हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ३ उसमान

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[ १०६ ] उसमान––ये जहाँगीर के समय में वर्त्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले वाले थे। इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे। और चार भाइयों के नाम थे––शेख अजीज, शेख मानुल्लाह, शेख फैजुल्लाह, शेख हसन। इन्होंने अपना उपनाम "मान" लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्यपरंपरा में हाजी बाबा के शिष्य थे। उसमान ने सन् १०२२ हिजरी अर्थात् सन् १६१३ ईसवी में 'चित्रावली' नाम की पुस्तक लिखी। पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफो की, बादशाह (जहाँगीर) की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजी बाबा की प्रशंसा लिखी है। उसके आगे गाजीपुर नगर का वर्णन करके कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि––

आदि हुता विधि माथे लिखा। अच्छर चारि पढ़ै हम सिखा॥
देखत जगत चला सब जाई। एक बचन पै अमर रहाई॥
वचन समान सुधा जग नाहीं। जेहि पाए कवि अमर रहाही॥
मोहूँ चाउ उठा पुनि हीए। होउँ अमर यह अमरित पीए॥

कवि ने "योगी ढूँढ़न खंड" में काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, साम, मिस्र, इस्तंबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है। सबसे बिलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजो के द्वीप में पहुँचना––

वलंदीप देखा अँगरेजा। तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा।
ऊँच-नीच धन-संपति हेरा। मद बराह भोजन जिन्ह केरा॥

कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जो-जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे है उन विषयो पर उसमान ने भी कुछ कहा है‌। कहीं कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही है। पर विशेषता यह है कि कहानी बिलकुल कवि की कल्पित है, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है––

कथा एक मैं हिए उपाई। कहत मीठ औ सुनत सोहाई॥

कथा का सारांश यह है–– [ १०७ ]नैपाल के राजा धरनीधर पँवार ने पुत्र के लिये कठिन व्रत-पालन करके शिव-पार्वती के प्रसाद से 'सुजान' नामक एक पुत्र प्राप्त किया। सुजान कुमार एक दिन शिकार में मार्ग भूल देव (प्रेत) की एक मंढ़ी में जा सोया। देव ने आकर उसकी रक्षा स्वीकार की। एक दिन वह देव अपने एक साथी के साथ रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की वर्षगॉठ का उत्सव देखने के लिये गया। और अपने साथ सुजान कुमारी को भी लेते गया। और कोई उपयुक्त स्थान न देख देवों ने कुमार को राजकुमारी की चित्रसारी में ले जाकर रखा और आप उत्सव देखने लगे। कुमार राजकुमारी का चित्र टँगा देख उसपर आसक्त हो गया और अपना भी एक चित्र बनाकर उसी की बगल में टाँगकर सो रहा। देव लोग उसे उठाकर फिर उसी मंढ़ी में रख आए। जागने पर कुमार को चित्रवाली घटना स्वप्न सी मालूम हुई; पर हाथ में रंग लगा देख उसके मन में घटना के सत्य होने का निश्चय हुआ और वह चित्रावली के प्रेम में विकल हो गया। इसी बीच में उसके पिता के आदमी कर उनको राजधानी में ले गए। पर वहाँ वह अत्यंत खिन्न और व्याकुल रहता। अंत में अपने सहपाठी सुबुद्धि नामक एक ब्राह्मण के साथ वह फिर उसी मंढी में गया और वहाँ बड़ा भारी अन्नसत्र खोल दिया है।

राजकुमारी चित्रावली भी उसका चित्र देख प्रेम में विह्वल हुई और उसने अपने नपुंसक भृत्यों को, जोगियो के वेश में, राजकुमार का पता लगाने के लिये भेजा। इधर एक कुटीचर ने कुमारी की माँ हीरा से चुगली की और कुमार का वह चित्र धो डाला गया। कुमारी ने जब यह सुना तब उसने उस कुटीचर का सिर मुँड़ाकर उसे निकाल दिया। कुमारी के भेजे हुए जोगियो में से एक सुजान कुमार के उस अन्नसत्र तक पहुँचा और राजकुमार को अपने साथ रूपनगर ले आया। वहाँ एक शिवमंदिर में उसका कुमारी के साथ साक्षात्कार हुआ। पर ठीक इसी अवसर पर कुटीचर ने राजकुमार को अंधा कर दिया और एक गुफा में डाल दिया जहाँ उसे एक अजगर निकल गया। पर उसके विरह की ज्वाला से घबराकर उसने उसे चट उगल दिया। वही पर एक वनमानुष ने उसे एक अजन दिया जिससे उसकी दृष्टि फिर ज्यो की त्यो हो गई। वह जंगल में घूम रहा था कि उसे एक हाथी ने पकड़ा। पर [ १०८ ]उस हाथी को भी एक पक्षिराज ले उड़ा और उसने घबराकर कुमार को समुद्रतट पर गिरा दिया। वहाँ से घूमता-फिरता कुमार सागरगढ़ नामक नगर में पहुँचा और राजकुमारी कँवलावती की फुलवारी में विश्राम करने लगा। राजकुमारी जब सखियो के साथ वहाँ आई तब उसे देख मोहित हो गई और उसने उसे अपने यहाँ भोजन के बहाने बुलवाया। भोजन में अपना हार रखवाकर कुमारी ने चोरी के अपराध में उसे कैद कर लिया। इसी बीच में सोहिल नाम का कोई राजा कँवलावती के रूप की प्रशंसा सुन उसे प्राप्त करने के लिये चढ़ आया। सुजान कुमार ने उसे मार भगाया। अंत में सुजान कुमार ने कँवलावती से, चित्रावली के न मिलने तक समागम न करने की प्रतिज्ञा करके विवाह कर लिया। कँवलावती को लेकर कुमार गिरनार की यात्रा के लिये गया।

इधर चित्रावली के भेजे एक जोगी-दूत में गिरनार में उसे पहचाना और चट चित्रावली को जाकर संवाद दिया। चित्रावली का पत्र लेकर वह दूत फिर लौटा और सागरगढ़ में धुई लगाकर बैठा। कुमार सुजान उस जोगी की सिद्धि सुन उसके पास आया और उसे जानकर उसके साथ रूपनगर गया। इसी बीच वहाँ पर सागरगढ़ के एक कथक में चित्रावली के पिता की सभा में जाकर सोहिल राजा के युद्ध के गीत सुनाए; जिन्हे सुन राजा को चित्रावली के विवाह की चिंता हुई। राजा ने चार चित्रकारों को भिन्न भिन्न देशों के राजकुमारों के चित्र लाने को भेजा। इधर चित्रावली को भेजा हुआ वह जोगी-दूत सुजान कुमार को एक जगह बैठाकर उसके आने का सामाचार कुमारी को देने आ रहा था। एक दासी ने यह समाचार द्वेषवश रानी से कह दिया और वह दूत मार्ग ही में कैद कर लिया गया। दूत के न लौटने पर सुजान कुमार बहुत व्याकुल हुआ और चित्रावली का नाम ले लेकर पुकारने लगा। राजा ने उसे मारने के लिये मतवाला हाथीं छोड़ा, पर उसने उसे मार डाला। इसपर राजा उसपर चढाई करने जा रहा था कि इतने में भेजे हुए चार चित्रकारो में से एक चित्रकार सागरगढ़ से सोहिल के मारनेवाले सुजान कुमार का चित्र लेकर आ पहुँचा‌‌। राजा ने जब देखा कि चित्रावली का प्रेमी वही सुजान कुमार है। तब उसने अपनी कन्या चित्रावली के साथ उसका विवाह कर दिया।

कुछ दिनों में सागरगढ़ की कँवलावती ने विरह से व्याकुल होकर सुजान [ १०९ ]कुमार के पास इस मिश्र को दूत बनाकर भेजा जिसने भ्रमर की अन्योक्ति द्वारा कुमार को कँवलावती के प्रेम का स्मरण कराया। इसपर सुजान कुमार ने चित्रावली को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया और मार्ग में कँवलावती को भी साथ ले लिया। मार्ग में कवि ने समुद्र के तूफान का वर्णन किया है। अंत में राजकुमार अपने घर नैपाल पहुँचा और उसने वहाँ दोनो रानियों सहित बहुत दिनों तक राज्य किया।

जैसा कि कहा जा चुका है, उसमान ने जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जायसी के पहले के कवियों ने पाँच पाँच चौपाइयो (अद्धलियों) के पीछे एक दोहा रखा हैं, पर जायसी ने सात सात चौपाइयों का क्रम रखा और यही क्रम उसमान ने भी रखा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कहानी की रचना भी बहुत कुछ अध्यात्मिक दृष्टि से हुई है। कवि ने सुजान कुमार को एक साधक के रूप में चित्रित ही नहीं किया है बल्कि पौराणिक शैली का अवलंबन करके उसने उसे परम योगी शिव के अंश में उत्पन्न तक कहा है। महादेवजी राजा धरनीधर पर प्रसन्न होकर वर देते हैं कि––

देवु देत हौ आपन असा। अब तोरे होइहौं निज बसा॥

कँवलावती और चित्रावली अविद्या और विद्या के रूप में कल्पित जान पडती हैं। सुजान का अर्थ ज्ञानवान् है। साधनाकाल में अविद्या को बिना दूर रखें विद्या (सत्यज्ञान) की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी से सुजान ने चित्रावली के प्राप्त न होने तक कँवलावती के साथ समागम न करने की प्रतिज्ञा की थी। जायसी की ही पद्वति पर नगर, सरोवर, यात्रा, दान-महिमा आदि का वर्णन चित्रावली में भी है। सरोवर-क्रीड़ा के वर्णन में एक दूसरे ढंग से कवि ने "ईश्वर की प्राप्ति" की साधना की ओर संकेत किया है। चित्रावली सरोवर के गहरे जल में यह कहकर छिप जाती है कि मुझे जो ढूँढ़ ले उसकी जीत समझी जायगी। सखियाँ ढूँढ़ती हैं और नहीं पाती हैं––

सरवर ढूँढि सबै पचि रही। चित्रित खोज न पावा कही॥
निकसीं तीर भई वैरागी। धरे ध्यान सब बिनवै लागीं॥
गुपुत तोहि पावहिं का जानी। परगट महँ जो रहै छपानी॥

[ ११० ]

चतुरानन पढ़ि चारौ बेदू। रहा खोजि पै पाव न भेदू॥
हम प्रवी जेहि आप न सूझा। भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा॥
कौन सो ठाउँ जहाँ तुम नाहीं। हम चख जोति न, देखहिं काही॥
खोज तुम्हार सो, जेहि दिखरावहु पथ। कहा होइ जोगी भए, और बहुत पढ़ें ग्रंथ॥

विरह-वर्णन के अंतर्गत षट्ऋतु का वर्णन सरस और मनोहर हैं––

ऋतु बसंत नौतन बन फूला। जहँ तहँ भौंर कुसुम-रंग भूला॥
आहि कहाँ सो, भँवर हमारा। जेहि बिनु बसत बसंत उजारा॥
रात बरन पुनि देखि न जाई। मानहुँ दवा देहूँ दिसि लाई॥
रतिपति दुरद ऋतुपती वली। कानन-देह आई दलमली॥

शेखनबी–– ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहनेवाले थे और सवत् १६७६ में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। इन्होंने "ज्ञानदीप" नामक एक आख्यान-काव्य लिखा जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है।

यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चहिए। पर जैसा कहा जा चुका है, काव्यक्षेत्र में जब कोई परंपरा चल पड़ती है तब उसके प्राचुर्य्य-काल के पीछे भी कुछ दिनों तक समय समय पर उस शैली की रचनाएँ थोड़ी बहुत होती रहती है; पर उनके बीच कालांतर भी अधिक रहता है और जनता पर उनको प्रभाव भी वैसा-नहीं रह जाता। अतः शेखनबी से प्रेमगाथा परंपरा समाप्त समझनी चाहिए। 'ज्ञानदीप' के उपरांत सूफियो की पद्धति पर जो कहानियाँ लिखी गई उनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जाता है।

कासिमशाह––ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले थे और संवत् १७८८ के लगभग वर्त्तमान थे। इन्होंने "हंस जवाहिर" नाम की कहानी लिखी जिसमे राजा हस और रानी जवाहिर की कथा है।

फारसी अक्षरों में छपी (नामी प्रेस, लखनऊ) इस पुस्तक की एक प्रति हमारे पास है। उसमें कवि शाहेवक्त का इस प्रकार उल्लेख करके––

मुहमदसाह दिल्ली सुलतानू। का मन गुन ओहि केर बखानू॥
छाजै पाट छत्र सिर ताजू। नावहिं सीस जगत के राजू॥

[ १११ ]

रूपवंत दरसन मुँह राता। भागवत ओहि कीन्ह विधाता॥
दरववंत धरम महँ पूरा। ज्ञानवत खड्ग महै सूरा॥

अपना परिचय इन शब्दों में दिया है––

दरियाबाद साँझ मम ठाउँ। अमानुल्ला पिता कर नाउँ॥
तहवों मोहिं जनम विधि दीन्हा। कासिम नावँ जाति कर हीना॥
ऊँचे बीच विधि कीन्ह कमीना। ऊँच सभा बैठे चित दीना॥
ऊँचे संग ऊंच मन भावा। तब भा ऊँच ज्ञान-बुधि पावा॥
ऊँचा पंथ प्रेम का होई। तेहि महँ ऊँच भए सब कोई॥

कथा का सार कवि ने यह दिया है––

कथा जो एक सुपुत महँ रहा। सो परगट उघारि मैं कहा॥
हंस जवाहिर बिधि औतारा। निरमल रूप सो दई सँवारा॥
बलख नगर बुरहान सुलतानू। तेहि घर हंस भए जस भानू॥
आलमशाह चीनपति भारी। तेहि घर जनमा जवाहिर बारी॥
तेहि कारन वह भएउ बियोगी। गएउ सो छाडि देस होइ जोगी॥
अंत जवाहिर हंस घर आनी। सो जग महँ यह गयउ बखानी॥
सो सुनि ज्ञान-कथा मैं कीन्हा। लिखेउँ सो प्रेम, रहै जग चीन्हा॥

इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है। इन्होंने जगह-जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नही है।

नूरमुहम्मद––ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समय में थे और सबरहद नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर जिले में जौनपुर-आजमगढ़ की सरहद पर है। पीछे सबरहद से थे अपनी सुसराल भादों (जिला-आजमगढ़) चले गए। इनके श्वसुर शमसुद्दीन को और कोई वारिस न था इससे ये ससुराल ही में रहने लगे। नूरमुहम्मद के भाई मुहम्मद शाह सबरहद ही में रहे। नूरमुहम्मद के दो पुत्र हुए––गुलाम हसनैन और नसीरुद्दीन। नसीरुद्दीन की वंश-परंपरा में शेख-फिदाहुसैन अभी वर्त्तमान हैं, जो सबरहद और कभी कभी भादो में भी रहा करते हैं। अवस्था इनकी ८० वर्ष की है। [ ११२ ]नूरमुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियो से अधिक था। फारसी में इन्होने एक दीवान के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक' इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थी जो असावधानी के कारण नष्ट हो गई। इन्होंने ११५७ हिजरी (संवत् १८०१) में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान-काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम-कहानी है। कवि ने प्रथानुसार उस समय के शासक मुहम्मदशाह की प्रशंसा इस प्रकार की है––

करौं मुहम्मदसाह बखानू। है सूरज देहली सुलतानू॥
धरमपथ जग बीच चलावा। निबर न सबरे सों पावा॥
बहुतै सलातीन जग केरे। आइ सहास बने हैं चेरे॥
सब काहू पर दाया धरई। धरम सहित सुलतानी करई॥

कवि ने अपनी कहानी की भूमिका इस प्रकार बाँधी है––

मन-दृग सों इक राति मझारा। सूझि परा मोहि सब संसारा॥
देखेउँ एक नीक फुलवारी। देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी॥
दोउ मुख सोभा बरनि न जाई। चंद सुरुज उतरे भुई आई॥
तपी एक देखेउँ तेहि ठाऊँ। फूछेउँ तासौ तिन्हकर नाऊँ॥
कहा अहै राजा औ रानी। इंद्रावति औ कुँवर गियानी॥

आगमपुर इंद्रावती, कुँवर कलिंजर राय।
प्रेम हुँते दोउन्ह कह दीन्हा अलख मिलाय॥

कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी-पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।

इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है जिसका नाम है। 'अनुराग-बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो और सब सूफी-रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित हैं। दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव। 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूरमुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था। कि "तुम मुसलमान होकर हिंदी-भाषा में रचना करने क्यों गए"। इसी से 'अनुराग-बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी–– [ ११३ ]

जानत है वह सिरजनहारा। जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू-मग पर पाँव न राखेउँ। का जौ बहुतै हिंदी भाखेउँ॥
मन इसलाम मिरिकलै माँजेउँ। दीन जेंवरी,करकस भॉजेउँ॥
जहँ रसुल अल्लाह पियारा। उम्मत को भुक्तावनहार॥
तहाँ दूसरी कैसे भावै। जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

इसका तात्पर्य यह है कि संवत् १८०० तक आते आते मुसलमान हिंदी से किराना खींचने लगे थे। हिंदी हिंदुओं के लिये छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूरमुहम्मद के इस कथन से मिलता है––

कामयाब यह कौन जगावा। फिर हिंदी भाखै पर आवा॥
छाँडि पारसी कद नबातै। अरुझाना हिंदी रस-बातै॥

"अनुराग-बाँसुरी" का रचना-काल ११७८ हिजरी अर्थात् संवत् १८२१ है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्त्वज्ञान-संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों आदि को लेकर पूरा अव्यवसित रूपक (Allegory) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता हैं, पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक है। एक विशेषता और है। चौपाइयो के बीच-बीच में इन्होंने दोहे न रखकर बरवै रखे है। प्रयोग भी ऐसे ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियो में नहीं आए हैं। काव्यभाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं कही व्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं। रचना का थोड़ा सा नमूना नीचे दिया जाता है––

}}नगर एक मूरतिपुर नाऊँ। राजा जीव रहै तेहि ठाऊँ॥
का बरनौं वह नगर सुहावन। नगर सुहावने सब मन भावन॥

इहै सरीर सुहावन मूरतिपूर।
इहै जीव राजा, जिव जाहु न दूर॥

[ ११४ ]

तनुज एक राजा के रहा। अंत:करन नाम सब में सब कहा॥
सौम्यसील सुकुमार सबाना। सो सावित्री स्वांत समाना॥
सरल सरनि जौ सो पग धरै। नगरे लोग सूधै पग परै॥
वक्र पंथ जो राखै पाऊँ। वहै अव्य सब होइ बटाऊ॥

रहे सँघाती ताके पत्तन ठावँ।
एक संकल्प, विकल्प सो दूसर नावँ॥

बुद्धि चित्त दुइ सखा सरेखै। जगत बीच गुने अवगुन देखै॥
अतःकरन पास नित आवैं। दरसन देखि महासुख पावें॥

अंहकार तेहि तीसरे सखी निरंत्र।
रहेउ चारि के अंतर नैसुक अंत्र॥

अतःकरन सदन एक रानी। महामोहनी नाम सयानी॥
बरनि न पारौं सुंदरताई। सकल सुंदरी देखि लजाई॥
सर्वमंगला देखि असीसै। चाहै लोचन मध्य बईसै॥
कुंतल झारत फाँदा ढ़ारै। चख चितवन सों चपला मारै॥
अपने मंजु रूप वह दारा। रूप गर्विता जगत में मँझारा॥
प्रीतम-प्रेम पाइ वह नारी। प्रेमगर्विता भई पियारी॥

सदा न रूप रहत है अंत नसाइ।
प्रेम, रूप के नासहिं तें घटि जाइ॥

जैसा कि कहा जा चुका है नूरमुहम्मद को हिंदी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इसलाम के पक्के अनुयायी थे। अतः वे अपने इस ग्रंथ की प्रशंसा इस ढंग से करते हैं––

यह बाँसुरी सुनै सो कोई। हिरदय-स्रोत खुला जेहि होई॥
निसरत नाद बारुनी साथा। सुनि सुधि-चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर। होत अचेत कृष्ण मुरलीधर॥
यह मुहम्मदी जन की बोली। जामैं कंद नबातें घोली॥
बहुत देवता को चित हरै। बहु मूरति औंधी होई परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावे। संखनाद की रीति मिटावै॥

[ ११५ ]

जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात॥
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥

सूफी आख्यान-काव्यों की अखंडित परंपरा की यहीं समाप्ति मानी जाती है। इस परंपरा में मुसलमान कवि ही हुए हैं। केवल एक हिंदू मिला है। सूफी मत के अनुयायी सूरदास नाम के एक पंजाबी हिंदू ने शाहजहाँ के समय में 'नल दयमंती कथा' नाम की एक कहानी लिखी थी पर इसकी रचना अत्यंत निकृष्ट है।

साहित्य की कोई अखंड परंपरा समाप्त होने पर भी कुछ दिन तक उस परंपरा की कुछ रचनाएँ इधर-उधर होती रहती है। इस ढंग की पिछली-रचनाओं में 'चतुर्मुकुट की कथा' और 'यूसुफ-जुलेखा' उल्लेख-योग्य हैं।