हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ (नाटक)

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नाटक

यद्यपि और देशों के समान यहाँ भी उपन्यास और कहानियों के आगे नाटकों का प्रणयन बहुत कम हो गया है, फिर भी हमारा नाट्य-साहित्य बहुत कुछ आगे बढ़ा है। नाटकों के बाहरी रूप-रंग भी कई प्रकार के हुए हैं और अवयवों के विन्यास और आकार-प्रकार से भी वैचित्र्य आया है। ढाँचों में जो विशेषता योरप के वर्त्तमान नाटकों में प्रकट हुई है, वह हिंदी के भी कई-नाटकों में इधर दिखाई पड़ने लगी है, जैसे अंक के आरंभ और बीच में भी समय, स्थान तथा पात्रों के रूप-रंग और वेश-भूषा का बहुत सूक्ष्म ब्योरे के साथ लंबा वर्णन। स्वगत भाषण की चाल भी अब उठ रही है। पात्रों के भाषण भी न अब बहुत लंबे होते हैं न लंबे लंबे वाक्यवाले। ये बातें सेठ गोविंददासजी तथा पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में पाई जायँगी। थिएटरों के कार्यक्रम में दो अवकाशों के विचार से इधर तीन अंक रखने की प्रवृत्ति भी लक्षित हो रही है। दो एक व्यक्ति अँगरेजी में एक अंकवाले आधुनिक नाटक देख उन्हीं के ढंग के दो एक-एकांकी नाटक लिखकर उन्हें बिल्कुल एक नई चीज कहते हुए सामने लाए। ऐसे लोगों को जान रखना चाहिए कि एक अंकवाले कई उप-रूपक हमारे यहाँ बहुत पहले से माने गए हैं। [ ५५१ ]यह तो स्पष्ट है कि आधुनिक काल के आरंभ से ही बँगला की देखा-देखी हमारे हिंदी नाटकों के ढाँचे पाश्चात्य होने लगे। नांदी, मंगलाचरण तथा प्रस्तावना हटाई जाने लगी। भारतेंदु ने ही 'नीलदेवी' और 'सती-प्रताप' में प्रस्तावना नहीं रखी है; हाँ, आरंभ में यशोगान या मंगलगान रख दिया है। भारतेंदु के पीछे तो यह भी हटता गया। भारतेंदु-काल से ही अंकों का अवस्थान अँगरेजी ढंग पर होने लगा। अंकों के बीच के स्थान-परिवर्तन या दृश्य-परिवर्तन को 'दृश्य' और कभी कभी 'गर्भांक' शब्द रखकर सूचित करने लगे, यद्यपि 'गर्भांक' शब्द का हमारे नाट्यशास्त्र में कुछ और ही अर्थ। 'प्रसाद' जी ने अपने 'स्कंदगुप्त' आदि नाटकों में यह 'दृश्य' शब्द (जो अँगरेजी Scene का अनुवाद है) छोड़ दिया है और स्थान-परिवर्तन या पट-परिवर्तन के स्थलों पर कोई नाम नहीं रखा है। इसी प्रकार आजकल 'विष्कंभक' और 'प्रवेशक' का काम देनेवाले दृश्य तो रखे जाते है, पर ये नाम हटा दिए गए हैं। 'प्रस्तावना' के साथ 'उद्घातक', 'कथोद्घात' आदि का विन्यास-चमत्कार भी गया। पर ये युक्तियाँ सर्वथा अस्वाभाविक न थीं। एक बात बहुत अच्छी यह हुई है कि पुराने नाटकों में दरबारी विदूषक नाम का जो फालतू पात्र रहा करता था उसके स्थान पर कथा की गति से सबद्ध कोई पात्र ही हँसोड़ प्रकृति का बना दिया जाता है। आधुनिक नाटको में प्रसादजी के 'स्कंदगुप्त' नाटक का मुद्गल ही एक ऐसा पात्र है जो पुराने विदूषक का स्थानापन्न कहा जा सकता है।

भारतीय साहित्य शास्त्र में नाटक भी काव्य के ही अंतर्गत माना गया है अतः उसका लक्ष्य भी निर्दिष्ट शील स्वभाव के पात्रों को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में डालकर उनके वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस-संचार करना ही रहा है। पात्रों के धीरोदात्त आदि बँधे हुए ढाँचे थे जिनमें ढले हुए सब पात्र सामने आते थे। इन ढाँचों के बाहर शील-वैचित्र्य दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता था। योरप में धीरे धीरे शील-वैचित्र्य-प्रदर्शन को प्रधानता प्राप्त होती गईं; यहाँ तक कि किसी नाटक के संबंध में वस्तुविधान और चरित्र-विधान की चर्चा का ही चलन हो गया। इधर, यथातथ्यवाद के प्रचार से वहाँ रहा सहा काव्यत्व भी झूठी भावुकता कहकर हटाया [ ५५२ ]जाने लगा। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि हमारे 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ऐसे प्रतिभाशाली नाटककारों ने उक्त प्रवृत्ति का अनुसरण न करके रस-विधान और शील-वैचित्र्य दोनों का सामंजस्य रखा है। 'स्कंदगुप्त' नाटक में जिस प्रकार देवसेना और शर्वनाग ऐसे गूढ़ चरित्र के पात्र हैं, उसी प्रकार शुद्ध प्रेम, यद्धोत्साह, स्वदेश-भक्ति आदि भावों की मार्मिक और उत्कृष्ट व्यंजना भी है। हमारे यहाँ के पुराने ढाँचों के भीतर शील-वैचित्र्य का वैसा विकास नहीं हो सकता था, अतः उनका बंधन हटाकर वैचित्र्य के लिये मार्ग खोलना तो ठीक ही है, पर यह आवश्यक नहीं कि उसके साथ रसात्मकता भी हम निकाल दें।

हिंदी-नाटकों के स्वतंत्र विकास के लिये ठीक मार्ग तो यह दिखाई पड़ता है कि हम उनका मूल भारतीय लक्ष्य तो बनाए रहें, पर उनके स्वरूप के प्रसार के लिये और देश की पद्धतियों का निरीक्षण और उनकी कुछ बातों का मेल सफाई के साथ करते चलें। अपने नाट्य-शास्त्र के जटिल विधान को ज्यों का त्यों लेकर तो हम आजकाल चल नहीं सकते, पर उसका बहुत सा रूप-रंग अपने नाटकों में ला सकते हैं जिससे भारतीय परंपरा के प्रतिनिधि वे बने रह सकते हैं। रूपक और उपरूपक के जो बहुत से भेद किए गए हैं उनमें से कुछ को हम आजकल भी चला सकते हैं। उनके दिए हुए लक्षणों में वर्तमान रुचि के अनुसार जो हेर-फेर चाहे कर लें। इसी प्रकार अभिनय की रोचकता बढ़ानेवाली जो युक्तियाँ हैं––जैसे, उद्घातक, कथोद्घात––उनमे से कई एक को, आवश्यक रूपांतर के साथ और स्थान का बंधन दूर करके हम बनाए रख सकते हैं। संतोष की बात है कि 'प्रसाद' और 'प्रेमी' जी के नाटकों में इसके उदाहरण हमे मिलते हैं, जैसे, कथोद्घात के ढंग पर एक पात्र के मुँह से निकले हुए शब्द को लेकर दूसरे पात्र का यह प्रवेश––

शर्वनाग––देख, सामने सोने का संसार खड़ा है।

(रामा का प्रवेश)

रामा––पामर! सोने की लंका राख हो गई। (स्कंदगुप्त)

श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के नाटकों में भी यह मिलता है। 'शिवा साधना' में देखिए–– [ ५५३ ]जीजा॰––हाँ! यह एक बाधा है।

(सई बाई का बालक संभाजी को लिए हुए प्रवेश)

सई बाई––यह बाधा भी न रहेगी, माँजी!

प्राचीन नाट्यशास्त्र (भारतीय और यवन दोनों) में कुछ बातों का––जैसे, मृत्यु, बध, युद्ध––दिखाना वर्जित था। आजकल उस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं मानी जाती। प्रसादजी ने अपने नाटकों में बराबर मृत्यु, बध और आत्महत्या दिखाई है। प्राचीन भारत और यवनान में ये निषेध भिन्न भिन्न कारणों से थे। यवनान में तो बड़ा भारी कारण रंगशाला का स्वरूप था। पर भारत में अत्यन्त क्षोभ तथा शिष्ट रुचि की विरक्ति बचाने के लिये कुछ दृश्य वर्जित थे। मृत्यु और बध अत्यंत क्षोभकारक होने के कारण, भोजन परिष्कृत रुचि के विरुद्ध होने के कारण तथा रंगशाला की थोड़ी सी जगह के बीच दूर से पुकारना अस्वाभाविक और अशिष्ट लगने के कारण वर्जित थे। देश की परंपरागत सुरुचि की रक्षा के लिये कुछ व्यापार तो हमे आजकल भी वर्जित रखने चाहिए, जैसे, चुबंन-आलिंगन। स्टेशन के प्लेटफार्म पर चुंबन-आलिंगन चाहे योरप की सभ्यता के भीतर हो, पर हमारी दृष्टि में जंगलीपन वा पशुत्व है।

इस तृतीय उत्थान के बीच हमारे वर्त्तमान नाटक-क्षेत्र में दो नाटककार बहुत ऊँचे स्थान पर दिखाई पड़े––स्व॰ जयशंकर प्रसादजी और श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी'। दोनों की दृष्टि ऐतिहासिक काल की ओर रही है। 'प्रसाद' जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदू-काल के भीतर चुना और 'प्रेमी' जी ने मुस्लिम-काल के भीतर। 'प्रसाद' के नाटकों में 'स्कंदगुप्त' श्रेष्ठ है और 'प्रेमी' के नाटकों में 'रक्षा बंधन'।

'प्रसाद' जी में प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रँगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की आधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्त्तमान गद्य-काव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भाव[ ५५४ ]पद्धति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (Lyrics) मात्र हैं। अपनी सबसे पिछली रचनाओं से ये त्रुटियाँ उन्होंने निकाल दी हैं। 'चंद्रगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' इन दोषों से प्रायः मुक्त हैं। पर 'चंद्रगुप्त' में एक दूसरा बड़ा भारी दोष आ गया है। उसके भीतर सिकंदर के भारत पहुँचने के कुछ पहले से लेकर सिल्युकस के पराजय तक के २५ वर्ष के दीर्घकाल की घटनाएँ लेकर कसी गई हैं जो एक नाटक के भीतर नहीं आनी चाहिए। जो पात्र युवक के रूप में नाटक के आरंभ में दिखाई पड़े, वे नाटक के अंत में भी उसी रूप में सामने आते हैं। यह दोष तो इतिहास की ओर दृष्टि ले जाने पर दिखाई पड़ता हैं अर्थात् बाहरी है। पर घटनाओं की अत्यंत सघनता का दोष रचना से संबंध रखता है। बहुत से भिन्न भिन्न पात्रों से संबद्ध घटनाओं के जुड़ते चलने के कारण बहुत कम चरित्रों के विकास का अवकाश रह गया है। पर इस नाटक में विन्यस्त वस्तु और पात्र इतिहास का ज्ञान रखनेवाले के लिये इतने आकर्षक हैं कि उक्त दोषों की ओर ध्यान कुछ देर में जाता है। 'मुद्रा-राक्षस' से इसमें कई बातों की विशषता हैं। पहली बात तो यह है कि इसमें चंद्रगुप्त केवल प्रयत्न के फल का भोक्ता कठपुतली भर नहीं, प्रयत्न में अपना क्षत्रिय-भाग सुंदरता के साथ पूरा करनेवाला है। नीति-प्रवर्त्तन का भाग चाणक्य पूरा करता है। दूसरी बात यह है कि 'मुद्राराक्षस' में चाणक्य का व्यक्तित्व––उसका हृदय––सामने नहीं आता। तेजस्विता, धीरता, प्रत्युत्पन्न बुद्धि और ब्राह्मणोचित त्याग आदि सामान्य गुणों के बीच केवल प्रतीकार की प्रबल वासना ही हृदय-पक्ष की ओर झलकती है। पर इस नाटक में चाणक्य के प्रयत्न का लक्ष्य भी ऊँचा किया गया है और उसका पूरा हृदय भी सामने रखा गया है।

नाटकों का प्रभाव पात्रों के कथोपकथन पर बहुत कुछ अवलंबित रहता है। श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के कथोपकथन 'प्रसाद' जी के कथोपकथनों से अधिक नाटकोपयुक्त हैं। उनमें प्रसंगानुसार बातचीत का चलता हुआ स्वाभाविक ढंग भी है। और सर्वहृदय-ग्राह्य पद्धति पर भाषा का मर्म-व्यंजक अनूठापन भी। 'प्रसाद' जी के नाटकों में एक ही ढंग की चित्रमयी और लच्छेदार बातचीत करनेवाले कई पात्र आ जाते हैं। 'प्रेमी' जी के नाटकों में यह खटकनेवाली बात नहीं मिलती [ ५५५ ]'प्रसाद' और 'प्रेमी' के नाटक यद्यपि ऐतिहासिक हैं, पर उनमे आधुनिक आदर्शों और भावनाओं का आभास इधर-उधर बिखरा मिलता है। 'स्कंदगुप्त' और 'चंद्रगुप्त' दोनो में स्वदेश-प्रेम, विश्वप्रेम और आध्यात्मिकता का आधुनिक रूप-रंग बराबर झलकता है। आजकल के मजहबी दंगों का स्वरूप भी इस 'स्कंदगुप्त' में देख सकते है। 'प्रेमी' के 'शिवासाधना' नाटक के शिवाजी भी कहते हैं––"मेरे शेष जीवन की एकमात्र साधना होगी भारतवर्ष को स्वतंत्र करना, दरिद्रता की जड़ खोदना, ऊँच-नीच की भावना और धार्मिक तथा सामाजिक असहिष्णुता का अंत करना, राजनीतिक और सामाजिक दोनों प्रकार की क्रांति करना।" हम समझते हैं कि ऐतिहासिक नाटक में किसी पात्र से आधुनिक भावनाओं की व्यंजना जिस काल का वह नाटक हो उस काल की भाषा-पद्धति और विचार-पद्धति के अनुसार करानी चाहिए; 'क्रांति' ऐसे शब्दों द्वारा नहीं। 'प्रेमी' जी के 'रक्षा-बंधन' में मेवाड़ की महारानी कर्मवती का हुमायूँ को भाई कहकर राखी भेजना और हुमायूँ का गुजरात के मुसलमान बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध एक हिंदू राज्य की रक्षा के लिये पहुँचना, यह कथा-वस्तु ही हिंदू-मुसलिम भेद-भाव की शांति सूचित करती है। उसके ऊपर कट्टर सरदारों और मुल्लों की बात का विरोध करता हुआ हुमायूँ जिस उदार भाव की सुंदर व्यंजना करता है वह वर्तमान हिंदू-मुसलिम दुर्भाव की शांति का मार्ग दिखाता जान पड़ता है। इसी प्रकार 'प्रसाद' जी के 'ध्रुव-स्वामिनी' नामक बहुत छोटे से नाटक में एक संभ्रात, राजकुल की स्त्री का विवाह-संबंध-मोक्ष सामने लाया गया है, जो वर्त्तमान सामाजिक आंदोलन का एक अंग है।

वर्त्तमान राजनीति के अभिनयों का पूर्ण परिचय प्राप्त कर सेठ गोविंददास जी ने इधर साहित्य के अभिनय-क्षेत्र में भी प्रवेश किया है। उन्होंने तीन अच्छे नाटक लिखे हैं। "कर्त्तव्य" में राम और कृष्ण दोनों के चरित्र नाटक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो खंड करके रखे गए हैं जिनका उद्देश्य है कर्त्तव्य के विकास की दो भूमियाँ दिखाना। नाटककार के विवेचनानुसार मर्यादा-पालन प्रथम भूमि है जो पूर्वार्ध में राम द्वारा पूर्णता को पहुँचती है। लोकहित की व्यापक दृष्टि से आवश्यकतानुसार नियम और मर्यादा का उल्लंघन उसके आगे की भूमि है, जो नाटक के उत्तरार्ध में श्रीकृष्ण ने अपने चरित्र द्वारा––जैसे, [ ५५६ ]जरासंध के सामने लड़ाई का मैदान छोड़कर भागना––प्रदर्शित की है। वास्तव में पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो अलग अलग नाटक हैं, पर नाटककार ने अपने कौशल से कर्तव्य-विकास की सुंदर उद्भावना द्वारा दोनों के बीच पूर्वापर संबंध स्थापित कर दिया है। यह भी एक प्रकार का कौशल है। इसे 'ऊटक-नाटक' न समझना चाहिए। सेठजी का दूसरा नाटक 'हर्ष' ऐतिहासिक है जिसमें सम्राट् हर्षवर्द्धन, माधवगुप्त, शशांक आदि पात्र आए है। इन दोनों नाटकों में प्राचीन वेशभूषा, वास्तुकला इत्यादि का ध्यान रखा गया है। 'प्रकाश' नाटक में वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण है। यद्यपि इन तीनों नाटकों के वस्तु-विन्यास और कथोपकथन में विशेष रूप से आकर्षित करनेवाला अनूठापन नहीं है, पर इनकी रचना बहुत ठिकाने की है।

पं॰ गोविंदवल्लभ पंत भी अच्छे नाटककार हैं। उनका 'वरमाला' नाटक, जो मार्कंडेय पुराण की एक कथा लेकर निर्मित है, बड़ी निपुणता से लिखा गया है। मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के अलौकिक त्याग का ऐतिहासिक वृत्त लेकर 'राजमुकुट' की रचना हुई है। 'अंगूर की बेटी' (जो फारसी शब्द का अनुवाद है) मद्य के दुष्परिणाम दिखानेवाला सामाजिक नाटक है।

कुछ हलके ढंग के नाटकों में, जिनसे बहुत साधारण पढ़े-लिखे लोगों को भी कुछ मनोरंजन हो सकता है, स्वर्गीय पं॰ बदरीनाथ भट्ट के 'दुर्गावती', 'तुलसीदास' आदि उल्लेखयोग्य है। हास्यरस की कहानियों लिखनेवाले जी॰ पी॰ श्रीवास्तव ने मोलियर के फरांसीसी नाटकों के हिंदुस्तानी अनुवादों के अतिरिक्त 'मरदानी औरत', 'गड़बड़झाला', 'नोक-झोंक', 'दुमदार आदमी' इत्यादि बहुत से छोटे-मोटे प्रहसन भी लिखे हैं, पर वे परिष्कृत रुचि के लोगों को हँसाने में समर्थ नहीं। "उलट-फेर" नाटक औरों से अच्छे ढर्रे का कहा जाता है।

पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने नाटको के द्वारा स्त्रियों की स्थिति आदि कुछ सामाजिक प्रश्न या 'समस्याएँ' तो सामने रखी ही है, योरप में प्रवर्तित 'यथातथ्यवाद' का वह खरा रूप भी दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें झूठी भावुकता और मार्मिकता से पीछा छुड़ाकर नर-प्रकृति अपने वास्तविक रूप में [ ५५७ ]सामने लाई जाती है। ऐसे नाटकों का उद्देश्य होता है समाज अधिकतर जैसा है वैसा ही सामने रखना, उसके भीतर की नाना विषमताओं से उत्पन्न प्रश्नों का जीता-जागता रूप खड़ा करना तथा यदि संभव हो तो समाधान के स्वरूप का भी आभास देना। लोक के बीच कभी कभी जो उच्च भावों के कुछ दृष्टांत दिखाई पड़ जाया करते हैं उनपर कल्पना का झूठा रंग चढ़ाकर धोखे की टट्टियाँ खड़ी करना और बहुत सी फालतू भावुकता जगाना अब बंद होना चाहिए, यही उपर्युक्त 'यथातथ्यवाद' के अनुयायियों का कहना है। योरप मे जब 'कला' और 'सौंदर्य' की बड़ी पुकार मची और कुछ कलाकार, कवि और लेखक अपना यही काम समझने लगे कि जगत् के सुंदर पक्ष से सामग्री चुन-चुनकर एक काल्पनिक सौंदर्य-सृष्टि खड़ी करें और उसका मधुपान करके झूमा करे, तब इसकी घोर प्रतिक्रिया वहाँ आवश्यक थी और यहाँ भी 'सौंदर्यवाद' और 'कलावाद' का हिंदी में खासा चलन होने के कारण अब आवश्यक हो गई है। जब कोई बात हद के बाहर जाकर जी उबाने और विरक्ति उत्पन्न करने लगती है तब साहित्य के क्षेत्र में प्रतिक्रिया अपेक्षित होती है। योरप के साहित्य-क्षेत्र में एकांगदर्शिता इतनी बढ़ गई है कि किसी न किसी हद पर जाकर कोई न कोई वाद बराबर खड़ा होता रहता है और आगे बढ़ चलता है। उसके थोड़े ही दिनों पीछे बड़े वेग से उसकी प्रतिक्रिया होती है जिसकी धारा दूसरी हद की ओर बढ़ती है। अतः योरप के किसी 'वाद' को लेकर चिल्लानेवालों को यह समझ रखना चाहिए कि उसका बिल्कुल उलटा वाद भी पीछे लग रहा है।

प्रतिक्रिया के रूप में निकली हुई साहित्य की शाखाएँ प्रतिक्रिया का रोष ठंडा होने पर धीरे धीरे पलटकर मध्यम पथ पर आ जाती हैं। कुछ दिनों तक तो वे केवल चिढ़ाती सी जान पड़ती हैं, पीछे शांत भाव से सामंजस्य के साथ चलने लगती हैं। 'भावुकता' भी जीवन का, एक अंग है, अतः साहित्य की किसी शाखा से हम उसे बिल्कुल हटा तो सकते नहीं। हाँ यदि वह व्याधि के रूप में––फीलपाँव की तरह––बढ़ने लगे, तो उसकी रोक-थाम आवश्यक है।

नाटक का जो नया स्वरूप लक्ष्मीनारायणजी योरप से लाए हैं उसमे काव्यत्व का अवयव भरसक नहीं आने पाया है। उनके नाटकों में न चित्रमय [ ५५८ ]और भावुकता से लदे भाषण हैं, न गीत या कविताएँ। खरी खरी बात कहने का जोश कहीं कहीं अवश्य है। इस प्रणाली पर उन्होंने कई नाटक लिखे हैं, जैसे, 'मुक्ति का रहस्य', 'सिंदूर की होली', 'राक्षस का मंदिर', 'आधी रात'।

समाज के कुत्सित, वीभत्स और पाखंडपूर्ण अंशों के चटकीले दृश्य दिखाने के लिये पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने छोटे नाटकों या प्रहसनों से भी काम लिया है। 'चुम्बन' और 'चार बेचारे' (संपादक, अध्यापक, सुधारक, प्रचारक) इसीलिये लिखे गए हैं। 'महात्मा ईसा' के फेर में तो वे नाहक पड़े।

पं॰ उदयशंकर भट्ट ने, जो पंजाब में बहुत अच्छी साहित्य-सेवा कर रहे हैं, 'तक्षशिला', 'राका', 'मानसी', आदि कई अच्छे काव्यों के अतिरिक्त, अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं। 'दाहर या सिंधपतन' तथा 'विक्रमादित्य' ऐतिहासिक नाटक हैं। हाल में 'कमला' नामक एक सामाजिक नाटक भी आपने लिखा है जिसमें किसान-आंदोलन तथा सामाजिक असामंजस्य का मार्मिक चित्रण है। 'दस हजार' नाम का एक एकांकी नाटक भी आपने इधर लिखा है।

भट्टजी की कला का पूर्ण विकास पौराणिक नाटकों में दिखाई पड़ता है। पौराणिक क्षेत्र के भीतर से वे ऐसे पात्र ढूँढकर लाए हैं जिनके चारों ओर जीवन की रहस्यमयी विषमताएँ बड़ी गहरी छाया डालती हुई आती हैं––ऐसी विषमताएँ जो वर्तमान समाज को भी क्षुब्ध करती रहती है। 'अंबा' नाटक में भीष्म द्वारा हरी हुई अंबा की जन्मांतर-व्यापिनी प्रतीकार-वासना के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष संबंध की वह विषमता भी सामने आती है जो आजकल के महिला आंदोलनों, की तह में वर्तमान है। 'मत्स्यगंधा' एक भाव-नाट्य या पद्यबद्ध नाटक है। उसमें जीवन का वह रूप सामने आता है जो ऊपर से सुख-पूर्ण दिखाई पड़ता है, पर जिसके भीतर भीतर न जाने कितनी उमंगों और मधुर कामनाओं के ध्वंस की विषाद-धारा यहाँ से वहाँ तक छिपी मिलती है। 'विश्वामित्र' भी इसी ढंग का एक सुंदर नाटक है। चौथा नाटक 'सागरविजय' भी उत्तम है। पौराणिक सामग्री का जैसा सुंदर उपयोग भट्टजी ने किया है, वैसा कम देखने में आता है। ऐतिहासिक नाटक-रचना में जो स्थान 'प्रसाद' और 'प्रेमी' का है, पौराणिक नाटक-रचना में वही स्थान भट्टजी का है। [ ५५९ ]श्री जगन्नाथद्रसाद 'मिलिंद' ने महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक से लेकर अंत तक का वृत्त लेकर 'प्रताप-प्रतिज्ञा' नाटक की रचना की है। स्व॰ राधाकृष्णदासजी के 'प्रताप-नाटक' का आरंभ मानसिंह के अपमान से होता है जो नाट्यकला की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है। परिस्थितियों को प्रधानता देने में भी 'मिलिंद' जी का चुनाव उतना अच्छा नहीं है। कुछ ऐतिहासिक त्रुटियाँ भी है।

श्री चतुरसेन शास्त्री ने उपन्यास और कहानियाँ तो लिखी ही हैं, नाटक की ओर भी हाथ बढ़ाया है। अपने 'अमर राठौर' और 'उत्सर्ग' नामक ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने कथावस्तु को अपने अनुकूल गढ़ने में निपुणता अवश्य दिखाई है, पर अधिक ठोंक-पीट के कारण कहीं कही ऐतिहासिकता, और कहीं कहीं घटनाओं की महत्ता भी, झड़ गई है।

अँगरेज कवि शैली के ढंग पर श्री सुमित्रानंदन पंत ने कवि-कल्पना को दृश्य रूप देने के लिये 'ज्योत्स्ना' नाम से एक रूपक लिखा है। पर शेली का रूपक (Prometheus Unbound) तो आधिदैविक शासन से मुक्ति और जगत् के स्वातंत्र्य का एक समन्वित प्रसंग लेकर चला है, और उसमे पृथ्वी, वायु आदि आधिभौतिक देवता अपने निज के रूप में आए हैं, किंतु 'ज्योत्स्ना' मे बहुत दूर तक केवल सौंदर्य-चयन करनेवाली कल्पना मनुष्य के सुख-विलास की भावना के अनुकूल चमकती उषा, सुरभित समीर, चटकती कलियाँ, कलरव करते विहंग आदि को अभिनय के लिये मनुष्य के रंगमंच पर जुटाने में प्रवृत्त है। उसके उपरांत आजकल की हवा में उड़ती हुई कुछ लोकसमस्याओं पर कथोपकथन है। सब मिला कर क्या है, यह नहीं कहा जा सकता।

श्री कैलाशनाथ भटनागर का 'भीम-प्रतिज्ञा' भी विद्यार्थियों के योग्य अच्छा नाटक है।

एकांकी नाटक का उल्लेख आरंभ में हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि किस प्रकार पहले-पहल दो-एक व्यक्ति उसे भारतीय नाट्य साहित्य में एक अश्रुतपूर्व वस्तु समझते हुए लेकर आए। अब इधर हिंदी के कई अच्छे कवियों और नाटककारों ने भी कुछ एकांकी नाटक लिखे है जिनका एक अच्छा [ ५६० ] संग्रह "आधुनिक एकांकी नाटक" के नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें श्रीसुदर्शन, रामकुमार वर्मा, भुवनेश्वर, उपेंद्रनाथ अश्क, भगवतीचरण वर्मा, धर्मप्रकाश आनंद, उदयशंकर भट्ट के क्रमशः 'राजपूत की हार', 'दस मिनट', 'स्ट्राइक', 'लक्ष्मी का स्वागत', 'सबसे बड़ा आदमी', 'दीन' तथा 'दस हजार' नाम के नाटक संगृहीत हैं।

हिंदी के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उपन्यासकारों ने भी––जैसे, बा॰ मैथिलशरण गुप्त, श्री वियोगी हरि, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन––नाटक की ओर हाथ बढ़ाया, पर उनका मुख्य स्थान कवियों और उपन्यासकारों के बीच ही रहा।

मौलिक नाटकों के अतिरिक्त संस्कृत के पुराने नाटकों में से भास के 'स्वप्नवासवदत्ता' (अनुवादक––सत्यजीवन वर्मा), 'पंचरात्र', 'मध्यम व्यायोग', 'प्रतिज्ञायौगधरायण’ (अनु॰––ब्रजजीवनदास) ; 'प्रतिमा' (अनु॰––बलदेव शास्त्री) तथा दिङ्नाग के 'कुंदमाला' नाटक (अनु॰––वागीश्वर विद्यालकार) के अनुवाद भी हिंदी में हुए।

जर्मन कवि गेटे के प्रसिद्ध नाटक 'फाउस्ट' का अच्छा अनुवाद श्री भोलानाथ शर्मा एम॰ ए॰ ने किया है।