हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ (निबंध)

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निबंध

विश्वविद्यालयों के उच्च शिक्षा-क्रम के भीतर हिंदी-साहित्य का समावेश हो जाने के कारण उत्कृष्ट कोटि के निबंध की––ऐसे निबंधों की जिनकी असाधारण शैली या गहन विचारधारा पाठकों को मानसिक श्रमसाध्य नूतन उपलब्धि के रूप में जान पड़े––जितनी ही आवश्यकता है उतने ही कम वे हमारे सामने आ रहे हैं। निबंध की जो स्थिति हमें द्वितीय उत्थान में दिखाई पड़ी प्रायः वही स्थिति इस वर्त्तमान काल में भी बनी हुई है। अर्थ वैचित्र्य और भाषा शैली का नूतन विकास जैसा कहानियों के भीतर प्रकट हुआ है, वैसा निबंध के क्षेत्र में नहीं देखने में आ रहा है, जो उसका उपयुक्त स्थान है। [ ५६१ ]यदि किसी रूप में गद्य की कोई नई गति-विधि दिखाई पड़ी तो काव्यात्मक गद्य-प्रबंधों के रूप में। पहले तो बंगभाषा के 'उद्भ्रात प्रेम' (चंद्रशेखर मुखोपाध्याय कृत) को देख कुछ लोग उसी प्रकार की रचना की ओर झुके; पीछे भावात्मक गद्य की कई शैलियों की ओर। 'उद्भ्रांत प्रेम' उस विक्षेप शैली पर लिखा गया था जिसमें भावावेश द्योतित करने के लिये भाषा बीच बीच मे असंबद्ध अर्थात् उखड़ी हुई होती थी। कुछ दिनों तक तो उसी शैली पर प्रेमोद्गार के रूप में पत्रिकाओं में कुछ प्रबंध––यदि उन्हें प्रबंध कह सके––निकले जिनमें भावुकता की झलक यहाँ से वहाँ तक रहती थी। पीछे श्री चतुरसेन शास्त्री के 'अंतस्तल' में प्रेम के अतिरिक्त और दूसरे भावों की भी प्रबल व्यंजना अलग अलग प्रबंधों में की गई जिनमें कुछ दूर तक एक ढंग पर चलती धारा के बीच बीच में भाव का प्रबल उत्थान दिखाई पड़ता था। इस प्रकार इन प्रबंधों की भाषा तरंगवती धारा के रूप में चली थी अर्थात् उसमें 'धारा' और 'तरंग' दोनों का योग था। ये दोनों प्रकार के गद्य बंगाली थिएटरों की रंग-भूमि के भाषणों के से प्रतीत हुए।

पीछे रवींद्र बाबू के प्रभाव से कुछ रहस्योन्मुख आध्यात्मिकता का रंग लिए जिस भावात्मक गद्य का चलन हुआ वह विशेष अलंकृत होकर अन्योक्ति-पद्धति पर चला। ब्रह्मसमाज ने जिस प्रकार ईसाइयों के अनुकरण पर अपनी प्रार्थना का विशेष दिन रविवार रखा था, उसी प्रकार अपने भक्ति-भाव की व्यंजना के लिये पुराने ईसाई-संतों की पद्धति भी ग्रहण की। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायगी। ईसा की बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में सत बरनार्ड (St–Bernard) नाम के प्रसिद्ध भक्त हो गए है, उन्होंने दूल्हे रूप ईश्वर के हृदय के 'तीसरे कक्ष' में प्रवेश का इस प्रकार उल्लेख किया है––

"यद्यपि वे कई बार मेरे भीतर आए, पर मैने न जाना कि वे कब आए। आ जाने पर कभी-कभी मुझे उनकी आहट मिली है; उनके विद्यमान होने का स्मरण भी मुझे है; वे आनेवाले हैं, इसका आभास मुझे कभी कभी पहले से मिला है; पर वे कब भीतर आए और कब बाहर गए इसका पता मुझे कभी न चला।" [ ५६२ ]इसी प्रकार उस परोक्ष आलंबन को प्रियतम मानकर उसके साथ संयोग और वियोग की अनेक दशाओं की कल्पना इस पद्धति की विशेषता है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की रचना इसी पद्धति पर हुई है। हिंदी में भी इस ढंग की रचनाएँ हुई जिनमें राय कृष्णदासजी की 'साधना', 'प्रवाल' और 'छायापथ', वियोगी हरि जी की 'भावना' और 'अंतर्नाद' विशेष उल्लेख योग्य हैं। हाल में श्री भँवरमल सिंघी ने 'वेदना' नाम की इसी ढंग की एक पुस्तक लिखी हैं जिसके भूमिका-लेखक हैं भाषातत्व के देश-प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

यह तो हुई अध्यात्मिक या सांप्रदायिक क्षेत्र से गृहीत लाक्षणिक भावुकता, जो बहुत कुछ अभिनीत या अनुकृत होती है अर्थात् बहुत कम दशाओं में हृदय की स्वाभाविक पद्धति पर चलती है। कुछ भावात्मक प्रबंध लौकिक प्रेम को लेकर भी मासिक पत्रों में निकलते रहते हैं जिनमें चित्र-विधान कम और कसक, टीस, वेदना अधिक रहती है।

अतीत के नाना खंडों में जाकर रमनेवाली भावुकता का मनुष्य की प्रकृति में एक विशेष स्थान है। मनुष्य की इस प्रकृतिस्थ भावुकता का अनुभव हम आप भी करते हैं और दूसरों को भी करते हुए पाते हैं। अतः यह मानव-हृदय की एक सामान्य वृत्ति है। बड़े हर्ष की बात है कि अतीत-क्षेत्र में रमानेवाली अत्यंत मार्मिक और चित्रमयी भावना लेकर महाराजकुमार डाक्टर श्री रघुबीरसिंह जी (सीतामऊ, मालवा) हिंदी साहित्य-क्षेत्र में आए। उनकी भावना मुगल-सम्राटों के कुछ अवशिष्ट चिह्न सामने पाकर प्रत्यभिज्ञा के रूप में मुगलसाम्राज्य-काल के कभी मधुर, भव्य और जगमगाते दृश्यों के बीच, कभी पतनकाल के विषाद, नैराश्य और वेबसी की परिस्थितियों के बीच बड़ी तन्मयता के साथ रमी है। ताजमहल , दिल्ली का लाल किला, जहाँगीर और नूरजहाँ की कब्र इत्यादि पर उनके भावात्कक प्रबंधों की शैली बहुत ही मार्मिक और अनूठी हैं।

गद्य-साहित्य में भावात्मक और काव्यात्मक गद्य को भी एक विशेष स्थान है, यह तो मानना ही पड़ेगा। अतः उपयुक्त क्षेत्र में उसका आविर्भाव और [ ५६३ ]प्रसार अवश्य प्रसन्नता की बात है। पर दूसरे क्षेत्रों में भी, जहाँ गंभीर विचार और व्यापक दृष्टि अपेक्षित है, उसे घसीटे जाते देख दुःख होता है। जो चिंतन के गूढ़ विषय हैं उनको भी लेकर कल्पना की क्रीड़ा दिखाना कभी उचित नहीं कहा जा सकता। विचार-क्षेत्रों के ऊपर इस भावात्मक और कल्पनात्मक प्रणाली का धावा पहले-पहल 'काव्य का स्वरूप' बतलानेवाले निबंधों में बंग-साहित्य के भीतर हुआ, जहाँ शेक्सपियर की यह उक्ति गूँज रही थी––

"सौंदर्य मद में झूमती हुई कवि की दृष्टि स्वर्ग से भूलोक और भूलोक से स्वर्ग तक विचरती* रहती है"[१]

काव्य पर जाने कितने ऐसे निबंध लिखे गए जिनमें सिवा इसके कि "कविता अमरावती से गिरती हुई अमृत की धारा है।" "कविता हृदय-कानन में खिली हुई कुसुम-माला है," "कविता देवलोक के मधुर संगीत की गूँज है" और कुछ भी न मिलेगा। यह कविता का ठीक ठीक स्वरूप बतलाना है कि उसकी विरुदावली बखानना? हमारे यहाँ के पुराने लोगों में भी 'जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि' ऐसी ऐसी बहुत सी विरुदावलियाँ प्रचलित थीं, पर वे लक्षण या स्वरूप पूछने पर नहीं कही जाती थीं। कविता भावमयी, रसमयी और चित्रमयी होती है, इससे यह आवश्यक नहीं कि उसके स्वरूप का निरूपण भी भावमयी, रसमय और चित्रमय हो। 'कविता' के ही निरूपण तक भावात्मक प्रणाली का यह धावा रहता तो भी एक बात थी। कवियों की आलोचना तथा और और विषयों में भी इसका दखल हो रहा है, यह खटके की बात है। इससे हमारे साहित्य में घोर विचार-शैथिल्य और बुद्धि का आलस्य फैलने की आशंका है। जिन विषयों के निरूपण में सूक्ष्म और सुव्यवस्थित विचार-परंपरा अपेक्षित है, उन्हें भी इस हवाई शैली पर हवा बताना कहाँ तक ठीक होगा?


  1. The poet's eye in frenzy rolling Doth glance from heaven to earth and earth to heaven