हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

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श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'––पहले कहा जा चुका है कि 'छायावाद' ने पहले बँगला की देखादेखी अँगरेजी ढंग की प्रगीत पद्धति का अनुसरण किया। प्रगीत पद्धति में नाद-सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान रहने से संगीत-तत्व का अधिक समावेश देखा जाता है। परिणाम यह होता है कि [ ७१७ ]समन्वित अर्थ की ओर झुकाव कम हो जाता है। हमारे यहाँ संगीत राग-रागिनियों में बँधकर चलता आया है; पर योरप में उस्ताद लोग तरह तरह की स्वर-लिपियों की अपनी नई नई योजनाओं का कौशल दिखाते हैं। जैसे और सब बातों की, वैसे ही संगीत के अँगरेजी ढंग की भी नकल पहले पहल बंगाल में शुरू हुई। इस नए ढंग की ओर निरालाजी सबसे अधिक आकर्षित हुए और अपने गीतों में इन्होंने उसका पूरा जौहर दिखाया। संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निरालाजी ने किया है।

एक तो खड़ी बोली, दूसरे स्वरों की घटती बढ़ती के साथ मात्राओं का स्वेच्छानुसार विभाग। इसके कारण 'गवैयों की जबान को सख्त परेशानी होगी" यह बात निरालाजी ने आप महसूस की है। गीतिका में इनके ऐसे ही गीतों का संग्रह है जिनमें कवि का ध्यान संगीत की और अधिक है, अर्थ-समन्वय की ओर कम। उदाहरण––

अभरण भर वरण-गान
वन-वन उपवन-उपवन
जाग छवि, खुले प्राण।
xxx
मधुप-निकर कलरव भर,
गीत-मुखर पिक-प्रिय-स्वर,
स्मर-शर हर केसर-झर,
मधुपूरित गंध, ज्ञान।

जहाँ कवि ने अधिक या कुछ पेचीले अर्थ रखने का प्रयास किया है। वहाँ पद-योजना उस अर्थ को दूसरों तक पहुँचाने में प्रायः अशक्त या उदासीन पाई जाती है। गीतिका का यह गीत लीजिए––

कौन तम के पार? (रे कह)
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन-घन-घन-धार (रे कह)

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गोप-व्याकुल-कूल-उर सर,
लहर-कच कर कमल-सुरा पर
हर्ष अलि हर रर्ण्श-शर सर
गूँज बराबर! (रे कह)
निशा-प्रिय-उर शवन सुख-धन
सार, या कि असार? (रे कह)

इसमें आई हुई "अखिल पल के स्रोत जल-जग", "हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर" "निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन" इत्यादि पदावलियों का जो अर्थ कवि को स्वयं समझना पड़ा है वह उन पदावलियों से जबरदस्ती निकाला जान पड़ता है। जैसे––"हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर=आंनदरूपी भौंरा स्पर्श का चुभा तीर हर रहा है (तीर के निकलने से भी एक प्रकार का स्पर्श होता है। जो और सुखद है; तीर रूप का चुभा तीर है)। निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन= निशा का प्रियतम के उर पर शयन।"

निराला जी पर बंगभाषा की काव्य शैली का प्रभाव समास में गुंफित पद-वल्लरी, क्रियापद के लोप आदि से स्पष्ट झलकती है। लाक्षणिक वैलक्षण्य लाने की प्रवृत्ति इनमे उतनी नहीं पाई जाती जितनी 'प्रसाद' और 'पंत' में।

सबसे अधिक विशेषता आपके पद्यों में चरणों की स्वच्छंद विषमता है। कोई चरण बहुत लंबा, कोई बहुत छोटा, कई मंझोला देखकर ही बहुत से लोग 'रबर छंद', 'केचुवा छंद' आदि कहने लगे थे। बेमेल चरणों की विलक्षण आजमाइश इन्होंने सब से अधिक की हैं। 'प्रगल्भ प्रेम' नाम की कविता में अपनी प्रेयसी कल्पना या कविता का आह्वान करते हुए इन्होंने कहा है––

आज नहीं हैं मुझे और कुछ चाह,
अर्द्ध-विकच इस हृदय-अमल में आ तू
प्रिये! छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह।
गज गामिनी वह पथ तेरा संकीर्ण,

कंटकाकीर्ण।

बहु वस्तु स्पर्शिनी प्रतिभा निरालीजी में है। 'अज्ञात प्रिय' की ओर [ ७१९ ]इशारा करने के अतिरिक्त इन्होंने जगत् के अनेक प्रस्तुत रूपों और व्यापारों को भी अपनी सरस भावनाओं के रंग में देखा है। 'विस्मृति की नींद से जगा-नेवाले' 'पुरातन के मलिन साज' खँडहर से वे जिज्ञासा करते हैं कि "क्या-तुम––

ढीले, करते हौं भव-बंधन नर-नारियों के?

अथवा


हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण
निर्निमेष-नयनों से।
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की,
अपनी संतानों से बुंद भर पानी को तरसते हुए।

इसी प्रकार 'दिल्ली' नाम की कविता में दिल्ली की भूमि पर दृष्टि डालते हुए "क्या यह वही देश है?" कहकर कवि अतीत की कुछ इतिहास प्रसिद्ध बातों और व्यक्तियों को बड़ी सजीवता के साथ मन में लाता है––

नि:स्तब्ध मीनार
मौन हैं मकबरे––
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार।
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार॥

यमुना को देखकर प्रत्यभिज्ञा का उदय हम इस रूप में पाते है––

मधुर मलय में यहीं
गूँजी थी एक वह जो तान,
xxxx
कृषघन अलक में
कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था।

समाज में प्रचलित ढोंग का बड़ा चूभता दृश्य गोमती के किनारे कवि ने देखा है जहाँ एक पुजारी भगत ने बंदरों को तो मालपुआ खिलाया और एक कंगाल भिक्षुक की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। [ ७२० ]जिस प्रकार निरालाजी को छंद के बंधन अरुचिकर हैं उसी प्रकार समाजिक बंधन भी। इसीसे सम्राट् एडवर्ड की एक प्रशस्ति लिखकर उन्होंने उन्हें एक वीर के रूप में सामने रखा है जिसने प्रेम के निमित्त साहसपूर्वक पद-मर्यादा के समाजिक बंधन को दूर फेंका है।

रहस्यवाद से संबंध रखने वाली निरालाजी की रचनाएँ आध्यात्मिकता का वह रूप-रंग लेकर चली हैं जिसका विकास बंगाल में हुआ। रचना के प्रारंभिक काल में इन्होंने स्वामी विवेकानंद और श्रीरवींद्रनाथ ठाकुर की कुछ कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। अदैतवाद के वेदांती स्वरूप को ग्रहण करने के कारण इन रहस्यात्मक रचनाओं में भारतीय दार्शनिक निरूपण की झलक जगह जगह मिलती है। इस विशेषता को छोड़ दें तो इनकी रहस्यात्मक कविताएँ भी उसी प्रकार माधुर्य-भावना को लेकर चली हैं जिस प्रकार और छायावादी कवियों की। 'रेखा' नाम की कविता में कवि ने प्रथम प्रेम के उदय का जो वर्णन किया हैं वह सर्वत्र एक ही चेतन सत्ता की अनुभूति के रूप में सामने आता है––

यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब
स्रोत सौंदर्य का,
बीचियों में कलरव सुख-चुंबित प्रणय का
या मधुर आकर्षणमय
मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में
xxx
सब कुछ तो था असार
अस्तु, वह प्यार है?
सब चेतन को देखता
स्पर्श में अनुभव––रोमांच,
हर्ष रूप में––परिचय।
xxx
खींचा उसी ने था हृदय यह
जड़ों में चेतन मति कर्षण मिलता कहाँ

[ ७२१ ]'तुलसीदास' निरालाजी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है। इस ग्रंथ में कवि ने जिस परिस्थिति में गोस्वामीजी उत्पन्न हुए उसका बहुत ही चटकीला और रंगीन वर्णन करके चित्रकूट की प्राकृतिक छटा के बीच किस प्रकार उन्हें आनंदमयी सत्ता का बोध हुआ और नवजीवन प्रदान करनेवाले गान की दिव्य प्रेरणा हुई उसका अंतर्वृत्ति के आंदोलन के रूप में वर्णन किया है।

'भविष्य का सुखस्वप्न' आधुनिक योरोपीय साहित्य की एक रूढ़ि है। जगत् की जीर्ण और प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नूतन सुखमयी व्यवस्था के निकट होने के आभास का वर्णन निरालाजी की 'उद्बोधन' नाम की कविता में मिलती है। इसी प्रकार श्रमजीवियों के कष्टों की समानुभूति लिए हुए जो लोक-हितवाद का आंदोलन चला है उसपर भी अब निराला जी की दृष्टि गई है––

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।

इस प्रकार की-रचनाओं में भाषा बोलचाल की पाई जाती। पर निरालाजी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली से जुड़ी हुई होती है जिसका नमूना "राम की शक्तिपूजा" में मिलता है। जैसा पहले कह चुके हैं, इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्रायः रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं कहीं बहुत ढीली पड़ जाती।