हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) सुमित्रानंदन पंत

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[ ६९६ ] श्री सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं का आरंभ सं॰ १९७५ से समझना चाहिए। इनकी प्रारंभिक कविताएँ 'वीणा' में, जिसमें 'हृत्तंत्री के तार' भी संग्रहीत हैं। उन्हें देखने पर 'गीतांजलि' का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है, पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्द्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह-जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है। गीतांजलि का रहस्यात्मकता प्रभाव ऐसे गीतों को देखकर ही कहा जा सकता है––

हुआ था जब संध्या-आलोक
हँस रहे थे, तुम पश्चिम ओर
विहँगरव बन कर मैं, चितचोर!
गा रहा था गुण; किंतु कठोर
रहे तुम नहीं वहाँ भी, शोक।

पर पंत जी की रहस्य-भावना प्रायः स्वाभाविक ही रही। 'वाद' का सांप्रदायिक स्वरूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो। उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों की आह्लादमयी अनुभूति वह 'वीणा' में भी कई जगह पाई जाती हैं। सौंदर्य का आह्वाद उनकी कल्पना को उत्तेजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनमें प्रस्तुत रूपों की सौंदर्यानुभूति के प्रसार के लिये अनेक मार्ग से खुल जाते हैं। 'वीणा' की कविताओं में इसने लोगों को बहुत आकर्षित किया––

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
निराकार तुम मानो सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार?
बदल गया द्रुत जगज्वाल में धर कर नाम-रूप नाना।
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।

[ ६९७ ]उस मूर्तिमती लाक्षणिकता का आभास, जो 'पल्लव' में जाकर अपनी हद को पहुँची है, 'वीणा' से ही मिलने लगता है, जैसे––

मारूत ने जिसकी अलकों में
चंचल चुंबन उलझाया।
अंधकार का अलसित अंचल
अब द्रुत ओढेगा, संसार
जहाँ स्वप्न सजते शृंगार।

'वीणा' के उपरांत 'ग्रंथि' है––असफल प्रेम की। इसमें एक छोटे-से प्रेम प्रसंग का आधार लेकर युवक कवि ने प्रेम की आनंदभूमि में प्रवेश, फिर चिर-विषाद के गर्त में पतन दिखाया है। प्रसंग की कोई नई उद्भावना नहीं है। करुणा और सहानुभूति से प्रेम का स्वाभाविक विकास प्रदर्शित करने के लिये जो वृत्त उपन्यासों और कहानियों में प्रायः पाए जाते है––जैसे, डूबने से बचानेवाले, अत्याचार से रक्षा करनेवाले, बंदीगृह में पड़ने या रणक्षेत्र में घायल होने पर सेवा शुश्रूषा करनेवाली के प्रति प्रेम-संचार––उन्हीं में से एक चुनकर भावों की व्यंजना के लिये रास्ता निकाला गया है। झील में नाव डूबने पर एक युवक डूबकर बेहोश होता है और आँख खुलने पर देखता है कि एक सुंदरी युवती उसका सिर अपने जंघे पर रखे हुए उसकी ओर देख रही है। इसके उपरांत दोनों में प्रेम-व्यापार चलता है; पर अंत में समाज के बड़े लोग इस स्वेच्छाचार को न सहन करके उस युवती का ग्रंथिबंधन दूसरे पुरुष के साथ कर देते हैं। यही ग्रंथिबंधन उस युवक या नायक के हृदय में एक ऐसी विषादग्रंथि डाल देता है जो कभी खुलती ही नहीं। समाज के द्वारा किस प्रकार स्वभावतः उठा हुआ प्रेम कुचल दिया जाता है, इस कहानी द्वारा कवि को यही दिखाना था। यद्यपि प्रेम का स्रोत कवि ने करुणा की गहराई से निकाला है पर आगे चल-कर उसके प्रवाह में भारतीय पद्धति के अनुसार हास-विनोद की झलक भी दिखाई है। कहानी तो एक निमित्त मात्र जान पड़ती है; वास्तव में सौंदर्य भावना की अभिव्यक्ति और आशा, उल्लास, वेदना, स्मृति इत्यादि की अलग -अलग व्यंजना पर ही ध्यान जाता है। [ ६९८ ]पंत जी की पहली प्रौढ़ रचना 'पल्लव' है, जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्य-पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया बहुत बढ़ा-चढ़ा प्रदर्शन हैं। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, अप्रस्तुत-विधान इत्यादि की विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में भारी सी पाई जाती हैं। 'वीणा' और 'पल्लव' दोनों में अँगरेजी कविताओं से लिए हुए भाव और अँगरेजी भाषा के लाक्षक्षिक प्रयोग बहुत से मिलते हैं। कहीं कहीं आरोप और अध्यवसान व्यर्थ और अशक्त हैं, केवल चमत्कार और वक्रता के लिये रखे प्रतीत होते हैं, जैसे 'नयनों के बाल'=आँसू। 'बाल' शब्द जोड़ने की प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती हैं, जैसे, मधुबाल, मधुपों के बाल। शब्द का मनमाने लिंगों में प्रयोग भी प्रायः मिलता है। कहीं कहीं वैचित्र्य के लिये एक ही प्रयोग में दो दो लक्षणाएँ गुफित पाई जाती हैं––अर्थात् एक लक्ष्यार्थ से फिर दूसरे लक्ष्यार्थ पर जाना पड़ता हैं, जैसे––'मर्म पीड़ा के हास' में। पहले 'हास' का अर्थ लक्षण-लक्षणा द्वारा वृद्धि या विकास लेना पड़ता है। फिर यह ज्ञान कर कि सारा संबोधन कवि अपने या अपने मन के लिये करता है, हमें सारी पदावली का उपादान लक्षणा द्वारा लक्ष्णार्थ लेना पड़ता है "हे बढ़ी हुई मर्मपीड़ावाले मन!" इसी प्रकार कहीं कहीं दो दो अप्रस्तुत भी एक में उलझे हुए पाए जाते हैं, जैसे––"अरुण कलियों से कोमल घाव।" पहले 'घाव' के लिये वर्ण के सादृश्य और कोमलता के साधर्म्य में 'कली' की उपमा दी गई। पर 'घाव' स्वयं अप्रस्तुत या लाक्षणिक है, और उसका अर्थ है 'कसकती हुई स्मृति।' इस तरह एक अप्रस्तुत लाकर फिर उस अप्रस्तुत के लिये दूसरा अप्रस्तुत लाया गया है। इसी प्रकार दो दो उपमान एक मैं उलझे हुए हमे 'गुंजन' की इन पक्तियों में मिलते हैं––

अरुण अधरों की पल्लव-प्रात,
मोतियों-सा हिलता हिम-हास।

कहीं कहीं पर साम्य बहुत ही सुंदर और व्यंजक हैं। वे प्रकृति के व्यापारों के द्वारा मानसिक व्यापारों की बड़ी रमणीय व्यंजना करते हैं, जैसे––

तडित-सा सुमुखि! तुम्हारा ध्यान प्रभा के पलक मार उर चीर।
गूढ गर्जन कर जब गंभीर मुझे करता है अधिक अधीर,

[ ६९९ ]

जुगनुओं से उड़ मेरे प्राण खोजते हैं तब तुन्हे निदान।
पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि सरल शुक-सी सुखकर सुर में।
तुम्हारी भोली बातें कभी दुहराती है उर में।

जिस प्रकार भावों या मनोवृत्तियों का स्वरूप बाह्य वस्तुओं के साम्य द्वारा सामने लाया जाता है, उसी प्रकार कभी कभी बाह्य वस्तुओं के साम्य के लिये आभ्यंतर भावों या मनोव्यापारों की ओर भी संकेत किया जाता है, जैसे––

अंचल के जब वे विमल विचार अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
विपुल व्यापकता में अविकार लीन हो जाते वे सत्वर।

हिमालय प्रदेश में यह दृश्य प्रायः देखने को मिलता है कि रात में जो बादल खड्डों में भर जाते हैं वे प्रभात होते ही धीरे-धीरे बहुत-से टुकड़ों में बँट-कर पहाड़ के ऊपर इधर उधर चढ़ते दिखाई देने लगते है और अंत में अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं। इसका साम्य कवि ने अंचल ध्यान में मग्न योगी से दिखाया है जिसकी निर्मल मनोवृत्तियाँ उच्चता को प्राप्त होती हुई उस अनंत सत्ता में मिल जाती हैं।

पर 'छाया', 'वीचि-विलास,' 'नक्षत्र' ऐसी कविताओं में जहाँ उपमानों के ढेर लगे हुए हैं, बहुत से उपमान पुराने ढंग के खेलवाड़ के रूप में भी है, जैसे––

बारि-बेलि-सी फैल अमूल छा अपत्र सरिता के कूल,
विकसा औ सकुचा नव जात दिन नाल के फेनिल फूल।

(वीचि-विलास)

अहे! तिमिर चरते शशि-शावक।
xxxx
इंदु दीप-से दग्ध शलभ शिशु!
शुचि अलूक अब हुआ बिहान,
अंधकारमय मेरे उर में
आओ छिप जाओ अनजान।

(नक्षत्र)

[ ७०० ]सवेरा होने पर नक्षत्र भी छिप जाते हैं, उल्लू भी। बस इतने-से साधर्म्य को लेकर कवि ने नक्षत्रों को उल्लू बनाया है––साफ सुथरे उल्लू सही––और उन्हें अँधेरे उर में छिपने के लिये आमंत्रित किया है। पर इतने उल्लू यदि डेरा डालेंगे तो मन की दशा क्या होगा? कवि यदि अपने हृदय के नैराश्य और अवसाद की व्यंजना करनी थी तो नक्षत्रों को बिना उल्लू बनाए काम चल सकता था।

कहीं कहीं संकीर्ण समास पद्धति के कारण कवि की विवक्षित भावनाएँ अस्फुट सी है, जैसे नक्षत्रों के प्रति ये वाक्य––

ऐ! आतुर उर के संमान!
अब मेरी उत्सुक आँखों से उमड़ो।
xxx
मुग्ध दृष्टि की चरम विजय।

पहली पंक्ति में 'संमान' शब्द उस सजावट के लिए आया है जो प्रिय से मिलने के लिये आतुर व्यक्ति उसके आने पर या आने की आशा पर बाहर के सामानों द्वारा और भीतर प्रेम से जगमगाते अनेक सुंदर भावों द्वारा करता हैं। दूसरी पंक्ति में कवि का तात्पर्य यह है कि प्रियदर्शन के लिये उत्सुक आँखें असंख्य-सी हो रही है। उन्हीं की ज्योति आकश में नक्षत्रों के रूप में फैले। तीसरी पंक्ति में 'चरम विजय' का अभिप्राय है लगातार एक टक ताकते रहने में बाजी मारना।

पर इन साम्य-प्रधान रचनाओं में कहीं कहीं बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक कल्पना है, जैसे छाया के प्रति इस कथन में––

हाँ सखि! आओ बाँह खोल हम लगकर गले जुड़ा लें प्राण
फिर तुम तुम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान।

कवि कहता है कि हे छायारूप जगत्! आओ, मैं तुम्हें प्यार कर लूँ! फिर तुम कहाँ और मैं कहाँ! मैं अर्थात् मेरी आत्मा तो उस अनंत ज्योति में मिल जायगी और तुम अव्यक्त प्रकृति या महाशून्य में विलीन हो जाओगे।

'पल्लव' के भीतर 'उच्छ्वास', 'आँसू', 'परिवर्तन' और 'बादल' आदि [ ७०१ ]रचनाएँ देखने से पता चलता है कि यदि 'छायावाद' के नाम से एक 'वाद' न चल गया होता तो पंत जी स्वच्छंदता के शुद्ध और स्वाभाविक मार्ग (True romanticism) पर ही चलते। उन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। यही कारण है कि 'छायावाद' शब्द मुख्यतः शैली के अर्थ में, चित्रभाषा के अर्थ में ही उनकी रचनाओं पर घटित होता है। रहस्यवाद की रूढ़ियों के रमणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये उनकी प्रतिभा बहुत कम प्रवृत्त हुई है। रहस्य-भावना जहाँ है वहीं अधिकतर स्वाभाविक हैं।

पल्लव में रहस्यात्मक रचनाएँ हैं 'स्वप्न' और 'मौन निमंत्रण'। पर जैसा कि पहले कह आए है, पंत जी की रहस्य-भावना स्वाभाविक है, साप्रदायिक (Dogmatic) नहीं[१]। ऐसी रहस्य-भावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी कभी उठा करती है। व्यक्त जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अज्ञात चेतन सत्ता का अनुभव-सा करता हुआ कवि इसे केवल अतृप्त जिज्ञासा के रूप में प्रकट करता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की व्यंजना में भी कवि ने प्रिय और प्रेमिका का स्वाभाविक पुरुष-स्त्री-भेद रखा है; 'प्रसाद' जी के समान दोनों को पुलिंग रखकर फारसी या सूफी रूढ़ि का अनुसरण नहीं किया है। इसी प्रकार वेदना की वैसी वीभत्स विवृति भी नहीं मिलती जैसी यह प्रसाद जी की है––

छिल छिल कर छाले फोड़े, मलकर मृदुल चरण से।

जगत् के पारमार्थिक स्वरूप की जिज्ञासा बहुत ही सुंदर भोलेपन के साथ 'शिशु' को सम्बोधन करके कवि ने इस प्रकार की है––

न अपना ही, न जगत् का ज्ञान, परिचित हैं निज नयन, न कान;
दीखता है जग कैसा, तात! नाम गुण रूप अज्ञान।

कवि, यह समझ कर कि शिशु पर अभी उस नाम रूप का प्रभाव पूरा पूरा [ ७०२ ]नहीं पड़ा हैं जो सत्ता के पारमार्थिक स्वरूप है छिपा देता है, उससे पूछता है, कि "भला बताओं तो यह जगत् तुम्हे कैसा दिखाई पड़ता है।"

छायावाद के भीतर माने जानेवाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेम-संबंध पंतजी का ही दिखाई पड़ता हैं। प्रकृति के अत्यंत रमणीय खंड के बीच उनके हृदय ने रूप-रंग पकड़ा है। 'पल्लव', 'उच्छ्वास' और 'आँसू' में हम उस मनोरम खंड की प्रेमार्द्र स्मृति पाते हैं। यह अवश्य है कि सुषमा की ही उमंग-भरी भावना के भीतर हम उन्हें रमते देखते है। 'बादल' को अनेक नेत्राभिराम रूपों में उन्होंने कल्पना की रंगभूमि पर ले आकर देखा हैं, जैसे––

फिर परियों के बच्चे-से हम सुभग सीप के पंख पसार।
समुद्र पैरते शुचि ज्योत्स्ना में पकड़ इंदु के कर सुकुमार।

पर प्रकृति के बीच उसके गूढ़ और व्यापक सौहार्द तक––ग्रीष्म की ज्वाला से संतप्त चराचर पर उसकी छाया के मधुर, स्निग्ध, शीतल, प्रभाव तक; उसके दर्शन से तृप्त कृषकों के आशापूर्ण उल्लास तक––कवि ने दृष्टि नहीं बढ़ाई है। कल्पना के आरोप पर ही जोर देनेवाले 'कलावाद' के सत्कार और प्रतिक्रिया के जोश ने उसे मेघ को उस व्यापक प्रकृत-भूमि पर न देखने दिया जिस पर कालिदास ने देखा था। आरोप-विधायिनी कल्पना की अपेक्षा प्रकृति के बीच किसी वस्तु के गूढ़ और अगूढ़ संबंध प्रसार का चित्रण करनेवाली कल्पना अधिक गंभीर और मार्मिक होती है।

साम्य का आरोप निस्संदेह एक बड़ा विशाल सिद्धांत लेकर काव्य में चला है। वह जगत् के अनंत रूपों या व्यापारों के बीच फैले हुए उन मोटे और महीन संबंध सूत्रों की झलक-सी दिखाकर नरसत्ता के सूनेपन का भाव दूर करता हैं, अखिल सत्ता के एकत्व की आनंदमयी भावना जगाकर हमारे हृदय का बंधन खोलता है। जब हम रमणी के मुख के साथ कमल, स्मिति के साथ अधखिली कलिका सामने पाते हैं तब हमें ऐसा अनुभव होता है कि एक ही सौंदर्य धारा से मनुष्य भी और पेड़-पौधे भी रूप रंग प्राप्त करते हैं। यहीं तक नहीं, भाषा ने व्यवहार की सुगमता के लिये अलग अलग शब्द रचकर जो भेद खड़े किए हैं वे भी कभी इन आरोपों के सहारे थोड़ी देर के लिये हमारे [ ७०३ ]मन से दूर हो जाते हैं। यदि किसी बड़े पेड़ के नीचे उसी के गिरे हुए बीजों से जमे हुए छोटे छोटे पौधों को हम आस पास खेलते उसके बच्चे कहे तो आत्मीयता का भाव झलक जायगा।

'कलावाद' के प्रभाव से जिस 'सौंदर्यवाद' का चलन योरप के काव्यक्षेत्र के भीतर हुआ उसकी पंतजी पर पूरा प्रभाव रहा है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर सौंदर्य-चयन को अपने जीवन की साधना कहा है, जैसे––

धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान।
कुटिल काँटे है कहीं कठोर, जटिल तरुजाल है किसी ओर,
सुमन दल चुन-चुनकर निशि मोर खोजना है अजान वह छोर[२]
xxxx
मेरा मधुकर का-सा जीवन, कठिन कर्म हैं, कोमल है मन।

उस समय तक कवि प्रकृति के केवल सुंदर, मधुर पक्ष में अपने हृदय के कोमल और मधुर भावों के साथ लीन था। कर्म-मार्ग उसे कठोर ही कठोर दिखाई पड़ता था। कर्म सौंदर्य का साक्षात्कार उसे नहीं हुआ था। उसका साक्षात्कार आगे चलकर हुआ जब वह धीरे धीरे जगत् और जीवन के पूर्ण स्वरूप की ओर दृष्टि ले गया।

'पल्लव' के अंत में पंतजी जगत् के विषम 'परिवर्तन' के नाना दृश्य सामने लाए हैं। इसकी प्रेरणा शायद उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी विषम स्थिति ने की है। जगत् की परिवर्तनशीलता मनुष्यजाति को चिर काल से क्षुब्ध करती आ रही है। परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात स्वतः सिद्ध होने पर भी सहृदयों और कवियों का मर्मस्पर्श करती रही है और करती रहेगी, क्योंकि इसका संबंध जीवन के नित्य स्वरूप से है। जीवन के व्यापक क्षेत्र में [ ७०४ ]प्रवेश के कारण कवि-कल्पना को कोमल, कठोर, मधुर, कटु, करुणा, भयंकर कई प्रकार की भूमियों पर बहुत दूर तक एक संबद्ध धारा के रूप में चलना पड़ा है। जहाँ कठोर और भयंकर, भव्य और विशाल तथा अधिक अर्थ-समन्वित भावनाएँ हैं वहाँ कवि ने रोला छंद का सहारा लिया है। काव्य में चित्रमयी भाषा सर्वत्र अनिवार्य नहीं, सृष्टि से गृढ़-अगृढ़ मार्मिक तथ्यों के चयन द्वारा भी किसी भावना को मर्मस्पर्श स्वरूप प्राप्त हो जाता हैं, इनका अनुभव शायद पंतजी को इस एक धारा में चलनेवाली लंबी कविता के भीतर हुआ है। इसी से कहीं कहीं हम सीधे-सादे रूप में चुने हुए मार्मिक तथ्यों का समाहार मात्र पाते हैं, जैसे––

तुम नृशस-नृप से जगती पर चट अनियंत्रित
करते हो ससृति के उत्पीड़ित, पद-मर्दित,
नन्न नगर कर, भन्न भवन प्रतिमाएँ खंडित,
हर लेते हो विभव, कला-कौशल चिर-संचित।
आधि-व्याधि, वहु वृष्टि, वात-उत्तात अनंगल।
वहृि, बाढ़, भूकंप-तुम्हारे विपुल सैन्य-दल।

चित्रमयी लाक्षणिक भाषा तथा रूपक आदि का भी बहुत ही सफल प्रयोग इस रचना के भीतर हुआ है। उसके द्वारा तीव्र मर्म-वेदना जगानेवाली शक्ति की पूरी प्रतिष्ठा हुई है। दो एक उदाहरण लीजिए––

अहे निष्ठुर परिवर्त्तन।
xx
अहे वासुकी सहलफन!

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर।
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फोत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर।
मृत्यु तुम्हारा गरल दत्त, कचुक कल्पासर।
अखिल विश्व ही विवर, चक्र कुंडल दिड-मंडल।


[ ७०५ ]

मृदुल होठो का हिमजल-हास उड़ा जाता नि:श्वास समीर;
सरल भौहों का शरदाकाश घेर लेते घन घिर गंभीर।
xxxx
विश्वमय हें परिवर्तन!
अतल से उमर अकृल, अपार
मेघ से विपुलाकार
दिशावधि में पल विविध प्रकार
अतल में मिलते तुम अविकार।

पहले तो कवि लगातार सुख का दुःख में, उत्थान का पतन में, उल्लास का विषाद में, सरस सुषमा का शुष्कता और ग्लानता में परिवर्तन सामने लाकर हाहाकार का एक विश्व-व्यापक स्वर सुनता हुआ क्षोभ से भर जाता है, फिर परिवर्तन के दूसरे पक्ष पर भी––दुःखदशा से सुखदशा की प्राप्ति पर भी––थोड़ा दृष्टिपात करके चिंतनोन्मुख होता है और परिवर्तन को एक महाकरुण कांड के रूप में देखने के स्थान पर सुख-दुःख की उलझी हुई समस्या के रूप में देखता है, जिसकी पूर्ति इस व्यक्त जगत् में नहीं हो सकती, जिसका सारा रहस्य इस जीवन के उस पार ही खुल सकता है––

आज का दुख, कल का आह्वाद
और कल का सुख, आज विषाद;
समस्या स्वप्न गूढ संसार,
पूर्ति जिसकी उस पार।

इस प्रकार तात्विक दृष्टि से जगत् के द्वंद्वात्मक विधान को समझकर कवि अपने मन को शांत करता है––

मूँदती नयन मृत्यु की रात खोलती नव जीवन को प्रात।
म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान फलों में फलती फिर अम्लान।
xxxx
स्वीय कर्मों ही के अनुसार एक गुण फलता विविध प्रकार।
कहीं राखी बनता सुकुमार कहीं बेडी का भार,
xxxx

[ ७०६ ]

बिना दुख के सब सुख नि:सार, बिना आँसू के जीवन भार।
दीन दुर्बल हे रेे संसार; इसी से क्षमा, दया औ प्यार।

और जीवन के उद्देश्य का भी अनुभव करता हैं––

वेदना ही में तप कर प्राण, दमक दिखलाते स्वर्ण-हुलास।
xxxx
अलभ हे इष्ट, अतः अनमोल। साधना ही जीवन का मोल।

जीवन का एक सत्य स्वरूप लेकर अत्यंत मार्मिक अर्थ-पथ पर संबद्ध रूप में चलने के कारण, कल्पना की क्रीड़ा और वाग्वैचित्र्य पर प्रधान लक्ष्य न रहने के कारण इस 'परिवर्तन' नाम की सारी कविता का एक समन्वित प्रभाव पड़ता है।

'पल्लव' के उपरांत 'गुंजन' में हम पंत जी को जगत् और जीवन के प्रकृत क्षेत्र के भीतर और बढ़ते हुए पाते हैं, यद्यपि प्रत्यक्ष बोध से अतृप्त होकर कल्पना की रुचिरता से तृप्त होने और बुद्धि-व्यापार से क्लांत होकर रहस्य की छाया में विश्राम करने की प्रवृत्ति भी साथ ही साथ बनी हुई है। कवि जीवन का उद्देश्य बताता है इस चारों ओर खिले हुए जगत् की सुषमा में अपने हृदय को सपन्न करना––

क्या यह जीवन? सागर में जलभार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की क्रीड़ा वीणा से तनिक न लेना?

पर इस जगत् में सुख-सुषमा के साथ दुःख भी तो है। उसके इस सुख दुःखात्मक स्वरूप के साथ कवि अपने हृदय का सांमजस्य कर लेता है––

सुख दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि फिर शशि से ओझल हो घन।

कवि वर्तमान जगत् की इस अवस्था से असंतुष्ट है कि कहीं तो सुख की अति हैं, कहीं दुःख की। वह सम भाव चाहता है––

जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से।
मानव-जग में बँट जावें दुख सुख से औ सुख दुख है।

[ ७०७ ]'मानव' नाम की कविता में जीवन-सौंदर्य की नूतन भावना का उदय कवि, अपने मन में इस प्रकार चाहता है––

मेरे मन के मधुबन में सुषमा के शिशु मुसकाओ।
नव नव साँसों का सौरभ नव मुँख का सुख बरसाओं।

बुद्धिपक्ष ही प्रधान हो जाने से हृदयपक्ष जिस प्रकार दब गया है और श्रद्धाविश्वास का ह्रास होता जा रहा है, इसके विरुद्ध योरप के अनातोले फ्रांस आदि कुछ विचारशील पुरुषों ने जो आंदोलन उठाया उसका आभास भी पंतजी की इन पंक्तियों में मिलता है।

सुंदर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन।

"नौका-विहार" का वर्णन अप्रस्तुत आरोपों से अधिक अच्छादित होने पर भी, प्रकृति के प्रत्यक्ष रूपों की ओर कवि का खिंचाव सूचित करता है––

जैसे, और जगह वैसे ही गुंजन में भी पंतजी की रहस्य भावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है। दूर तक फैले हुए खेतों, और मैदानों के छोर पर वृक्षावलि की जो धुँधली हरिताभ-रेखा-सी क्षितिज से, मिली, दिखाई पड़ती है उसके उधर किसी-मधुर लोक की कल्पना स्वभावतः होती है––

दूर उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गई नील झंकार,
छिपा छायावन में सुकुमार स्वर्ग की परियो का संसार।

कवि की रहस्य-दृष्टि प्रकृति की आत्मा––जगत् के रूपों और व्यापारों में व्यक्त होनेवाली आत्मा––की ओर ही जाती हैं जो "निखिल छवि की छवि है" और जिसका "अखिल जग-जीवन हास-विलास" है। इस व्यक्ति प्रसार के बीच उसका आभास पाकर कुछ क्षण के लिये आनंद-मग्न होना ही मुक्ति है, जिसकी साधना सरल और स्वाभाविक है, हठयोग की-सी चक्करदार-नहीं। मुक्ति के लोभ से अनेक प्रकार की चक्करदार-साधना तो, बंधन-है––

है सहज-मुक्ति का मधु क्षण, पर कठिन मुक्ति का बंधन।

कवि अपनी इस मनोवृत्ति को एक जगह इस प्रकार स्पष्ट भी करता है [ ७०८ ]वह कहता है कि इस जीवन की तह में जो परमार्थ तत्व छिपा हुआ कहा जाता है उसे पकड़ने और उसमें लीन होने के लिये बहुत-से लोग अंतर्मुख होकर गहरी गहरी डुबकियाँ लगाते है; पर मुझे तो उसके व्यक्त आभास ही रुचिकर हैं, अपनी पृथक् सत्ता विलीन करते भय-सा लगता है––

सुनता हूँ इस निस्तल जल में रहती मछली मोतीवाली;
पर मुझे डूबने का भय है; भाती तट की चल जल-माली।
आएगी मेरे पुलिनों पर वह मोती की मछली सुंदर।
मैं लहरों के तट पर बैठा देखूँगा उनकी छवि जी भर॥

कहने का तात्पर्य यह कि पंतजी की स्वाभाविक रहस्य-भावना को 'प्रसाद' और 'महादेवी वर्मा' की सांप्रदायिक रहस्य-भावना से भिन्न समझना चाहिए। पारमार्थिक ज्ञानोदय को अवश्य उन्होंने 'कुछ भी आज न लूँगी मोल' नामक गीत में प्रकृति की सारी विभूतियों से श्रेष्ठ कहा है। रहस्यात्मकता की अपेक्षा कवि में दार्शनिकता अधिक पाई जाती है। 'विहँग के प्रति' नाम की कविता में कवि ने अव्यक्त प्रकृति के बीच चैतन्य के सान्निध्य से, शब्द-ब्रह्म के संचार या स्पंदन (Vibration) से सृष्टि के अनेक रूपात्मक विकास का बड़ा ही सजीव चित्रण किया हैं––

मुक्त पंखों में उड दिन रात सहज स्पंदित कर जग के प्राण;
शून्य नभ में भर दी अज्ञात, मधुर जीवन की मादक तान।
xxxx
छोड़ निर्जन का निभृत निवास, नीड़ में बँध जग के आनंद,
भर दिए कलरव से दिशि-आस गृहों में कुसुमित, मुदित, अमंद।
रिक्त होते जब जब तरुवास, रूप धर तू नव नव तत्काल,
नित्य नादित रखता सोल्लास, विश्व के अक्षयवट की डाल।

'गुंजन' में भी पंतजी की प्रतिभा बहुत ही व्यंजक और रमणीय साम्य जगह जगह सामने लाती है, जैसे––

खुल खुल नव नव इच्छाएँ फैलातीं जीवन के दल
गा गा प्राणों का मधुकर पीता मधुरस परिपूरण।

[ ७०९ ]इसी प्रकार लक्षणा के सहारे बहुत ही अर्थगर्भित और व्यंजक साम्य इन पंक्तियों में हम पाते हैं––

यह शैशव का सरल हास है सहसा उर से है आ जाता।
यह ऊषा का नव विकास है जो रज को है रजत बनाता।
यह लघु लहरों को विलास है कलानाथ जिसमें खींच आता।

कवि का भाव तो इतना ही है कि बाल्यावस्था में यह सारी पृथ्वी कितनी सुंदर और दीप्तिपूर्ण दिखाई देती है, पर व्यंजना बड़े ही मनोहर ढंग से हुई है। जिस प्रकार अरुणोदय में पृथ्वी का एक एक कण स्वर्णम दिखाई देता है उसी प्रकार बाल-हृदय को यह सारी पृथ्वी दीप्तिमयी लगती। जिस प्रकार सरोवर के हलके हलके हिलोरों में चंद्रमा (उसका प्रतिबिंब) उतरकर लहराता दिखाई देता है उसी प्रकार बाल-हृदय की उमंगों में स्वर्गीय दीप्ति फैली जान पड़ती है।

'गुंजन' में हम कवि का जीवनक्षेत्र के भीतर अधिक प्रवेश ही नहीं, उसकी काव्यशैली को भी अधिक सयत और व्यवस्थित पाते हैं। प्रतिक्रिया की झोंक में अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य आदि के अतिशय प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति हम 'पल्लव' में पाते हैं वह 'गुंजन' में नहीं है। उसमें काव्यशैली अधिक संगत, संयत और गंभीर हो गई है।

'गुंजन' के पीछे तो पंतजी वर्तमान जीवन के कई पक्षों को लेकर चलते दिखाई पड़ते है। उनके 'युगांत' में हम देश के वर्तमान जीवन में उठे हुए स्वरों की मीठी प्रतिध्वनि जगह-जगह पाते हैं। कहीं परिवर्तन की प्रबल आकांक्षा है, कहीं श्रमजीवियों की दशा की झलक है, कहीं तर्क-वितर्क छोड़ श्रद्धा-विश्वासपूर्वक जीवनपथ पर साहस के साथ बढ़ते चलने की ललकार है, कहीं 'बापू के प्रति' श्रद्धांजलि है। 'युगांत' में कवि स्वप्नों से जगकर यह कहता हुआ सुनाई पड़ता है––

जो सोए स्वप्न के तम में वे जागेंगे––यह सत्य बात।
जो देख चुके जीवन-निशीथ वे देखेंगे जीवन-प्रभात।

'युगांत' में कवि को हम केवल रूप-रंग, चमक-दमक, सुख-सौरभवाले सौंदर्य से आगे बढ़कर जीवन-सौंदर्य की सत्याश्रित कल्पना में प्रवृत्त पाते हैं। [ ७१० ]उसे बाहर जगत् में 'सौंदर्य, स्नेह, उल्लास' का अभाव दिखाई पड़ा है। इससे वह जीवन की सुंदरता की भावना मन में करके उसे जगत् में फैलाना चाहता है––

सुंदरता, का आलोक स्त्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में,
जिससे नव जीवन, का प्रभात होगा फिर जग के आँगन में।
xxxx
में सृष्टि एक, रच रहा नवल भावी मानव के हित, भीतर।
सौंदर्य, स्नेह, उल्लाल मुझे मिल सका नही जग में बाहर।

अब कवि प्रार्थना करता है कि––

जग-जीवन में, जो चिर महान् सौंदर्यपूर्ण औ सत्यप्राण।
मैं उसका प्रेमी बनूँ नाथ! जिसमें मानव-हित हो, समान।

नीरस और टूठे जगत् में क्षीण कंकालों के लोक में वह जीवन का वसंत विकास चाहता––

कंकाल-जाल-जग में फैले फिर नवल रुधिर, पल्लव-लाली।

ताजमहल के कला-सौंदर्य को देख अनेक, कवि मुग्ध हुए हैं। पर करोड़ों की संख्या में भूखों मरती जनता के बीच ऐश्वर्य-विभूति के उस विशाल आडंबर के खड़े होने की भावना से क्षुब्ध होकर युगांत के बदले हुए पंतजी कहते हैं––

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन!
जब विप्पण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
xxxx
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।
आत्मा का अपमान, प्रेत औ छाया से रति।
शव को दें हम रूप-रंग, आदर मानव का।
मानव को हम कुत्सित-चित्र बनावें शव का।

'पल्लव' में कवि अपने व्यक्तित्व के घेरे में बँधा हुआ, 'गुंजन' में कभी-कभी उसके बाहर शौर 'युगांत' में लोक के बीच, दृष्टि फैलाकर आसन जमाता [ ७११ ]हुआ दिखाई पड़ता है। 'गुंजन' तक वह जगत् से अपने लिये सौंदर्य और आंनद का चयन करता प्रतीत होता है; 'युगांत' में आकर वह सौंदर्य और आंनद का जगत् में पूर्ण प्रसार देखना चाहता है। कवि की सौंदर्य-भावना अब व्यापक होकर मंगल-भावना के रूप में परिणत हुई है। अब तक कवि लोकजीवन के वास्तविक शीत और ताप से अपने हृदय को बचाता-सा आता रहा; अब उसने अपना हृदय खुले जगत् के बीच रख दिया है कि उसपर उसकी गतिविधि का सच्चा और गहरा प्रभाव पड़े। अब वह जगत् ओर जीवन में जो कुछ सौंदर्य, माधुर्य प्राप्त है अपने लिये उसका स्तवक बनाकर तृप्त नहीं हो सकता। अब वह दुःख-पीड़ा, अन्याय-अत्याचार के अंधकार को फाड़-कर मंगलज्योति फूटती देखना चाहता है––मंगल का अमंगल के साथ वह संघर्ष देखना चाहता है, जो गत्यात्मक जगत् का कर्म-सौंदर्य हैं।

संध्या होने पर अब कवि का ध्यान केवल प्रफुल्ल प्रसून, अलस गंधवाह, रागरंजित और दीप्त दिगंचल तक ही नहीं रहता। वह यह भी देखता है कि––

बाँसों का झुरमुट, संध्या का झुटपुट
xxxx
ये नाप रहे निज घर का मग
कुछ श्रमजीवी घर डगमग ढंग
भारी है जीवन, भारी पग!

जो पुराना पड़ गया है, जीर्ण और जर्जर हो गया है और नवजीवन-सौंदर्य लेकर आनेवाले युग के उपयुक्त नहीं है उसे पंतजी बड़ी निर्ममता के साथ हटाना चाहते हैं––

द्रुत झरो जगत् के जीर्णं पत्र। हे स्त्रस्त,ध्वस्त! हे शुष्क, शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधु बात-भीत, तुम वीत-राग, जड़ पुराचीन!


झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण-घन। अंधः नीड़ से रूढ-रीति छन।

इस प्रकार कवि की वाणी में लोकमंगल की आशा और आकांक्षा के साथ[ ७१२ ]घोर 'परिवर्तनवाद' का स्वर भी भर रहा है। गत युग के अवशेषों ध्वस्त दल का अत्यंत रौद्र आग्रह प्रकट किया गया है––

गर्जन कर मानव केसरि!
प्रखर नखर नत्र जीवन की लालसा गडा कर।
छिन्न भिन्न कर दें गत युग के शव को दुर्धर!

ऐसे स्थलों को देख यह संदेह हो सकता है कि कवि अपनी वाणी को केवल आदोलनों के पीछे लग रहा है या अपनी अनुभूति की प्रेरणा से परिचालित कर रहा है। आशा है कि पंतजी अपनी लोकमंगल-भावना को ऐसे स्वाभाविक मर्मपथ पर ले चलेंगे जहाँ इस प्रकार के संदेह का अवसर न रहेगा।

'युगांत' में नर-जीवन की वर्तमान दशा की अनुभूति ही सर्वत्र नहीं है। हृदय की नित्य और स्थायी वृतियों की व्यंजना भी, कल्पना की पूरी रमणीयता के साथ, कई रचनाओं में मिलती है। सबसे ध्यान देने की बात यह है कि 'बाद' की लपेट से अपनी वाणी को कवि ने एक प्रकार से मुक्त कर लिया है। चित्रभाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य के अनावश्यक प्रदर्शन की वह प्रवृत्ति अब नहीं हैं जो भाषा और अर्थं की स्वाभाविक गति में बाधक हो। 'संध्या', 'खद्योत', 'तितली', 'शुक्र' इत्यादि रचनाओं में जो रमणीय कल्पनाएँ हैं उनमें दूसरे के हृदय में ढलने की पूरी द्रवणशीलता है। 'तितली' के प्रति यह संबोधन लीजिए––

प्रिय तितली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही ढोल?
xxxx
क्या फूलों से ली, अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु को मिठास?

हवा में उड़ती रंग-विरंगी तितलियों के लिये 'अनिल-कुसुम' शब्द की रमणीयता सबका हृदय स्वीकार करेगा। इसी प्रकार 'खद्योत' के सहसा चमक उठने पर यह कैसी सीधी-सादी सुंदर भावना है।

अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह।

[ ७१३ ]'युगवाणी' में तो वर्तमान जगत् में सामाजिक व्यवस्था के संबंध में प्रायः जितने वाद, जितने आंदोलन उठे हुए है सबका समावेश किया गया है। इन नाना वादों के संबंध में अच्छा तो यह होता कि उनके नामों का, निर्देश न करके, उनके भीतर जो जीवन का सत्याश है उसका मार्मिक रूप सामने रख दिया जाता। ऐसा न होने से जहाँ इन वादों के नाम आए है वहाँ कवि का अपना रूप छिपा-सा लगता है। इन वादों को लेकर चले हुए आंदोलनों में

कवि को मानवता के नूतन विकास का आभास मिलता दिखाई पड़ा है। उस आगामी विकास के कल्पित स्वरूप के प्रति तीव्र आकर्षण प्रकट किया गया है। जो वर्तमान पाश्चात्य साहित्य-क्षेत्र की एक रूढ़ि (worship of the future) के मेल में है। अतः लोक के भावी स्वरूप के सुंदर चित्र के प्रति व्यंजित ललक या प्रेम को कोई चाहे तो उपयोगिता की दृष्टि से कल्पित एक आदर्श भाव का उदाहरण मात्र कह सकता है। इसी प्रकार अतीत के सारे अवशेषों को सर्वथा ध्वस्त देखने की रोषपूर्ण आकुलता का ध्यान भी मनुष्य की स्थायी अंत:प्रकृति के बीच कहीं मिलेगा, इसमें संदेह है।

बात यह है कि इस प्रकार के भाव वर्तमान की विषम स्थिति से क्षुब्ध, कर्म में तत्पर मन के भाव हैं। ये कर्म-काल के भीतर जगे रहते हैं। कर्म में रत मनुष्य के मन में सफलता की आशा, अनुमित भविष्य के प्रति प्रबल अभिलाष,बाधक वस्तुओं के प्रति रोष आदि का संचार होता है। ये भाव व्यावहारिक है, अर्थ-साधना को प्रक्रिया से संबंध रखते हैं और कर्म-क्षेत्र में उपयोगी माने जाते हैं। पंतजी ने वर्तमान को जगत् का कर्म-काल मानकर उसके अनुकूल भावों का स्वरूप सामने रखा है। सारांश यह कि जिस मन के भीतर कवि ने इन भावों को अवस्थान किया है वह 'कर्म का मन' है।

इस रूप में कवि यदि लोक-कर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है। स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है। उसका तो "सामूहिकता ही निजत्व धन" है। सामूहिक धारा जिधर जिधर चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है। कहीं वह 'गत संस्कृति के गरल' धनपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्यवर्ग को 'संस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का [ ७१४ ]'शाख्रोक्त प्रचारक' तथा श्रमजीवियों को 'लोकक्रांति का अग्रदूत' और नव्य सभ्यता का उपासक कह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति की यह दशा सूचित कर रहा है––

पशु-बल से कर जन शासित,
जीवन के उपकरण सदृश।
नारी भी कर ती अधिकृत?
xxx
अपने ही भीतर छिप छिप
जग से हो गई तिरोहित।

पंतजी ने समाजवाद के प्रति भी रूचि दिखाई है और 'गांधीवाद' के प्रति भी। ऐसा प्रतीत होती हैं कि लोक-व्यवस्था के रूप में तो 'समाजवाद' की बातें उन्हें पसंद हैं और व्यक्तिगत साधना के लिये 'गाँधीवाद' की बातें। कवि की दृष्टि में सब जीवों के प्रति आत्मभाव ही जीव-जगत् की 'मनुष्यत्व में परिणति' हैं। मनुष्य की अपूर्णता ही उसकी शोभा हैं। 'दुर्बलताओं से शोभित मनुष्यत्व सुरत्व से दुर्लभ हैं। 'पूर्ण सत्य' और असीम को ही श्रद्धा के लिये ग्रहण करने के फेर में रहना सभ्यता की बड़ी भारी व्याधि है। सीमाओं के द्वारा, उन्हीं की रेखाओं से, मंगल-विधायक आदर्श बनकर खड़े होते हैं। 'मानवपन’ में दोष है, पर उन्हीं दोषों की रगड़ खाकर वह मँजता है, शुद्ध होता है––

व्याधि सभ्यता की है निश्चित पूर्ण सत्य का पूजन;
प्राणहीन वह कला, नहीं जिसमें अपूर्णता शोभन।
सीमाएँ आदर्श सकल, सीमा-विहीन यह जीवन,
दोषों से ही दोष-शुद्ध है मिट्टी का मानवपन।

'समाजवाद' की बातें कवि ने ग्रहण की हैं पर अपना चिंतन स्वतंत्र रखा हैं। समाजवाद और संघवाद (Communism) के साथ लगा हुआ 'संकीर्ण भौतिकवाद' उसे इष्ट नहीं। पारमार्थिक दृष्टि से वह परात्परवादी है। आत्मा और भूतों के बीच संबंध स्थापित करनेवाला तत्व वह दोनों से परें बताता है–– [ ७१५ ]

आत्मा और भूतों में स्थापित करता कौन समत्व।
बहिरंतर, आत्मा-भूतों से है अतीत वह तत्व।
भौतिक आध्यात्मिकता केवल उसके दो कूल।
व्यक्ति-विश्व से, स्थूल-सूक्ष्म से परे सत्य के मूल।

यह परात्पर-भाव कवि की वर्त्तमान काव्यदृष्टि के कहाँ तक मेल में है, यह दूसरी बात है। पर जब हम देखते हैं कि उठे हुए सामयिक आंदोलन प्रायः एकांगदर्शी होते हैं, एक सीमा से दूसरी सीमा की और उन्मुख होते हैं तब उनके द्वारा आगामी भव-संस्कृति की जो हरियाली कवि को सूझ रही हैं वह निराधार-सी लगती हैं। हम तो यही चाहेगे कि पंतजी आंदोलनों की। लपेट से अलग रहकर जीवन के नित्य और प्रकृत स्वरूप को लेकर चलें और उसके भीतर लोक-मंगल की भावना का अवस्थान करें।

जो कुछ हो, यह देखकर प्रसन्नता होती हैं कि 'छायावाद' के बंधे घेरे से निकलकर पंतजी ने जगत् की विस्तृत अर्थ भूमि पर स्वाभाविक स्वछंदता के साथ विचरने का साहस दिखाया है। सामने खुले हुए रूपात्मक व्यक्त जगत् से ही सच्ची भावनाएँ प्राप्त होती हैं, 'रूप ही उर में मधुर भाव बन जाता' है, इस 'रूप-सत्य' का साक्षात्कार कवि ने किया है।

'युगवाणी' में नर-जीवन पर ही विशेष रूप से दृष्टि जमी रहने के कारण कवि के सामने प्रकृति का वह रूप भी आया है जिससे मनुष्य को लड़ना पड़ा है––

वहि, बाढ़, उल्का झंझा की भीषण सू घर
कैसे रह सकता है कोमल मनुष्य कलेवर।

'मानवता' के व्यापक संबंध की अनुभूति के मधुर प्रभाव से 'दो लड़के' में कवि को पासी के दो नंग-धडंग बच्चे प्यारे लगे हैं जो––

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतर कर
हैं चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ, सुंदर––
सिगरेट के खाली डिब्बे पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े; तसवीरें नीली पीली।

किन्तु नरक्षेत्र के भीतर पंतजी की दृष्टि इतनी नहीं बँध गई है कि चराचर के [ ७१६ ]साथ अधिक व्यापक संबंध की अनुभूति मंद पड़ गई हो। 'युगवाणी' में हम देखते हैं कि हमारे जीवन-पथ के चारों ओर पड़नेवाली प्रकृति की साधारण से साधारण, छोटी से छोटी वस्तुओं को भी कवि ने कुछ अपनेपन से देखा है। 'समस्त पृथ्वी पर निर्भय विचरण करती जीवन की अक्षय चिनगी' चींटी का अत्यंत कल्पनापूर्ण वर्णन हमें मिलता है। कवि के हृदय-प्रसार का सबसे सुंदर प्रमाण हमें 'दो मित्र' में मिलता है जहाँ उसने एक टीले पर पास-पास खड़े चिलबिल के दो पेड़ों को बड़ी मार्मिकता के साथ दो मित्रों के रूप में देखा है––

उस निर्जन टीले पर
दोनों चिलबिल
एक दूसरे से मिल
मित्रों-से हैं खड़े,
मौन मनोहर।
दोनों पादप
सह वर्षातप
हुए साथ ही बड़े
दीर्घ सुदृढ़तर।

शहद चाटनेवालों और गुलाब की रूह सूँघनेवालों को चाहे इसमें कुछ न मिले; पर हमें तो इसके भीतर चराचर के साथ मनुष्य के संबंध की बड़ी प्यारी भावना मिलती है। 'झंझा में नीम' का चित्रण भी बड़ी स्वाभाविक पद्धति पर है। पंतजी को 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' से निकलकर स्वाभाविक स्वच्छंदता (True Romanticism) की ओर बढ़ते देख हमें अवश्य संतोष होता है।


  1. देखो पृष्ठ ६९४।
  2. यही भाव इँग्लैंड के एक आधुनिक कवि और समीक्षक अबरक्रोंबे ने जो हाल में भरे हैं, इस प्रकार व्यक्त किया है––
    ..........So we are driven onward and upward in a wind of beauty.

    ––Abercrombe.