हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) वर्तमान काव्य-धाराएँ

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तृतीय उत्थान

(सं॰ १९७५ से....)

वर्त्तमान काव्य-धाराएँ

सामान्य परिचय

द्वितीय उत्थान के समाप्त होते होते खड़ी बोली में बहुत कुछ कविता हो चुकी। इन २५-३० वर्षों के भीतर वह बहुत कुछ मँजी, इसमें संदेह नहीं, पर इतनी नहीं जितनी उर्दू काव्य-क्षेत्र के भीतर जाकर मँजी है। जैसा पहले कह चुके हैं, हिंदी में खड़ी बोली के पद्य-प्रवाह के लिये तीन रास्ते खोले गए––उर्दू या फारसी की वह्नों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिंदी के छंदों का। इनमें से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिंदी-काव्य का निकाला हुआ अपना मार्ग नहीं। अतः शेष दो भागों का ही थोड़े में विचार किया जाता है।

इसमें तो कोई संदेह नहीं कि संस्कृत के वर्णवृत्तों का-सा माधुर्य अन्यत्र दुर्लभ है। पर उनमें भाषा इतनी जकड़ जाती है कि वह भावधारा के मेल में पूरी तरह से स्वच्छंद होकर नहीं चल सकती है इसी से संस्कृत के लंबे समासों का बहुत कुछ सहारा लेना पड़ता है। पर संस्कृत-पदावली के अधिक समावेश से खड़ी बोली की स्वाभाविक गति के प्रसार के लिये अवकाश कम रहता है। अतः वर्णवृत्तों का थोड़ा बहुत उपयोग किसी बड़े प्रबंध के भीतर बीच बीच में ही उपयुक्त हो सकता है। तात्पर्य यह कि संस्कृत पदावली का अधिक आश्रय लेने से खड़ी बोली के मँजने की संभावना दूर ही रहेगी।

हिंदी के सब तरह के प्रचलित छंदों में खड़ी बोली की स्वाभाविक वाग्धारा का अच्छी तरह खपने के योग्य हो जाना ही उसका मँजना कहा जायगा। हिंदी के प्रचलित छंदो मैं दंडक और सवैया भी है। सवैए यद्यपि वर्णवृत्त हैं। पर लय के अनुसार लघु गुरु का बंधन उनमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो [ ६४२ ]जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में मात्रिक छंदों में तो कोई अड़चन ही नही है। प्रचलित मात्रिक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए नए छंदों का विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते है।

खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगो का ध्यान क्रमशः गया हैं और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिंदी के प्रचलित छंदों में तथा नए 'गड़े हुए छदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरणसिंहजी कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है।

खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जायगा जब कि पद्यों में उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ बैठें। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका हिंदी पर पूरा अधिकार हैं, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरणसिंह ऐसे कवियों की लेखनी से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे लोगों को, जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट-समागम द्वारा भाषा, पर पूरा अधिकार नहीं प्राप्त किया है, संस्कृत, की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अँगरेजी पद्यों के वाक्यखंडो के शब्दानुसार जोड़कर, हिंदी कविता के नए मैदान में उतरते देख आशंका भी होती हैं। ऐसे लोग हिंदी जानने या उसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं समझते। पर हिंदी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं––

नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के, बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि "तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातत्र्य में बाधा आती है।"

[ ६४३ ]नए-नए छंदों की योजना के संबंध में हमें कुछ नहीं कहना है। यह बहुत अच्छी बात है। 'तुक' भी कोई ऐसी अनिवार्य वस्तु नहीं। चरणों के भिन्न प्रकार के मेल चाहे जितने किए जायँ, ठीक हैं। पर इधर कुछ दिनों से बिना छंद (metre) के पद्य भी–– बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं––निरालाजी ऐसे नई रंगत के कवियों में देखने में आते है। यह अमेरिका के एक कवि वाल्ट हिटमैन (Walt Whitman) की नकल है जो पहले बंगला में थोड़ी बहुत हुई। बिना किसी प्रकार की छंदोव्यवस्था की अपनी पहली रचना Leaves of Grass उसने सन् १८५५ ई॰ में प्रकाशित की। उसके उपरांत और भी बहुत सी रचनाएँ इस प्रकार की मुक्त या स्वछंद पक्तियों में निकलीं, जिनके संबंध में एक समालोचक ने लिखा है––

"A chaos of impressions, thought of feelings thrown together without rhyme, which matters little, without metre, which matters more, and often without reason, which matters much"[१]

सारांश यह कि उसकी ऐसी रचनात्रों में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धितत्व का भी प्रायः अभाव है। उसकी वे ही कविताएँ अच्छी मानी और पढ़ी गई जिनमे छंद और तुकांत की व्यवस्था थी।

पद्य व्यवस्था से मुक्त काव्य-रचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीत-काव्यों के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई रागरागिनियाँ हैं। पर योरप में संगीत के बड़े-बड़े उस्ताद (Composers) अपनी अलग अलग नाद-योजना या स्वर-मैत्री चलाया करते है। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में हुआ। वहाँ की देखा-देखी हिंदी में भी चलाया गया। 'निराला' जी का तो इसकी ओर प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव केवल नाद पर अवलंबित नहीं।

छंदों के अतिरिक्त वस्तु-विधान और अभिव्यंजन-शैली में भी कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुई जिससे अनेकरूपता की ओर [ ६४४ ]हमारा काव्य कुछ चढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे। इस समन्वय से रहित जो अनेकरूपता होगी वह भिन्न भिन्न वस्तुओं की होगी, एक ही वस्तु की नहीं। अतः काव्यत्व यदि बना रहे तो काव्य का अनेक रूप धारण करके भिन्न भिन्न शाखाओं में प्रवाहित होना उसका विकास ही कहा जायगा। काव्य के भिन्न भिन्न रूप एक दूसरे के आगे पीछे भी आविर्भूत हो सकते हैं और साथ साथ भी निकल और चल सकते हैं। पीछे आविर्भूत होनेवाला रूप पहले से चले आते हुए रूप से अवश्य ही श्रेष्ठ या ससुन्नत हो, ऐसा कोई नियम काव्य-क्षेत्र में नहीं है। अनेक रूपों को धारण करनेवाला तत्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य और आभयंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिये काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता हैं और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल सकता है।

प्रथम उत्थान के भीतर हम देख चुके हैं कि किस प्रकार काव्य को भी देश की बदली हुई स्थिति और मनोवृत्ति के मेले में लाने के लिये भारतेंदु-मंडल ने कुछ प्रयत्न किया[२]। पर यह प्रयत्न केवल सामाजिक और राजनीतिक स्थिति की ओर हृदय को थोड़ा प्रवृत्त करके रह गया। राजनीतिक और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली वाणी भी दबी सी रही। उसमें न तो संकल्प की दृढ़ता और न्याय के आग्रह का जोश था, न उलट-फेर की प्रबल कामना का वैग। स्वदेश-प्रेम व्यंजित करनेवाला वह स्वर अवसाद और खिन्नता की स्वर था, आवेश और उत्साह का नहीं। उसमें अतीत के गौरव का स्मरण और वर्तमान हृास को वेदनापूर्ण अनुभव ही स्पष्ट था। अभिप्राय यह कि यह प्रेम जगाया तो गया, पर कुछ नया-नया-सा होने के कारण उस समय काव्य-भूमि पर पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित न हो सका है।

कुछ नूतन भावनाओं के समावेश के अतिरिक्त काव्य की परंपरागत पद्धति में किसी प्रकार का परिवर्तन भारतेंदु-काल में न हुआ। भाषा ब्रजभाषा ही [ ६४५ ]रहने दी गई और उसकी अभिव्यंजना-शक्ति का कुछ विशेष प्रसार न हुआ। काव्य को बँधी हुई प्रणालियों से बाहर निकालकर जगत् और जीवन के विविध पक्षों की मार्मिकता झलकानेवाली धाराओं में प्रवाहित करने की प्रवृत्ति भी न दिखाई पड़ी।

द्वितीय उत्थान में कुछ दिन ब्रजभाषा के साथ साथ चलकर खड़ी बोली क्रमशः अग्रसर होने लगी; यहाँ तक कि नई पीढ़ी के कवियों को उसी का समय दिखाई पड़ा। स्वदेश-गौरव और स्वदेश-प्रेम की जो भावना प्रथम उत्थान में जगाई गई थी उसका अधिक प्रसार द्वितीय उत्थान में हुआ और 'भारत-भारती' ऐसी पुस्तक निकली। इस भावना का प्रसार तो हुआ पर इसकी अभिव्यंजना में प्रातिभ प्रगल्भता न दिखाई पड़ी।

शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के समय से ही रह-रहकर थोड़ी -बहुत होती आ रही थी वह 'सरस्वती' के निकलने के साथ ही कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो-तीन वर्षों के भीतर ही ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया कि अब नायिका-भेद और शृंगार में ही बँधे रहने का जमाना नहीं है; संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हे लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदीजी भी बराबर जोर देते रहे और कहते रहे कि "कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है।" द्विवेदीजी 'सरस्वती' के संपादन-काल में कविता में नयापन लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिये वे नए नए विषयों का नयापन या नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका अनुगामी। रीतिकाल की शृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा––

इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं? वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैये, दोहे, सोरठे, लिखने से बाज नहीं आते।

  1. Literature in the Century Nineteenth Century Series by A. B. De Mille.
  2. देखो पृ॰ ४४९–५०।