हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ४ रामभक्ति-शाखा (स्वामी अग्रदास)

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[ १४४ ] (२) स्वामी अग्रदास––रामानंदजी के शिष्य अनंतानंद और अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदासजी जी थे। इन्हीं अग्रदासजी के शिष्य भक्तमाल के रचयिता प्रसिद्ध नाभादासजी थे। गलता (राजपूताना) की प्रसिद्ध गद्दी का उल्लेख पहले हो चुका है[१]। वहीं ये भी रहा करते थे और संवत् १६३२ के लगभग वर्त्तमान थे। इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है––

१––हितोपदेश उपखाणाँ बावनी।

२––ध्यानमंजरी।

३––रामध्यान-मंजरी।

४––कुंडलिया।

इनकी कविता उसी ढंग की है जिस ढंग की कृष्णोपासक नंददासजी की। उदाहरण के लिये यह पद्य देखिए––

कुंडल ललित कपोल जुगल अस परम सुदेशा। तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा॥
मेचक कुटिल विसाल सरोरुह नैन सुहाए। मुख-पंकज के निकट मनो अलि-छौना आए॥

इनका एक पद भी देखिए––

पहरे राम तुम्हारे सोवत। मैं मतिमंद अंध नहिं जोवत॥
अपमारग मारग महि जान्यो। इंद्री पोषि पुरुषारथ मान्यो॥
औरनि के बल अनत प्रकार। अगरदास के राम अधार॥

[ १४५ ](३) नाभादासजी––ये उपर्युक्त अग्रदासजी के शिष्य बड़े भक्त और साधुसेवी थे। ये संवत् १६५७ के लगभग वर्त्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदासजी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल संवत् १६४२ के पीछे बना और सं॰ १७६९ में प्रियादासजी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में २०० भक्तों के चमत्कार-पूर्ण चरित्र ३१६ छप्पयों में लिखे गए हैं। इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमा-सूचक बातें दी गई हैं। इसका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्य-बुद्धि का प्रचार जान पड़ता है। वह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ। आज उत्तरीय भारत के गाँव गाँव में साधुवेशधारी पुरुषों को शास्त्रज्ञ विद्वानों और पंडितों से कहीं बढ़कर जो सम्मान और पूजा प्राप्त है, वह बहुत कुछ भक्तों की करामातों और चमत्कारपूर्ण वृत्तातों के सम्यक् प्रचार से।

नाभाजी को कुछ लोग डोम बताते हैं, कुछ क्षत्रिय। ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एक बार गो॰ तुलसीदासजी से मिलने काशी गए। पर उस समय गोस्वामीजी ध्यान में थे, इससे न मिल सके। नाभाजी उसी दिन वृंदावन चले गए। ध्यान भंग होने पर गोस्वामीजी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभीजी से मिलने वृंदावन चल दिए। नाभीजी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमे गोस्वामीजी बिना बुलाए जा पहुँचे। गोस्वामीजी यह समझकर कि नाभाजी ने मुझे अभिमानी न समझा हो, सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए। नाभाजी ने जान-बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिया। परसने के समय कोई पात्र न मिलता था जिसमे गोस्वामीजी को खीर दी जाती। यह देखकर गोस्वामीजी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले, "इससे सुदंर पात्र मेरे लिये और क्या होगा?" इस पर नाभाजी ने उठाकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद हो गए। ऐसा कहा जाता है कि तुलसी-संबंधी अपने प्रसिद्ध छप्पय के अंत में पहले नाभाजी ने कुछ चिढ़कर यह चरण रखा था––"कलि कुटिल जीव तुलसी भए बालमीकि अवतार धरि।" यह वृत्तांत कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गोस्वामीजी खान-पान का विचार रखनेवाले स्मार्त्त वैष्णव थे। तुलसीदासजी के संबंध में नाभाजी का प्रसिद्ध छप्पय यह है–– [ १४६ ]प्रसंगो की उद्भावना करनेवाली नहीं। उनको कल्पना वस्तुस्थिति को ज्यों की त्यों लेकर उसके मार्मिक स्वरूपों के उद्घाटन में प्रवृत्त होती थी, नई वस्तुस्थिति खड़ी करने नहीं जाती थी। गोपियो को छकानेवाली कृष्णलीला के अंतर्गत छोटी मोटी कथा के रूप में कुछ दूर तक मनोरंजक और कुतूहलप्रद ढंग से चलनेवाले नाना प्रसंगों की जो नवीन उद्भावना सूरसागर में पाई जाती है, वह तुलसी के किसी ग्रंथ मे नहीं मिलती।

'रामचरितमानस' में तुलसी केवल कवि के रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते है। उपदेश उन्होने किसी न किसी पात्र के मुख से कराए है, इससे काव्यदृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वे उपदेश पात्र के स्वभाव-चित्रण के साधनरूप है। पर बात यह नहीं है। उपदेश उपदेश के लिये ही है।

गोस्वामी के रचे बारह ग्रंथ प्रसिद्ध है जिनमें ५ बड़े और ७ छोटे है। दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरितमानस, विनयपत्रिका, बड़े ग्रंथ है तथा रामलला-नहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य-सदीपिनी, कृष्णगीतावली, और रामाज्ञा-प्रश्नावली छोटे। पंडित रामगुलाम द्विवेदी ने, जो एक प्रसिद्ध भक्त और रामायणी हो गए हैं, इन्ही बारह ग्रंथों को गोस्वामीजी कृत माना है। पर शिवसिंहसरोज में दस और ग्रंथों के नाम गिनाए गए है, यथा––रामसतसई, संकटमोचन, हनुमानबाहुक, रामसलाका, छंदावली, छप्पय रामयण, कड़खा रामायण, रोलारामायण, झूलना रामायण और कुंडलिया रामायण। इनमे से कई एक तो मिलते ही नहीं। हनुमानबाहुक को पंडित रामगुलामजी ने दोहावली के ही अतर्गत लिया है। रामसतसई में सात सौ से कुछ अधिक दोहे हैं जिनमे से डेढ़ सौ के लगभग दोहावली के ही है। अधिकांश दोहे उसमे कुतूहलवर्द्धक, चातुर्य लिए हुए और क्लिष्ट है। यद्यपि दोहावली में भी कुछ दोहे इस ढंग के है, पर गोस्वामी जी ऐसे गंभीर, सहृदय और कलामर्मज्ञ महापुरुष का ऐसे पद्यों का इतना बड़ा ढेर लगाना समझ में नहीं आता। जो हो, बाबा बेनीमाधवदास के नाम पर प्रणीत चरित में भी रामसतसई का उल्लेख हुअा है। [ १४७ ]कुछ ग्रंथों के निर्माण के संबंध में जो जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं, उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है। कहते हैं कि बरवा रामायण गोस्वामीजी ने अपने स्नेही मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के कहने पर उनके बरवा (बरवै नायिका-भेद) को देखकर बनाया था। कृष्णगीतावली वृंदावन की यात्रा के अवसर पर बनी कही जाती हैं। पर बाबा बेनीमाधवदास के 'गोसाई-चरित' के अनुसार रामगीतावली और कृष्णगीतावली दोनो ग्रंथ चित्रकूट में उस समय के कुछ पीछे लिखे गए जब सूरदासजी उनसे मिलने वहाँ गए थे। गोस्वामीजी के एक मित्र पंडित गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रह्लादघाट पर रहते थे। रामाज्ञा-प्रश्न उन्हीं के अनुरोध से बना माना जाता है। हनुमानबाहुक से तो प्रत्यक्ष है कि वह बाहुओं में असह्य पीड़ा उठने के समय रचा गया था। विनयपत्रिका के बनने का कारण यह कहा जाता है कि जब गोस्वामीजी ने काशी में रामभक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदासजी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिये यह पत्रिका या अर्जी लिखीं।

गोस्वामीजी की सर्वागपूर्ण काव्यकुशलता का परिचय आरंभ में ही दिया जा चुका है। उनकी साहित्य-मर्मज्ञता, भावुकता और गंभीरता के संबंध में इतना जान लेना और भी आवश्यक है कि उन्होने रचना-नैपुण्य का भद्दा प्रदर्शन कहीं नहीं किया है और न शब्द-चमत्कार आदि के खेलवाड़ों में वे फँसे है। अलंकारो की योजना उन्होने ऐसे मार्मिक ढंग से की है की वे सर्वत्र भावों या तथ्यों की व्यजना को प्रस्फुटित करते हुए पाए जाते है, अपनी अलग चमक-दमक दिखाते हुए नहीं। कहीं कहीं लंबे लंबे साग रूपक बाँधने में अवश्य उन्होंने एक भद्दी परंपरा का अनुसरण किया है। दोहावली के कुछ दोहो के अतिरिक्त और सर्वत्र भाषा का प्रयोग उन्होंने भावों और विचारों को स्पष्ट रूप में रखने के लिये किया है, कारीगरी दिखाने के लिये नहीं। उनकी सो भाषा की सफाई और किसी कवि में नहीं। सूरदास में ऐसे वाक्य के वाक्य मिलते हैं जो विचार धारा आगे बढ़ाने में कुछ भी योग देते नही पाए जाते, केवल पादपूर्त्यर्थ ही लाए हुए जान पड़ते है। इसी प्रकार तुकात के लिये शब्द [ १४८ ]

त्रेता काव्य-निबध करी सत कोटि रमायन। इक अक्षर उच्चरे ब्रह्महत्यादि-परायन॥
अब भक्तन सुखदैन बहुरि लीला बिस्तारी। रामचरनरसमत्त रहत अहनिसि व्रतधारी॥

संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तार-हितवालमीकि तुलसी भयो॥

अपने गुरु अग्रदास के समान इन्होने भी रामभक्ति-संबंधिनी कविता की है। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्यरचना में अच्छी निपुणता थी। रामचरित-संबधी इनके पदों एक छोटा-सा संग्रह अभी थोडे दिन हए प्रास हुआ है।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होने दो 'अष्टयाम' भी बनाए––एक ब्रजभाषा-गद्य में दूसरा रामचरितमानस की शैली पर दोहा-चौपाइयों में। दोनो के उदाहरण नीचे दिए जाते है––

(गद्य)––तब श्री महाराजकुमार प्रथम श्री वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिरि अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिरि श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भए।

(पद्य)––

अवधपुरी की सोभा जैसी। कहि नहिं सकहिं शेष श्रुति तैसी॥
रचित कोट कलधौत सुहावन। विविध रंग मति अति मन भावन॥
चहुँ दिसि विपिन प्रमोद अनूपा। चतुरवीस जोजन रस रूपा॥
सुदिसि नगर सरजू सरि पावनि। मनिमय तीरथ परम सुहावनि॥
विगसे जलजा, भृंग रसभूले। गुजत जल समूह दोउ कूले॥

परिखा प्रति चहुँ दिसि लसति, कंचन कोट प्रकास।
विविध भाँति नग जगमगत, प्रति गोपुर पुर पास॥

(४) प्राणचंद्र चौहान––संस्कृत में रामचरित-संबंधी कई नाटक हैं जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार है और कुछ केवल संवाद-रूप में होने के कारण नाटक कहे गए है। इसी पिछली पद्धति पर संवत् १६६७ में इन्होने रामायण महानाटक लिखा। रचना का ढंग नीचे उद्धृत अंश से ज्ञात हो सकता है–– [ १४९ ]

कार्तिक मास पच्छ उजियारा। तीरथ पुन्य सोम कर वारा॥
ता दिन कथा कीन्ह अनुमाना। शाह सलेम दिलीपति थाना॥
संवत सोरह सै सत साठा। पुन्य प्रगास पाय भय नाठा॥
जो सारद माता करु दाया। बरनौं आदि पुरुष को माया॥
जेहि माया कह मुनि जगभूला। ब्रह्मा रहे कमल के फूला॥
निकसि न सक माया कर बाँधा। देषहु कमलनाल के राँधा॥
आदि पुरुष बरनौ केहि भाँती। चाँद सुरज तहँ दिवस न राती॥
निरगुन रूप करै सिव ध्याना। चार वेद गुन जोरि बखाना॥
तीनों गुन जानै संसारा। सिरजै पालै भजनहारा॥
श्रवन बिना सो अस बहुगुना। मन में होइ सु पहले सुना॥
देषै सब पै आहि न आँषी। अंधकार चोरी के सापी॥
तेहि कर दहुँ को करै बषाना। जिहि कर मर्म वेद नहिं जाना॥
माया सीव भो कोउ न पारा।। शंकर पँवरि बीच रोइ हारा॥

(५) हृदयराम––ये पंजाब के रहने वाले और कृष्णदास के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १६८० में संस्कृत के हनुमन्नाटक के आधार पर भाषा हनुमन्नाटक लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। पहले कहा जा चुका है कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य-पद्धतियों पर रामचरित का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होने कोई रचना नहीं की। गोस्वामीजी के समय में ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगे भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थी। अतः उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुई जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमान्नाटक है।

नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं––

देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक हाथ
दूजो न लगाऊँ वार करौं एक कर को।
मीजि मारों उरे ते उखारि भुँजदंड, हाड
तोंरि डारौं बर अवलोकि रघुबर को॥

[ १५० ]

कासों राग द्विज को, रिसात भहरात राम,
अति थहरात गात लागत हैं धरको।
सीता को सँताप मेटि प्रगट प्रताप कीनो,
को है वह आप चाप तोज्यों जिन हर को॥



जानकी को मुख न विलोक्यो ताते कुंडल
न जानत हौं, वीर पायँ छुवै रघुराई के।
हाथ जो निहारे नैन फूटियो हमारे,
ताते कंकन न देखे, बोल कह्यो सतभाइ के॥
पायँन के परिवे कौ जाते दास लछमन
याते पहिचानत है भूषन जे पायँ के॥
बिछुआ हैं एई, अरु झाँझ हैं एई जुग,
नूपर है तेई राम जानत जराइ के॥



सातों सिधु, सातों लोक, सातों रिषि हैं ससोक,
सातों रवि-थोरे थोरे देखे न डरात मैं।
सातों दीप, सातों ईति काँप्योई करत और
सातों मत रात दिन प्रान हैं न गात मैं॥
सातो चिरजीव बरराइ उठे बार बार,
सातों सुर हाय हाय होत दिन रात मै।
सातहूँ पताल काल सबद कराल, राम
भेदे सात ताल, चाल परी, सात सात में॥



एहो हनू! कह्यौ श्री रघुवीर कछू सुधि है सिय की छिति माही।
है प्रभु लक कलक बिना सु बसै तहँ रावन बाग की छाँही॥
जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराही?
प्रान बसै पदपंकज में जम आवत है पर पावत नाही॥

रामभक्ति का एक अंग आदि रामभक्त हनुमानजी की उपासना भी हुई स्वामी रामानंदजी कृत हनुमानजी की स्तुति का उल्लेख हो चुका है। गोस्वामी [ १५१ ]तुलसीदासजी ने हनुमानजी की वंदना बहुत स्थलों पर की है। 'हनुमानबाहुक' तो केवल हनुमानजी को ही संबोधन करके लिखा गया है। भक्ति के लिये किसी पहुँचे हुए भक्त का प्रसाद भी भक्तिमार्ग में अपेक्षित होता है। संवत् १६९६ में रायमल्ल पाँड़े ने 'हनुमचरित' लिखा। गोस्वामीजी के पीछे भी कई लोगों ने रामायणें लिखीं पर वे गोस्वामीजी की रचनाओं के सामने प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। ऐसा जान पड़ता है कि गोस्वामीजी की प्रतिभा का प्रखर प्रकाश सौ डेढ़ सौ वर्ष तक ऐसा छाया रहा कि रामभक्ति की अौर रचनाएँ उसके सामने ठहर न सकीं। विक्रम की १९वीं और २०वीं शताब्दी में अयोध्या के महंत बाबा रामचरणदास, बाबा रघुनाथदास, रीवाँ के महाराज रघुराजसिंह आदि ने रामचरित संबंधी विस्तृत रचनाएँ की जो सर्वप्रिय हुई। इस काल में रामभक्ति विषयक कुछ हुई। कविता बहुत कुछ हुई।

रामभक्ति की काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सब प्रकार की रचनाएँ हुई, उसके द्वारा कई प्रकार की रचना-पद्धतियों को उत्तेजना मिली। कृष्णोपासी कवियों ने मुक्तक के एक विशेष अंग गीताकाव्य की ही पूर्ति की, पर रामचरित को लेकर अच्छे अच्छे प्रबंध-काव्य रचे गए।

तुलसीदासजी के प्रसंग में यह दिखाया जा चुका है कि रामभक्ति में भक्ति का पूर्ण स्वरूप विकसित हुआ है। प्रेम और श्रद्धा अर्थात् पूज्यबुद्धि दोनों के मेल से भक्ति की निष्पत्ति होती है। श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है। जहाँ धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है वहीं श्रद्धा टिकती है। धर्म ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति है; उस स्वरूप की क्रियात्मक अभिव्यक्ति है, जिसका आभास अखिल विश्व की स्थिति में मिलता है।। पूर्ण भक्त व्यक्त जगत् के बीच सत् की इस सर्वशक्तिमयी प्रवृत्ति के उदय का, धर्म की इस मंगलमयी ज्योति के स्फुरण का, साक्षात्कार चाहता रहता है। इसी ज्योति के प्रकाश में सत् के अनंत रूप-सौंदर्य की भी मनोहर झाँकी उसे मिलती। लोक में जब कभी वह धर्म के स्वरूप को तिरोहित या आच्छादित देखता है ब मानो भगवान्त उसकी दृष्टि से––उसकी खुली हुई आँखों के सामने से––ओझल हो जाते है। और वह वियोग की आकुलता का अनुभव करता है। फिर जब अधर्म का अंधकार फाड़कर धर्म-ज्योति अमोघ शक्ति के साथ फूट पड़ती है तब मानो [ १५२ ]उसके प्रिय भगवान् का मनोहर रूप सामने आ जाता है और वह पुलकित हो उठता है। भीतर का 'चित्' जब बाहर 'सत्' का साक्षात्कार कर पाता है तब 'आनंद' का आविर्भाव होता है और 'सदानंद' की अनुभूति होती है।

यह हैं उस सगुण भक्तिमार्ग का प्रकृत पक्ष जो भगवान् के अवतार को लेकर चलता है और जिसका पूर्ण विकास तुलसी की रामभक्ति में पाया जाता है। 'विनयपत्रिका' में गोस्वामीजी ने लोक में फैले अधर्म, अनाचार, अत्याचार आदि का भीषण चित्र खींचकर भगवान् से अपना सत्स्वरूप, धर्मसंस्थापक स्वरूप, व्यक्त करने की प्रार्थना की है। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि धर्म-स्वरूप भगवान् की कला का कभी न कभी दर्शन होगा। अतः वे यह भावना करके पुलकित हो जाते है कि सत्स्वरूप का लोकव्यक्त प्रकाश हो गया, रामराज्य प्रतिष्ठित हो गया और चारों ओर फिर मंगल छा गया।

रामराज भयो काज सगुन सुभ, राजा राम जगत-विजई हैं।
समरथ बड़ो सुजान सुसाहब, सुकृत-सेन हारत जितई हैं॥

जो भक्ति-मार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव न रह जायगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा। शृंगारोपासना, माधुर्य्यभाव आदि की ओर उसका झुकाव होता जायगा और धीरे धीरे उसमें 'गुह्य, रहस्य' आदि का भी समावेश होगा‌। परिणाम यह होगा कि भक्ति के बहाने विलासिता और इंद्रियासक्ति की साधना होगी। कृष्णभक्ति शाखा कृष्ण भगवान् के धर्मस्वरूप को––लोकरक्षक और लोकरंजक स्वरूप को––छोड़कर केवल मधुर स्वरूप और प्रेमलक्षणा भक्ति की सामग्री लेकर चली। इससे धर्म-सौंदर्य के आकर्षण से वह दूर पड़ गई। तुलसीदासजी ने भक्ति को अपने पूर्ण रूप से, श्रद्धा-प्रेम-समन्वित रूप में,सबके सामने रखा और धर्म या सदाचार को उसका नित्य-लक्षण निर्धारित किया।

अत्यंत खेद की बात है कि इधर कुछ दिनों से एक दल इस राजभक्ति को भी शृंगारी भावनाओं में लपेटकर विकृत करने में जुट गया है। तुलसीदासजी के प्रसंग में हम दिखा आए हैं कि कृष्णभक्त सूरदासजी की शृंगारी रचना का कुछ अनुकरण गोस्वामीजी की 'गीतावली' के उत्तरकाड में दिखाई पड़ता है, पर वह केवल आनंदोत्सव तक रह गया है। इधर आकर कृष्णभक्ति शाखा [ १५३ ]का प्रभाव बहुत बढ़ा। विषय-वासना की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण कुछ दिनों से रामभक्ति-मार्ग के भीतर भी शृंगारी भावना का अनर्गल प्रवेश हो रहा है। इस शृंगारी भावना के प्रवर्त्तक थे रामचरितमानस के प्रसिद्ध टीकाकार जानकी घाट (अयोध्या) के रामचरणदासजी, जिन्होंने पति-पत्नी भाव की उपासना चलाई। इन्होने अपनी शाखा का नाम 'स्वमुखी' शाखा रखा। स्त्री-वेष धारण करके पति 'लाल साहब' (यह खिताब राम को दिया गया है) से मिलने के लिये सोलह शृंगार करना, सीता की भावना सपत्नी रूप में करना आदि इस शाखा के लक्षण हुए। रामचरणदासजी ने अपने मत की पुष्टि के लिये अनेक नवीन कल्पित ग्रंथ प्राचीन बताकर अपनी शाखा में फैलाए, जैसे––लोमश संहिता, हनुमत्संहिता, अमर रामायण, भुशुंडी रामायण, महारामायण (५ अध्याय) कोशलखंड, रामनवरत्न, महारासोत्सव सटीक (सं० १९०४ प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में छपा)।

'कोशल खंड' में राम की रासलीला, विहार आदि के अनेक अश्लील वृत्त कल्पित किए गए हैं और कहा गया है कि रासलीला तो वास्तव में राम ने की थी। रामावतार में ९९ रास वे कर चुके थे। एक ही शेष था जिसके लिये उन्हें फिर कृष्ण रूप में अवतार लेना पड़ा। इस प्रकार विलास-क्रीडा में कृष्ण से कहीं अधिक राम को बढ़ाने की होड़ लगाई गई। गोलोक में जो नित्य रामलीला होती रहती है उससे कहीं बढ़ कर साकेत में हुआ करती है। वहाँ की नर्तकियों की नामावली में रंभा, उर्वशी आदि के साथ साथ राधा और चद्रावली भी गिना दी गई है।

रामचरणदास की इस शृंगारी उपासना में चिरान-छपरा के जीवारामजी ने थोड़ा हेरफेर किया। उन्होने पति-पत्नि-भावना के स्थान पर 'सखीभाव' रखा और अपनी शाखा का नाम 'तत्सुखी शाखा' रखा। इस 'सखीभाव' की उपासना का खूब प्रचार लक्ष्मण किला (अयोध्या) वाले युगलानन्यशरण ने किया। रीवाँ के महाराज रघुराजसिंह इन्हें बहुत मानते थे और इन्ही की संमति से उन्होंने चित्रकूट में 'प्रमोदवन' आदि कई स्थान बनवाए। चित्रकूट की भावना वृंदावन के रूप में की गई और वहाँ के कुंज भी ब्रज के से क्रीड़ाकुंज माने गए। इस रसिकपंथ का आजकल अयोध्या में बहुत जोर है [ १५४ ]और वहाँ के बहुत से मंदिरों में अब राम की 'तिरछी चितवन' और 'बाँकी अदा' के गीत गाए जाने लगे हैं। इस पंथ के लोगों का उत्सव प्रति वर्ष चैत्र कृष्ण नवमी को वहाँ होता है। ये लोग सीता-राम को 'युगल सरकार' कहा करते हैं और अपना आचार्य्य 'कृपानिवास' नामक एक कल्पित व्यक्ति को बतलाते हैं जिसके नाम पर एक 'कृपानिवास-पदावली' सं० १९०१ में छपी (प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ)। इसमें अनेक अत्यंत अश्लील पद हैं जैसे––

(१) नीबी करषत वरजति प्यारी।
रसलंपट सपुट कर जोरत, पद परसत पुनि लै बलिहारी॥

[पृ० १३८]


(२) पिय हँसि रस रस कचुकि खोलैं।
चमकि निवारति पानि लाडिली, मुरक मुरक मुख बोलैं॥

ऐसी ही एक और पुस्तक 'श्रीरामावतार-भजन-तरंगिणी' इन लोगों की ओर से निकली है जिसका एक भजन देखिए––

हमारे पिय ठाढे सरजू तीर।
छोड़ि लाज मैं जाय मिली जहँ खड़े लखन के बीर॥
मृदु मुसकाय पकरि कर मेरो खैंचि लियो तब चीर।
झाऊ वृक्ष की झाड़ी भीतर करन लगे रति धीर॥

भगवान् राम के दिव्य पुनीत चरित्र के कितने घोर पतन की कल्पना इन लोगों के द्वारा हुई है, यह दिखाने के लिये इतना बहुत है। लोकपावन आदर्श का ऐसा वीभत्स विपर्य्यय देखकर चित्त क्षुब्ध हो जाता है। रामभक्ति-शाखा के साहित्य का अनुसंधान करनेवालों को सावधान करने के लिये ही इस 'रसिक शाखा' का यह थोड़ा सा विवरण दे दिया गया है। 'गुह्य', 'रहस्य', 'माधुर्य्य भाव' इत्यादि के समावेश से किसी भक्तिमार्ग की यही दशा होती है। गोस्वामीजी ने शुद्ध, सात्त्विक और खुले रूप में जिस रामभक्ति का प्रकाश फैलाया था, वह इस प्रकार विकृत की जा रही है।



निम्न श्रीअग्रदास जी की गुरु परंपरा है श्रीअग्रदास उवाच शुभासने समासीनमनन्तानन्दमच्युतम् । कृष्णदासो नमस्कृत्य पप्रच्छ गुरुसन्ततिम् ॥ १ ॥

श्रीकृष्णदास उवाच

भगवन् यमिनां श्रेष्ठ प्रपन्नोऽस्मि दयां कुरु । ज्ञातुमिच्छाम्यहं सत्र पूर्वेषां सत्परम्पराम् ॥ २ ॥ मंत्रराजश्च केनादौ प्रोक्तः कस्मै पुरा विभो । कथं च भुवि विख्यातो मंत्रोऽयं मोक्षदायकः ॥३ कृष्णदासवचः श्रुत्वाऽनन्तानन्दो दयानिधिः । उवाच श्रूयतां सोम्य वक्ष्यामि तद् यथाकथम् ॥ ४ परधारिन स्थितो रामः पुंडरीकायतेक्षणः । सेवया परया जुष्टो जानक्यै तारकं ददौ ॥ ५ श्रियः श्रीरपि लोकानां दुःखोद्धरणहेतवे। हनूमते ददौ मंत्रं सदा रामाङ्किसेविने ॥ ६ ततस्तु ब्रह्मणा प्राप्तो मुह्यमानेन मायया । कल्पान्तरे तु रामो वै ब्रह्मणे दत्तवानिमम् ॥ ७ मंत्रराजजपं कृत्वा धाता निर्मातृतां गतः । त्रयीसारमिमं धातुर्वशिष्ठो लब्धवान्परम् ॥ ८ पराशरो वशिष्ठाच्च मुद्रासंस्कारसंयुतम् । मंत्रराजं पदं लब्ध्वा कृतकृत्यो बभूव ह ॥ ९ पराशरस्य सत्पुत्रो व्यासः सत्यवतीसुतः । पितुः पडक्षरं लब्ध्वा चक्रे वेदोपबृंहणम् ॥ १० व्यासोपि बहुशिष्येषु मन्वानः शुभयोग्यताम् । परमहंसवर्याय शुकदेवाय दत्तवान् ॥११ शुकदेवकृपापात्रो ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः । नरोत्तमस्तु तच्छिष्यो निर्वाणपदवीं गतः ॥ १२ स चापि परमाचार्यो गंगाधराय सूरये । मन्त्राणां परमं तत्त्वं राममन्त्रं प्रदत्तवान् ॥ १३ गंगाधरात्सदाचार्य स्ततो रामेश्वरो यतिः । द्वारानन्दस्ततो लब्ध्वा परब्रह्मरतोऽभवत् ॥ १४ देवानन्दस्तु तच्छिष्यः श्यामानन्दस्ततोऽग्रहीत् । तत्सेवया श्रुतानन्दश्चिदानन्दस्ततोऽभवत् ॥ १५ पूर्णानन्दस्ततो लब्ध्वा श्रियानन्दाय दत्तवान् । हर्यानन्दो महायोगी श्रियानन्दाङ्गिसेवकः ।।१६ हर्यानन्दस्य शिष्यो हि राघवानन्द इत्यसौ । तस्य वै शिष्यतां प्राप्तो रामानन्दः स्वयं हरिः।।१७ यस्माद्गुरुवराल्लब्ध्वा देवानामपि दुर्लभम् । प्रादातुभ्यमहं तात गुह्यतारकसंज्ञकम् ||१८ एवं परम्परा सौम्य प्रोक्ता ते सम्प्रदायिनाम् । मंत्रराजस्य चाख्यातिर्भूम्यामेवमवातरत् ॥ १९ कृष्णदासस्तु तच्छ्रुत्वा लेभे पर महताम् । साष्टांग प्रणतिं कृत्वा वचनं चेदमब्रवीत् ||२० पीत्वा श्रीमुखवाक्यजन्यममृतं तापत्रयोद्धारकम्। श्रुत्वा वेदनिगूढतत्वजनिकां वाणींसमुल्लासिनीम् ॥२१ हित्वा मोक्षदरामतारकमिमं जाने न सारं परम् । नीत्वाकालमहं सुबोधकधियावक्तुंनशक्नोम्यहम्।।२२ यः पठेच्छ्रद्धया नित्यं पूर्वाचार्य परम्पराम् । मंत्रराजरतिं प्राप्य सद्यो रामपदं व्रजेत् ॥२३॥

"इति श्री अग्रस्वामिविरचिता गुरुपरम्परा" 'श्रीरामानन्दीय वैष्णवों की गुरुपरम्परा'

  1. देखो पृ॰ १२०।