हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण १) काव्य खंड

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आधुनिक काल

( संवत् १९०० से...)

काव्य-खंड

पुरानी धारा

गद्य के आविर्भाव और विकास-काल से लेकर अब तक कविता की वह परंपरा भी चलती आ रही है जिसका वर्णन भक्ति-काल और रीति-काल के भीतर हुआ है। भक्ति-भाव के भजनों, राजवंश के ऐतिहासिक चरित-काव्यों, अलंकार और नायिकाभेद के ग्रंथों तथा शृंगार और वीर-रस के कवित्त-सवैयों और दोहों की रचना बराबर होती आ रही है। नगरों के अतिरिक्त हमारे ग्रामों में भी न जाने कितने बहुत अच्छे कवि पुरानी परिपाटी के मिलेंगे। ब्रजभाषा-काव्य की परम्परा गुजरात से लेकर बिहार तक और कुमाऊँ-गढ़वाल से लेकर दक्षिण भारत की सीमा तक बराबर चलती आई है। काश्मीर के किसी ग्राम के रहनेवाले ब्रजभाषा के एक कवि का परिचय हमें जम्मू में किसी महाशय ने दिया था और शायद उनके दो-एक सवैये भी सुनाए थे।

गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार मोलाराम ब्रजभाषा के बहुत अच्छे कवि थे जिन्होंने अपने "गढ़ राजवंश" काव्य में गढ़वाल के ५२ राजाओं का वर्णन दोहा चौपाइयों में किया है। वे श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा प्रद्युम्नसाह के समय में थे। कुमाऊँ-गढ़वाल पर जब नेपाल का अधिकार हुआ तब नेपाल सूबेदार हस्तिदल चौतरिया के अनुरोध से उन्होंने उक्त काव्य लिखा था। मोलाराम का जन्म संवत् १८१७ मे और मृत्यु १८९० में हुई। उन्होंने ग्रंथ में बहुत सी घटनाओं का आँखों-देखा वर्णन लिखा है, इससे उसके ऐतिहासिक मूल्य भी हैं।

ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख नीचे किया जाता है––

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सेवक––ये असनीवाले ठाकुर कवि के पौत्र थे और काशी के रईस बाबू देवकीनंदन के प्रपौत्र बाबू हरिशंकर के आश्रय में रहते थे। ये ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे। इन्होंने "वाग्विलास" नाम का एक बड़ा ग्रंथ नायिकाभेद का बनाया। इसके अतिरिक्त बरवा छंद में एक छोटा नख-शिख भी इनका है। इनके सवैये सर्व साधारण में प्रचलित हो गए थे। "कवि सेवक बूढ़े भए तौ कहा पै हनोज है मौज मनोज ही की" कुछ बुड्ढे रसिक अब तक कहते सुने जाते हैं। इनका जन्म संवत् १८७२ में और मृत्यु संवत् १९३८ में हुई।

महाराज रघुराजसिंह रीवाँनरेश––इनका जन्म संवत् १८८० में और मृत्यु संवत् १९३६ में हुई। इन्होंने भक्ति और शृंगार के बहुत से ग्रंथ रचे। इनका "राम स्वयंवर" (सं॰ १९२६) नामक वर्णनात्मक प्रबंध-काव्य बहुत ही प्रसिद्ध है। वर्णनों में इन्होंने वस्तुओं की गिनती (राजसी ठाट बाट, घोड़ों, हाथियों के भेद आदि) गिनानेवाली प्रणाली का खूब अवलंबन किया है। 'राम-स्वयंवर' के अतिरिक्त 'रुक्मिणी-परिणय', 'आनंदाबूनिधि', 'रामाष्टयाम', इत्यादि इनके लिखे बहुत से अच्छे ग्रंथ हैं।

सरदार––ये काशीनरेश महाराज ईश्वरीप्रसादनारायण सिंह के आश्रित थे। इनका कविता काल संवत् १९०२ से १९४० तक कहा जा सकता है। ये बहुत ही सिद्धहस्त और साहित्य-मर्मज्ञ कवि थे। 'साहित्य सरसी', 'वाग्विलास', 'षट्ऋतु', 'हनुमतभूषण', 'तुलसीभूषण', 'शृंगारसंग्रह', 'रामरत्नाकर', साहित्य-सुधाकर', रामलीला-प्रकाश' इत्यादि कई मनोहर काव्य-ग्रंथ इन्होंने रचे हैं। इसके अतिरिक्त, इन्होंने हिंदी के प्राचीन काव्यों पर बड़ी बड़ी टीकाएँ भी लिखी हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सूर के दृष्टिकूट और बिहारी सतसई पर इनकी बहुत अच्छी टीकाएँ हैं।

बाबा रघुनाथदास रामसनेही––ये अयोध्या के एक साधु थे और अपने समय के बड़े भारी महात्मा माने जाते थे। सं॰ १९११ में इन्होंने 'विश्रामसागर' नामक एक बड़ा ग्रंथ बनाया जिसमें अनेक पुराणो की, कथाएँ संक्षेप में दी गई हैं। भक्तजन इस ग्रंथ का बड़ा आदर करते हैं।

ललितकिशोरी––इनका नाम साह कुंदनलाल था। ये लखनऊ के एक [ ५८१ ]समृद्ध वैश्य घराने में उत्पन्न हुए थे। पीछे वृंदावन में जाकर एक विरक्त भक्त की भाँति रहने लगे। इन्होंने भक्ति और प्रेम-संबंधी बहुत से पद और गजलें बनाई हैं। कविता-काल संवत् १९१३ से १९३० तक समझना चाहिए। वृंदावन का प्रसिद्ध साहजी का मंदिर इन्हीं का बनवाया है।

राज लक्ष्मणसिह––ये हिंदी के गद्य-प्रवर्तकों में हैं। इनका उल्लेख गद्य के विकास के प्रकरण में हो चुका है[१]। इनकी ब्रजभाषा की कविता भी बड़ी ही मधुर और सरस होती थी। ब्रजभाषा की सहज मिठास इनकी वाणी से टपकी पड़ती है। इनके शकुंतला के पहले अनुवाद में तो पद्य न था, पर पीछे जो संस्करण इन्होंने निकाला, उसमें मूल श्लोकों के स्थान पर पद्य रखे गए। ये पद्य बड़े ही सरस हुए। इसके उपरांत सं॰ १९३८ और १९४० के बीच में इन्होंने मेघदूत का बड़ा ही ललित और मनोहर अनुवाद निकाला। मेघदूत जैसे मनोहर काव्य के लिये ऐसा ही अनुवाद होना चाहिए था। इस अनुवाद के सवैये बहुत ही ललित और सुंदर हैं। जहाँ चौपाई-दोहे आए हैं, वे स्थल उतने सरस नहीं हैं।

लछिराम (ब्रह्मभट)––इनका जन्म संवत् १८९८ में अमोढ़ा (जिला बस्ती) में हुआ था। ये कुछ दिन अयोध्यानरेश महाराज मानसिंह (प्रसिद्ध कवि द्विजदेव) के यहाँ रहे। पीछे बस्ती के राजा शीतलाबख्शसिंह से, जो एक अच्छे कवि थे, बहुत सी भूमि पाई। दर्भंगा, पुरनिया आदि अनेक राजधानियों में इनका सम्मान हुआ। प्रत्येक सम्मान करनेवाले राजा के नाम पर इन्होंने कुछ न कुछ रचना की है––जैसे, मानसिंहाष्टक, प्रतापरत्नाकर, प्रेमरत्नाकर (राजा बस्ती के नाम पर), लक्ष्मीश्वररत्नाकर (दर्भंगा-नरेश के नाम पर), रावणेश्वर-कल्पतरु (गिद्धौर नरेश के नाम पर ), कमलानंद-कल्पतरु (पुरनिया के राजा के नाम पर जो हिंदी के अच्छे कवि और लेखक थे) इत्यादि इत्यादि। इन्होंने अनेक रसों पर कविता की है। समस्यापूर्तियाँ बहुत जल्दी करते थे। वर्तमानकाल में ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी पर कविता करनेवालों में ये बहुत प्रसिद्ध हुए हैं।

[ ५८२ ]गोविंद गिल्लाभाई––कोई समय था जब गुजरात में ब्रजभाषा की कविता का बहुत प्रचार था। अब भी इसका चलन वैष्णवों में बहुत कुछ है। गोविंद गिल्लाभाई का जन्म संवत् १९०५ में भावनगर रियासत के अंतर्गत सिहोर नामक स्थान में हुआ था। इनके पास ब्रजभासा के काव्यों का बड़ा अच्छा संग्रह था। भूषण का एक बहुत शुद्ध संस्करण इन्होंने निकाला। ब्रजभाषा की कविता इनकी बहुत ही सुंदर और पुराने कवियों के टक्कर की होती थी। इन्होंने बहुत सी काव्य की पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से कुछ के नाम ये हैं––नीति-बिनोद, शृंगार सरोजिनी, षट्ऋतु, पावस पयोनिधि, समस्यापूर्ति-प्रदीप, वक्रोक्ति-विनोद, श्लेषचंद्रिका, प्रारब्ध-पचासा, प्रवीन-सागर।

नवनीत चौबे––पुरानी परिपाटी के आधुनिक कवियों में चौबे जी की बहुत ख्याति रही हैं। ये मथुरा के रहने वाले थे। इनका जन्म संवत १९१५ और मृत्यु १९८९ में हुई।

यहाँ तक संक्षेप में उन कवियों का उल्लेख हुआ जिन्होंने पुरानी परिपाटी पर कविता की है। इसके आगे अब उन लोगों का समय आता है जिन्होंने एक ओर तो हिंदी साहित्य की नवीन गति के प्रवर्तन में योग दिया, दूसरी ओर पुरानी परिपाटी के कविता के साथ भी अपना पूरा संबंध बनाए रखा। ऐसे लोगों में भारतेंदु हरिश्चद्र, पंडित प्रतापनारायण मिश्र, उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहनसिह, पंडित अंबिकादत्त व्यास और बाबू रामकृष्ण वर्मा मुख्य है।

भारतेंदु जी ने जिस प्रकार हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार किया, उस प्रकार काव्य की ब्रजभाषा का भी। उन्होंने देखा कि बहुत से शब्द जिन्हे बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए थे, कवित्तों के सवैयों में बराबर लाए जाते हैं। इसके कारण कविता जनसाधारण की भाषा से दूर पड़ती जाती है। बहुत से शब्द तो प्राकृत-और अपभ्रंश काल की परंपरा के स्मारक के रूप में ही बने हुए थे। 'चक्कव', 'भुवाल', 'ठायो', 'दीह', 'ऊनो', 'लोय', आदि के कारण बहुत से लोग व्रजभाषा की कविता से किनारा खींचने लगे थे। दूसरा दोष जो बढ़ते बढ़ते बहुत बुरी हद को पहुँच गया था, वह शब्दों को तोड़ मरोड़ और [ ५८३ ]गढंत के शब्दों का प्रयोग था। उन्होने ऐसे शब्दों को भरसक अपनी कविता से दूर रखा और अपने रसीले सवैयों में जहाँ तक हो सका, बोलचाल की ब्रजभाषा का व्यवहार किया। इसी से उनके जीवनकाल में ही उनके सवैये चारों ओर सुनाई देने लगे।

भारतेंदुजी ने कविसमाज भी स्थापित किए थे जिनमें समस्यापूर्तियाँ बराबर हुआ करती थीं। दूर दूर से कवि लोग आकर उसमें सम्मिलित हुआ करते थे। पंडित अंबिकादत्त व्यास ने अपनी प्रतिभा का चमत्कार पहले पहल ऐसे ही कवि-समाज के बीच समस्यापूर्ति करके दिखाया था। भारतेंदुजी के शृंगार-रस के कवित्त सवैए बड़े ही सरस और मर्मस्पर्शी होते थे। "पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना दुखिया अँखियाँ नहिं मानति है", "मरेहू पै आँखै ये खुली ही रहि जायँगी" आदि उक्तियों का रसिक-समाज में बड़ा आदर रहा। उनके शृंगाररस के कवित्त-सवैयों का संग्रह "प्रेममाधुरी" में मिलेगा। कवित्त-सवैयों से बहुत अधिक भक्ति और शृंगार के पद और गाने उन्होंने बनाए जो "प्रेमफुलवारी", "प्रेममालिका", "प्रेमप्रलाप" आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनकी अधिकतर कविता कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर रचे पदों के रूप में ही है।

पंडित प्रतापनारायणजी भी समस्यापूर्ति और पुराने ढंग की शृंगारी कविता बहुत अच्छी करते थे। कानपुर के "रसिक-समाज" में वे बड़े उत्साह से अपनी पूर्तियाँ सुनाया करते थे। देखिए "पपीहा जब पूछिहै पोव कहाँ" की कैसी अच्छी पूर्ति उन्होंने की थी––

बनि बैठी है मान की मूरति सो, मुख खोलत बोलै न 'नाहीं' न 'हाँ'।
तुमही मनुहारि कै हरि परे, सखियान की कौन चलाई तहाँ॥
बरषा है 'प्रतापजू' धीर धरौ, अबलौ मन को समझायो जहाँ।
यह ब्यारि तवै बदलेगी कछू पपिहा जब पूछिहै "पीव कहाँ?"

प्रतापनारायणजी कैसे मनमौजी आदमी थे, यह कहा जा चुका है। लावनीबाजों के बीच बैठकर वे लावनियाँ बना बनाकर भी गाया करते थे।

उपाध्याय बदरीनारायण (प्रेमघनजी) भी इस प्रकार की पुरानी कविता [ ५८४ ]किया करते थे। "चरचा चलिवे की चलाइए ना" को लेकर बनाया हुआ उनका यह अनुप्रासपूर्ण सवैया देखिए––

बगियानं वसंत वसेरो कियो, बसिए तेहि त्यागि तपाइए ना।
दिन काम-कुतूहल के जो बनै, तिन बीच बियोग बुलाइए ना॥
'धन प्रेम' बढाय कै प्रेम, अहो! बिथा-बारि वृथा बराइए ना।
चित चैत की चाँदनी चाह भरी, चरचा चतिबे की चलाइए ना॥

चौधरी साहब ने भी सर्वसाधारण में प्रचलित कजली, होली आदि गाने की चीजें बहुत बनाई हैं। 'कजली-कादंबिनी' में उनकी बनाई कजलियों का संग्रह है।

ठाकुर जगमोहनसिंह जी के सवैएँ भी बहुत सरस होते थे। उनके शृंगारी कवित्त-सवैयों का संग्रह कई पुस्तकों में है। ठाकुर साहब ने कवित्त सवैयों में "मेघदूत" का भी बहुत सरस अनुवाद किया है। उनकी शृंगारी कविताएँ 'श्यामा' से ही संबंध रखती हैं और 'प्रेम-संपत्तिलता' (संवत् १८८५), 'श्यामालता' और 'श्याम-सरोजिनी' (संवत् १८८६) में संग्रहीत हैं। 'प्रेमसंपत्तिलता' का एक सवैया दिया जाता हैं––

अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाउँ गरे लगिकै छतियाँ।
मन की करि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ॥
हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखी बहु नैहभरी पतियाँ।
जगमोहन मोहनी मूरति के दिन कैसे कटैं दुख की रतियाँ॥

पंडित अबिकादत्त व्यास और बाबू रामकृष्ण वर्मा (बलवीर) के उत्साह से ही काशी-कवि-समाज चलता रहा। उसमें दूर दूर कविजन भी कभी कभी आ जाया करते थे। समस्याएँ कभी कभी बहुत टेढ़ी दी जाती थीं––जैसे, "सूरज देखि सकैं नहीं घुग्धू", "मोम के मंदिर माखन के मुनि बैठे हुतासन आसन मारे"। उक्त दोनों समस्याओं की पूर्ति व्यासजी ने बड़े विलक्षण ढंग से की थी। उक्त समाज की ओर से ही शायद "समस्यापूर्ति-प्रकाश" निकला था जिसमें "व्यासजी" और "बलवीरजी" (रामकृष्ण वर्मा) की बहुत सी पूर्तियाँ हैं। व्यासजी का "बिहारी-बिहार" (बिहारी के सब दोहों पर कुंडलियाँ) [ ५८५ ]बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें उन्होंने बिहारी के दोहों के भाव बड़ी मार्मिकता से पल्लवित किए हैं। डुमराव-निवासी पंडित नकछेदी तिवारी (अजान) भी इस रसिक-मंडली के बड़े उत्साही कार्यकर्ता थे। वे बड़ी सुंदर कविता करते थे और पढ़ने का ढंग तो उनका बड़ा ही अनूठा था। उन्होंने 'मनोसंजरी' आदि कई अच्छे संग्रह भी निकाले और कवियों का वृक्ष भी बहुत कुछ संग्रह किया। बाबू रामकृष्ण की मंडली में पंडित विजयानंद त्रिपाठी भी ब्रजभाषा की कविता बड़ी अच्छी करते थे।

इस पुरानी धारा के भीतर लाला सीताराम बी॰ ए॰ के पद्यानुवादों को भी लेना चाहिए। ये कविता में अपना 'भूप' उपनाम रखते थे। 'रघुवंश' का अनुवाद इन्होंने दोहा-चौपाइयों में और 'मेघदूत' का घनाक्षरी में किया है।

यद्यपि पंडित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय इस समय खड़ी बोली के और आधुनिक विषयों के ही कवि प्रसिद्ध हैं, पर प्रारंभकाल में ये भी पुराने ढंग की शृंगारी कविता बहुत सुंदर और सरस करते थे। इनके निवासस्थान निजामाबाद में सिख-संप्रदाय के महंत यात्रा सुमेरसिंहजी हिंदी-काव्य के बड़े प्रेमी थे। उनके यहाँ प्रायः कवि समाज एकत्र हुआ करता था जिसमें उपाध्यायजी भी अपनी पूर्तियाँ पढ़ा करते थे। इनका "हरिऔध" उपनाम उसी समय का है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रस-कलश' में संग्रहीत हैं। जिसमें इन्होंने नायिकाओं के कुछ नए ढंग के भेद रखने का प्रयत्न किया है। ये भेद रस-सिद्धांत के अनुसार ठीक नहीं उतरते।

पंडित श्रीधर पाठक का संबंध भी लोग खड़ी बोली के साथ ही अकसर बताया करते हैं। पर खड़ी बोली की कविताओं की अपेक्षा पाठकजी की ब्रजभाषा की कविताएँ ही अधिक सरस, हृदयग्राहिणी और उनकी मधुर-स्मृति को चिरकाल तक बनाए रखनेवाली हैं। यद्यपि उन्होंने समस्यापूर्ति नहीं की, नायिकाभेद के उदाहरणों के रूप में कविता नहीं की, पर जैसी मधुर और रसभरी ब्रजभाषा उनके 'ऋतुसहार' के अनुवाद, में है, वैसी पुराने कवियों में किसी किसी की ही मिलती है। उनके सवैयों में हम ब्रजभाषा का जीता जागता रूप पाते हैं। वर्षाऋतु-वर्णन का यह सवैया ही लीजिए–– [ ५८६ ]

वारि-फुहार-भरे भढग, सोह सोढंग कुंजर से मतवारे।
बीजुरी-जोति पूजा फहरै-धन गर्जन शब्द सोई है नगारे॥
रोर को घोर को घोर न छोर, नरेशन की-सी छटा छवि धारे।
कामिन के मन को प्रियपप्स, पायो, प्रिये नव मोहिनी टारे॥

ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी के कवियों में स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदास (रत्नाकर) का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है। इनका जन्म काशी में भाद्रपद शुक्ल ६ सं॰ १९२३ और मृत्यु आषाढ़ कृष्ण ३ सं॰ १९८९ को हरिद्वार में हुई। भारतेंदु के पीछे संवत् १९४६ से ही ये ब्रजभाषा में कविता करने लगे थे। 'हिंडोला' आदि इनकी पुस्तकें बहुत पहले निकाली थीं। काव्य-संबंधी एक पत्रिका भी इन्होंने कुछ दिनों तक निकाली थी। इनकी कविता बड़े बड़े पुराने कवियों के टक्कर की होती थी। पुराने कवियों में भी इनकी सी सूझ और उक्ति-वैचित्र्य बहुत कम देखा जाता हैं। भाषा भी पुराने कवियों की भाषा से चुस्त और गठी हुई होती थी। ये साहित्य तथा ब्रजभाषा-काव्य के बहुत बड़े मर्मज्ञ माने जाते थे।

इन्होंने 'हरिश्चंद्र', 'गंगावतरण' और 'उद्धव शतक' नाम के तीन बहुत ही सुंदर प्रबंध-काव्य लिखे है। अँगरेज कवि पोप के समालोचना संबंधी प्रसिद्ध काव्य (Essay on Criticism) का रोला छंदों में अच्छा अनुवाद इन्होंने किया है। फुटकल रचनाएँ तो इनकी बहुत अधिक हैं, शृंगार और वीर दोनों की। इनकी रचनाओं का बहुत बड़ा संग्रह "रत्नाकर" के नाम से काशीनागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। 'गंगावतरण' में गंगा के आकाश से उतरने और शिव के उन्हें सँभालने के लिये संनद्ध होने का वर्णन बहुत ही ओजपूर्ण है। 'उद्धवशतक' की मार्मिकता और रचना-कौशल भी अद्वितीय हैं। उसके दो कवित नीचे दिए जाते हैं।

कान्ह-दूत कैधौं ब्रह्मदूत ह्वै पधारे आप,
धारे प्रन फेरन कौ मति ब्रजबारी की
कहै रतनाकर पै प्रीति-रीति जानत ना,
ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की॥

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मान्यो हम, कान्ह ब्रह्म एक ही कह्यो जो तुम,
तौ हूँ हमैं भावति न भावना अन्यारी सी।
जैहे बनि बिगिरि न बारिधिता बारिधि की,
बूँढता बिलैहै बूँद विवस विचारी की॥


धरि राखौ शान गुन गौरव गुमान गोइ,
गोपिन को आवत न भावत भडंग है।
कहे रतनाकर करत टाँय टाँय वृथा,
सुनत न काऊ यहाँ यह मुदचंग है॥
और हू उपाय केते सहज सुढंग ऊधौ!
साँस रोकिये को कहा जोग ही कुढंग है?
कुटिल कटारी है, अटारी है उतंग अति,

जमुना-तरंग है, तिहारो सतसंग है॥

कानपुर के राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की कविता भी ब्रजभाषा के पुराने कवियों का स्मरण दिलानेवाली होती थी। जब तक ये कानपुर में रहे तब तक कविता की चर्चा की बड़ी धूम रही। वहाँ के 'रसिक समाज' में पुरानी परिपाटी के कवियों की बड़ी चहल-पहल रहा करती थी। "पूर्ण" जी ने कुछ दिनों तक 'रसिकवाटिका' नाम की एक पत्रिका भी चलाई, जिसमें समस्यापूत्तियाँ और पुराने ढंग की कविताएँ छपा करती थीं। खेद है कि केवल ४७ वर्ष की अवस्था में ही संवत् १९७७ में इनका देहांत हो गया। इनकी रचना कैसी सरस होती थी और ललित पदावली पर इनका, कैसा अच्छा अधिकार था, इसका अनुमान इनके "धाराधर धावन", (मेघदूत का अनुवाद) से उद्धृत इस पद्य से हो सकता है––

नव कलित केसर-वलित हरित सुपीत नीष निहारि कै।
करि असन दल कँदलीन जो कलियाहिं प्रथम कछार पै॥
है घन? विपिन थल अमल परिमल पाय भूतल कौ भली।
मधुकर मतंग कुरंग वृंद जनायहैं तेरी गली॥

[ ५८९ ]आधुनिक काव्य-क्षेत्र में दुलारेलालजी ने ब्रजभाषा-काव्य-चमत्कार-पद्धति का एक प्रकार से पुनरुद्धार किया है। इनकी "दुलारे-दोहावली" पर टीकमगढ़ राज्य की ओर से २०००) का 'देव-पुरस्कार' मिल चुका है। 'दोहावली' के कुछ दोहे देखिए––

तन-उपवन सहिहै कहा बिछुरन झंझावात।
उड्यो जात उर-तरु जबै चलिबे ही की बात॥
दमकति दरपन-दरप दरि दीपसिखा-दुति देह।
वह दृढ इक दिसि दिपत, यह मृदु दस दिसनि स्नेह॥
झर सम दीजै देस हित झरझर जीवन-दान।
रुकि रुकि यों चरसा सरिस दैबो कहा, सुजान?
गाँधी गुरु तें ग्याँन लै चरखी अनहद जोर।
भारत सबद तरंग पै बहेत मुकुति को ओर॥

अभी थोड़े दिन हुए, अयोध्या के पं॰ रामनाथ ज्योतिषी ने राम-कथा लेकर अपना 'रामचंद्रोदय काव्य' लिखा है जिसपर उन्हे २०००) का 'देव पुरस्कार' मिला है।

आधुनिक विषयों को लेकर कविता करनेवाले कई कवि जैसे, स्व॰ नाथूरामशंकर शर्मा, लाला भगवानदीन, पुरानी परिपाटी की बड़ी सुंदर कविता करते थे। पं॰ गयाप्रसादजी शुक्ल 'सनेही' के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषाकाव्य के मधुर स्रोत अभी बराबर वैसे ही चल रहे हैं, जैसे 'पूर्ण' जी के समय में चलते थे। नई पुरानी दोनों परिपाटियों के कवियों का कानपुर अच्छा केंद्र हैं। ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा किस प्रकार जीती जागनी चली चल रही है, यह हमारे वर्तमान कवि-संमेलनों में देखा जा सकता है।

 

  1. देखों पृष्ठ ४४०।