हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) जयशंकर प्रसाद

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[ ६८० ]उन्होंने नर-जीवन के विकास में भिन्न भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बड़ी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना-द्वारा चित्रित कर मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार निराला जी ने, जिनकी वाणी पहले से भी बहुमुखी थी, 'तुलसीदास' के मानस-विकास का बड़ा ही दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खींचा है।

अब हम तृतीय उत्थान के वर्तमान कवियों और उनकी कृतियों का संक्षेप में कुछ परिचय दे देना आवश्यक समझते हैं––

श्री जयशंकर प्रसाद पहले ब्रजभाषा में कविताएँ लिखा करते थे जिनका संग्रह 'चित्राधार' में हुआ है। संवत् १९७० से वे खड़ी बोली की ओर आए और 'कानन-कुसुम', 'महाराणा का महत्त्व', 'करुणालय' और 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हुए। 'कानन-कुसुम' में तो प्रायः उसी ढंग की कविताएँ हैं जिस ढंग की द्विवेदी-काल में निकला करती थीं। 'महाराणा का महत्त्व' और 'प्रेमपथिक' (सं॰ १९७०) अतुकांत रचना है जिसका मार्ग पं॰ श्रीधर पाठक पहले दिखा चुके थे। भारतेंदु काल में ही पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने बँगला की देखा-देखी कुछ अतुकांत पद्य आजमाए थे। पीछे पंडित श्रीधर पाठक ने 'सांध्य अटन' नाम की कविता खड़ी बोली के अतुकांत (तथा चरण के बीच में पूर्ण विरामवाले) पद्यों में बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत की थी।

सामान्य परिचय के अंतर्गत दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, बदरीनाथ भट्ट और मुकुटधर पांडेय इत्यादि कई कवि अंतर्भावना की प्रगल्भ चित्रमयी व्यंजना के उपयुक्त स्वच्छंद नूतन पद्धति निकाल रहे थे[१]। पीछे उस नूतन पद्धति पर प्रसाद जी ने भी कुछ छोटी-छोटी कविताएँ लिखीं जो सं॰ १९७५ (सन् १९१८) में 'झरना' के भीतर संग्रहीत हुईं। 'झरना' की उन २४ कविताओं में उस समय नूतन पद्धति पर निकलती हुई कविताओं से कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिस पर ध्यान जाता। दूसरे संस्करण में, जो बहुत पीछे संवत् १९८४ में निकला, पुस्तक का स्वरूप ही बदल गया। उसमें आधी से ऊपर अर्थात् ३१ नई रचनाएँ जोड़ी गईं [ ६८१ ]जिनमें पूरा रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्र-विधान सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला' 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'बसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी हुई रचनाओं में हैं जो पहले (सं॰ १९७५ के) संस्करण में नहीं थीं। इस द्वितीय संस्करण में ही छायावाद कही जानेवाली विशेषताएँ स्फुट रूप में दिखाई पड़ीं। इसके पहले श्री सुमित्रानंदन पंत का 'पल्लव' बड़ी धूम धाम से निकल चुका था, जिसमें रहस्य-भावना तो कहीं कहीं, पर अप्रस्तुत-विधान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में सर्वत्र दिखाई पड़ी थीं।

प्रसाद जी में ऐसी मधुमयी प्रतिभा और ऐसी जागरूक भावुकता अवश्य थी कि उन्होंने इस पद्धति का अपने ढंग पर बहुत ही मनोरम विकास किया। संस्कृत की कोमल-कांत पदावली का जैसा सुंदर चयन बंगभाषा के काव्यों में हुआ है वैसी अन्य देशी भाषाओं के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ता। उनके परिशीलन से पदलालित्य की जो गूँज प्रसाद जी के मन में समाई वह बराबर बनी रही।

जीवन के प्रेम-विलास-मय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण वे 'उस प्रियतम' के संयोग-वियोगवाली रहस्य- भावना में––जिसे स्वाभाविक रहस्यभावना से अलग समझना चाहिए––रमते प्रायः पाए जाते है। प्रेमचर्या के शारीरिक व्यापारों और चेष्टाओं (अश्रु, स्वेद, चुंबन, परिरंभण, लज्जा को दौड़ी हुई लाली, इत्यादि), रंगरलियों और अठखेलियों, वेदना की कसक और टीस इत्यादि की ओर इनकी दृष्टि विशेष जमती थी। इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी वल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुसकान, सुमनों के मधुपत्रि, मंडराते मलिंदो के गुंजार, सौरभहर समीर की लपक, पराग-मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा की लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ' रजनी के आँसू से भीगे अंबर, चंद्रमुख पर शरद्धन के सकते अवगुंठन, मधुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता इत्यादि पर अधिक दृष्टि जाती थी। अतः इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहे तो यह कहे कि इनकी मधुचर्या के मानस-प्रसार [ ६८२ ]के लिये रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही है।

इनकी पहली विशिष्ट रचना "आँसू" (सं॰ १९८८) है। 'आँसू' वास्तव में तो हैं। शृंगारी विप्रलंभ के, जिनमें अतीत संयोग-सुख की खिन्न स्मृतियाँ रह रहकर झलक मारती हैं, पर जहाँ प्रेमी की मादकता की बेसुधी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते और संज्ञा की दशा में चले जाते हैं,[२] जहाँ हृदय की तरंगें 'उस अनंत कोने' को नहलाने चलती हैं, वहाँ वे आँसू उस 'अज्ञात प्रियतम' के लिये बहते जान पड़ते हैं। फिर जहाँ कवि यह देखने लगता है कि ऊपर तो––

अवकाश[३] असीम सुखों से आकाशतरंग[४] बनाता,
हँसता-सा छाया-पथ में नक्षत्र-समाज दिखाता।

पर

नीचे विपुला धारणी है दुख-भार वहन-सी करती,
अपने खारे आँसू से करुणा-सागर को भरती।

और इस 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' को, इस निर्मल जगती को, अपनी प्रेस-वेदना की कल्याणी शीतल ज्वालामय उजाला देना चाहता है, वहाँ वे आँसू लोकपीड़ा पर करुणा के आँसू से जान पड़ते हैं। पर वहीं पर जब हम कवि की दृष्टि अपनी सदा जगती हुई अखंड ज्वाला की प्रभविष्णुता पर इस प्रकार जमी पाते हैं कि "है मेरी ज्वाला!

तेरे प्रकाश में चेतन संसार वेदनावाला
मेरे समीप होता है पाकर कुछ करुण उजाला।"

[ ६८३ ]तब ज्वाला या प्रेम-वेदना की अतिरंजित और दूरारूद भावना ही––जो शृंगार की पुरानी रूढ़ि है––रह जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि वेदना की कोई एक निर्दिष्ट भूमि न होने से सारी पुस्तक का कोई एक समन्वित प्रभाव नहीं निष्पन्न होता है।

पर अलग अलग लेने पर उक्तियों के भीतर बड़ी ही रंजन-कारिणी कल्पना व्यंजक चित्रों की बड़ा ही अनूठा विन्यास, भावनाओं की अत्यंत सुकुमार योजना मिलती है। प्रसाद जी की यह पहली काव्य-रचना है जिसने बहुत लोगों को आकर्षित किया। अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेमवेदना की दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभाव का, सुख और दुःख दोनों को अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौंदर्य और मंगल के संगम का भी आभास पाया जाता है। 'नियतिवाद' और 'दुःखवाद' का विषण्ण स्वर भी सुनाई पड़ता है। इस चेतना को दूर हटाकर मद-तंद्रा, स्वप्न और असंज्ञा की दशा का आह्वान रहस्यवाद की एक स्वीकृत विधि है। इस विधि का पालन 'आंसू' से लेकर 'कामायनी' तक हुआ है। अपने ही लिये नहीं, उजाले में हाथ-पैर मारनेवाली 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' के लिये भी यही नींद लानेवाली दवा लेकर आने को कवि निशा से कहता है––

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा आलोक माँगती, तब भी,
तुम तुहिन बरस दो कन कन, यह पगली सोय अब भी।

चेतना की शांति या विस्मृति की दशा में ही 'कल्याण की वर्षा' होती है, मिलन-सुख प्राप्त होता है। अतः उसके लिये रात्रि की भावना को बढ़ाकर प्रसाद जी महारात्रि तक ले गए हैं, जो सृष्टि और प्रलय का संधि-काल है, जिसमें सारे नाम-रूपों को लय हो जाता है––

चैतना-लहर न उठेगी जीवन-समुद्र थिर होगा,
संध्या हो, सर्ग प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगा।

'आंसू' के उपरांत दूसरी रचना 'लहर' है, जो कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। 'लहर' पर एक छोटी-सी कविता सबसे पहले दी गई है। इसी से समूचे [ ६८४ ]संग्रह का नाम 'लहर' रखा गया। 'लहर' से कवि का अभिप्राय उस आनंद की लहर है जो मनुष्य के मानस में उठा करती है और उसके जीवन को सरस करती रहती है उसे ठहराने की पुकार अपने व्यक्तिगत नीरस जीवन को भी सरल करने के लिये कही जा सकती है और अखिल मानव-जीवन को भी। यह जीवन की लहर भीतर उसी प्रकार स्मृति-चिह्न छोड़ जाती है जिस प्रकार जल दी लहरें सूखी नदी की बालू के बीच पसलियों की-सी उभरी रेखाएँ छोड़ जाती हैं––

उठ, उठ, गिर गिर, फिर फिर आती।
नर्त्तित पद-चिह्न बना जाती;
सिकता की, रेखाएँ उभार,
भर जाती अपनी तरल सिहर।

इनमें भी उस प्रियतम का आँख-मिचौनी खेलना, दबे पाँव आना, किरन-उँगलियों से आँख मूँदना (या मूँदने की कोशिश करना क्योंकि उस ज्योतिर्मय का कुछ आभास मिल ही जाता है) प्रियतम की ओर अभिसार इत्यादि रहस्यवाद की सब सामग्री है। प्रियतम अज्ञात रहकर भी किस प्रेम का आलंबन रहता है, यह भी दो-एक जगह सूचित किया गया है। जैसे––

तुम हो कौन और मैं क्या हूँ? इसमें क्या है धरा, सुनो।
मानस जलधि रहे चिर चुंबित, मेरे क्षितिज! उदार बनो॥

इसी प्रकार "हे सागर संगम अरुण नील!" में यह चित्र सामने रखा गया है कि सागर ने हिमालय से निकली नदी को कब देखा था, और नदी ने सागर को कब देखा था पर नदी निकल कर स्वर्ण-स्वप्न देखती उसी की ओर चली और वह सागर भी बड़ी उमंग के साथ उससे मिला।

क्षितिज, जिसमें प्रातः सायं अनुराग की लाली दौड़ा करती है, असीम (आकाश) और ससीम (पृथ्वी) का सहेट या मिलन-स्थल-सा दिखाई पड़ा करता है। इस हलचल-भरे संसार से हटाकर कवि अपने नाविक से वहीं ले चलने को कहता है––
[ ६८५ ]

ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक! धीरे धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी अंबर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे।

वहाँ जाने पर वह इस सुख-दुःख-मय व्यापक प्रसार को अपने नित्य और सत्य रूप में देखने की भी, पारमार्थिक ज्ञान की झलक पाने की भी, आशा करता है; क्योंकि श्रम और विश्राम के उस संधि-स्थल पर ज्ञान की दिव्य ज्योति-सी जगती दिखाई पड़ा करती है––

जिस गंभीर मधुर छाया में––विश्व चित्रपट चल माया में––
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई, दुख-सुख-वाली सत्य बनी रे।
श्रम-विश्राम क्षिलिज-वेला से, जहाँ सृजन करते मेला से––
अमर जागरण, उषा नयन से––बिखराती हो ज्योति घनी रे।

'लहर' में चार-पाँच रचनाएँ ही रहस्यवाद की हैं। पर कवि की तंद्रा और स्वप्नवाली प्रिय भावना जगह-जगह व्यक्त होती है। रात्रि के उस सन्नाटे की कामना जिसमें बाहर भीतर की सब हलचलें शांत रहती है, केवल अभावों की पूर्ति करनेवाले अतृप्त-कामनाओं की तृप्ति का विधान करनेवाले, स्वप्न ही जगा करते हैं, इस गीत में पूर्णतया व्यक्त है––

अपलक लगती हो एक रात!
सब सोए हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता संबल में,
चलती हो कोई भी न बात।
xxxx
वक्षस्थल में जो छिपे हुए
सोते हों हृदय अभाव लिए।
उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

जैसा कि पहले सूचित कर चुके हैं, 'लहर' में कई प्रकार की रचनाएँ हैं। कहीं तो प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रूपकमय गान हैं, जैसे–– [ ६८६ ]

बीती विभावरी जाग री!
अंबर-पनघट में डुबो रही
तारा-घट उषा नागरी।
खगकुल 'कुल-कुल' सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो, यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल-रस नागरी॥

कहीं उस यौवन-काल की स्मृतियाँ हैं जिसमें मधु का आदान-प्रदान चलता था, कहीं प्रेम का शुद्ध स्वरूप यह कहकर बताया गया है कि प्रेम देने की चीज है, लेने की नहीं! पर इस पुस्तक में कवि अपने मधुमय जगत् से निकल कर जगत् और जीवन के कई पक्षों की ओर भी बढ़ी है। वह अपने भीतर इतना अपरिमित अनुराग समझता है कि अपने सान्निध्य से वर्तमान जगत् में उसके फैसले की आशा करता है। उषा का अनुराग (लाली) जब फैल जाता है तभी ज्योति की किरण फूटती है––

मेरा अनुराग फैलने दो नभ के अभिनव कलरव में,
जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना।

कवि अपने प्रियतम से अब वह 'जीवन-गीत' सुनाने को कहता है जिसमें 'करुणा का नव अभिनंदन हो'। फिर इस जगत् की अज्ञानांधकारमयी अश्रुपूर्ण रात्रि के बीच ज्ञान-ज्योति की भिक्षा माँगता हुआ वह उससे प्रेम-वेणु के स्वर में 'जीवन-गीत' सुनाने को कहता है जिसके प्रभाव से मनुष्य-जाति लताओं के समान स्नेहालिंगन में बद्ध हो जायगी और इसे संतप्त पृथ्वी पर शीतल छाया दी जायगी––

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचंद्र दिखा जाओ,
प्रेम-वेणु की स्वर-लहरी में जीवन-गीत सुना जाओ।
xxxx
स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो।
जीवन-धन! इस जले जगत् को वृंदावन बन जाने दो॥

[ ६८७ ]जैसा कि पहले सूचित कर आए हैं, 'लहर' में प्रसाद जी ने अपनी प्रगल्भ कल्पना के रंग में इतिहास के कुछ खंडों को भी देखा है। जिस वरुण के शांत कछार में बुद्ध भगवान् ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था उसकी पुरानी झाँकी, 'अशोक की चिंता', 'शेरसिंह का आत्मसमर्पण', 'पेशोला की प्रतिध्वनि' 'प्रलय की छाया' ये सब अतीत के भीतर कल्पना के प्रवेश के उदाहरण हैं। इस प्रकार 'लहर' में हम प्रसाद जी को वर्तमान और अतीत जीवन की प्रकृत ठोस भूमि पर अपनी कल्पना ठहराने का कुछ प्रयत्न करते पाते है।

किसी एक विशाल भावना को रूप देने की ओर भी अंत में प्रसाद जी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है 'कामायनी'। इसमें उन्होंने अपने प्रिय 'आनंदवाद' की प्रतिष्ठा दार्शनिकता के ऊपरी आभास के साथ कल्पना की मधुमती भूमिका बना कर की है। यह 'आनंदवाद' वल्लभाचार्य के 'काय' या आनंद के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों की अंतर्भूमि-पद्धति पर है। प्राचीन जलप्लावन के उपरांत मनु द्वारा मानवी सृष्टि के पुनर्विधान का आख्यान लेकर इस प्रबंध-काव्य की रचना हुई है। काव्य का आधार है मनु का पहले श्रद्धा को फिर इड़ा को पत्नी-रूप में ग्रहण करना तथा इड़ा को वंदिनी या सर्वथा अधीन बनाने का प्रयत्न करने पर देवताओं का उनपर कोप करना। 'रूपक' की भावना के अनुसार श्रद्धा विश्वास-समन्वित रागात्मिका वृत्ति हैं और इड़ा व्यवसायात्मिका बुद्धि। कवि ने श्रद्धा को मृदुता, प्रेम और करुण का प्रवर्तन करनेवाली और सच्चे आनंद तक पहुँचानेवाली चित्रित किया है। इड़ा या बुद्धि अनेक प्रकार के वर्गीकरण और व्यवस्थाओं में प्रवृत्त करती हुई कर्मों में उलझानेवाली चित्रित की गई है।

कथा इस प्रकार चलती है। 'जल-प्रलय' के बाद मनु की नाव हिमवान् की चोटी पर लगती है और मनु वहाँ चित्राग्रस्त बैठे हैं। मनु पिछली सृष्टि की बातें और आगे की दशा सोचते-सोचते शिथिल और निराश हो जाते हैं। यह चिंता 'बुद्धि, मति या मनीषा' का ही एक रूप कही गई है जिससे आरंभ में ही 'बुद्धिवाद' के विरोध का किंचित् आभास मिल जाता है। धीरे-धीरे आशा को रमणीय उदय होता है और श्रद्धा से मनु की भेंट होती है। श्रद्धा के साथ मनु शांतिसुखपूर्वक कुछ दिन रहते हैं। पर पूर्व-संस्कार-वश कर्म, की ओर फिर [ ६८८ ]मनु की प्रवृत्ति होती है। आसुरी प्रेरणा से वे पशुहिंसापूर्ण काम्य यज्ञ करने लगते हैं जिसमें श्रद्धा को विरक्ति होती है। वह यह देखकर दुखी होती है कि मनु अपने ही सुख की भावना में मग्न होते जा रहे हैं, उनके हृदय में सुख के सब प्राणियों में, प्रसार का लक्ष्य नहीं जम रहा है जिससे मानवता का नूतन विकास होता। मनु चाहते हैं कि श्रद्धा का सारा सद्भाव, सारा प्रेम, एकमात्र उन्हीं पर स्थित रहे, तनिक भी इधर उधर बैटने न पाए। इससे जब वे देखते हैं कि श्रद्धा पशुओं के बच्चों को प्रेम से पुचकारती है और अपनी गर्भस्थ संतति की सुख-क्रीड़ा का आयोजन करती है तब उनके मन में ईर्ष्या होती है और उसे हिमालय की उसी गुफा में छोड़कर वे अपनी सुख-वासना लिए हुए चल देते हैं।

मनु उजड़े हुए सारस्वत प्रदेश में उतरते हैं जहाँ कभी श्रद्धा से हीन होकर सुर और असुर लड़े थे, इंद्र की विजय हुई थी। वे खिन्न होकर सोचते हैं कि क्या मैं उन्ही के समान श्रद्धा-हीन हो रहा हूँ। इसी बीच में अंतरिक्ष से 'काम' की अभिशाप भरी वाणी सुनाई पड़ती है कि––

मनु! तुम श्रद्धा को गए भूल।
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को उड़ा दिया था समझ तूल
तुम भूल गए पुरुषत्व-मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
सम-रसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।
xxxx
यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि।
द्वयता में लगी निरंतर ही वर्णों की करती रहे वृष्टि।
अनजान समस्याएँ ही गढ़ती, रचती हो अपनी ही विनष्टि।
कोलाहल कलह अनंत चले, एकता नष्ट हो, बढ़े भेद।
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद।

प्रभात होता है। मनु अपने सामने एक सुंदरी खड़ी पाते हैं––

बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
वह विश्वमुकुट-सा उज्ज्वलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल।

[ ६८९ ]

गुंजरित मधुप-से मुकुल सदृश वह आनन जिसमें भरा गान।
वक्षस्थल पर एकत्र धरे संसृति के सब विज्ञान ज्ञान।
था एक हाथ में कर्म-कलश वसुधा-जीवन-रस-सार लिए।
दूसरा विचारों के नभ को था मधुर अभय अवलंब दिए।

यह इड़ा (बुद्धि) थी। इसके साथ मनु सारस्वत प्रदेश की राजधानी में रह गए। मनु के मन में जब जगत् और उसके नियामक के संबंध में जिज्ञासा उठती है और उससे कुछ सहाय पाने का विचार आता है तब इड़ा कहती है––

हाँ! तुम ही हो अपने सहाय।
जो बुद्धि कहे उसको न मानकर फिर किसकी नर शरण जाय?
यह प्रकृति परम रमणीय अखिल ऐश्वर्यभरी शाधकविहीन।
तुम उसका पटल खोलने में परिकर कसकर बन कर्मलीन।
सबका नियमन शासन करते बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता।
तुम जड़ता को चैतन्य करो, विज्ञान सहज साधन उपाय।

मनु वहाँ इड़ा के साथ रहकर प्रजा के शासन की पूरी व्यवस्था करते हैं। नगर की श्री-वृद्धि होती है। प्रकृति बुद्धिबल के वश में की जाती है। खेती धूम-धाम से होने लगती है। अनेक प्रकार के उद्योग-धंधे खड़े होते हैं। धातुओं के नए नए अस्त्र-शस्त्र बनते हैं। मनु अनेक प्रकार के नियम प्रचलित करके, जनता का वर्णों या वर्गों में विभाग करके, लोक का संचालन करते हैं। 'अहं' का भाव जोर पकड़ता है। वे अपने को स्वतंत्र नियामक और प्रजापति मानकर सब नियमों से परे रहना चाहते हैं। इड़ा उन्हें नियमों के पालन की सलाह देती है, पर वे नहीं मानते। इड़ा खिन्न होकर जाना चाहती हैं, पर मनु अपना अधिकार जमाते हुए उसे पकड़ रखते हैं। पकड़ते ही द्वार गिर पड़ता हैं। प्रजा जो दुर्व्यवहारों से क्षुब्ध होकर राजभवन घेरे थी, भीतर घुस पड़ती है। देवशक्तियाँ भी कुपित हो उठती हैं। शिव का तीसरा नेत्र खुल जाता है। प्रजा का रोष बढ़ता है! मनु युद्ध करते है और मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं।

उधर श्रद्धा इसी प्रकार के विप्लव का भयंकर स्वप्न देखकर अपने कुमार [ ६९० ]को लेकर मनु को ढूँढ़ती ढूँढ़ती वहाँ पहुँचती है। मनु उसे देखकर क्षोभ और पश्चात्ताप से भर जाते हैं। फिर उन सुंदर दिनों को याद करते हैं जब श्रद्धा के मिलने से उनका जीवन सुंदर और प्रफुल्ल हो गया था; जो जगत् पीड़ा और हलचल में व्यथित था वही विश्वास से पूर्ण, शांत, उज्जवल और मंगलमय बन गया था। मनु उससे चटपट अपने को वहाँ से निकाल ले चलने को कहते हैं। जब रात हुई तब मनु उठकर चुपचाप वहाँ से न जाने कहाँ चल दिए। उनके चले जाने पर श्रद्धा और इड़ा की बातचीत होती है और इड़ा अपनी बाँधी हुई अधिकार-व्यवस्था के इस भयंकर परिणाम को देख अपना साहस छूटने की बात कहती है––

श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें
अपने बल का है गर्व उन्हें।
xxxx
अधिकार न सीमा में रहते,
पावस-निर्झर से वे बहते।
xxxx
सब पिए मत्त लालसा-घूँट।
मेरा साहस अब गया छूट॥

इस पर श्रद्धा बोली––

वन विषम ध्वात


सिर चढ़ी रही, पाया न हृदय, तू विकल कर रही है अभिनय।
सुख-दुख की मधुमय धूप छाँह, तूने छोड़ी यह सरल राह॥
चेतनता का, भौतिक विभाग––कर, जग को बाँट दिया विराग।
चिति का स्वरूप यह नित्य जगत, यह रूप बदलता है शत शत,
कण विरह-मिलन-मय नृत्य निरत, उल्लासपूर्ण आनंद सतत॥

अंत में श्रद्धा अपने कुमार को इड़ा के हाथों में सौंप मनु को ढूँढ़ने निकली और उन्हें उसने सरस्वती-तट पर एक गुफा में पाया। मनु उस समय आँखें बंद किए चित् शक्ति का अंतर्नाद सुन रहे थे, ज्योतिर्मय पुरुष का आभास पा रहे थे, अखिल विश्व के बीच नटराज का नृत्य देख रहे थे। श्रद्धा को देखते [ ६९१ ]ही वे इत-चेत् पुकार उठे कि 'श्रद्धे! उन चरणों तक ले चल'।श्रद्धा आगे आगे और मनु पीछे पीछे हिमालय पर चढ़ते चले जाते हैं। यहाँ तक कि वे ऐसे महादेश में अपने को पाते हैं जहाँ वे निराधार ठहरे जान पड़ते है। भूमंडल की रेखा का कहीं पता नहीं। यहाँ कवि पूरे रहस्यदर्शी का बाना धारण करता हैं और मनु के भीतर एक नई चेतना (इस चेतना से भिन्न) का उदय बतलाता है। अब मनु को त्रिदिक् (Three dimensions) विश्व और त्रिभुवन के प्रतिनिधि तीन अलग अलग अलोकबिंदु दिखाई पड़ते हैं जो 'इच्छा', 'ज्ञान' और 'क्रिया' के केंद्र से हैं। श्रद्धा एक एक का रहस्य समझाती है।

पहले 'इच्छा' का मधु, मादकता और अँगड़ाईवाला माथा-राज्य है जो रागारुण उषा के संदुक सा सुंदर है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की पारदर्शिनी पुतलियाँ रंग बिरंगी तितलियों के समान नाच रही हैं। यहाँ चल चित्रों की संस्कृति-छाया चारों ओर घूम रही है और आलोकबिंदु को घेरकर बैठी हुई माया मुस्करा रही है। यहाँ चिर वसंत का उद्गम भी है और एक छोर पतझड़ भी अर्थात् सुख और दुःख एक सूत्र में बँधे है। यहीं पर मनोमय विश्व रागारुण चेतन की उपासना कर रहा है।

फिर 'कर्म' का श्यामल लोक सामने आता है जो धुएँ-सा धुँधला है, जहाँ क्षण भर विश्राम नहीं है, सतत संघर्ष और विफलता का कोलाहल रहता है, आकांक्षा की तीव्र पिपासा बनी रहती है, भाव राष्ट्र के नियम दंड बने हुए है। सारा समाज मतवाला हो रहा हैं।

सबके पीछे 'ज्ञान-क्षेत्र' आता है जहाँ सदा बुद्धि-चक्र चलता रहता है। सुख-दुःख से उदासीनता रहती हैं। यहाँ के निरंकुश अणु तर्क-युक्ति से अस्ति-नास्ति का भेद करते रहते हैं और निस्संग होकर भी मोक्ष से संबंध जोड़े रहते हैं। यहाँ केवल प्राप्य (मोक्ष या छुटकारा भर) मिलता है, तृप्ति (आनंद) नहीं; जीवन-रस अछूता छोड़ा रहता है जिसमें बहुत-सा इकट्ठा होकर एक साथ मिले। इससे तृषा ही तृषा दिखाई देती हैं।

अंत में इन तीनों ज्योतिर्मय बिंदुओं को दिखाकर श्रद्धा कहती है कि यही त्रिपुर हैं जिसमें इच्छा, कर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग अलग अपने केंद्र आप ही बने हुए हैं। इनका परस्पर न मिलना ही जीवन की असली विडंबना [ ६९२ ]हैं। ज्ञान अलग पड़ा हैं, कर्म अलग। अतः इच्छा पूरी कैसे हो सकती है? यह कहकर श्रद्धा मुस्कराती हैं जिससे ज्योति की एक रेखा तीनों में दौड़ जाती है और चट तीनों एक में मिलकर प्रज्वलित हो उठते है और सारे विश्व में शृंग और डमरू का निनाद फैल जाता है। उस अनाहत नाद में मनु लीन हो जाते हैं।

इस रहस्य को पार करने पर फिर आनंद-भूमि दिखाई गई हैं। वहाँ इड़ा भी कुमार (मानव) को लिए अंत में पहुँचती हैं और देखती है कि पुरुष पुरातन प्रकृति से मिला हुआ। अपनी ही शक्ति से लहरें मारता हुआ आनंद-सागर-सा उमढ़ रहा हैं। यह सब देख इड़ा श्रद्धा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हुई कहती है कि "मैं अब समझ गई कि मुझमें कुछ भी समझ नहीं थी। व्यर्थ लोगों को भुलाया करती थी; यही मेरा काम था"। फिर मनु कैलाश की और दिखाकर उस आनंद-लोक का वर्णन करते हैं जहाँ पाप-ताप कुछ भी नहीं हैं, सब समरस है, और 'अभेद में भेद' वाले प्रसिद्ध सिद्धांत का कथन करके कहते हैं––

अपने दुख सुख से पुलकित यह मूर्त विश्व सचराचर
चिति को विराट वपु मंगल यह सत्य सतत चिर सुंदर।

अंत में प्रसाद जी वहीं प्रकृति से सारे सुख, भोग, कांति, दीप्ति की सामग्री जुटाकर लीन हो जाते हैं––वे ही वल्लरियाँ, पराग, मधु, मकरंद, अप्सराएँ बनी हुई रश्मियाँ।

यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसका विचारात्मक आधार या अर्थ-भूमि केवल इतनी ही है कि श्रद्धा या विश्वासमयी रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शांतिमय आनंद का अनुभव और चारों ओर प्रसार कराती हुई कल्याण मार्ग पर ले चलती है और उस निर्विशेष आनंद धाम तक पहुँचाती है। इड़ा या बुद्धि मनुष्य को सदा चंचल रखती, अनेक प्रकार के तर्क-विर्तक और निर्मम कर्म जाल में फँसाए रहती और तृप्ति या संतोष के आनंद से दूर रखती हैं। अंत में पहुँचकर कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान के सामंजस्य पर, तीनों के मेल पर, जोर दिया है। एक दूसरे में अलग रहने पर ही जीवन में विषमता आती है। [ ६९३ ]जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रकृति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है। पहले कवि ने कर्म को बुद्धि या ज्ञान की प्रवृत्ति के रूप में दिखाया, फिर अंत में कर्म और ज्ञान के विंदुओं को अलग अलग रखा। पीछे आया हुआ ज्ञान भी बुद्धिव्यव सायात्मक ज्ञान ही है (योगियों या रहस्यवादियों को पर-ज्ञान नहीं) यह बात "सदा चलता है बुद्धिचक्र" से स्पष्ट है। जहाँ "रागारुण कंदुक सा, भावमयी प्रतिभा का मंदिर" इच्छाबिंदु मिलता है वहाँ इच्छा रागात्मिका वृत्ति के अंतर्गत है; अतः रति-काम से उत्पन्न श्रद्धा की ही प्रवृत्ति ठहरती है। पर श्रद्धा उससे अलग क्या तीनों विंदुओं से परे रखी गई है।

रहस्यवाद की परंपरा में चेतना से असंतोष की रूढ़ि चली आ रही है। प्रसाद जी काव्य के आरंभ में ही 'चिंता' के अंतर्गत कहते हैं––

मनु का मन या विकल हों उठा संवेदन से खाकर चोट
संवेदन जीवन जगती को जो कटुता से देता घोट।
संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता
फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता?

इन पंक्तियों मे तो 'संवेदन' बोध-वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है, क्योंकि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के अर्थ में लें तो हृदय के साथ उसका संघर्ष कैसा? बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि 'संवेदन' को लें तो भी उसे भावभूमि से खारिज नहीं कर सकते। प्रत्येक 'भाव' का प्रथम अवयव विषय-बोध ही होता है। स्वप्न-दशा में भी, जिसका रहस्य-क्षेत्र में बड़ा माहात्म्य है, यह बिषय-बोध रहता है। श्रद्धा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, उसमें दूसरों की पीड़ा का बोध मिला रहता है।

आगे चलकर यह 'संवेदन' शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुःख पर कष्टानुभव के अर्थ में आया है। मनु की बिगड़ी हुई प्रजा उनसे कहती है––

हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख।
कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख‌।

मतलब यह कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दुःख को अनुभव करना ही [ ६९४ ]संवेदन हैं। दुःख को पास न भटकले देना, अपनी मौज में––मधु-मकरंद में––मस्त रहना ही वांछनीय स्थिति हैं। असंतोष से उत्पन्न अवास्तविक कष्टकल्पना के दुःखानुभव के अर्थ से ही इस शब्द को जकड़ रखना भी व्यर्थ प्रयास कहा जायगा। श्रद्धा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है वह दूसरों की पीड़ा का संवेदन ही तो है। दूसरों के दुःख का अपना दुःख हो जाना ही तो करुणा हैं। पर-दुःखानुभव अपनी ही सत्ता का प्रसार तो सूचित करता है। चाहे जिस अर्थ में ले, संवेदन का तिरस्कार कोई अर्थ नहीं रखता।

संवेदन, चेतना, जागरण आदि के परिहार का जो बीच बीच में अभिलाप है उसे रहस्यवाद का तकाजा समझना चाहिए। ग्रंथ के अंत में जो हृदय, बुद्धि और कर्म के मेल या सामंजस्य का पक्ष रखा गया है वह तो बहुत समीचीन है। उसे हम गोस्वामी तुलसीदास में, उनके भक्तिमार्ग की सबसे बड़ी विशेषता के रूप में, दिखा चुके हैं[५]। अपने कई निबंधों में हम जगत् की वर्तमान अशांति और अव्यवस्था का कारण इसी सामंजस्य का अभाव कह चुके है। पर इस सामंजस्य का स्वर हम 'कामायानी' में और कहीं नहीं पाते हैं। श्रद्धा जब कुमार को लेकर प्रजाविद्रोह के उपरांत सारस्वत नगर में पहुँचती है तब 'इडा' से कहती है कि "सिर चढ़ी रही पाया न हृदय"। क्या श्रद्धा के संबंध में नहीं कहा जा सकता था कि "रस पगी रही पाई न बुद्धि"? जब दोनों अलग अलग सत्ताएँ करके रखी गईं तब एक को दूसरी से शून्य कहना, और दूसरी को पहली से शून्य न कहना, गडबड़ में डालता है। पर श्रद्धा में किसी प्रकार की कमी की भावना कवि की ऐकांतिक मधुर भावना के अनुकूल न थी।

बुद्धि की विगर्हणा द्वारा 'बुद्धिवाद' के विरुद्ध उस आधुनिक आंदोलन का आभास भी कवि को इष्ट जान पड़ता है जिसके प्रवर्तक अनातोले फ्रास ने कहा हैं कि "बुद्धि के द्वारा सत्य को छोड़कर और सब कुछ सिद्ध हो सकता है। बुद्धि पर मनुष्य को विश्वास नहीं होता। बुद्धि या तर्क का सहारा तो लोग अपनी भली-बुरी प्रवृत्तियों को ठीक प्रमाणित करने के लिये लेते हैं।" [ ६९५ ]विज्ञान द्वारा सुख-साधनो की वृद्धि के साथ-साथ विलासिता और लोभ की असीम वृद्धि तथा यत्रों के परिचालन से जनता के बीच फैली हुई घोर अशक्तता, दरिद्रता आदि के कारण वर्तमान जगत् की जो विषम स्थिति हो रही है उसका भी थोड़ा आभास मनु की विद्रोही प्रजा के इन वचनों द्वारा दिया गया है––

प्रकृत शक्ति तुमने यंत्रों से, सबकी छीनी।
शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी।

वर्गहीन समाज की साम्यवादी पुकार की भी दबी-सी गूँज दो-तीन जगह हैं। 'विद्युतकरण (Electrons) मिले झलकते-से' में विज्ञान की भी झलक है।

यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य वे भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती। कर्म को कवि ने या तो काम्य यज्ञों के बीच दिखाया है अथवा उद्योग-धंधों या शासन-विधानों के बीच। श्रद्धा के मंगलमय योग से किस प्रकार कर्म धर्म का रूप धारण करता है, यह भावना कवि से दूर ही रही। इस भव्य और विशाल भावना के भीतर उग्र और प्रचंड भाव भी लोक के मंगलविधान के अंग हो जाते हैं। श्रद्धा और धर्म का संबंध अत्यंत प्राचीन काल से प्रतिष्ठित है। महाभारत में श्रद्धा धर्म की पत्नी कही गई है। हृदय के आधे पक्ष को अलग रखने से केवल कोमल भावों की शीतल छाया के भीतर आनंद का स्वप्न देखा जा सकता है, व्यक्त जगत् के बीच उसका आविर्भाव और अवस्थान नहीं दिखाया जा सकता।

यदि हम इस विशद काव्य की अंतर्योजना पर ने ध्यान दे, समष्टि रूप में कोई समन्वित प्रभाव, न ढूँढे, श्रद्धा, काम, लज्जा, इड़ा इत्यादि को अलग अलग लें तो हमारे सामने बड़ी ही रमणीय चित्रमयी कल्पना, अभिव्यंजना की अत्यंत मनोरम पद्धति आती है। इन वृत्तियों की आभ्यंतर प्रेरणाओं और बाह्य प्रवृत्तियों को बड़ी-मार्मिकता से परखकर इनके स्वरूपों की नराकार उद्भावना की योजना का तो कहना ही क्या है! प्रकृति के ध्वंसकारी-भीषण रूपवेग को अत्यंत व्यापक परिधि के बीच चित्रण हुआ है। इस प्रकार प्रसाद जी भी [ ६९६ ]प्रबंध-क्षेत्र में भी छायावाद की चित्रप्रधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बँधा गए हैं।



श्री सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं का आरंभ सं॰ १९७५ से समझना चाहिए। इनकी प्रारंभिक कविताएँ 'वीणा' में, जिसमें 'हृत्तंत्री के तार' भी संग्रहीत हैं। उन्हें देखने पर 'गीतांजलि' का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है, पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्द्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह-जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है। गीतांजलि का रहस्यात्मकता प्रभाव ऐसे गीतों को देखकर ही कहा जा सकता है––

हुआ था जब संध्या-आलोक
हँस रहे थे, तुम पश्चिम ओर
विहँगरव बन कर मैं, चितचोर!
गा रहा था गुण; किंतु कठोर
रहे तुम नहीं वहाँ भी, शोक।

पर पंत जी की रहस्य-भावना प्रायः स्वाभाविक ही रही। 'वाद' का सांप्रदायिक स्वरूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो। उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों की आह्लादमयी अनुभूति वह 'वीणा' में भी कई जगह पाई जाती हैं। सौंदर्य का आह्वाद उनकी कल्पना को उत्तेजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनमें प्रस्तुत रूपों की सौंदर्यानुभूति के प्रसार के लिये अनेक मार्ग से खुल जाते हैं। 'वीणा' की कविताओं में इसने लोगों को बहुत आकर्षित किया––

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
निराकार तुम मानो सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार?
बदल गया द्रुत जगज्वाल में धर कर नाम-रूप नाना।
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।

  1. देखो पृष्ठ ६४८।
  2. मादकता से आए तुम; संज्ञा से चले गए थे।
    उर्दू के प्रसिद्ध कवि अकबर ने भी कहा है––

    मैं मरीजे होश था, मस्ती ने अच्छा कर दिया।

  3. अवकाश=दिक्, Space
  4. आकाश-तरंग=Ether waves
  5. देखो पृ॰ १४०।