हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) महादेवी वर्मा

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[ ७२१ ]'तुलसीदास' निरालाजी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है। इस ग्रंथ में कवि ने जिस परिस्थिति में गोस्वामीजी उत्पन्न हुए उसका बहुत ही चटकीला और रंगीन वर्णन करके चित्रकूट की प्राकृतिक छटा के बीच किस प्रकार उन्हें आनंदमयी सत्ता का बोध हुआ और नवजीवन प्रदान करनेवाले गान की दिव्य प्रेरणा हुई उसका अंतर्वृत्ति के आंदोलन के रूप में वर्णन किया है।

'भविष्य का सुखस्वप्न' आधुनिक योरोपीय साहित्य की एक रूढ़ि है। जगत् की जीर्ण और प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नूतन सुखमयी व्यवस्था के निकट होने के आभास का वर्णन निरालाजी की 'उद्बोधन' नाम की कविता में मिलती है। इसी प्रकार श्रमजीवियों के कष्टों की समानुभूति लिए हुए जो लोक-हितवाद का आंदोलन चला है उसपर भी अब निराला जी की दृष्टि गई है––

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।

इस प्रकार की-रचनाओं में भाषा बोलचाल की पाई जाती। पर निरालाजी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली से जुड़ी हुई होती है जिसका नमूना "राम की शक्तिपूजा" में मिलता है। जैसा पहले कह चुके हैं, इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्रायः रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं कहीं बहुत ढीली पड़ जाती।



श्री महादेवी वर्म्मा—छायावादी कहे जानेवाले कवियों में महादेवीजी ही रहस्यावाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिये वेदना ही इनके हृदय का भाव-केंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट छूटकर झलक मारती रहती हैं। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन-सुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं। वे कहती हैं कि—"मिलन का मत नाम ले मैं विहर में चिर हूँ"। इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो [ ७२२ ]लोकोत्तर है। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की स्मणीय कल्पना हैं यह नहीं कह जा सकता।

एक पक्ष में अनंत सुषमा, दूसरे पक्ष में अपार वेदना विश्व के छोर हैं जिनके बीच उसकी अभिव्यक्ति होती हैं––

यह दोनों दो ओरें थीं
संसृति की चित्रपटी की;
उस बिन मेरा दुख सूना,
मुझ बिन वह सुषमा फीकी।

पीड़ा का चसका इतना है कि––


तुमको पीड़ा में ढूँढा।
तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।

इनकी रचनाएँ समय समय पर संग्रहों में निकली हैं––नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्य गीत। अब इन सब का एक में बड़ा संग्रह 'यामा' के नाम से बड़े आकर्षक रूप में निकला है। गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्राजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भाव-भंगी। जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।


ऊपर 'छायावाद' के कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख हो चुका हैं। उनके साथ ही इस वर्ग के अन्य उल्लेखनीय कवि हैं––सर्वश्री मोहनलाल महतो 'वियोगी', भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, नरेंद्र शर्मा और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'। श्रीवियोगों की कविताएँ 'निर्माल्य', 'एकतारा' और 'कल्पना' में संग्रहीत हैं।श्रीभगवतीचरण की कविताओं के तीन संग्रह हैं––'मधुकण', 'प्रेम संगीत' और 'मानव'। श्री रामकुमार वर्मा ने पहले 'वीर हमीर' और 'चित्तौड़ की चिता' की रचना की थी जो छायावाद के भीतर नहीं आतीं। उनकी इस [ ७२३ ]प्रकार की कविताएँ 'अंजलि', 'रूपराशि', 'चित्ररेखा' 'चन्द्रकिरण' नाम के संग्रहों के रूप में प्रकाशित हुई हैं। श्री आरसीप्रसाद की रचनाओं का संग्रह 'कलापी' में हुआ है। श्री नरेंद्र के गीत उनके 'कर्ण फूल', 'शूल फूल', 'प्रभातफेरी' और 'प्रवासी के गीत' नामक संग्रहों में संकलित हुए हैं और श्री अंचल की कविताएँ 'मधूलिका' और 'अपराजिता' में संग्रह की गई हैं।


४––स्वच्छंद-धारा

छायावादी कवियों के अतिरिक्त वर्तमान काल में और भी कवि है जिनमें से कुछ ने यत्र-तत्र ही रहस्यात्मक भाव व्यक्त किए हैं। उनकी अधिक रचनाएँ छायावाद के अंतर्गत नहीं आतीं। उन सबकी अपनी अलग अलग विशेषता है। इस कारण उनको एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। सुभीते के लिये ऐसे कवियों की, समष्टि रूप से, 'स्वछंद धारा' प्रवाहित होती है। इन कवियों में पं॰ माखनलाल चतुर्वेदी ('एक भारतीय आत्मा'), श्री सियारामशरण गुप्त, पं॰ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान, श्री हरिवंश राय 'बच्चन', श्री रामधारी सिंह 'दिनकर', ठाकुर गुरुभक्त सिंह और पं॰ उदयशंकर भट्ट मुख्य हैं। चतुर्वेदीजी की कविताएँ अभी तक अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुई। 'त्रिधारा' नाम के संग्रह में श्री केशवप्रसाद पाठक और श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की चुनी हुई कविताओं के साथ उनकी भी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ उद्धृत की गई हैं। श्री सियारामशरण गुप्त ने आरंभ में 'मौर्य-विजय' खंडकाव्य लिखा था। उनकी कविताओं के ये संग्रह प्रसिद्ध हैं––दूर्वादल, विषाद, आर्द्रा, पाथेय और मृण्मयी। 'आत्मोत्सर्ग', 'अनाथ' और 'बापू' उनके अन्य काव्य है। श्री नवीन ने 'उर्मिला' के संबंध में एक काव्य लिखा है जिसका कुछ अंश अस्तंगत 'प्रभा' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। उनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'कुंकुम' नाम से छपा है। श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की कुछ कविताएँ, जैसा कहा जा चुका है, [ ७२४ ]'त्रिधारा' में संकलित है। 'मुकुल' उनकी शेष कविताओं का संग्रह है। श्री बच्चन ने 'खैयाम की मधुशाला' के उमर खैयाम की कविताओं का अँगरेजी के प्रसिद्ध कवि फिट्जेराल्ड कृत अँगरेजी अनुवाद के आधार पर, अनुवाद किया है। उनकी स्वतंत्र रचनाओं के कई संग्रह निकल चुके हैं। जैसे, 'तेरा हार', 'एकांत संगीत', 'मधुशाला', 'मधुबाला' और 'निशानियंत्रण' आदि। श्री दिनकर की पहली रचना है 'प्रणभंग'। यह प्रबंधकाव्य है। अभी उनके गीतों और कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं––'रेणुका' और 'हुंकार'। ठाकुर गुरुभक्त-सिंह की लय से प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कृति 'नूरजहाँ' प्रबंध-काव्य है। उनकी कविताओं के कई संग्रह भी निकल चुके हैं। उनमें 'सरस सुमन', 'कुसुमु-कुंज', वंशीध्वनि' और 'वन-श्री' प्रसिद्ध है। पंडित उदयशंकर भट्ट ने 'तक्षशिला' और 'मानसी' काव्यों के अतिरित्त विविध कविताएँ भी लिखी हैं, जो 'राका' और 'विसर्जन' में संकलित हैं।

इस प्रकार वर्तमान हिंदी कविता का प्रवाह अनेक धाराओं में होकर चल रहा है।