जो कहानियाँ लिखी गई हैं, स्थूल दृष्टि से देखने पर, वे इन प्रणालियों पर चली दिखाई पड़ती हैं––

(१) सादे ढंग से केवल कुछ अत्यंत व्यंजक घटनाएँ और थोड़ी बातचीत सामने लाकर क्षिप्र गति से किसी एक गंभीर संवेदना या मनोभाव में पर्यवसित होनेवाली, जिसका बहुत ही अच्छा नमूना है स्वर्गीय गुलेरीजी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था'। पं॰ भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया' और 'पेंसिल स्केच' नाम की कहानियाँ भी इसी ढंग की हैं। ऐसी कहानियों में परिस्थिति की मार्मिकता अपने वर्णन या व्याख्या द्वारा हृदयंगम कराने का प्रयत्न लेखक नहीं करता, उसका अनुभव वह पाठक पर छोड़ देता है।

(२) परिस्थितियों के विशद और मार्मिक––कभी कभी रमणीय और अलंकृत––वर्णनों और व्याख्याओं के साथ मंद मधुर गति से चलकर किसी एक मार्मिक परिस्थिति में पर्यवसित होनेवाली। उदाहरण––स्व॰ चंडीप्रसाद हृदयेश की 'उन्मादिनी', 'शांतिनिकेतन'। ऐसी कहानियों में परिस्थिति के अंतर्गत प्रकृति का चित्रण भी प्रायः रहता है।

(३) उक्त दोनों के बीच की पद्धति ग्रहण करके चलनेवाली, जिसमें घटनाओं की व्यंजकता और पाठकों की अनुभूति पर पूरा भरोसा न करके लेखक भी कुछ मार्मिक व्याख्या करता चलता है; उ॰––प्रेमचंदजी की कहानियाँ। पं॰ विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, पं॰ ज्वालादत्त शर्मा, श्री जैनेद्रकुमार, पं॰ विनोदशंकर व्यास, श्री सुदर्शन, पं॰ जनार्दनप्रसाद झा द्विज, इत्यादि अधिकांश, लेखकों की कहानियाँ अधिकतर इसी पद्धति पर चली हैं।

(४) घटना और संवाद दोनों में गूढ़ व्यंजना और रमणीय कल्पना के सुंदर समन्वय के साथ चलनेवाली। उ॰––प्रसादजी तथा राय कृष्णदासजी की कहानियाँ।

(५) किसी तथ्य का प्रतीक खड़ा करनेवाली लाक्षणिक कहानी, जैसे पांडेय बेचन शर्मा उग्र का 'भुनगा'। [ ५४७ ]वस्तु समष्टि के स्वरूप की दृष्टि से भी बहुत से वर्ग किए जा सकते हैं, जिनमें से मुख्य ये हैं––

(१) सामान्यतः जीवन के किसी स्वरूप की मार्मिकता सामने लानेवाली। अधिकतर कहानियाँ इस वर्ग के अंतर्गत आएँगी।

(२) भिन्न भिन्न वर्गों के संस्कार का स्वरूप सामने रखनेवाली। उ॰––प्रेमचदजी की 'शतरंज के खिलाड़ी' और श्री ऋषभचरण जैन की 'दान' नाम की कहानी।

(३) किसी मधुर या मार्मिक प्रसंग-कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक काल का खंड-चित्र दिखानेवाली। उ॰––राय कृष्णदासजी की 'गहूला' और जयशंकर प्रसादजी की 'आकाशदीप'।

(४) देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से पीड़ित जनसमुदाय की दुर्दशा सामने लानेवाली, जैसे श्री भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया लागी', 'हृद्गति' तथा श्री जैनैद्रकुमार की 'अपना अपना भाग्य' नाम की कहानी।

(५) राजनीतिक आंदोलन में संमिलित नव-युवकों के स्वदेश-प्रेम, त्याग, साहस और जीवनोत्सर्ग का चित्र खड़ा करनेवाली, जैसे पांडेय बेचन शर्मा उग्र की 'उसकी माँ' नाम की कहानी।

(६) समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के बीच धर्म, समाज-सुधार, व्यापार व्यवसाय, सरकारी काम, नई सभ्यता आदि की ओट में होनेवाले पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कहानियाँ जैसी 'उग्र' जी की है। 'उग्र' की भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्र्य के साथ चलती है। इस ढंग की भाषा उन्हीं के उपन्यासों और 'चाँदनी' ऐसी कहानियों में ही मिल सकती है।

(७) सभ्यता और संस्कृति की किसी व्यवस्था के विकास का आदिम रूप झलकानेवाली, जैसे, राय कृष्णदासजी की 'अंतःपुर का आरंभ', श्रीमत की 'चँवेली की कली', श्री जैनेद्रकुमार की 'बाहुबली'।

(८) अतीत के किसी पौराणिक या ऐतिहासिक काल-खंड के बीच अत्यंत मार्मिक और रमणीय प्रसंग का अवस्थान करनेवाली, जैसे, श्री बिंदु ब्रह्मचारी और श्रीमंत समंत (पं॰ बालकराम विनायक) की कहानियाँ। [ ५४८ ]ये कहानियाँ 'कथामुखी' नाम की मासिक पत्रिका (अयोध्या, संवत् १९७७-७८) में निकली थीं। इनमें से कुछ के नाम ये हैं––वनभागिनी, कृत्तिका, हेरम्या और बाहुमान, कनकप्रभा, श्वेतद्वीप का तोता क्या पढ़ता था, चँवेली की कली। इनमें से कुछ कहानियों में एशिया के भिन्न भिन्न भागों में (ईरान, तुर्किस्तान, अर्मेनिया, चीन, सुमात्रा, इत्यादि में) भारतीय संस्कृति और प्रभाव का प्रसार (Greater India) दिखानेवाले प्रसंगों की अनूठी उद्भावना पाई जाती हैं, जैसे 'हेरम्या और बाहुमान्' में। ऐसी कहानियों में भिन्न भिन्न देशों की प्राचीन संस्कृति के अध्ययन की त्रुटि अवश्य कहीं कहीं खटकती है, जैसे, 'हेरम्या और बाहुमान्' में आर्य्य पारसीक और सामी अरब सभ्यता का घपला है।

एशिया के भिन्न भिन्न भागों में भारतीय संस्कृति और प्रभाव की झलक जयशंकर प्रसादजी के 'आकाशदीप' में भी है।

(९) हास्य-विनोद द्वारा अनुरंजन करनेवाली। उ॰––जी॰ पी॰ श्रीवास्तव, अन्नपूर्णानंद और कांतानाथ पांडेय 'चोंच' की कहानियाँ।

इस श्रेणी की कहानियों का अच्छा विकास हिंदी में नहीं हो रहा है। अन्नपूर्णानंदजी का हास सुरुचिपूर्ण है। 'चोंच' जी की कहानियाँ अतिरजित होने पर भी व्यक्तियों के कुछ स्वाभाविक ढाँचे सामने लाती हैं। जी॰ पी॰ श्रीवास्तव की कहानियों में शिष्ट और परिष्कृत हास की मात्रा कम पाई जाती है। समाज के चलते जीवन के किसी विकृत पक्ष को, या किसी वर्ग के व्यक्तियों की बेढंगी विशेषताओं को हँसने-हँसाने योग्य बनाकर सामने लाना अभी बहुत कम दिखाई पड़ रहा है।

यह बात कहनी पड़ती है कि शिष्ट और परिष्कृत हास का जैसा सुंदर विकास पाश्चात्य साहित्य में हुआ है वैसा अपने यहाँ अभी नहीं देखने में आ रहा है। पर हास्य का जो स्वरूप हमें संस्कृत के नाटकों और फुटकल पद्यों में मिलता है, वह बहुत ही समीचीन, साहित्य-संमत और वैज्ञानिक है। संस्कृत के नाटकों में हास्य के आलंबन विदूषक के रूप में पेटू ब्राह्मण रहे हैं और फुटकल पद्यों में शिव ऐसे और देवता तथा उनका परिवार और समाज। कहीं कहीं खटमल ऐसे क्षुद्र जीव भी हो गए हैं। हिंदी में इनके अतिरिक्त [ ५४९ ]कंजूसों पर विशेष कृपा हुई है। पर ये सब आलंबन जिस ढंग से सामने लाए गए हैं उसे देखने से स्पष्ट हो जायगा कि रस-सिद्धांत का पालन बड़ी सावधानी से हुआ है। रसों में हास्य रस का जो स्वरूप और जो स्थान है यदि वह बराबर दृष्टि में रहे तो अत्यंत उच्च और उत्कृष्ट श्रेणी के हास का प्रवर्तन हमारे साहित्य में हो सकता है।

हास्य के आलंबन से विनोद तो होता ही है, उसके प्रति कोई न कोई और भाव भी––जैसे, राग, द्वेष, घृणा, उपेक्षा, विरक्ति––साथ साथ लगा रहता है। हास्य रस के जो भारतीय आलंबन ऊपर बताए गए हैं वे सब इस ढंग से सामने लाए जाते हैं कि उनके प्रति द्वेष, घृणा इत्यादि न उत्पन्न होकर एक प्रकार का राग या प्रेम ही उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था हमारे रस-सिद्धांत के अनुसार है। स्थायी भावों में आधे सुखात्मक हैं और आधे दुःखात्मक। हास्य आनंदात्मक भाव है एक ही आश्रय में, एक ही आलंबन के प्रति, आनंदात्मक और दुःखात्मक भावों को एक साथ स्थिति नहीं हो सकती। हास्य रस में आश्रय के रूप में किसी पात्र की अपेक्षा नही होती, श्रोता या पाठक ही आश्रय रहता है। अतः रस की दृष्टि से हास्य में द्वेष और घृणा नामक दुःखात्मक भावों की गुंजाइश नहीं। हास्य के साथ जो दूसरा भाव आ सकता है वह संचारी के रूप में ही। द्वेष या घृणा का भाव जहाँ रहेगी वहाँ हास की प्रधानता नहीं रहेगी, वह 'उपहास' हो जायगा। उसमें हास का सच्चा स्वरूप रहेगा ही नहीं। उसमें तो हास को द्वेष का व्यंजक या उसका आच्छादक मात्र समझना चाहिए।

जो बात हमारे यहाँ की रस-व्यवस्था के भीतर स्वतः सिद्ध है वही योरप में इधर आकर एक आधुनिक सिद्धांत के रूप में यों कही गई है कि 'उत्कृष्ट हास वही है जिसमें आलंबन के प्रति एक प्रकार का प्रेमभाव उत्पन्न हो अर्थात् वह प्रिय लगे'। यहाँ तक तो बात बहुत ठीक रही। पर योरप में नूतन सिद्धांत-प्रवर्त्तक बनने के लिये उत्सुक रहनेवाले चुप कब रह सकते हैं। वे दो कदम आगे बढ़कर आधुनिक 'मनुष्यता-वाद' या 'भूतदया-वाद' का स्वर ऊँचा करते हुए बोले "उत्कृष्ट हास वह है जिसमे आलंबन के प्रति दया या करुणा उत्पन्न हो।" कहने की आवश्यकता नहीं कि यह होली-मुहर्रम सर्वथा अस्वाभाविक, [ ५५० ] अवैज्ञानिक और रस-विरुद्ध है। दया या करुणा दुःखात्मक भाव है, हास आनंदात्मक। दोनों की एक साथ स्थिति बात ही बात है। यदि हास के साथ एक ही आश्रय में किसी और भाव का सामंजस्य हो सकता है तो प्रेम या भक्ति का ही। भगवान् शंकर के बौड़मपन का किस भक्तिपूर्ण विनोद के साथ वर्णन किया जाता है, वे किस प्रकार बनाए जाते हैं, यह हमारे यहाँ "शशि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में" देखा जा सकता है।

हास्य का स्वरूप बहुत ठीक सिद्धांत पर प्रतिष्ठित होने पर भी अभी तक उसका ऐसा विस्तृत विकास हमारे साहित्य में नहीं हुआ है जो जीवन के अनेक क्षेत्रों से––जैसे, राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक, व्यावसायिक––आलंबन ले लेकर खड़ा करे।