हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ४ रामभक्ति-शाखा (गोस्वामी तुलसीदासजी)

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[ १२६ ] गोस्वामी तुलसीदासजी––यद्यपि स्वामी रामानंदजी की शिष्य परंपरा के द्वारा देश के बड़े भाग में रामभक्ति की पुष्टि निरंतर होती आ रही थी। और भक्त लोग फुटकल पदो में राम की महिमा गाते आ रहे थे पर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश विक्रम की १७वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ। उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने भाषा-काव्य की सारी प्रचलित पद्धतियों के बीच अपना चमत्कार दिखाया। सारांश यह कि रामभक्ति का वह परम विशद साहित्यिक संदर्भ इन्ही भक्त-शिरोमणि द्वारा संघटित हुआ जिससे हिंदी-काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरंभ हुआ।

'शिवसिंह-सरोज' में गोस्वामीजी के एक शिष्य बेनीमाधवदास कृत 'गोसाई चरित्र' का उल्लेख है। इस ग्रंथ का कहीं पता न था। पर कुछ दिन हुए सहसा यह अयोध्या से निकल पड़ा। अयोध्या में एक अत्यंत निपुण दल है जो लुप्त पुस्तकों और रचनाओं को समय समय पर प्रकट करता रहता है। कभी नंददास कृत तुलसी की वंदना का पद प्रकट होता है जिसमें नंददास कहते है––

श्रीमत्तुलसीदास स्वगुरु भ्राता-पद बंदे।
**
नंददास के हृदय-नयन को खोलेउ सोई॥

कभी सूरदासजी द्वारा तुलसीदास जी की स्तुति का यह पद प्रकाशित होता है––

धन्य भाग्य मम संत सिरोमनि चरन-कमल तकि आयउँ।

[ १२७ ]

दया-दृष्टि तें मम दिसि हेरेउ, तत्त्व-स्वरूप लखायो।
कर्म उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम संसय-मूल नसायो॥

[१]

इस पद के अनुसार सूरदास का 'कर्म-उपासन-ज्ञान-जनित भ्रम' बल्लभाचार्यजी ने नहीं, तुलसीदासजी ने दूर किया था। सूरदासजी तुलसीदासजी से अवस्था में बहुत बड़े थे और उनसे पहले प्रसिद्ध भक्त हो गए थे, यह सब लोग जानते है।

ये दोनों पद 'गोसाई चरित्र' के मेल में है, अतः मैं इन सब का उद्गम एक ही समझता हूँ। 'गोसाई चरित्र' में वर्णित बहुत सी बाते इतिहास के सर्वथा विरुद्ध पड़ती है, यह बा० माताप्रसाद गुप्त अपने कई लेखों में दिखा चुके हैं। रामानंदजी की शिष्य-परंपरा के अनुसार देखें तो भी तुलसीदास के गुरु का नाम नरहर्यानंद और नरहर्यानंद के गुरु का नाम अनंतानद (प्रिय शिष्य अनंतानंद हते। नरहर्यानंद सुनाम छते) असंगत ठहरता है। अनतानंद और नरहर्यानंद दोनो रामानंदजी के बारह शिष्यों में थे। नरहरिदास को अलबत कुछ लोग अनंतानंद की शिष्य कहते हैं, पर भक्तमाल के अनुसार अनंतानंद के शिष्य श्रीरंग के शिष्य थे। गिरनार में योगाभ्यासी सिद्ध रहा करते हैं, 'तपसी शाखा' की यह बात भी गोसाई-चरित्र में आ गई है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि तिथि, बार आदि ज्योतिष की गणना से बिलकुल ठीक मिलाकर तथा तुलसी के संबंध में चली आती हुई सारी जन-श्रुतियों का समन्वय करके सावधानी के साथ इसकी रचना हुई है, पर एक ऐसी पदावली इसके भीतर चमक रही है जो इसे बिल्कुल आजकल की रचना घोषित कर रही हैं। यह है 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्'। देखिए––

देखिन तिरषित दृष्टि तें सब जने, कीन्ही सही संकरम् ।
दिव्याषर सों लिख्यो, पढैं धुनि सुने, सत्यं शिवं सुंदरम्॥

[ १२८ ]यमुना पार के एक ग्राम के रहनेवाले भारद्वाज गोत्री एक ब्राह्यण यमद्वितीया को राजापुर में स्नान करने आए। उन्होंने तुलसीदासजी की विद्या, विनय और शील पर मुग्ध होकर अपनी कन्या इन्हें व्याह दी। इस पत्नी के उपदेश से गोस्वामीजी का विरक्त होना और भक्ति की सिद्धि प्राप्त करना प्रसिद्ध है। तुलसीदासजी अपनी इस पत्नी पर इतने अनुरक्त थे कि एक बार उसके मायके चले जाने पर वे बढ़ी नदी पार करके उससे जाकर मिले। स्त्री ने उस समय ये दोहे कहे––

लाज न लागत आपको दौरे आयहु साथ। धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थि-चर्म-मय देह मम तामै जैसी प्रीति। तैसी जौ श्रीराम महँ होति न तौ भवभीति॥

यह बात तुलसीदासजी को ऐसी लगी कि वे तुरंत काशी आकर विरक्त हो गए। इस वृत्तात को प्रियादासजी ने भक्तमाल की अपनी टीका में दिया हैं। और 'तुलसी चरित्र' और 'गोसाई चरित्र' में भी इसका उल्लेख है।

गोस्वामीजी घर छोड़ने पर कुछ दिन काशी में, फिर काशी से अयोध्या जाकर रहे। उसके पीछे तीर्थयात्रा करने निकले और जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, द्वारका होते हुए बदरिकाश्रम गए। वहाँ से ये कैलास और मानसरोवर तक निकल गए। अंत में चित्रकूट आकर ये बहुत दिनों तक रहे जहाँ अनेक संतों से इनकी भेंट हुई। इसके अनतर संवत् १६३१ में अयोध्या जाकर इन्होने रामचरितमानस का आरंभ किया और उसे २ वर्ष ७ महीने में समाप्त किया। रामायण का कुछ अंश, विशेषतः किष्किंधाकांड, काशी में रचा गया। रामायण समाप्त होने पर ये अधिकतर काशी में ही रहा करते थे। वहाँ अनेक शास्त्रज्ञ विद्वान् इनसे आकर मिला करते थे क्योंकि इनकी प्रसिद्धि सारे देश में हो चुकी थी। ये अपने समय के सबसे बड़े भक्त और महात्मा माने जाते थे। कहते है कि उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् मधुसूदन सरस्वती से इनसे वाद हुआ। था जिससे प्रसन्न होकर उन्होनें इनकी स्तुति में यह श्लोक कहा था––

आनंदकानने कश्चिज्जङ्गमस्तुल्सीतरुः। कवितामंजरी यस्य रामभ्रमरभूषिता॥

गोस्वामीजी के मित्रों और स्नेहियों में नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराज मानसिंह, नाभाजी और मधुसूदन सरस्वती आदि कहे जाते है। 'रहीम' से इनसे [ १२९ ]समय समय पर दोहों में लिखा-पढ़ी हुआ करती थी। काशी में इनके सबसे बड़े स्नेही और भक्त भदैनी के एक भूमिहार जमींदार टोडर थे जिनकी मृत्यु पर इन्होंने कई दोहे कहें हैं––

चार गाँव को ठाकुरो मन को महामहीप। तुलसी या कलिकाल में अथए टोडर दीप॥
तुलसी रामसनेह सिर पर भारी भारु। टोडर काँवा नहिं दियो, सब कहि रहे 'उतारु'॥
रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच। जियबो प्रीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच॥

गोस्वामीजी की मृत्यु के संबंध में लोग यह दोहा कहा करते हैं––

संवत् सोरह सै असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर॥

पर बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में दूसरी पंक्ति इस प्रकार हैं या कर दी गई है––

श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर॥

यह ठीक तिथि हैं क्योंकि टोडर के वंशज अब तक इसी तिथि को गोस्वामी जी के नाम सीधा दिया करते हैं।

'मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत' को लेकर कुछ लोग गोस्वामी जी का जन्मस्थान ढूँढ़ने एटा जिले के सोरो नामक स्थान तक सीधे पच्छिम दौड़े हैं। पहले पहल उस ओर इशारा स्व० लाला सीताराम ने (राजापुर के) अयोध्याकांड के स्व-संपादित संस्करण की भूमिका में दिया था। उसके बहुत दिन पीछे उसी इशारे पर दौड़ लगी और अनेक प्रकार के कल्पित प्रमाण सोरों को जन्मस्थान सिद्ध करने के लिये तैयार किए गए। सारे उपद्रव की जड़ है 'सूकर खेत' जो भ्रम से सोरो समझ लिया गया। 'सूकर छेत्र' गोंडे के जिले में सरजू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है, जहाँ आसपास के कई जिलों के लोग स्नान करने जाते हैं और मेला लगता है।

जिन्हें भाषा की परख है उन्हें यह देखते देर न लगेगी कि तुलसीदासजी की भाषा में ऐसे शब्द, जो स्थान-विशेष के बाहर नहीं बोले जाते है, केवल दो स्थानो के है––चित्रकूट के आसपास के और अयोध्या के आसपास के। किसी कवि की रचना में यदि किसी स्थान-विशेष के भीतर ही बोले जाने वाले अनेक [ १३० ]शब्द मिले तो उस स्थान-विशेष से कवि का निवास-संबंध मानना चाहिए। इस दृष्टि से देखने पर यह बात मन में बैठ जाती हैं कि तुलसीदास का जन्म राजापुर में हुआ जहाँ उनकी कुमार अवस्था बीती। सरवरिया होने के कारण उनके कुल के तथा संबंधी अयोध्या, गोंडा, बस्ती के आसपास थे, जहाँ उनका आना-जाना बराबर रहा करता था‌। विरक्त होने पर वे अयोध्या में ही रहने लगे थे। 'रामचरितमानस' में आए हुए कुछ शब्द और प्रयोग नीचे दिए जाते है जो अयोध्या के आसपास ही (बस्ती, गोंडा आदि के कुछ भागों में) बोले जाते है––

माहुर=विष। सरौं=कसरत; फहराना या फरहराना=प्रफुल्लचित्त होना (सरौं करहिं पायक फहराई)। फुर=सच। अनभल ताकना=बुरा मानना (जेहि राउर अति अनभल ताका)। राउर, रउरेहि=आपको (भलउ कहत दुख रउरेहि लागा)। रमा लहीं=रमा ने पाया (प्रथम पुरुष, स्त्री॰, बहुवचन; उ॰––भरि जनम जे पाए न ते परितोष उमा रमा लही)। कूटि=दिल्लगी, उपहास।

इसी प्रकार ये शब्द चित्रकूट के आसपास तथा बघेलखंड में ही (जहाँ की भाषा पूरबी हिंदी या अवधी ही है) बोले जाते हैं––

कुराय=वे गड्ढे जो करेल (पोली जमीन) में बरसात के कारण जगह-जगह पड़ जाते है (काँच कुराय लपेटन लोटन ठाँवहिं ठाँव बझाऊ रे।––विनय॰)।

सुआर=सूपकार, रसोइया।

ये शब्द और प्रयोग इस बात का पता देते है कि किन-किन स्थानों की बोली गोस्वामीजी की अपनी थी। आधुनिक काल के पहले साहित्य या काव्य की सर्वमान्य व्यापक भाषा ब्रज ही रही है, यह तो निश्चित है। भाषा-काव्य के परिचय के लिये प्रायः सारे उत्तर भारत के लोग बराबर इसका अभ्यास करते थे और अभ्यास द्वारा सुंदर रचना भी करते थे। ब्रजभाषा में रीतिग्रंथ लिखनेवाले चिंतामणि, भूषण, मतिराम, दास इत्यादि अधिकतर कवि अवध के थे और ये ब्रजभाषा के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। दासजी ने तो स्पष्ट व्यवस्था ही दी है कि 'ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौ'। पर पूरबी [ १३१ ]हिंदी या अवधी के संबंध में यह बात नहीं है। अवधी भाषा में रचना करने वाले जितने कवि हुए है सब अवध या पूरब के थे। किसी पछाहीं कवि ने कभी पूरबी हिंदी या अवधी पर ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं किया कि उसमे रचना कर सके। जो बराबर सोरों को पछाहीं बोली (ब्रज) बोलता आया होगा वह 'जानकीमंगल' और 'पार्वतीमंगल' की सी ठेठ अवधी लिखेगा, 'मानस' ऐसे महाकाव्य की रचना अवधी मे करेगा और व्याकरण के ऐसे देशबद्ध प्रयोग करेगा जैसे ऊपर दिखाए गए हैं? भाषा के विचार में व्याकरण के रूपों का मुख्यतः विचार होता है।

भक्त लोग अपने को जन्म-जन्मांतर से अपने आराध्य इष्टदेव का सेवक मानते हैं। इसी भावना के अनुसार, तुलसी और सूर दोनों ने कथा-प्रसंग के भीतर अपने को गुप्त या प्रकट रूप में राम और कृष्ण के समीप तक पहुँचाया हैं। जिस स्थल पर ऐसा हुआ है वहीं कवि के निवासस्थान का पूरा संकेत भी है। 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड में वह स्थल देखिए जहाँ प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम जमुना पार करते है और भरद्वाज के द्वारा साथ लगाए हुए शिष्यों को विदा करते है। राम-सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि––

तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा॥
कवि अलषित-पति वेष बिरागी। मन क्रम बचन राम-अनुरागी॥

सजल नयन तन पुलक निज इष्ट देउ, पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥

यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुँचाया है और ठीक उसी प्रदेश में जहाँ के वे निवासी थे, अर्थात् राजापुर के पास।

सूरदास ने भी भक्तों की इस पद्धति का अवलंबन किया है। यह तो निर्विवाद है कि वल्लभाचार्यजी से दीक्षा लेने के उपरांत सूरदासजी गोवर्द्धन पर श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम [ १३२ ]स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अपने को ढाढी के रूप से नंद के द्वार पर पहुँचाया है––

नंद जु! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन तें आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो॥
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जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि कै घर जाउँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढी, सूरदास मेरो नाउँ॥

सब का सांराश यह कि तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर जो प्रसिद्ध चला आता है, वही ठीक है।

एक बात की ओर और ध्यान जाता है। तुलसीदासजी रामानंद-संप्रदाय की बैरागी परंपरा में नहीं जान पड़ते। उक्त संप्रदाय के अतंर्गत जितनी शिष्य परपराएँ मानी जाती है उनमें तुलसीदासजी का नाम कही नहीं है। रामानंद परंपरा से संमिलित करने के लिये उन्हे नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परंपरा मिलाई गई हैं, वह कल्पित प्रतीत होती हैं। वे रामोपासक-वैष्णव अवश्य थे, पर स्मार्त्त वैष्णव थे।

गोस्वामीजी के प्रादुर्भाव को हिंदी-काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिंदी-काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में हीं पहले पहल दिखाई पडा। वीरगाथा-काल के कवि अपने संकुचित क्षेत्र में काव्य-भाषा के पुराने रूप को लेकर एक विशेष शैली की परंपरा निभाते आ रहे थे। चलती भाषा का संस्कार और समुन्नति उनके द्वारा नहीं हुई। भक्तिकाल में आकर भाषा के चलते रूप को समाश्रय मिलने लगा। कबीरदास ने चलती बोली में अपनी वाणी कही। पर वह बोली बेठिकाने की थी। उसका कोई नियत रूप न था। शौरसेनी अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिये स्वीकृत था उससे कबीर का लगाव न था। उन्होंने नाथपंथियो की 'सधुक्कडी भाषा' का व्यवहार किया जिसमे खड़ी बोली के बीच राजस्थानी और पंजाबी का मेल था। इसका कारण यह है कि मुसलमानों की बोली पंजाबी या खड़ी बोली हो गई थी और [ १३३ ]निर्गुणपंथी साधुओं का लक्ष्य मुसलमानों पर भी प्रभाव डालने का था। अतः उनकी भाषा में अरबी और फारसी के शब्दों का भी मनमाना प्रयोग मिलता है। उनका कोई साहित्यक लक्ष्य न था और वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे।

साहित्य की भाषा में, जो वीरगाथा-काल के कवियों के हाथ में बहुत कुछ अपने पुराने रूप में ही रही, प्रचलित भाषा के संयोग से नया जीवन सगुणोंपासक कवियों द्वारा प्राप्त हुआ। भक्तवर सूरदासजी ब्रज की चलती भाषा को परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा को लोकव्यवहार के मेल में लाए। उन्होने परंपरा से चली आती हुई काव्य-भाषा का तिस्कार न करके उसे एक नया चलता रूप दिया। सूरसागर को ध्यानपूर्वक देखने से उसमें क्रिया के कुछ पुराने रूप, कुछ सर्वनाम (जैसे, जासु-तासु, जेहि-तेहि) तथा कुछ प्राकृत के शब्द पाए जायेंगे। सारांश यह कि वे परंपरागत काव्य-भाषा को बिलकुल अलग करके एकबारगी नई चलती बोली लेकर नहीं चले। भाषा का एक शिष्ट-सामान्य रूप उन्होंने रखा जिसका व्यवहार आगे चलकर बराबर कविता में होता आया। यह तो हुई ब्रजभाषा की बात है इसके साथ ही पूरबी बोली या अवधी भी साहित्य-निर्माण की ओर अग्रसर हो चुकी थी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अवधी की सबसे पुरानी रचना ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा' है[२]। आगे चलकर 'प्रेममार्गी शाखा' के मुसलमान कवियों ने भी अपनी कहानियों के लिये अवधी भाषा ही चुनी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने समय में काव्य-भाषा के दो रूप प्रचलित पाए––एक ब्रज और दूसरी अवधी। दोनों में उन्होंने समान अधिकार के साथ रचनाएँ कीं।

भाषा-पद्य के स्वरूप को लेते हैं तो गोस्वामीजी के सामने कई शैलियाँ प्रचलित थीं जिनमें से मुख्य ये हैं––(क) वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति, (ख) विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, (ग) गंग आदि भाटो की कवित्त-सवैया-पद्धति, (घ) कबीरदास की नीति-सबधी बानी की दोहा-पद्धति जो [ १३४ ]अपभ्रंश काल से चली आती थी, और (ड) ईश्वरदास की दोहे-चौपाई वाली प्रबंध-पद्धति। इस प्रकार काव्य-भाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्यक्षेत्र में गोस्वामीजी को मिलीं। तुलसीदासजी के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्यक्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतांवली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पदमावत में मिलती है। वही जानकीमंगल, पार्वतीमगंल, बरवारामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।

प्रचलित-रचना-शैलियों पर भी उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।

(क) वीर-गाथा काल की छप्पय पद्धति पर इनकी रचना थोड़ी है, पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे––

कतहुँ विटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत। कतहुँ बाजि सों बाजि मर्दि गजराज करक्खत॥
चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत। बिकट कटक विद्दरत वीर वारिद जिमि गज्जत॥

लंगूर लपेटत पटकि भट,'जयति राम जय' उच्चरत।
तुलसीदास पवननंदन अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत॥

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्वै समुद्रसर। व्याल बधिर तेहिं काल, बिकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर। सुरविमान हिमभानु, संघटित होत परस्पर॥

चौके विरंचि सकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्यंड खंड कियो चंढ धुनि,जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥

(ख) विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदासजी की रचना में संस्कृत की 'कोमल कांत पदावली' और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामीजी की [ १३५ ]रचना में हैं। दोनों भक्त-शिरोमणियों की रचना में यह भेद ध्यान देने योग्य है। और इसपर ध्यान अवश्य जाता है। गोस्वामीजी की रचना अधिक संस्कृतगर्भित है पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनके पदों में शुद्ध देशभाषा का माधुर्य नहीं है। इन्होंने दोनों प्रकार की मधुरता का बहुत ही अनूठा मिश्रण किया है। विनयपत्रिका के प्रारंभिक स्तोत्रों में जो संस्कृत पदविन्यास हैं। उसमें गीतगोविंद के पदविन्यास से इस बात की विशेषता है कि वह विषम है और रस के अनुकूल, कहीं कोमल और कहीं कर्कश देखने में आता है। हृदय के विविध भावों की व्यंजना गीतावली के मधुर पदों में देखने योग्य है। कौशल्या के सामने भरत अपनी आत्मग्लानि की व्यंजना किन शब्दों में करते हैं, देखिए––

जौ हौं मातु मते महँ ह्वै हौं।
तौं जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहौं?
क्यौं हौं आजु होत सुचि सपथनि, कौन मानिहै साँची?
महिमा-मृगी कौन सुकृती की खल बच बिसिपन्ह बाँची?

इसी प्रकार चित्रकूट में राम के सम्मुख जाते हुए भरत की दशा का भी सुंदर चित्रण है––

विलोके दूरि तें दोउ वीर।
मन अगहुँड तन पुलक सिथिल भयो, नयन-नलिन भरे नीर।
गड़त गोड़ मनो सकुच पंक महँ, कढ़त प्रेमबल धीर॥

'गीतावली' की रचना गोस्वामीजी ने सूरदासजी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते है, केवल 'राम','श्याम' का अंतर है। लंकाकांड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथा अनुरूप है। पर उत्तरकांड में जाकर सूर-पद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित सा हो गया है। जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उसका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया है। 'सूरसागर' में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाए गए है। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की और पूज्य[ १३६ ]भाव ही प्रगट होता है। राम की नख-शिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत से पदो में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे, इसका ख्याल गोस्वामीजी को न रहा।

(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त-सवैया-पद्धति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामीजी कह गए है जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदासजी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्द-योजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदासजी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते है––

राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परिछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारतिं नाहीं॥



गोरो गरूर गुमान भरो यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?



जल को गए लक्खन, है लरिको, परिखौं, पिय, छाँह घरीक ह्वै ठाढें।
पोंछि पसेउ वयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढें॥

वे ही वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते है––

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड वीर,
धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरिकै।
महाबल पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट,
जहाँ तहाँ पटके लँगूर फेरि फेरिकै॥
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
कहैं तुलसीस "राखि राम की सौं" टेरिकै।
ठहर ठहर परे, कहरि कहरि उठै,
हहरि हहरि हर, सिद्ध हँसे हेरिकै॥


[ १३७ ]

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल लाल मानौ,
लक लीलिबे को काल रसना पसारी है।
कैधौं व्योम-वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
वीररस वीर तरवारि सी उधारी है॥

(घ) नीति के उपदेश की सूक्तिपद्धति पर बहुत से दोहे रामचरितमानस और दोहावली में मिलेंगे जिनमें बड़ी मार्मिकता से और कहीं कहीं बड़े रचनाकौशल से व्यवहार की बातें कही गई हैं और भक्ति प्रेम की मर्यादा दिखाई गई है।

रीझि आपनी बूझि पर, खीझि विचार-विहीन। ते उपदेस न मानहीं, मोह-महोदधि मीन॥
लोगन भलो मनाव जो, भलो होन की आस। करत गगन को गेंडुआ, सो सठ-तुलसीदास॥
की तोहि लागहि राम प्रिय, की तु राम-प्रिय होइ। दुइ महँ रुचै जो सुगम सोइ कीबे तुलसी तोहि॥

(ङ) जिस प्रकार चौपाई दोहे के क्रम से जायसी ने अपना पदमावत नाम का प्रबंधकाव्य लिखा उसी क्रम पर गोस्वामीजी ने अपना परम प्रसिद्ध काव्य रामचरितमानस, जो लोगों के हृदय को हार बनता चला आता है, रचा। भाषा वही अवधी है, केवल पद-विन्यास का भेद है। गोस्वामीजी शास्त्र-पारगत विद्वान् थे अतः उनकी शब्द-योजना साहित्यिक और संस्कृत-गर्भित है। जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामीजी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है। नीचे दी हुई कुछ चौपाइयों में दोनों की भाषा का भेद स्पष्ट देखा जा सकता है––

जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी। सुनिउँ कि आवा है परदेसी॥
तब हुँत तुम्ह बिनु रहै न जीऊ। चातक भइउँ कहत पिउ पीऊ॥
भइउँ बिरह जरि कोइलि कारी। डार डार जो कूकि पुकारी॥

––जायसी

अमियमूरिमय चूरन चारू। समन सकल भवरुज परिवारू॥
सुकृतसंभु तनु विमल विभूती। मजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन-मन-मंजु-मुकुर-मल-हरनी। किए तिलक गुन-गन-बस-करनी॥

––तुलसी

सारांश यह कि हिंदी काव्य की सब प्रकार की रचनाशैली के ऊपर [ १३८ ]गोस्वामीजी ने अपना ऊँचा शासन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।

अब हम गोस्वामीजी के वर्णित विषय के विस्तार का विचार करेंगे। यह विचार करेगे कि मानव-जीवन की कितनी अधिक दशाओ का सन्निवेश उनकी कविता के भीतर है। इस संबंध में हम यह पहले ही कह देना चाहते हैं कि अपने दृष्टिविस्तार के कारण ही तुलसीदासजी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय-मंदिर में पूर्ण प्रेम-प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं। भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्ही महानुभाव को। और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं––जैसे, वीरकाल के कवि उत्साह को; भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को; अलंकार-काल के कवि दांपत्य प्रणय या शृंगार को। पर इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है, दूसरी शोर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है। व्यक्तिगत साधना के साथ ही साथ लोकधर्म की अत्यंत उज्ज्वल छटा उसमें वर्त्तमान है।

पहले कहा जा चुका है कि निर्गुण-धारा के संतों की बानी में किस प्रकार लोकधर्म की अवहेलना छिपी हुई थी। सगुण-धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म-विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना। तो गोस्वामीजी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की चित्तवृत्ति में ऐसे घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विशृंखल हो जायगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जायगी। जिस समाज से ज्ञानसंपन्न शास्त्रज्ञ विद्वानों, अन्याय और अत्याचार के दमन में तत्पर वीरों, पारिवारिक कर्त्तव्यों का पालन करने वाले उच्चाशय व्यक्तियों, पति-परायणा सतियों, पितृभक्ति के कारण अपना सुखसर्वस्व त्यागनेवाले सत्पुरुषों, स्वामी की सेवा में मर मिटनेवाले सच्चे सेवकों, प्रजा का पुत्रवत् पालन करनेवाले शासकों आदि के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव उठ जायगा उसका कल्याण कदापि नहीं हो सकता। गोस्वामीजी को निर्गुण-पंथियों की बानी में लोकधर्म की उपेक्षा का भाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और अशिक्षित वेदांत [ १३९ ]के कुछ चलते शब्दों को लेकर, बिना उनका तात्पर्य समझे, यों ही 'ज्ञानी' बने हुए, मूर्ख जनता को लौकिक कर्त्तव्यों से विचलित करना चाहते है और मूर्खता-मिश्रित अहंकार की वृद्वि कर रहे है। इसी दशा को लक्ष्य करके उन्होंने इस प्रकार के वचन कहे हैं––

श्रुति सम्मत हरिभक्तिपथ सजुत विरति विवेक।
नहि परिहरहिं विमोहबस, कल्पहिं पंथ अनेक॥
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान॥
बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि।
जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर, आँखि देखावहिं डाटि॥

इसी प्रकार योगमार्ग से भक्तिमार्ग का पार्थक्य गोस्वामीजी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में बताया है। योगमार्ग ईश्वर को अंतस्थ मानकर अनेक प्रकार की अतस्साधनाओं में प्रवृत्त करता हैं। सगुण भक्तिमार्गी ईश्वर को भीतर और बाहर सर्वत्र मानकर उनकी कला का दर्शन खुले हुए व्यक्त जगत् के बीच करता है। वह ईश्वर को केवल मनुष्य के क्षुद्र घट के भीतर ही नहीं मानता। इसी से गोस्वामीजी कहते हैं––

अंतर्जामिहु तें बड़ बाहिरजामी हैं राम, जो नाम लिए तें।
पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिंए तें॥

'घट के भीतर' कहने से गुह्य या रहस्य की धारणा फैलती है जो भक्ति के सीधे स्वाभाविक मार्ग में बाधा डालती है। घट के भीतर साक्षात्कार करने की बात कहने वाले प्रायः अपने को गूढ रहस्यदर्शी प्रकट करने के लिये सीधी सादी बात को भी रूपक बाँधकर-और टेढ़ी पहेली बनाकर कहा करते हैं। पर इस प्रकार के दुराव-छिपाव की प्रवृत्ति को गोस्वामीजी भक्ति का विरोधी मानते है। सरलता या सीधेपन को वे भक्ति का नित्य लक्षण कहते हैं––मन की सरलता, वचन की सरलता और कर्म की सरलता, तीनों को––

सूबे मन, सूधे बचन, सूधी सब करतूति। तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुवर-प्रेम-प्रसूति॥

वे भक्ति के मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे 'लखै कोइ बिरलै'। वे उसे ऐसा [ १४० ]सीधासादा स्वाभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके सामने दिखाई पड़ता है। वह संसार में सबके लिये ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल––

निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।
अबु असन अवलोकियत सुलभ सबहि जग मोह॥

अभिप्राय यह कि जिस हृदय से भक्ति की जाती है वह सबके पास है। हृदय की जिस पद्धति से भक्ति की जाती है वह भी वही है जिससे माता-पिता की भक्ति, पुत्र-कलत्र का प्रेम किया जाता है। इसी से गोस्वामी जी चाहते हैं कि––

यहि जग महँ जहँ लगि या तन की प्रीति-प्रतीति सगाई।
सो सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहु सिमिटि इक ठाई॥

नाथपंथी रमते जोगियों के प्रभाव से जनता अंधी भेड़ बनी हुई तरह-तरह की करामतों को साधुता का चिह्न मानने लगी थी और ईश्वरोन्मुख साधना को कुछ बिरले रहस्यदर्शी लोगों का ही कामे समझने लगी थी। जो हृदय सबके पास होता है वही अपनी स्वाभाविक वृत्तियों द्वारा भगवान् की ओर लगाया जा सकता है, इस बात पर परदा-सा डाल दिया गया था। इससे हृदय रहते भी भक्ति का सच्चा स्वाभाविक मार्ग लोग नहीं देख पाते थे। यह पहले कहा जा चुका है कि नाथपंथ का हठयोग-मार्ग हृदयपक्ष-शून्य है[३]। रागात्मिक वृत्ति से उसका कोई लगाव नहीं। अतः रमते जोगियों की रहस्यभरी बानियँ सुनते सुनते जनता के हृदय में भक्ति की सच्ची भावना दब गई थी, उठने ही नहीं पाती थी। लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामीजी को कहना पड़ा था कि––

गोरख जगायों जोग, भगति भगायो लोग।

गोस्वामीजी की भक्ति-पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वागपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नही चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य् है। न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते है। योग का भी उसमें समन्वय है, [ १४१ ]पर उतने ही का जितना ध्यान के लिये, चित्त को एकाग्र करने के लिये आवश्यक है।

प्राचीन भारतीय भक्तिमार्ग के भीतर भी उन्होंने बहुत सी बढ़ती हुई बुराइयों को रोकने का प्रयत्न किया। शैवों और वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए विद्वेष को उन्होंने अपनी सामंजस्य-व्यवस्था द्वारा बहुत कुछ रोका जिसके कारण उत्तरीय भारत में वह वैसा भयंकर रूप में धारण कर सका जैसा उसने दक्षिण में किया। यहीं तक नहीं, जिस प्रकार उन्होंने लोकधर्म और भक्तिसाधना को एक में संमिलित करके दिखाया उसी प्रकार कर्म, ज्ञान और उपासना के बीच भी सामजस्य उपस्थित किया। 'मानस' के बालकांड में संत-समाज का जो लंबा रूपक है, वह इस नाते को स्पष्ट रूप में सामने लाता है। भक्ति की चरम सीमा पर पहुँचकर भी लोकपक्ष उन्होंने नहीं छोड़ा। लोकसंग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था। कृष्णोपासक भक्तों में इस अंग की कमी थी। उनके बीच उपास्य और उपासक के संबंध की ही गूढ़ातिगूढ़ व्यंजना हुई; दूसरे प्रकार के लोक-व्यापक नाना संबंधों के कल्याणकारी सौंदर्य की प्रतिष्ठा नहीं हुई। यही कारण है कि इनकी भक्ति-रस भरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं। आज राजा से रंक तक के घर में गोस्वामीजी का रामचरितमानस विराज रहा है और प्रत्येक प्रसंग पर इनकी चौपाइयाँ कहीं जाती हैं।

अपनी सगुणोपासना का निरूपण गोस्वामीजी ने कई ढंग से किया है। रामचरितमानस में नाम और रूप दोनो को ईश्वर की उपाधि कहकर वे उन्हें उसकी अभिव्यक्ति मानते हैं––

नाम रूप दुह ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी॥

दोहावली में भक्ति की सुगमता बड़े ही मार्मिक ढंग से गोस्वामीजी ने इस दोहे के द्वारा सूचित की है––

की तोहि लागहिं राम प्रिय, की तु राम-प्रिय होहि।
दुई मँह रुचै जो सुगम होइ, कीबे तुलसी तोहि॥

[ १४२ ]इसी प्रकार रामचरितमानस के उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है।

रचना-कौशल, प्रबंध-पटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरित मानस में मिलता है। पहली बात जिसपर ध्यान जाता है, वह हैं। कथा-काव्य के सब अवयवो का उचित समीकरण। कथा-काव्य या प्रबंध-काव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार-वर्णन, भावव्यंजना और संवाद, ये अवयव होते है। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाललीला, नखशिख, जनक की वाटिका, अभिषेकोत्सव इत्यादि के वर्णन बहुत लंबे होने पाए है, न पात्रों के संवाद, न प्रेम शोक आदि भावों की व्यंजना। इतिवृत्त की शृंखला भी कहीं से टूटती नहीं है।

दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान। अधिक विस्तार हमें ऐसे ही प्रसंगों का मिलता है जो मनुष्य मात्र के हृदय को स्पर्श करनेवाले है––जैसे, जनक की वाटिका में राम-सीता का परस्पर दर्शन, रामवनगमन, दशरथमरण, भरत की आत्मग्लानि, वन के मार्ग में स्त्री-पुरुषो की सहानुभूति, युद्ध, लक्ष्मण को शक्ति लगना, इत्यादि।

तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा। रसों के अनुकूल कोमल-कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामीजी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत-मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मंथरा के संवाद में उन्होले ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है। अनुप्रास की ओर प्रवृत्ति तो सब रचनाओं में स्पष्ट लक्षित होती है।

चौथी बात है शृंगार रस का शिष्ट-मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।

जिस धूमधाम से 'मानस' की प्रस्तावना चली हैं उसे देखते ही ग्रंथ के महत्त्व का आभास मिल जाता है। उससे साफ झलकता है कि तुलसीदासजी अपने ही तक दृष्टि रखनेवाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर [ १४३ ]देखनेवाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत् के बीच उन्हे भगवान् के राम-रूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारो ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा हैं। फिर उसके भले-बुरे पक्षों की विषमता देख-दिखाकार अपने मन का यह कहकर समाधान किया है––

सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग-जलधि अगाधू॥

इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिद्धात का भी आभास यह कहकर दिया––

सिया-राम-मय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥

जगत् को केवल राममय न कहकर उन्होंने 'सिया-राम-मय' कहा है। सीता, प्रकृतिस्वरूपा हैं और राम ब्रह्म है; प्रकृति अचित् पक्ष है और ब्रहा चित् पक्ष। अतः पारमार्थिक सत्ता चिदचिद्विशिष्ट है, यह स्पष्ट झलकता है। चित् और अचित् वस्तुतः एक ही हैं, इसका निर्देश उन्होंने

गिरा अर्थ, जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीता-राम-पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥


कहकर किया है।

'रामचरितमानस' के भीतर कहीं-कहीं घटनाओं के थोड़े ही हेर-फेर तथा स्वकल्पित संवादों के समावेश के अतिरिक्त अपनी ओर से छोटी-मोटी घटनाओं या प्रसगों की नई कल्पना तुलसीदासजी ने नहीं की हैं। 'मानस' में उनका ऐसा न करना तो उनके उद्देश्य के अनुसार बहुत ठीक है। राम के प्रामाणिक चरित द्वारा वे जीवन भर बना रहने वाला प्रभाव उत्पन्न करना चाहते थे, और काव्यों के समान केवल अल्पस्थायी रसानुभूति मात्र नहीं। 'ये प्रसंग तो केवल तुलसी द्वारा कल्पित हैं', यह धारणा उन प्रसंगों का कोई स्थायी प्रभाव श्रोंताओं या पाठकों पर न जमने देती। पर गीतावली तो प्रबंध-काव्य न थी । उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु-व्यापार-वर्णन का बहुत विस्तार हैं। उसके भीतर छोटे छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना को पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाए जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलनेवाली थी; नए नए [ १४४ ]तोड़ें मरोड़ें, गए है। पर गोस्वामीजी की वाक्य-रचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है, एक भी शब्द फालतू नहीं। खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होनेवाले बहुत कम कवियों में रह गई। सब रसों की सम्यक् व्यंजना इन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामीजी का ही है। हम निस्संकोच कह सकते है कि यह एक कवि ही हिंदी को एक प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिये काफी है।

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  1. ये दोनों पंक्तियाँ सूरदासजी के इस पद से खींच ली गई है––

    कर्म जोग पुनि ज्ञान-उपासन सब ही भ्रम भरमायो‌।
    श्री बल्लभ गुरु तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो॥

    (सूरसागर-सारावली)

  2. देखो पृ० ७२।
  3. देखो पृ० ६१।