हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल (प्रकरण २) हरिऔध

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[ ६०९ ]उसके द्वारा प्रकट की जाती थी, उसमें सरसता आ जाती थी। अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठकजी ने सबसे अधिक किया, इससे हिंदी-प्रेमियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जाते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि उनकी वह उपासना प्रकृति के उन्हीं रूपों तक परिमित थी जो मनुष्य को सुखदायक और आनंदप्रद होते हैं, या जो भव्य और सुंदर होते हैं। प्रकृति के सीधे-सादे, नित्य आँखों के सामने आनेवाले, देश के परंपरागत जीवन से संबंध रखनेवाले दृश्यों की मधुरता की ओर उनकी दृष्टि कम रहती थी।

पं॰ श्रीधर पाठक का जन्म संवत् १९३३ में और मृत्यु सं॰ १९८५ में हुई।

भारतेंदु के पीछे और द्वितीय उत्थान के पहले ही हिंद के लब्ध-प्रतिष्ठ कवि पंडित अयोध्यासिंहजी उपाध्याय (हरिऔध) नए विषयों की ओर चल पड़े थे। खड़ी बोली के लिये उन्होंने पहले उर्दू के छंदों और ठेठ बोली को ही उपयुक्त समझा, क्योंकि उर्दू के छंदों में खड़ी बोली अच्छी तरह मँज चुकी थी। संवत् १९५७ के पहले ही वे बहुत सी फुटकल रचनाएँ इस उर्दू ढंग पर कर चुके थे। नागरीप्रचारिणी सभा के गृहप्रवेशोत्सव के समय सं॰ १९५७ में उन्होंने जो कविता पढ़ी थी, उसके ये चरण मुझे अब तक याद हैं––

चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी॥
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
खूब उर्दू जो न होवे जानता॥

इसके उपरांत तो वे बराबर इसी ढंग की कविता करते रहे। जब पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी के प्रभाव से खड़ी बोली ने संस्कृत छंदों और संस्कृत की समस्त पदावली का सहारा लिया, तब उपाध्यायजी––जो गद्य में अपनी भाषा-संबंधिनी पटुता उसे दो हदों पर पहुँचाकर दिखा चुके थे––उस शैली की ओर भी बढ़े और संवत् १९७१ में उन्होंने अपना 'प्रिय-प्रवास' नामक बहुत बड़ा काव्य प्रकाशित किया।

नवशिक्षितों के संसर्ग से उपाध्यायजी ने लोक-संग्रह का भाव अधिक [ ६१० ] ग्रहण किया है। उक्त काव्य में श्रीकृष्ण ब्रज में रक्षक-नेता के रूप में अंकित किए गए हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य, अभी तक नहीं निकला है। बड़ी भारी विशेषता इस काव्य की यह है कि-यह सारा संस्कृत के वर्णवृत्तों में हैं जिसमें अधिक परिमाण में रचना करना कठिन काम है। उपाध्यायजी का संस्कृत पद-विन्यास अनेक उपसर्गों से लदा तथा 'मंजु', 'मंजुल', 'पेशल' आदि से बीच बीच में जटित अर्थात् चुना हुआ होता है। द्विवेदीजी और उनके अनुयायी कवि-वर्ग की रचनाओं से उपाध्याय जी की रचना इस बात में साफ अलग दिखाई पड़ती है। उपाध्यायजी कोमलकांत पदावली को कविता का सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ समझते हैं। यद्यपि द्विवेदीजी अपने अनुयायियों के सहित जब इस संस्कृतवृत्त के मार्गपर बहुत दूर तक चल चुके थे, तब उपाध्यायजी उसपर आए, पर वे बिल्कुल अपने ढंग पर चले। किसी प्रकार की रचना को हद पर-चाहे उस हद तक जाना अधिकतर लोगों को इष्ट न हो-पहुँचाकर दिखाने की प्रवृत्ति के अनुसार उपाध्यायजी ने अपने इस काव्य में कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बाँधी है कि हिंदी को 'है', 'था', 'किया', 'दिया' ऐसी दो-एक क्रियाओं के भीतर ही सिमटकर रह जाना पड़ा है। पर सर्वत्र यह बात नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिंदी अपनी चाल पर चल चलती दिखाई पड़ती है।

यह काव्य अधिकतर भाव-व्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है। कृष्ण के चले जाने पर ब्रज की दशा का वर्णन बहुत अच्छा है। विरह-वेदना से क्षुब्ध वचनावली प्रेम की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना करती हुई बहुत दूर तक चली चलती है। जैसा कि इसके नाम से प्रकट है, इसकी कथा-वस्तु एक महाकाव्य क्या अच्छे प्रबंध-काव्य के लिये भी अपर्याप्त है। अतः प्रबंधु-काव्य के सब अवयव इसमें कहाँ आ सकते? किसी के वियोग में कैसी कैसी बातें-मन में उठती हैं और क्या क्या कहकर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक विस्तार हो सका है, किया गया है। परंपरा-पालन के लिये जो दृश्य-वर्णन हैं वे किसी बगीचे में लगे हुए पेड़-पौधो के नाम गिनाने के समान हैं। इसी से शायद करील का नाम छूट गया।

[ ६११ ]दो प्रकार के नमूने उद्धृत करके हम आगे बढ़ते हैं––

रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय कलिंका राकेंदू-बिंबानना।
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला-पुत्तली॥
शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्य-लीलामयी।
श्रीराधा मृदुभाषिणी मृदुदृगी माधुर्य-सन्मूर्ति थी॥


धीरे-धीरे दिन गत हुआ; पद्मिनीनाथ डूबे।
आई दोषा, फिर गत हुई, दूसरा वार आया॥
यों ही बीती विपुल घटिका औ कई वार बीते।
आया न कोई मधुपुर से औ न गोपाल आए॥

इस काव्य के उपरांत उपाध्यायजी का ध्यान फिर बोलचाल की ओर गया। इस बार उनका मुहावरों पर अधिक जोर रहा। बोलचाल की भाषा में उन्होंने अनेक फुटकल विषयों पर कविताएँ रचीं जिनकी प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई मुहावरा अवश्य खपाया गया। ऐसी कविताओं का संग्रह 'चोखे चौपदे' (सं॰ १९८९) में निकला। 'पद्यप्रसून' (१९८२) में भाषा दोनों प्रकार की है––बोलचाल की भी और साहित्यिक भी। मुहावरों के नमूने के लिये "चोखे चौपदे" का एक पद्य दिया जाता है––

क्यों पले पीस कर किसी को तू?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी।
हम रहे चाहते, पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी॥

भाषा के दोनों नमूने ऊपर हैं। यही द्विकलात्मक कला उपाध्यायजी की बड़ी विशेषता है। इससे शब्द-भंडार पर इनका विस्तृत अधिकार प्रकट होता है। इनका एक और बड़ा काव्य, 'वैदेही-वनवास'[१], जिसे ये बहुत दिनों से लिखते चले आ रहे थे, अब छप रहा है। [ ६१२ ]इस द्वितीय उत्थान के आरंभ-काल में हस पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदी को पद्य-रचना की एक प्रणाली के प्रवर्तक के रूप में पाते हैं। गद्य पर जो शुभ प्रभाव द्विवेदीजी का पड़ा, उसका उल्लेख गद्य के प्रकरण में हो चुका है[२]। खड़ी बोली के पद्य-विधान पर भी आपका पूरा पूरा असर पड़ा। पहली बात तो यह हुई कि उनके कारण भाषा में बहुत कुछ सफाई आई। बहुत से कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी और बहुत से लोग ब्रज और अवधी आदि का मेल भी कर देते थे। 'सरस्वती' के संपादन-काल में उनकी प्रेरणा से बहुत से नए लोग खड़ी बोली में कविता करने लगे। उनकी भेजी हुई कविताओं की भाषा आदि दुरुस्त करके वे 'सरस्वती' में दिया करते थे। इस प्रकार के लगातार संशोधन से धीरे धीरे बहुत से कवियों की भाषा साफ हो गई। उन्हीं नमूनों पर और लोगों ने भी अपना सुधार किया है।

यह तो हुई भाषा-परिष्कार की बात। अब उन्होंने पद्य-रचना की जो प्रणाली स्थिर की, उसके संबंध में भी कुछ विचार कर लेना चाहिए। द्विवेदी-जी कुछ दिनों तक बंबई की ओर रहे थे जहाँ मराठी के साहित्य से उनका परिचय हुआ। उसके साहित्य का प्रभाव उनपर बहुत कुछ पड़ा। मराठी कविता में अधिकतर संस्कृत के वृत्तों का व्यवहार होता है। पद-विन्यास भी प्रायः गद्य का सा ही रहता है। बंगभाषा की-सी 'कोमलकांतपदावली' उसमें नहीं पाई जाती। इस मराठी के नमूने पर द्विवेदीजी ने हिंदी में पद्य-रचना शुरू की। पहले तो उन्होंने ब्रजभाषा का ही अवलंबन किया। नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित 'नागरी तेरी यह दशा!" और रघुवंश का कुछ आधार लेकर रचित "अयोध्या का विलाप" नाम की उनकी कविताएँ संस्कृत वृत्तों में पर ब्रजभाषा में ही लिखी गई थीं। जैसे––

श्रीयुक्त नागरि निहारि दशा तिहारी।
होवै विषाद मैंने माहिं अतीव भारी॥


[ ६१३ ]

प्रकार जानु नभ-मंडल में समाने।
प्राचीर जासु लखि लोकप हू सकाने॥
जाकी समस्त सुनि संपत्ति की कहानी।
नीचे नबाय सिर देवपुरी लजानी॥

इधर आधुनिक काल में ब्रजभाषा-पद्य के लिये संस्कृत वृत्तों का व्यवहार पहले-पहल स्वर्गीय पं॰ सरयूप्रसाद मिश्र ने रघुवंश महाकाव्य के अपने 'पद्य-बद्ध भाषानुवाद' में किया था जिसका प्रारभिक अंश भारतेंदु की "कवि वचन-सुधा" में प्रकाशित हुआ था। पूरा अनुवाद बहुत दिनों पीछे संवत् १९६८ में पुस्तकाकार छपा। द्विवेदीजी ने आगे चलकर ब्रजभाषा: एकदम छोड़ ही दी और खड़ी बोली में ही काव्य-रचना करने लगे।

मराठी का संस्कार तो था ही, पीछे जान पड़ता है, उनके मन में वर्ड्स्वर्थ (wordsworth) का यह पुराना सिद्धांत भी कुछ जम गया था कि "गद्य और पद्य का पद-विन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए। पर यह प्रसिद्ध बात है कि वर्ड्स्वर्थ की वह सिद्धांत असंगत सिद्ध हुआ था और वह अपनी उत्कृष्ट कविताओं में उसका पालन न कर सका था। द्विवेदीजी ने भी बराबर उक्त सिद्धांत के अनुकूल रचना नहीं की है। अपनी कविताओं के बीच-बीच में सानुप्रास कोमल पदावली का व्यवहार उन्होंने किया है। जैसे––

सुरन्यरूप, रसराशि-रंजिते,
विचित्र-वर्णाभरणे! कहाँ गई?
अलौकिकानंदविधायिनी महा
कवींद्वकाते, कविते! अहो कहाँ?
मांगल्य-मूलमय वारिद-दारि-वृष्टि॥

पर उनका जोर बराबर इस बात पर रहता था कि कविता बोल-चाल की भाषा में होनी चाहिए। बोल-चाल से उनका मतलब ठेठ या हिंदुस्तानी का नहीं रहता था, गद्य की व्यावहारिक भाषा का रहता था। परिणाम यह हुआ कि उनकी भाषा बहुत अधिक गद्यवत् (Prosaic) हो गई। पर जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है––"गिरा-अर्थ जलवीचि सम कहियत भिन्न [ ६१४ ]न भिन्न"––भाषा से विचार अलग नहीं रह सकता। उनकी अधिकतर कविताएँ इतिवृत्तात्मक (Matter of fact) हुई। उनमें वह लाक्षणिकता, वह चित्रमयी भावना और वह वक्रता, बहुत कम आ पाई जो रस-संचार की गति को तीव्र और मन को आकर्षित करती है। 'यथा', 'सर्वथा', 'तथैव' ऐसे शब्दों के प्रयोग ने उनकी भाषा को और भी अधिक गद्य का स्वरूप दे दिया।

यद्यपि उन्होंने संस्कृत वृत्तों का व्यवहार अधिक किया है पर हिंदी के कुछ चलते छंदों में भी उन्होंने बहुत सी कविताएँ (जैसे विधि-विडंबना) रची हैं जिनसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी कम है। अपना "कुमारसंभव सार" उन्होंने इसी ढंग पर लिखा है। कुमारसंभव का यह अनुवाद बहुत ही उत्तम हुआ है। इसमें मूल के भाव बड़ी सफाई से आए हैं। संस्कृत के अनुवादों में मूल का भाव लाने के प्रयत्न में भाषा में प्रायः जटिलता आ जाया करती हैं। पर इससे यह बात जरा भी नहीं है। ऐसा साफ-सुथरा दुसरा अनुवाद जो मैंने देखा है, वह पं॰ केशवप्रसादजी मिश्र का 'मेघदूत' है। द्विवेदीजी की रचनाओं के दो नमूने देकर हम आगे बढ़ते हैं––

आरोग्ययुक्त बलयुक्त सुपुष्ट गात,
ऐसा जहाँ युवक एक न दृष्टि आता।
सारी प्रजा निपट दीनदुखी जहा है,
कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है?


इंद्रासन के इच्छुक किसने करके तप अतिशय भारी,
की उत्पन्न असूया तुझमें, मुझसे कहो कथा सारी।
मेरा यह अनिवार्य शरासन पाँच-कुसुम-सायक-धारी,
'अभी' बना लेवे तत्क्षण ही उसको निज आज्ञाकारी॥

द्विवेदीजी की कविताओं को संग्रह "काव्यमंजूषा" नाम की पुस्तक में हुआ है। उनकी कविताओं के दूसरे संग्रह का नाम 'सुमन' है।

द्विवेदीजी के प्रभाव और प्रोत्साहन से हिंदी के कई अच्छे अच्छे कवि [ ६१५ ]निकले जिनमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं॰ रामचरित उपाध्याय और पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय मुख्य हैं।

'सरस्वती' का संपादन द्विवेदीजी के हाथ में आने के प्रायः तीन वर्ष पीछे (सं॰ १९६३ से) बाबू मैथिलिशरण गुप्त की खड़ी बोली की कविताएँ उक्त पत्रिका में निकलने लगीं और उनके संपादनकाल तक बराबर निकलती रहीं। संवत् १९६६ में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा सा प्रबंध-काव्य प्रकाशित हुआ जिसकी रचना चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी। तब से गुप्तजी का ध्यान प्रबंधकाव्यों की ओर बराबर रहा और वे बीच बीच में छोटे या बड़े प्रबंध-काव्य लिखते रहे। गुप्तजी की ओर पहले-पहल हिंदी-प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचनेवाली उनकी 'भारत-भारती' निकली। इसमें 'मुसद्दस हाली' के ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं की विषमता दिखाई गई है; भविष्य-निरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली, रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्र्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच बीच में मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी-सादी भाषा में होने से यह स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिंदी-कविता के लिये खड़ी बोली की उपयुक्तता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। इसी के ढंग पर बहुत दिनों पीछे इन्होंने 'हिंदू' लिखा। 'केशों की कथा', 'स्वर्ग-सहोदर' इत्यादि बहुत सी फुटकल रचनाएँ इनकी 'सरस्वती' में निकली हैं, जो 'मंगल घट' में संग्रहीत हैं।

प्रबंध-काव्यों की परंपरा इन्होंने बराबर जारी रखी। अब तक ये नौ-दस छोटे-बड़े प्रबंध-काव्य लिख चुके हैं जिनके नाम हैं––रंग में भंग, जयद्रथ वध, विकट भट, पलासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा। अंतिम दो बड़े काव्य हैं। 'विकट भट' में जोधपुर के एक राजपूत सरदार की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है। 'गुरुकुल' में सिख गुरुओं के महत्त्व का वर्णन है। छोटे काव्यों में 'जयद्रथ-वध' और 'पंचवटी' का स्मरण अधिकतर लोगों को

  1. यह संवत् १९९७ में प्रकाशित हो गया।
  2. देखो पृष्ठ ५२८।