हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) खड़ी बोली में काव्यत्व का स्फुरण

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[ ६४६ ]द्वितीय उत्थान के भीतर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार काव्य-क्षेत्र का विस्तार बढ़ा, बहुत-से नए नए विषय लिए गए और बहुत से कवि कवित्त, सवैया लिखने से बाज आकर संस्कृत के अनेक वृत्तों में रचना करने लगे। रचनाएँ चाहे अधिकतर साधारण गद्य-निबंधों के रूप में ही हुई हो, पर प्रवृत्ति अनेक विषयों की ओर रही, इसमें संदेह नहीं। उसी द्वितीय उत्थान में स्वतंत्र वर्णन के लिये मनुष्येतर प्रकृति को कवि लोग लेने लगे पर अधिकतर उसके ऊपरी प्रभाव तक ही रहे। उसके रूप-व्यापार कैसे सुखद, सजीले और मुहावने लगते हैं, अधिकतर यही देख-दिखाकर उन्होंने संतोष किया। चिर-साहचर्य से उत्पन्न उनके प्रति हमारा राग व्यंजित न हुआ। उनके बीच मनुष्य-जीवन को रखकर उसके प्रकृत स्वरूप पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली गई है। रहस्यमयी सत्ता के अक्षर-प्रसार के भीतर व्यंजित भावों और मार्मिक तथ्यों के साक्षात्कार तथा प्रत्यक्षीकरण की ओर झुकाव न देखने में आया है। इसी प्रकार विश्व के अत्यंत सूक्ष्म और अत्यंत महान् विधानों के बीच जहाँ तक हमारा ज्ञान पहुँचा है वहाँ तक हृदय को भी पहुँचाने का कुछ प्रयास होना चाहिए था, पर न हुआ। द्वितीय उत्थान-काल का अधिकांश भाग खड़ी बोली को भिन्न भिन्न प्रकार के पद्यों में ढालने में ही लगा।

तृतीय उत्थान में आकर खड़ी बोली के भीतर काव्यत्व का अच्छा स्फुरण हुआ। जिस देश-प्रेम को लेकर काव्य की नूतन धारा भारतेंदु काल में चली थी वह उत्तरोत्तर प्रबल और व्यापक रूप धारण करता आया। शासन की अव्यवस्था और अशांति के उपरांत अँगरेजों के शांतिमय और रक्षापूर्ण शासन के प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेंदुकाल में बना हुआ था। इससे उस समय की देशभक्ति-संबंधी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्रायः मिला पाया जाता है। देश की दुःख दशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उसे दुःख-दशा से उद्धार के लिये कवि लोग दयामय भगवान् को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं कहीं उद्योग धंधों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिये वे देशवासियों को भी कोसते पाए जाते हैं। सरकार पर रोष या असंतोष की व्यंजना उनमें नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरांत भी बहुत दिनों तक देशभक्ति की [ ६४७ ]वाणी में विशेष बल और वेग ने दिखाई पड़ा। बात यह थी कि राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा हर साल में एक बार धूम-धाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आया था। अतः द्विवेदी-काल की देशभक्ति-संबंधी रचनाओं में शासन-पद्धति के प्रति असंतोष तो व्यंजित होता था पर कर्म में तत्पर करानेवाला, आत्मत्याग करानेवाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे नहीं बढ़े थे।

तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव में राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही 'स्वतंत्रता देवी की वेदी पर वलिदान' होने को प्रोत्साहित करने में लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्य जन-समुदाय को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि ये आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए। वर्तमान सभ्यता और लोक की घोर आर्थिक विषमता से जो असंतोष का ऊँचा स्वर पश्चिम में उठा उसकी गूँज यहाँ भी पहुँची। दूसरे देशों का धन खींचने के लिये योरप में महायत्र-प्रवर्तन का जो क्रम चला उससे पूँजी लगानेवाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धन-राशि इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिये भोजन-वस्त्र मिलना भी कठिन हो गया। अतः एक ओर तो योरप में मशीनों की सभ्यता के विरुद्ध टालस्टाय की धर्मबुद्धि जगानेवाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गांधीजी ने किया; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की घोर प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद और समाजवाद नामक सिद्धांत चले जिन्होंने रूस में अत्यंत उग्ररूप धारण करके भारी उलट-फेर कर दिया।

अब संसार के प्रायः सारे सभ्य भाग एक दूसरे के लिये खुले हुए हैं। इससे एक भू-खंड में उठी हुई हवाएँ दूसरे भू-खंड में शिक्षित वर्गों तक तो अवश्य ही पहुँच जाती हैं। यदि उनका सामंजस्य दूसरे भू-खंड की परिस्थिति [ ६४८ ]के साथ हो जाता हैं तो उस परिस्थिति के अनुरूप शक्तिशाली आंदोलन चल पड़ते है। इसी नियम के अनुसार शोषक साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त यहाँ भी किसान-आंदोलन, मजदूर-आंदोलन, अछूत आंदोलन इत्यादि कई आंदोलन एक विराट् परिवर्तनवाद के नाना व्यावहारिक अंगों के रूप में चले। श्रीरामधारीसिंह 'दिनकर', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी आदि कई कवियों की वाणी द्वारा ये भिन्न भिन्न प्रकार के आंदोलन प्रतिध्वनित हुए। ऐसे समय में कुछ ऐसे भी आंदोलन दूसरे देशों की देखा-देखी खड़े होते है जिनकी नौबत वास्तव में नहीं आई रहती। योरप ने जब देश के देश बड़े बड़े कल-कारखानो से भर गए हैं और जनता का बहुत-सा भाग उसमें लग गया हैं तब मजदूर-आंदोलन की नौबत आई है। यहाँ अभी कल-कारखाने केवल चल खड़े हुए हैं और उनमें काम करनेवाले थोड़ें-से मजदूरों की दशा खेत में काम करनेवाले करोड़ो किसानों की दशा से कहीं अच्छी हैं। पर मजदूर-आंदोलन साथ लग गया। जो कुछ हो, इन आंदोलनों का तीव्र स्वर हमारी काव्य -वाणी में सम्मिलित हुआ।

जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिये पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक 'वाद' का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिये सच क्षेत्रों में स्वतः एक चरम सा बन जाता है। 'क्रांति' के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिंदी-काव्य-क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा भी प्रकट हुई। सब बातों में परिवर्तन ही परिवर्तन की यह कामना कहाँ तक वर्तमान परिस्थिति के स्वतंत्र पर्यालोचन का परिणाम हैं और कहाँ तक केवल अनुकृत है, नहीं कहा जा सकता। इतना अवश्य दिलाई पड़ता हैं कि इस परिवर्तनवाद के प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक हो जाने से जगत् और जीवन के नित्य स्वरूप की वह अनुभूति नए कवियों में कम जग पाएगी जिसकी व्यंजना काव्य को दीर्घायु प्रदान करती है।

यह तो हुई काल के प्रभाव की बात। थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि चली आती हुई काव्य-परंपरा की शैली से अतृप्ति या असंतोष के कारण परिवर्तन की कामना कहाँ तक जगी और उसकी अभिव्यक्ति किन किन रूपों में [ ६४९ ]हुई। भक्ति-काल और रीति-काल की चली आती हुई परंपरा के अंत में किस प्रकार भारतेंदु-मंडल के प्रभाव से देश प्रेम और जाति-गौरव की भावना को लेकर एक नूतन परंपरा की प्रतिष्ठा हुई, इसका उल्लेख हो चुका है। द्वितीय उत्थान में काव्य की नूतन परंपरा का अनेक विषयस्पर्शी प्रसार अवश्य हुआ पर द्विवेदी जी के प्रभाव से एक ओर उसमें भाषा की सफाई, दूसरी ओर उसका स्वरुप गद्यवत् रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्य र्थनिरूपक हो गया। अतः इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और पीछे 'छायावाद' कहलाया वह इसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उनका प्रधान लक्ष्य काव्य-शैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थ-भूमि या वस्तु-भूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा।

द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी––कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीक रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था। इन बातों की कमी परंपरागत ब्रजभाषा-काव्य का आनंद लेनेवालों को भी मालूम होती थी और बँगला या अँगरेजी की कविता का परिचय रखनेवालों को भी। अत: खड़ी बोली की कविता में पदलालित्य, कल्पना की उड़ान, भाव की वेगवती व्यंजना, वेदना की विवृति, शब्द-प्रयोग की विचित्रता इत्यादि अनेक बातें देखने की आकांक्षा बढ़ती गई।

सुधार चाहनेवालों में कुछ लोग नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त खड़ी बोली की कविता को ब्रजभाषा-काव्य की-सी ललित पदावली तथा रसात्मकता और मार्मिकता से समन्वित देखना चाहते थे। जो अँगरेजी की या अँगरेजी के ढंग पर चली हुई बँगला की कविताओं से प्रभावित थे वे कुछ लाक्षणिक वैचित्र्य, व्यंजक चित्र-विन्यास और रुचिर अन्योक्तियाँ देखना चाहते थे। श्री पारसनाथसिंह के किए हुए बँगला कविताओं के हिंदी-अनुवाद 'सरस्वती' आदि पत्रिकाओं में संवत् १९६७ (सन् १९१०) से ही निकलने लगे थे। ग्रे,वर्ड्सवर्थ आदि अँगरेजी कवियों की रचनाओं के कुछ अनुवाद भी (जैसे, जीतनसिंह-द्वारा अनूदित वड्सवर्थ का 'कोकिल') निकले। अतः खड़ी बोली [ ६५० ]की कविता जिस रूप में चल रही थी उससे संतुष्ट न रहकर द्वितीय उत्थान के समाप्त होने के कुछ पहले ही कई कवि खड़ी बोली काव्य को कल्पना का नया रूप रंग देने और उसे अधिक अंतर्भावव्यंजक बनाने से प्रवृत्त हुए जिनमें प्रधान थे सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय और बदरीनाथ भट्ट। कुछ अँगरेजी ढर्रा लिए हुए जिस प्रकार की फुटकल कविताएँ और प्रगीत मुक्तक (Lyrics) बँगला से निकल रहे थे उनके प्रभाव से कुछ विशृंखल वस्तुविन्यास और अनूठे शीर्षकों के साथ चित्रमयी, कोमल और व्यंजक भाषा में इनकी नए ढंग की रचनाएँ संवत् १९७०-७१ से ही निकलने लगी थी, जिनमें से कुछ के भीतर रहस्य-भावना भी रहती थी।

गुप्तजी की 'नक्षत्रनिपात' (सन् १९१४), अनुरोध, (सन् १९१५), पुष्पांजलि (१९१७), स्वयं आगत (१९१८) इत्यादि कविताएँ ध्यान देने योग्य हैं। 'पुष्पांजलि' और 'स्वयं आगत' की कुछ पंक्तियाँ आगे देखिए––

(क) मेरे आँगन का एक फूल।
सौभाग्य-भाव से मिला हुआ, श्वासोच्छ्वासन से हिला हुआ,

संसार-विटप में खिला हुआ,
झड़ पड़ा अचानक झूल-झूल।

(ख) तेरे घर के द्वार बहुत है किससे होकर आऊँ मैं?
सब द्वारों पर भीड़ बड़ी है कैसे भीतर जाऊँ मैं।

इसी प्रकार गुप्तजी की और भी बहुत-सी गीतात्मक रचनाएँ है, जैसे––

(ग) निकल रही है उर से आह,
ताक रहे सब तेरी राह।
चातक बड़ा चोंच खोले हैं, सपुट खोले सीप खड़ी,
मैं अपना घट लिए खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी।

(घ) प्यारे! तेरे कहने से जो यहाँ अचानक मैं आया।
दीप्ति बढ़ी दीपों की सहसा, मैंने भी ली साँस, कहा।
सो जाने के लिये जगत् का यह प्रकाश मैं जाग रहा।

[ ६५१ ]

किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा।
निरुद्देश नख-रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति अहा!

गुप्तजीं तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष पद्धति या 'वाद' में न बँधकर कई पद्धतियों पर अब तक चले आ रहे है। पर मुकुटधरजी बराबर नूतन पद्धति पर ही चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक रचनाओं में 'आशु', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने देखिए––

(क) हुआ प्रकाश नमोमय प्रग में
मिला मुझे तू, दक्षिण जग में,
दंपति के मधुमय विलास में,
शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में,
था तब क्रीटा-स्थान।

(१९१७)

(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी,
आँखों के पानी में तर जा।
मेरे उर का छिपा खजाना,
अहंकार का भाव पुराना,
बना आज तू मुझे दिवाना,
तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा।

(१९१७)

(ग) जब संध्या को ::हट जावेगी भीड़ महान्।
तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान।
शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक।
बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक।

(१९२०)

पं॰ बदरीनाथ भट्ट भी सन् १९१३ के पहले से ही भाव-व्यंजक और अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए––

दे रहा दीपक जलकर फूल,
रोपी उज्ज्वल प्रभा-पताका अंधकार हिय हूल।

[ ६५२ ]श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भी इस ढंग के कुछ गीत सन् १९१५–१६ के आस-पास मिलेंगे।

ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण सब रूपों पर प्रेम दृष्टि डालकर, उसके रहस्य-भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक अकृतिम, स्वछंद मार्ग निकाल रहे थे। भक्तिक्षेत्र में उपास्य की एकदेशीय या धर्मविशेष में प्रतिष्ठित भावना के स्थान पर सार्वभौम भावना की ओर बढ़ रहे थे। जिसमें सुंदर रहस्यात्मक संकेत भी रहते थे। अतः हिदी-कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को––विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पांडेय को––समझाना चाहिए। इस दृष्टि से छायावाद का रूप-रंग खड़ा करने वाले कवियों के संबंध में अँगरेजी या बँगला की समीक्षाओं से उठाई हुई इस प्रकार की पदावली का कोई अर्थ नहीं कि 'इन कवियों के मन में एक आँधी उठ रही थी जिसमें आंदोलित होते हुए वे उड़े जा रहे थे; एक नूतन वेदना की छटपटाहट थी जिसमें सुख की मीठी अनुभूति भी लुकी हुई थी; रूढ़ियों के भार से दबी हुई युग की आत्मा अपनी अभिव्यक्ति के लिये हाथ पैर मार रही थी।' न कोई आँधी थी, न तूफान; न कोई नई कसक थी, न वेदना न प्राप्त युग की नाना परिस्थितियों का हृदय पर कोई नया आघात था, न उसका आहत नाद। इन बातों का कुछ अर्थ तब हो सकता था जब काव्य का प्रवाह ऐसी भूमियों की ओर मुड़ता जिन पर ध्यान न दिया गया रहा होता। छायावाद के पहले नए नए मार्मिक विषयों की ओर हिंदी-कविता प्रवृत्त होती आ रही थी। कसर थी तो आवश्यक और व्यंजक शैली की, कल्पना और संवेदना के अधिक योग की। तात्पर्य यह कि छायावाद जिस आकांक्षा का परिणाम था उसका लक्ष्य केवल अभिव्यंजना की रोचक प्रणाली का विकास था जो धीरे धीरे अपने स्वतंत्र ढर्रे पर श्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि के द्वारा हो रहा था।

गुप्त जी और मुकुटधर पांडेय आदि के द्वारा यह स्वच्छंद नूतन धारा चली ही थी कि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर की उन कविताओं की धूम हुई जो अधिकतर पाश्चात्य ढाँचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थीं। पुराने