हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ (समालोचना)

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समालोचना और काव्य-मीमांसा

इस तृतीय उत्थान में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंतःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, दीनदयाल गिरि और कबीरदास की विस्तृत आलोचनाएँ पुस्तकाकार और भूमिकाओं के रूप में भी निकलीं। इस इतिहास के लेखक ने तुलसी, सूर और जायसी पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं जिनमें से प्रथम 'गोस्वामी तुलसी' के नाम से पुस्तकाकार छपी है, शेष दो क्रमशः 'भ्रमरगीत-सार' और 'जायसी-ग्रंथावली' में संमिलित है। स्व॰ लाला भगवानदीन की सूर, तुलसी और दीनदयाल गिरि की समालोचनाएँ उनके संकलित और संपादित 'सूर-पंचरत्न', 'दोहावली' और 'दीनदयाल गिरि ग्रंथावली' में संमिलित है। पं॰ अयोध्या सिंह उपाध्याय की कबीर-समीक्षा उनके द्वारा संगृहीत 'कबीर-वचनावली' के साथ और डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल की 'कबीर-ग्रंथावली' के साथ भूमिका-रूप मे सनिविष्ट है।

इसके उपरांत 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँधा और

(१) केशव की काव्य-कला (श्री कृष्णशंकर शुक्ल),
(२) गुप्तजी की कला (प्रो॰ सत्येंद्र),
(३) प्रेमचंद की उपन्यास-कला (पं॰ जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'),
(४) प्रसाद की नाट्य कला,
(५) पद्माकर की काव्य-साधना (अखौरी गंगाप्रसादसिंह),
(६) 'प्रसाद' की काव्य-साधना (श्री रामनाथ लाल 'सुमन'),
(७) मीरा की प्रेम-साधना (पं॰ भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव'),

एक दूसरे के आगे पीछे निकलीं। इनमें से कुछ पुस्तकें तो समालोचना की असली पद्धति पर निर्णयात्मक और व्याख्यात्मक दोनों ढंग लिए हुए चली हैं तथा कवि के बाह्य और आभ्यंतर दोनों का अच्छा परिचय कराती है, जैसे, 'केशव की काव्यकला', 'गुप्तजी की कला'। 'केशव की काव्यकला' में पं॰ कृष्णशंकर शुक्ल ने अच्छा विद्वत्तापूर्ण अनुसंधान भी किया है। उनका 'कविवर रत्नाकर' भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक दंग से सामने रखता है। पं॰ गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' [ ५६५ ]कृत 'गुप्तजी की काव्यधारा' में भी मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना के विविध पक्षों का सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ उद्घाटन हुआ है । 'पद्माकर की काव्य-साधना' द्वारा भी पद्माकर के संबंध में बहुत सी बातों की जानकारी हो जाती है। इधर हाल में पं॰ रामकृष्ण शुक्ल ने अपनी 'सुकविसमीक्षा' में कबीर, सूर, जायसी, तुलसी, मीरा, केशव, बिहारी, भूषण, भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद पर अच्छे मीक्षात्मक निबंध लिखे हैं। मीरा की प्रेम-साधना भावात्मक है जिसमें 'माधव' जी मीरा, के भावों का स्वरूप पहचानकर उन भावों में आप भी मग्न होते दिखाई पड़ते हैं। इन सब पुस्तकों से हमारा समीक्षा साहित्य बहुत कुछ समृद्ध हुआ है, इसमें संदेह नहीं। पं॰ शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'हमारे साहित्य-निर्माता' नाम की एक पुस्तक लिखकर हिंदी के कई वर्तमान कवियों और लेखकों की प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अपने ढंग पर अच्छा आभास दिया है।

ठीक ठिकाने से चलनेवाली समीक्षाओं को देख जितना संतोष होता है, किसी कवि की समीक्षा के नाम पर उसकी रचना से सर्वथा असंबद्ध चित्रमयी कल्पना और भावुकता की सजावट देख उतनी ही ग्लानि होती है। यह सजावट अंग्रेजी के अथवा बँगला के समीक्षा-क्षेत्र से कुछ विचित्र, कुछ विदग्ध, कुछ अतिरंजित चलते शब्द और वाक्य ला लाकर खड़ी की जाती है। कहीं कहीं तो किसी अँगरेजी कवि के संबंध में की हुई समीक्षा का कोई खंड ज्यों का त्यों उठाकर किसी हिंदी-कवि पर भिड़ा दिया जाता है। ऊपरी रंग-ढंग से तो ऐसा जान पड़ेगा कि कवि के हृदय के भीतर सेध लगाकर घुसे है और बड़े बड़े गूढ़ कोने, झाँक रहे हैं, पर कवि के उद्धृत पद्यों से मिलान कीजिए तो पता चलेगा, कि कवि के विवक्षित भावों से उनके वाग्विलास का कोई लगाव नहीं। पद्य का आशय या भाव कुछ और है, आलोचकजी उसे उद्धृत करके कुछ और ही राग अलाप रहे है। कवि के मानसिक विकास का एक आरोपित इतिहास तक––किसी विदेशी कवि के मानसिक विकास का इतिहास कहीं से लेकर––वे सामने रखेंगे, पर इस बात का कहीं कोई प्रमाण न मिलेगा कि आलोच्य कवि के पचीस-तीस पद्यों का भी ठीक तात्पर्य उन्होंने समझा है। ऐसे आलोचकों के शिकार 'छायावादी' कहे जानेवाले कुछ कवि ही अभी हो रहे हैं। नूतन [ ५६६ ]शाखा के एक अच्छे कवि हाल ही में मुझसे मिले जो ऐसे कदरदानों से पनाह माँगते थे। अब सुनने में आ रहा है कि इस ढंग के ऊँचे हौसलेवाले दो एक आलोचक तुलसी और सूर के चारों ओर भी ऐसा ही चमचमाता वाग्जाल बिछानेवाले हैं।

काव्य की 'छायावाद' कही जानेवाली शाखा चले काफी दिन हुए। पर ऐसी कोई समीक्षा-पुस्तक देखने में न आई जिसमे उक्त शाखा की रचना प्रक्रिया (Technique), प्रसार की भिन्न-भिन्न भूमियाँ, सोच-समझकर निर्दिष्ट की गई हों। केवल प्रो॰ नगेंद्र की 'सुमित्रानंदन पंत' पुस्तक ही ठिकाने की मिली। बात यह है कि इधर अभिव्यंजना का वैचित्र्य लेकर 'छायावाद' चला, उधर उसके साथ ही प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा (Impressionist Criticism) का फैशन बंगाल होता हुआ आ धमका। इस प्रकार की समीक्षा में कवि ने क्या कहा है, उसका ठीक भाव या आशय क्या है, यह समझने या समझाने की आवश्यकता नहीं आवश्यक इतना ही है कि उसकी किसी रचना का जिसके हृदय पर जो प्रभाव पड़े उसका वह सुंदरता और अनूठेपन के साथ वर्णन कर दे। कोई यह नहीं पूछ सकता कि कवि का भाव तो कुछ और है, उसका यह प्रभाव कैसे पड़ सकता है। इस प्रकार की समीक्षा के चलन ने अध्ययन, चिंतन और प्रकृत समीक्षा का रास्ता ही छेंक लिया।

प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई ठीक-ठिकाने की वस्तु ही नहीं। न ज्ञान के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य है, न भाव के क्षेत्र में। उसे समीक्षा या आलोचना कहना ही व्यर्थ है। किसी कवि की आलोचना कोई इसी लिये पढ़ने बैठता है। कि उस कवि के लक्ष्य को, उसके भाव को, ठीक-ठीक हृदयंगम करने में सहारा मिले; इसलिये नहीं कि आलोचक की भाव-भंगी और सजीले पद-विन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करे। यदि किसी रमणीय अर्थ-गर्भित पद्य की आलोचना इसी रूप में मिले कि "एक बार इसी कविता के प्रवाह में पड़कर बहना ही पड़ता है। स्वयं कवि को भी विवशता के साथ बहना पड़ा है, वह एकाधिक बार मयूर की भाँति अपने सौंदर्य्य पर आप ही नाच उठा है", तो उसे लेकर कोई क्या करेगा?

सारे योरप की बात छोड़िए, अँगरेजी के वर्तमान समीक्षा-क्षेत्र में ही प्रभा– [ ५६७ ]वाभिव्यंजक समीक्षा को निस्सारता प्रकट करनेवाली पुस्तकें बराबर निकल रही हैं[१]। इस ढंग की समीक्षाओं में प्रायः भाषा विचार में बाधक बनकर आ खड़ी होती है। लेखक का ध्यान शब्दों की तड़क-भड़क, उनकी आकर्षण योजना, अपनी उक्ति के चमत्कार, आदि में उलझा रहता है जिनके बीच स्वच्छंद विचारधारा के लिये जगह ही नहीं मिलती। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में भाषा की क्रीड़ा किस प्रकार बाधक हुई है, कुछ बँधे हुए शब्द और वाक्य किस प्रकार विचारों को रोक रहे हैं, ऐसी बातें जिनकी कहीं सत्ता नहीं किस प्रकार घने वाग्जाल के भीतर से भूत बनकर झाँकती रही हैं, यह दिखाते हुए इस बीसवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध समालोचना-तत्त्वज्ञ ने बड़ी खिन्नता प्रकट की हैं[२]

हमारे यहाँ के पुराने व्याख्याताओं और टीकाकारों की अर्थक्रीड़ा प्रसिद्ध है। किसी पद्य का और का और अर्थ करना तो उनके बाएँ हाथ का खेल हैं। तुलसीदासजी की चौपाइयों से बीस बीस अर्थ करनेवाले अभी मौजूद हैं। अभी थोड़े दिन हुए, हमारे एक मित्र ने सारी 'बिहारी-सतसई' का शासरस-परक अर्थ करने की धमकी दी थी। फारसी के हाफिज आदि शायरों की शृंगारी उक्तियों के आध्यात्मिक अर्थ प्रसिद्ध हैं, यद्यपि अरबी-फारसी के कई पहुँचे हुए विद्वान् आध्यात्मिकता नहीं स्वीकार करते हैं। इस पुरानी प्रवृत्ति का नया संस्करण भी कहीं कहीं दिखाई पड़ने लगा हैं। रवींद्र बाबू ने अपनी प्रतिभा के बल से कुछ संस्कृत-काव्यों की समीक्षा करते हुए कहीं कहीं आध्यात्मिक अर्थों की योजना की [ ५६८ ]है। 'प्राचीन साहित्य' नाम की पुस्तक में मेघदूत आदि पर जो निबंध हैं उनमें ये बातें मिलेगी। काशी के एक व्याख्यान में उन्होंने 'अभिज्ञानशाकुंतल' के सारे आख्यान का आध्यात्मिक पक्ष निरूपित किया था। इस संबंध में हमारा यही कहना है कि इस प्रकार की प्रतिभापूर्ण कृतियों को भी अपना अलग मूल्य है। वे कल्पनात्मक साहित्य के अंतर्गत अवश्य है, पर विशुद्ध समालोचना की कोटि में नहीं आ सकती है।

योरपवालों को हमारी आध्यात्मिकता बहुत पसंद आती है। भारतीयों की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की चर्चा पच्छिम में बहुत हुआ करती है। इस चर्चा के मूल में कई बाते हैं। एक तो ये शब्द हमारी अकर्मण्यता और बुद्धि शैथिल्य पर परदा डालते है। अतः चर्चा या तारीफ करनेवालों में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो चाहते है कि यह परदा पड़ा रहे। दूसरी बात यह है कि ये शब्द पूरबी और पच्छिमी जातियों के बीच एक ऐसी सीमा बाँधते है जिससे पच्छिम में हमारे संबंध में एक प्रकार का कुतूहल-सा जाग्रत रहता है और हमारी बातें कुछ अनूठेपन के साथ कही जा सकती है। तीसरी बात यह है कि आधिभौतिक समृद्धि के हेतु जो भीषण संघर्ष सैकड़ो वर्ष तक योरप में रहा उससे क्लति और शिथिल होकर बहुत से लोग जीवन के लक्ष्य में कुछ परिवर्तन चाहने लगे––शांति और विश्राम के अभिलाषी हुए। साथ ही साथ धर्म और विज्ञान का झगड़ा भी बंद हुआ। अतः योरप में जो इधर, अध्यात्मिकता की चर्चा बढ़ी वह विशेषतः प्रतिवर्तन (Reaction) के रूप में। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं॰ रामवतारजी पांडेय और चंद्रधरजी गुलेरी इस आध्यात्मिकता की चर्चा से बहुत घबराया करते थे।

पुस्तकों और कवियों की आलोचना के अतिरिक्त पाश्चात्य काव्य-मीमांसा को लेकर भी बहुत से लेख और कुछ पुस्तकें इस काल में लिखी गई––जैसे, बा॰ श्यासुंदरदास कृत साहित्यालोचन, श्री पदुमलाल पुन्नीखाल बख्शी कृत विश्व-साहित्य। इनमें से पहिली पुस्तक तो शिक्षोपयोगी है। दूसरी पुस्तक में योरोपीय साहित्य के विकास तथा पाश्चात्य काव्य-समीक्षकों के कुछ प्रचलित-मतों का दिग्दर्शन है।

इधर दो एक लेखकों की एक और प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। वे योरप के [ ५६९ ]कुछ कला संबंधी एकदेशीय और अत्युक्त मतों को सामने लाकर हिंदीवालों की आँखो में उसी प्रकार चकाचौंध उत्पन्न करना चाहते हैं जिस प्रकार कुछ लोग वहाँ के फैशन की तड़क-भड़क दिखाकर। जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस और स्वेडन इत्यादि अनेक देशों के नए-पुराने कवियों, लेखकों और समीक्षकों के नाम गिनाकर वे एक प्रकार का आतंक उत्पन्न करना चाहते हैं। वे कला संबंधी विलयिती पुस्तकों की बातें लेकर और कहीं मैटरलिंक (Materlinck), कहीं गेटे (Goethe), कहीं टाल्सटाय (Tolstoy) के उद्धरण देकर अपने लेखों की तड़क-भडक भर बढ़ाते हैं। लेखों को यहाँ से वहाँ तक पढ़ जाइए, लेखकों के अपने किसी विचार का कहीं पता न लगेगा। उद्धृत मतों की व्याप्ति कहाँ तक है, भारतीय सिद्धांतों के साथ उनका कहाँ सामजस्य है और कहाँ विरोध, इन सब बातों के विवेचन का सर्वथा अभाव पाया जाएगा। साहित्यिक विवेचन से संबंध रखनेवाले जिन भावों और विचारों के द्योतन के लिये हमारे यहाँ के साहित्य-ग्रंथों में बराबर से शब्द-प्रचलित चले आते हैं उनके स्थान पर भद्दे गढ़े हुए शब्द देखकर लेखकों की अनभिज्ञता की और बिना ध्यान गए नहीं रहता। समालोचना के क्षेत्र में ऐसे विचारशून्य लेखों से कोई विशेष लाभ नहीं।

पश्चिम के काव्य-कला संबंधी प्रचलित वादों में अकसर एकाग दृष्टि की दौड़ ही विलक्षण दिखाई पड़ा करती है। वहाँ के कुछ लेखक काव्य के किसी एक पक्ष को उसका पूर्ण स्वरूप मान, इतनी दूर तक ले जाते हैं कि उनके कथन में अनूठी सूक्ति का-सा चमत्कार आ जाता है और बहुत से लोग उसे सिद्धांत या विचार के रूप में ग्रहण कर चलते हैं। यहाँ हमारा काम काव्य के स्वरूप पर विचार करना या प्रबंध लिखना नही बल्कि प्रचलित प्रवृत्तियों और उनके उद्गमों तथा कारणों का दिग्दर्शन कराना मात्र है। अतः यहाँ काव्य या कला के संबंध में उन प्रवादों का, जिनका योरप में सबसे अधिक फैशन रहा है, संक्षेप में उल्लेख करके तब मैं इस प्रसंग को समाप्त करूँगा। इसकी आवश्यकता यहाँ मैं केवल इसलिये समझता हूँ कि एक ओर योरप में तो व्यापक और सूक्ष्म दृष्टि सपन्न समीक्षकों द्वारा इन प्रवादों का निराकरण हो रहा है, दूसरी ओर हमारे हिंदी साहित्य में इनकी भद्दी नकल शुरू हुई है। [ ५७० ]योरप में जिस प्रवाद का इधर सबसे अधिक फैशन रहा है वह है–– "काव्य का उद्देश्य काव्य ही हैं" या "कला का उद्देश्य कला ही है"। इस प्रवाद के कारण जीवन और जगत् की बहुत सी बाते, जिनका किसी काव्य के मूल्य निर्णय में बहुत दिनों से योग चला आ रहा था, यह कहकर टाली जाने लगीं कि "ये तो इतर वस्तुएँ है, शुद्ध कला-क्षेत्र के बाहर की व्यवस्थाएँ हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रवाद की योजना करनेवाले कई सामान खड़े हुए थे। कुछ तो इसमें जर्मन सौंदर्य-शास्त्रियों की, यह उद्भावना सहायक हुई कि सौंदर्य संबंधी अनुभव (AEsthetic experience) एक भिन्न ही प्रकार का अनुभव है जिसका और प्रकार के अनुभवों से कोई संबंध ही नहीं। इससे बहुतेरे साहित्यशास्त्री यह समझने लगे कि कला का मूल्य-निर्धारण भी उसके मूल्य को और सब मूल्यों से एकदम विच्छिन्न करके ही होना चाहिए। ईसा की १९वीं शताब्दी के मध्य भाग में ह्विस्लर (Whistler) ने यह मत प्रवर्तित किया जिसका चलन अब तक किसी न किसी रूप में रहा है। अँगरेजी में इम मत के सबसे प्रभावशाली व्याख्याताओं में डाक्टर ब्रेंडले (Dr. Bradley) हैं।

उन्होंने इस संबंध में कहा है––"यह (काव्य-सौंदर्य संबंधी) अनुभव अपना लक्ष्य आप ही है; इसका अपना निराला मूल्य है। अपने विशुद्ध क्षेत्र के बाहर भी इसका और प्रकार का मूल्य हो सकता है। किसी कविता से यदि धर्म और शिष्टाचार का भी साधन होता हो, कुछ शिक्षा भी मिलती हो, प्रबल मनोविकारो का कुछ निरोध भी संभव हो, लोकोपयोगी विधानों में कुछ सहायता भी पहुँचती हो अथवा कवि को कीर्ति या अर्थलाभ भी हो तो अच्छी ही बात है। इनके कारण भी उसकी कदर हो सकती है। पर इन बाहरी बातों के मूल्य के हिसाब से उसे कविता की उत्तमता की असली जाँच नहीं हो सकती। उसकी उत्तमता तो एक तृप्तिदायक कल्पनात्मक अनुभव-विशेष से संबंध रखती है। अतः उसकी परीक्षा भीतर से ही हो सकती है। किसी कविता को लिखते या जाँचते समय यदि बाहरी मूल्यों की ओर भी ध्यान रहेगा तो बहुत करके उसका मूल्य घट जायगा या छिप जाएगा। बात यह है कि कविता को यदि हम उसके विशुद्ध क्षेत्र से बाहर ले जायँगे तो उसका स्वरूप बहुत कुछ विकृत हो जाएगा, [ ५७१ ]क्योंकि उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग है, न अनुकृति। उनकी तो एक दुनिया ही निराली है––एकांत, स्वतःपूर्ण और स्वत्रंत।"[३]

काव्य और कला के संबंध में अब तक प्रचलित इस प्रकार के नाना अर्थवादों का पूरा निराकरण रिचर्ड्स (I. A. Richards) ने अपनी पुस्तक "साहित्यसमीक्षा सिद्धांत" (Principles of Literary Criticism)[४] में बड़ी सूक्ष्म और गंभीर मनोवैज्ञानिक पद्धति पर किया है। उपर्युक्त कथन में चारों मुख्य बातों की अलग अलग परीक्षा करके उन्होंने उनकी अपूर्णता, अयुक्तता और अर्थहीनता-प्रतिपादित की हैं। यहाँ उनके दिग्दर्शन का स्थान नहीं। प्रचलित सिद्धांत का जो प्रधान पक्ष है कि "कविता की दुनिया ही निराली हैं; उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग हैं, न अनुकृति" इस पर रिचर्ड्स के वक्तव्य का सारांश नीचे दिया जाता हैं––

"यह सिद्धांत कविता को जीवन से अगल समझने का आग्रह करता है। पर स्वंय डाक्टर ब्रैंडले इतना मानते हैं कि जीवन के साथ उसका लगाव भीतर-भीतर अवश्य है कि। हमारा कहना है कि यही भीतरी लगाव असल चीज है। ज्ञो कुछ काव्यानुभव (Poetic experience) होता है वह जीवन से ही होकर आता है काव्य-जगत् की शेष जगत् से भिन्न कोई सत्ता नहीं है न उसके कोई अलौकिक या विशेष नियम है। उसकी योजना बिल्कुल वैसे ही अनुभवों से हुआ करती है जैसे और सब अनुभव होते हैं। प्रत्येक काव्य एक परिमित अनुभवखंड मात्र है जो विरोधी उपादानों के संसर्ग से भी चटपट और कभी देर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। साधारण अनुभवों से उसमे यही विशेषता होती है कि उसकी योजना बहुत गूढ़ और नाजुक होती है। जरा सी ठेस से वह चूर चूर हो सकता है। उसकी एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वह एक हृदय से दूसरे हृदय में पहुँचाया जा सकता है। बहुत से हृदय उसका अनुभव बहुत थोड़े ही फेरफार के साथ कर सकते हैं। काव्यानुभव से मिलते– [ ५७२ ]जुलते और भी अनुभव होते हैं, पर इस अनुभव की सबसे बड़ी विशेषता हैं। यही सर्वग्राह्यता (Communicability) इसीलिए इसके प्रतीति-काल में हमें इसे अपनी व्यक्तिगत विशेष बातों की छूत से बचाए रखना पड़ता है[५]। यह सबके अनुभव के लिये होता है, किसी एक ही के नहीं। इसीलिये किसी काव्य को लिखते या पढ़ते समय हमें अपने अनुभव के भीतर उस काव्य और उस काव्य से इतर वस्तुओं के बीच अलगाव करना पड़ता है। पर यह अलगाव दो सर्वथा भिन्न या असमान वस्तुओं के बीच नहीं होता, बल्कि एक ही कोटि की वृत्तियों के भिन्न भिन्न विधानों के बीच होता हैं[६]

यह तो हुई रिचर्ड्स की मीमांसा। अब हमारे यहाँ के संपूर्ण काव्यक्षेत्र की अंतःप्रकृति की छानबीन कर जाइए, उसके भीतर जीवन के अनेक पक्षों पर और जगत् के नाना रूपों के साथ मनुष्य-हृदय का गूढ़ सामंजस्य निहित मिलेगा। साहित्यशास्त्रियों का मत लीजिए तो जैसे संपूर्ण जीवन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का साधन रूप है वैसे ही उसका एक अंग काव्य भी। 'अर्थ' का स्यूल और संकुचित अर्थ द्रव्यप्राप्ति ही नहीं लेना चाहिए, उसका व्यापक अर्थ 'लोक की सुखसमृद्धि' लेना चाहिए। जीवन के और साधनों की अपेक्षा काव्यानुभव में विशेषता यह होती है कि वह एक ऐसी रमणीयता के रूप में होता है जिसमें व्यक्तित्व का लय हो जाता है। बाह्य जीवन और अनजीवन की कितनी उच्च भूमियों पर इसे रमणीयता का उद्घाटन हुआ है, किसी काव्य की उच्चता और उत्तमता के निर्णय में इसका विचार अश्वय होता आया है, और होगा। हमारे यहाँ के लक्षणग्रथों में रसानुभव को जो 'लोकोत्तर' और 'ब्रह्मानंद-सहोदर' आदि कहा [ ५७३ ]है वह अर्थवाद के रूप में, सिद्धांत रूप में नहीं। उसका तात्पर्य केवल इतना ही हैं कि रस में व्यक्तित्व का लय हो जाता है।

योरप में समालोचना शास्त्र का क्रमागत विकास फ्रांस में ही हुआ। अतः फ्रांस का प्रभाव यूरोपीय देशों में बहुत कुछ रहा। विवरणात्मक समालोचना के अंतर्गत ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना का उल्लेख हो चुका है। पीछे प्रभाववादियों (Impressionists) का जो दल खड़ा हुआ वह कहने लगा कि हमें किसी कवि की प्रकृति, स्वभाव, सामाजिक परिस्थिति आदि से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल किसी काव्य को पढ़ने से जो आंनदपूर्ण प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ता है उसी को प्रकट करना चाहिए और उसी को समालोचना समझना चाहिए। प्रभाववादियों का पक्ष यह है "हमारे चित्त पर किसी काव्य से जो आंनद उत्पन्न होता है वही आलोचना है। इससे अधिक आलोचना और चाहिए क्या? जो प्रभाव हमारे चित्त पर पड़े उसी का वर्णन यदि हमने कर दिया तो समालोचना हो गई।" कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मत के अनुसार समालोचना एक व्यक्तिगत वस्तु है। उसके औचित्य अनौचित्य पर किसी को कुछ विचार करने की जरूरत नहीं। जिसपर जैसा प्रभाव पड़े वह वैसा कहे।

उक्त प्रभाववादियों की बात लें तो समालोचना कोई व्यवस्थित शास्त्र नहीं रह गया। वह एक कला की कृति से निकली हुई दूसरी कला की कृति, एक काव्य से निकला हुआ दूसरा काव्य, ही हुआ है।

काव्य की स्वरूप-मीमांसा के संबंध में योरप में इधर सबसे अधिक जोर रहा है 'अभिव्यंजनावाद' (Expressionism) का, जिसके प्रवर्तक हैं इटली के क्रोचे (Benedetto Croce) इसमें अभिव्यजना अर्थात् किसी बात को कहने का ढंग ही सब कुछ हैं, बात चाहे जो या जैसी हो अथवा कुछ ठीक ठिकाने की न भी हो। काव्य में जिस वस्तु या भाव का वर्णन है वह इस वाद के अनुसार उपादान मात्र है; समीक्षा में उसका कोई विचार अपेक्षित नहीं। काव्य में मुख्य वस्तु है वह आकार या साँचा जिसमें वह वस्तु या भाव डाला जाता है[७]। जैसे कुंडल की सुंदरता की चर्चा उसके आकार या [ ५७४ ]रूप को लेकर होती है, सोने को लेकर नहीं, वैसे ही काव्य के संबंध में भी समझना चाहिए। तात्पर्य यह कि अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन ही सब कुछ है, जिस वस्तु या भाव की अभिव्यंजना की जाती है, वह क्या है, कैसा है, यह सब काव्यक्षेत्र के बाहर की बात है। क्रोचे का कहना है कि अनूठी उक्ति की अपनी अलग सत्ता होती है, उसे किसी दूसरे कथन का पर्याय न समझना चाहिए। जैसे, यदि किसी कवि ने कहा कि "सोई हुई आशा आँख मलने लगी", तो यह न समझना चाहिए कि उसने यह उक्ति इस उक्ति के स्थान पर कही है कि "फिर कुछ कुछ आशा होने लगी।" वह एक निरपेक्ष उक्ति हैं। कवि को वही कहना ही था। वाल्मिकि ने जो यह कहा कि "न स संकुचितः यथाः येन वाली हतो गतः", वह इसके स्थान पर नहीं कि "तुम भी बाली के समान मारे जा सकते हो।"

इस वाद में तथ्य इतना ही है कि उक्ति ही कविता है, उसके भीतर जो छिपा अर्थ रहता है वह स्वतः कविता नहीं। पर यह बात इतनी दूर तक नहीं घसीटा जा सकती कि उसे उक्ति की मार्मिकता का अनुभव उसकी तह में छिपी हुई वस्तु या भाव पर बिना दृष्टि रखे ही हो सकता है। बात यह है कि 'अभिव्यंजनावाद' भी 'कलावाद' की तरह काव्य का लक्ष्य बेल-बूटे की नक्काशीवाला सौंदर्य मानकर चला है, जिसका मार्मिकता या भावुकता से कोई संबंध नहीं। और कलाओं को छोड़ यदि हम काव्य ही को ले तो इस 'अभिव्यंजनावाद' को 'वाग्वैचित्र्यवाद' ही कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के पुराने "वकोक्तिवाद' का विलायती उत्थान मान सकते हैं।

इन्हीं दोनों वादों की दृष्टि से यह कहा जाने लगा कि समालोचना के क्षेत्र से अब लक्षण, नियम, रीति, काव्यभेद, गुणदोष, छंदोव्यवस्था आदि का विचार उठ गया[८]। पर इस कथन को व्याप्ति कहाँ तक है, यह विचारणीय है। साहित्य के ग्रंथों में जो लक्षण, नियम आदि दिए गए थे वे विचार की व्यवस्था के लिये, काव्य संबंधों चर्चा के सुबीते के लिये। पर इन लक्षणों और नियमों का उपयोग गहरे और कठोर बंधन की तरह होने लगा और [ ५७५ ]उन्हीं को बहुत से लोग सब कुछ समझने लगे। जब कोई बात हद से बाहर जाने लगती है तब प्रतिवर्तन (Reaction) का समय आता है। योरप में अनेक प्रकार के वादों की उत्पत्ति प्रतिवर्तन के रूप में ही हुआ करती है। अतः हमें सामंजस्य-बुद्धि से काम लेकर अपना स्वतंत्र मार्ग निकालना चाहिए।

वेल बूटे और नक्काशी के लक्ष्य के समान काव्य का भी लक्ष्य सौंदर्यविधान लगातार कहते रहने से काव्य रचना पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका उल्लेख हो चुका है और यह भी कहा जा चुका है कि यह सब काव्य के साथ 'कला' शब्द लगने के कारण हुआ हैं। हमारे यहाँ काव्य की गिनती ६४ कलाओं के भीतर नहीं की गई है। यहाँ इतना और सूचित करना आवश्यक जान पड़ता है कि सौंदर्य की भावना को रूप देने में मनोविज्ञान के क्षेत्र से आए हुए उस सिद्धांत का भी असर पड़ा है जिसके अनुसार अतस्सज्ञा में निहित अतृप्त काम वासना ही कला-निर्माण की प्रेरणा करनेवाली अंतर्वृत्ति है। योरप में चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेल-बूटे आदि के समान कविता भी 'ललित कलाओं' के भीतर दाखिल हुई, अतः धीरे धीरे उसका लक्ष्य भी सौंदर्य-विधान ही ठहराया गया। जब कि यह सौंदर्य भावना काम वासना द्वारा प्रेरित ठहराई गई तब पुरुष कवि के लिये यह स्वाभाविक ही ठहरा कि उसकी सारी सौंदर्य-भावना स्त्रीमयी हो अर्थात् प्रकृति के अपार क्षेत्र में जो कुछ सुंदर दिखाई पड़े उसकी भावना स्त्री के रूप-सौंदर्य के भिन्न-भिन्न अंग लाकर ही की जाय। "अरुणोदय की छटा का अनुभव कामिनी के कपोलो पर दौड़ी हुई लज्जा की ललाई लाकर किया जाय; राका रजनी की सुषमा का अनुभव सुंदरी के उज्ज्वल वस्त्र या शुभ्र हास द्वारा किया जाय आकाश में फैलती हुई कादंबिनी तब तक सुंदर न लगे जब तक उस पर स्त्री के मुक्त कुंतल का आरोप न हो। आजकल तो स्त्री-कवियों की कमी नहीं है। उन्हें अब पुरुष कवियों का दीन अनुकरण न कर अपनी रचनाओं में क्षितिज पर उठती हुई मेघमाला को दाढ़ी-मूछ के रूप में देखना चाहिए।

काव्यरचना और काव्यचर्चा दोनो में इधर 'स्वप्न' और 'मंद' का प्रधान स्थान रहने लगा है। ये दोनों शब्द काव्य के भीतर प्राचीन समय में धर्म संप्रदायों से आए। लोगो की धारण थी कि संत या सिद्ध लोगों को बहुत [ ५७६ ]सी बातों का आभास या तो स्वप्न में मिलता था अथवा तन्मयता की दशा में। कवियों को अपने भावों में मग्न होते देख लोग उन्हें भी इस प्रत्यक्ष जगत् और जीवन से अलग कल्पना के स्वप्न-लोक में विचरनेवाले जीव प्यार और श्रद्धा से कहने लगे। यह बात बराबर कवियों की प्रशंसा में अर्थवाद के रूप में चलती रही। पर ईसा की इस बीसवीं सदी में आकर वह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में फ्रायड (Freude) द्वारा प्रदर्शित की गई। उसने कहा कि जिस प्रकार स्वप्न अतस्संज्ञा से निहित अतृप्त वासनाओ की तृप्ति का एक अंतर्विधान है, उसी प्रकार कलाओं को निर्माण करनेवाली कल्पना भी। इससे कवि कल्पना और स्वप्न का अभेद-भाव भी पक्का हो गया। पर सच पूछिए तो कल्पना में आई हुई वस्तुओं की अनुभूति और स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की अनुभूति के स्वरूप में बहुत अंतर हैं। अतः काव्यरचना या काव्यचर्चा में 'स्वप्न' की बहुत अधिक भरमार अपेक्षित नहीं है। यों कहीं कहीं साम्य के लिये यह शब्द आ जाया करे तो कोई हर्ज नहीं।

अब 'मद' और 'मादकता' लीजिए। काव्यक्षेत्र में इसका चलन फारस में बहुत पहले से अनुमित होता है। यद्यपि इसलाम के पूर्व वहाँ का सारा साहित्य नष्ट कर दिया गया, उसका एक चिट भी कहीं नहीं मिलता है, पर शायरी में 'मद' और 'प्याले' की रूढ़ि बनी रही जिसको सूफियों ने और भी बढाया। सूफी शायर दीन-दुनिया से अलग, प्रेममद में मतवाले आजाद जीव माने जाते थे। धीरे धीरे कवियों के संबंध में भी 'मतवालेपन’ और 'फक्कड़पन' की भावना वहाँ जड़ पकड़ती गई और वहाँ से हिंदुस्तान में आई। योरप में गेटे और वर्ड्स्वर्थ के समय तक 'मतवालेपन' और 'फक्कड़पन' की इस भावना का कवि और काव्य के साथ कोई नित्य-सबंध नहीं समझा जाता था। जर्मन कवि गेटे बहुत ही व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञ था; इसी प्रकार वर्ड् स्वर्थ भी लोक-व्यवहार से अलग एक रिंद नहीं माना जाता था। एक खास ढंग का फक्कड़पन और मतवालापन वाइरन और शैली में दिखाई पड़ा जिनकी चर्चा योरप ही तक रहकर अँगरेजी साहित्य के साथ साथ हिंदुस्तान तक पहुँची। इससे मतवालेपन और फकड़पन की जो भावना पहले से फारसी साहित्य के प्रभाव से बँधती आ रही थी वह और भी पक्की हो गई। [ ५७७ ]भारत में मतवालेपन या फक्कड़पन की भावना अघोरपंथ आदि कुछ सप्रदायों में तथा सिद्ध बनने वाले कुछ साधुओं में ही चलती आ रही थी। कवियों के संबंध में इसकी चर्चा नहीं थी। यहाँ तो कवि के लिये लोकव्यवहार में कुशल होना आश्वयक समझा जाता था। राजशेखर ने काव्य-मीमांसा में कवि के जो लक्षण कहे हैं उससे यह बात स्पष्ट हो जायगी। यह ठीक है कि राजशेखर ने राज सभाओं में बैठनेवाले दरबारी कवियों के स्वरूप का वर्णन किया है और वह स्वरूप, एक विलासी दरबारी का है, मुक्त हृदय स्वच्छंद कवि का नहीं। पर वाल्मीकि से लेकर, भवभूति और पंडितराज तथा चंद से लेकर ठाकुर और पद्माकर तक कोई मद से झूमनेवाला, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ था बेपरवा फक्कड़ नहीं माना गया।

प्रतिभाशाली कवियों की प्रवृत्ति अर्थ में रत साधारण लोगों से भिन्न और मनस्विता लिए होती है तथा लोगों के देखने में कभी कभी एक सनक सी जान पड़ती है। जैसे और लोग अर्थ की चिंता में लीन होते हैं वैसे ही वे अपने किसी उद्भावित प्रसंग में लीन दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और श्रद्धा के कारण लोग इन प्रवृत्तियों को अत्युक्ति के साथ प्रकट करते हुए 'मद में झूमना' 'स्वप्न में लीन रहना', 'निराली दुनिया में विचरना' कहने लगे। पर इसका यह परिणाम न होना चाहिए कि कवि लोग अपनी प्रशस्ति की इन अत्युक्त बातों को ठीक ठीक चरितार्थ करने में लगे।

लोग कहते हैं कि समालोचकगण अपनी बातें कहते ही रहते है, पर कवि लोग जैसी मौज होती है वैसी रचना करते ही हैं। पर यह बात नहीं है। कवियों पर साहित्य-मीमांसकों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है। बहुतेरे कवि––विशेषतः नए––उनके आदर्शों के अनुकूल चलने का प्रयत्न करने लगते है। उपर्युक्त वादों के अनुकूल इधर बहुत कुछ काव्यरचना योरप में हुई, जिसका कुछ अनुकरण बँगला में हुआ। आजक़ल, हिंदी की जो कविता 'छायावाद' के नाम से पुकारी जाती है उसमें इन सब वादों का मिला जुला अभास पाया जायगा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इन सब हिंदी कवियों ने उनके सिद्धांत सामने रखकर रचना की है। उनके आदर्शों के अनुकूल कुछ कविताएँ योरप में हुईं, जिनकी देखा-देखी बँगला और हिंदी में भी होने लगीं। [ ५७८ ]इस प्रसंग में इतना लिखने का प्रयोजन केवल यही है, की योग्य के साहित्य-क्षेत्र में फैशन के रूप में प्रचलित बातों को कच्चे-पक्के ढंग से सामने लाकर कुतुहल उत्पन्न करने की चेष्टा करना अपने मस्तिकशून्यता के साथ ही साथ समस्त हिंदी पाठकों पर मस्तिकशुन्यता का आरोप करना है। काव्य और कला पर निकलने वाले भड़कीले लेखों में आवश्यक अनिशता और स्वतंत्र विचार का अभाव देख दुःख होता है। इधर कुछ दिनों में "सत्यं, शिव, सुदरम्" की बड़ी धूम हैं, जिसे कुछ लोग शायद उपनिषद्-वाक्य समझकर "अपने यहाँ भी कहा है" लिखकर उद्धृत किया करते है। यह कोमल पदावली ब्रह्मसमाज के महृर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की हैं और वास्तव में The True, the Good and the Beautiful का अनुवाद है[९]। बस इतना और कहकर मैं इस प्रसंग को समाप्त करता हूँ, किसी साहित्य में केवल बाहर की भद्दी नकल उसकी अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए, खूब आए, पर वह कूढ़ा करकट के रूप में न इकठ्ठी की जाय। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उसपर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय; जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।

 

  1. देखिए Psychological Approach to Literary Criticism जिसमें यह अच्छी तरह दिखा दिया गया है कि प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई समीक्षा ही नहीं।
  2. A diligent search will still find many Mystic Beings.........sheltering in verbal thickets. While current attitudes to language persist, this difficulty of the imguistic phantom must still continue.

    ––'Principles of Literary Criticism'.

    By I. A. Richards

  3. Oxford Lectures on Poetry.
  4. Third Edition, 1928.
  5. इसी को साहित्य शास्त्र में 'साधारणीकरण' कहते हैं।
  6. But this is no severance between difference of the same activities The myth of a 'transmutation' or 'poetisation' of experience and that other myth of the 'contenplative' or 'aesthetic attitude' instead of talking about the concrete experiences which are Poems.
  7. An aesthetic fact is 'from' and nothing else.
  8. The New Criticism––by J. E. Spingarn (1911),
  9. Thus arises the phantom of the aesthetic mode or aesthetic state a legacy from the days of abstract investigation into the Good the Beautiful and the True.

    ––Principles of Literary Criticism.
    (I.A. Richards)