हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ४ सगुण धारा रामभक्ति-शाखा

विकिस्रोत से
[ ११६ ]

प्रकरण ४
सगुण धारा

रामभक्ति-शाखा

जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्यजी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक् प्रसार के लिये जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य्य जी (सं॰ १०७३) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते है। अतः इन जीवो के लिये उद्धार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अशी का सामीप्य लाभ करने का यत्न करें। रामानुजजी की शिष्य-परंपरा देश में बराबर फैलती गई और जनता भक्तिमार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुजजी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। इस संप्रदाय मे अनेक अच्छे साधु महात्मा बराबर होते गए।

विक्रम की १४वीं शताब्दी के अंत में वैष्णव श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य्य श्री राघवानंद जी काशी में रहते थे। अपनी अधिक अवस्था होते देख वे बराबर इस चिंता में रहा करते कि मेरे उपरांत संप्रदाय के सिद्धात की रक्षा किस प्रकार हो सकेगी। अंत में राघवानंदजी रामानंदजी को दीक्षा प्रदान कर निश्चित हुए और थोड़े दिनों में परलोकवासी हुए। कहते है कि रामानंदजी ने भारतवर्ष का पर्यटन करके अपने संप्रदाय का प्रचार किया।

स्वामी रामानंदजी के समय के संबंध में कहीं कोई लेख न मिलने से हमें उसके निश्चय के लिये कुछ आनुषंगिक बातों का सहारा लेना पड़ता है। [ ११७ ]वैरागियों की परंपरा में रामानंदजी का मानिकपुर के शेख तकी पीर के साथ वाद-विवाद होना माना जाता है। ये शेख तकी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में थे। कुछ लोगो का मत है कि वे सिकंदर लोदी के पीर (गुरु) थे और उन्हीं के कहने से उसने कबीर साहब को जंजीर से बाँधकर गंगा में डुबाया था। कबीर के शिष्य धर्मदास ने भी इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है––

साह सिकंदर जल में बोरे, बहुरि अग्नि परजारे। मैमत हाथी आनि झुकाये, सिंहरूप दिखराये॥
निरगुन कयै, अभयपद गावैं, जीवन को समझाए। काजी पंडित सबै हराए, पार कोउ नहिं पाये॥

शेख तकी और कबीर का संवाद प्रसिद्ध ही है। इससे सिद्ध होता है कि रामानंदजी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में वर्त्तमान थे। सिकंदर लोदी, संवत् १५४६ से संवत् १५७४ तक गद्दी पर रहा। अतः इन २८ वर्षा के काल-विस्तार के भीतर––चाहे आरंभ की ओर, चाहे अंत की ओर––रामानंदजी का वर्त्तमान रहना ठहरता है।

कबीर के समान सेन भगत भी रामानंदजी के शिष्यों में प्रसिद्ध है। ये सेन भगत बाँधवगढ़-नरेश के नाई थे और उनकी सेवा किया करते थे। ये कौन बाँधवगढ़-नरेश थे, इसका पता 'भक्तमाल-रामरसिकावली' में रीवाँ-नरेश महाराज रघुराजसिंह ने दिया है––

बाँधवगढ़ पूरब जो गायो। सेन नाम नापित तहँ जायो॥
ताकी रहै सदा यह रीती। करत रहै साधुन सों प्रीती॥
तहँ को राजा राम बघेला। बरन्यो जेहि कबीर को चेला॥
करै सदा तिनको सेवकाई। मुकर दिखावे तेल लगाई॥

रीवाँ-राज्य के इतिहास में राजा राम या रामचंद्र का समय संवत् १६११ से १६४८ तक माना जाता है। रामानंदजी से दीक्षा लेने के उपरांत ही सेन पक्के भगत हुए होंगे। पक्के भक्त हो जाने पर ही उनके लिये भगवान् के नाई का रूप धरनेवाली बात प्रसिद्ध हुई होगी। उक्त चमत्कार के समय वे राज-सेवा में थे। अतः राजा रामचंद्र से अधिक से अधिक ३० वर्ष पहले यदि उन्होने दीक्षा ली हो तो संवत् १५७५ या १५८० तक रामानंदजी का वर्त्तमान रहना ठहरता [ ११८ ]है। इस दशा में स्थूल रूप से उनका समय विक्रम की १५वीं शती के चतुर्थ और १६वीं शती के तृतीय चरण के भीतर माना जा सकता है।

'श्रीरामार्चन-पद्धति' में रामानंदजी ने अपनी पूरी गुरु-परंपरा दी हैं। उसके अनुसार रामानुजाचार्य जी रामानंदजी से १४ पीढ़ी ऊपर थे। रामानुजाचार्यजी का परलोकवास संवत् ११९४ में हुआ। अब १४ पीढ़ियों के लिये यदि हम ३७० वर्ष रखें तो रामानंदजी का समय प्रायः वही आता है। जो ऊपर दिया गया है। रामानंदजी की और कोई वृत्त ज्ञात नहीं है।

तत्त्वत: रामानुजाचार्य के मतावलंबी होने पर भी अपनी उपासनापद्धति का इन्होने विशेष रूप रखा। इन्होने उपासना के लिये बैकुठ-निवासी बिष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला-विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम-नाम। पर इससे यह न समझना चाहिए कि इसके पूर्व देश में रामोपासक भक्त होते ही न थे। रामानुजाचार्य जी ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसके प्रवर्त्तक शठकोपाचार्य उनसे पाँच पीढ़ी पहले हुए है। उन्होने अपनी 'सहस्रगीति' में कहा है––"दशरथस्य सुत तं बिना अन्यशरणवान्नास्मि"। श्री रामानुज के पीछे उनके शिष्य कुरेश स्वामी हुए जिनकी "पंचस्तवी" में राम की विशेष भक्ति स्पष्ट झलकती है। रामानंदजी ने केवल यह किया कि विष्णु के अन्य रूपो में 'रामरूप' को ही लोक के लिये अधिक कल्याणकारी समझ छाँट लिया और एक सबल सप्रदाय का संगठन किया। इसके साथ ही साथ उन्होनें उदारतापूर्वक मनुष्य मात्र को इस सुलभ सगुण भक्ति का अधिकारी माना और देशभेद, वर्णभेद, जातिभेद आदि का विचार भक्तिमार्ग से दूर रखा। यह बात उन्होने सिद्बों या नाथ पंथियों की देखादेखी नही की, बल्कि भगवद्भक्ति के संबंध में महाभारत, पुराण आदि में कथित सिद्धांत के अनुसार की। रामानुज संप्रदाय से दीक्षा केवल द्विजातियों को दी जाती थी, पर स्वामी रामानंद ने राम-भक्ति का द्वार सब जातियों के लिये खोल दिया और एक उत्साही विरक्त दल का संघटन किया जो आज भी 'वैरागी' के नाम से प्रसिद्ध है। अयोध्या, चित्रकूट आदि आज भी वैरागियों के मुख्य स्थान हैं। [ ११९ ]भक्ति-मार्ग में इनकी इस उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है––जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं––कि रामानंदजी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिये वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न भिन्न कर्त्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सब को समान अधिकार स्वीकार किया। भगवद्भक्ति में वे किसी भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे। कर्म के क्षेत्र में शास्त्र-मर्यादा इन्हें मान्य थी; पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबंध ये नही मानते थे। सब जाति के लोगों को एकत्र कर राम-भक्ति का उपदेश ये करने लगे और राम-नाम की महिमा सुनाने लगे।

रामानंदजी के ये शिष्य प्रसिद्ध है––कबीरदास, रैदास, सेन नाई और गाँगरौनगढ़ के राजा पीपा, जो विरक्त होकर पक्के भक्त हुए।

रामानंदजी के रचे हुए केवल दो संस्कृत के ग्रंथ मिलते है––वैष्णवमताब्ज भास्कर और श्रीरामार्चन-पद्धति। और कोई ग्रंथ इनका आज तक नहीं मिला है।

इधर साप्रदायिक झगड़े के कारण कुछ नए ग्रंथ रचे जाकर रामानंदजी के नाम से प्रसिद्ध किए गए हैं––जैसे, ब्रह्मसूत्रों पर आनंद भाष्य और भगवद्गीताभाष्य––जिनके संबंध में सावधान रहने की आवश्यकता है। बात यह है कि कुछ लोग रामानुज-परंपरा से रामानंदजी की परंपरा को बिल्कुल स्वतंत्र और अलग सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से रामानंदजी को एक स्वतंत्र आचार्य प्रमाणित करने के लिये उन्होंने उनके नाम पर एक वेदांत भाष्य प्रसिद्ध किया हैं। रामानंदजी समय समय पर विनय और स्तुति के हिंदी पद भी बनाकर गाया करते थे। केवल दो-तीन पदों का पता अब तक लगा है। एक पद तो यह हैं जो हनुमान् जी की स्तुति में हैं––

आरति कीजै हनुमान चला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल-भर ते महि काँपे। रोग सोग जाकी सिमा न चाँपै॥
अंजनी-सुत महाबल-दायक। साधु संत पर सदा सहायक॥
बाएँ भुजा सा असुर सँहारी। दहिन भुजा सब संत उबारी॥
लछिमन वरति में मूर्छि परयो। पैठि पताल जमकातर तरओ॥

[ १२० ]

आनि सजीवन प्रान उबारयो। मही सब्रत कै भुजा उपारयो॥
गाढ़ परे कपि सुमिरों तोही। होहु दयाल देहु जस मोही॥
लंकाकोट समुंदर खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंक प्रजारि असुर सच मारयो। राजा राम के काज सँवारयो॥
घंटा ताल झालरी बाजै। जगमग जोति अवधपुर छाजै॥
जो हनुमानजी की आरति गावै। बसि बैंकुंठ अरमपद पावै॥
लंक बिधंस कियौ रघुराई। रामानंद आरती गाई॥
सुर नर मुनि सब करहिं आरती। जै जै जै हनुमान लाल की॥

स्वामी रामानंद का कोई प्रामाणिक वृत्त न मिलने से उनके संबंध में कई प्रकार के प्रवादों के प्रचार का अवसर लोगो को मिला है। कुछ लोगों का कहना है कि रामानद जी अद्वैतियो के ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी थे। इस संबंध में इतना ही कही जा सकता है कि यह संभव है कि उन्होंने ब्रह्मचारी रहकर कुछ दिन उक्त मठ से वेदांत का अध्ययन किया हो, पीछे रामानुजाचार्य के सिद्धांतों की ओर आकर्षित हुए हैं।

दूसरी बात तो उनके संबंध में कुछ लोग इधर-उधर कहते सुने जाते है। वह यह है कि उन्होंने बारह वर्ष तक गिरनार या आबू पर्वत पर योग-साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। रामानंदजी के जो दो ग्रंथ प्राप्त हैं तथा उनके संप्रदाय में जिस ढंग की उपासना चली आ रही है उससे स्पष्ट है कि वे खुलें हुए विश्व के बीच भगवान की कला की भावना करने वाले विशुद्ध वैष्णव भक्तिमार्ग के अनुयायी थे, घट के भीतर ढूँढ़।ने वाले योगमार्गी नहीं। इसलिये योग-साधनावाली प्रसिद्धि का रहस्य खोलना आवश्यक है।

भक्तमाल में रामानंदजी के बारह शिष्य कहे गए है––अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धना, रैदास, पद्मावती और सुरसुरी।

अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिये दक्षिण में जो महत्त्व [ १२१ ]तोताद्रि को था वही महत्व रामानंदी संप्रदाय के लिये उत्तर-भारत में गलता को प्राप्त हुआ। वह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति-आदोलन के पूर्व, देश में––विशेषतः राजपूताने में––नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे[१]। जब सीधे-सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिये स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले-पहल गलता पहुँचे तब, वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकारी में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटो ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इसपर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी के आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि "तू कैसा गदहा है?"। वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राए उनके कानो से निकल निकलकर पयहारी जी के सामने इकट्ठी हो गई। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदजी वैष्णवों का अधिकार हुआ।

नाथपंथी योगियों के कारण जनता के हृदय में योग-साधना और सिद्धि के प्रति आस्था जमी हुई थी। इससे पयहारीजी की शिष्य परंपरा में योग-साधना का भी कुछ समावेश हुआ। पयहारीजी के दो प्रसिद्ध शिष्य हुए––अग्रदास और कील्हदास। इन्हीं कील्हदास की प्रवृत्ति रामभक्ति के साथ साथ योगाभ्यास की ओर भी हुई जिससे रामानंदजी की वैरागी-परंपरा की एक शाखा में योगसाधना का भी समावेश हुआ। यह शाखा वैरागियों में 'तपसी शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। कील्हदास के शिष्य द्वारकादास ने इस शाखा को और पल्लवित किया। उनके संबंध में भक्तमाल में ये वाक्य है–– [ १२२ ]

'अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारकादास, जानै दुनी'

जब कोई शाखा चल पड़ती है तब आगे चलकर अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिये वह बहुत सी कथाओ का प्रचार करती है। स्वामी रामानंदजी के बारह वर्ष तक योग-साधना करने की कथा इसी प्रकार की है जो बैरागियो की 'तपसी शाखा' में चली। किसी शाखा की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयत्न कथाओं की उद्भावना तक ही नहीं रह जाता। कुछ नए ग्रंथ भी संप्रदाय के मूल प्रवर्त्तक के नाम से प्रसिद्ध किए जाते हैं। स्वामी रामानंदजी के नाम से चलाए हुए ऐसे दो रद्दी ग्रंथ हमारे पास हैं––एक का नाम है योग-चिंतामणि; दूसरे का रामरक्षा-स्तोत्र। दोनों के कुछ नमूने देखिए––

(१)

विकट कटक रे भाई। कायां चढा न जाई।
जहँ नाद बिंदु का हाथी। सतगुर ले चले साथी।
जहाँ है अष्टदल कमल फूला। हसा सरोवर में भूला।
शब्द तो हिरदय बसे, शब्द नयनों बसे,
शब्द की महिमा चार बेद गाई।
कहै गुरु रामानंद जी, सतगुर दया करि मिलिया,
सत्य का शब्द सुनु रे भाई।
सुरत-नगर करै सयल। जिसमें है आत्मा का महल॥

––योगचिंतामणि से।

(२)

संध्या तारिणी सर्वदुःख-विदारिणी।

संध्या उच्चरै विघ्न टरै। पिंड प्राण कै रक्षा श्रीनाथ निरंजन करै। नाद नाद सुषुम्ना के साल साज्या। चाचरी, भूचरी, खेचरी, अगोचरी, उनमनी पाँच मुद्रा सधत साधुराजा।

डरे डूंगरे जले और थेले बाटे घाटे औघट निरंजन निराकार रक्षा करे। बाध बाधिनी का करो मुख काला। चौंसठ जोगिनी मारि कुटका किया, अखिल ब्रह्मांड तिहुँलोक में दुहाई फिरिबा करै। दास रामानंद ब्रहा चीन्हा, सोइ निज तत्त्व ब्रह्मज्ञानी।

––रामरक्षा-स्तोत्र से।

[ १२३ ]झाड़-फूँक के काम के ऐसे ऐसे स्तोत्र भी रामानंदजी के गले मढ़े गए है! स्तोत्र के आरंभ में जो 'संध्या' शब्द है, नाथपंथ से उसका पारिभाषिक अर्थ है––'सुपुम्ना नाड़ी की संधि में प्राण का जाना।' इसी प्रकार 'निरंजन' भी गोरखपंथ मे उस ब्रह्म के लिये एक रूढ़ शब्द है जिसकी स्थिति वहाँ मानी गई है जहाँ नाद और बिंदु दोनों का लय हो जाता है––

नादकोटि सहस्राणि बिन्दुकोटि शतानि च। सर्वे तत्र लयं यान्ति यत्र देवो निरजनः॥

'नाद' और 'बिंदु' क्या है, यह नाथपंथ के प्रसंग में दिखाया जा चुका है[२]

सिखों के 'ग्रंथ-साहब' में भी निर्गुण उपासना के दो पद रामानंद के नाम के मिलते हैं। एक यह है––

कहाँ जाइए हो घरि लागो रंग। मेरो चंचल मन भयो अपंग॥
जहाँ जाइए तहँ जल पषान। पूरि रहे हरि सब समान॥
वेद स्मृति सब मेल्हे जोइ। जहाँ जाइए हरि इहाँ न होई॥
एक बार मन भयो उमंग। घसि चोवा चंदन वारि अंग॥
पूजत चाली ठाइँ ठाइँ। सो ब्रह्म बतायो गुरु आप माइँ॥
सतगुर मैं बलिहारी तोर। सकल विकल भ्रम जारे मोर॥
रामानंद रमै एक ब्रह्म। गुरु कै एक सबद काटै कोटि क्रम्म॥

इस उद्वरण से स्पष्ट है कि ग्रंथ-साहब में उद्धत दोनों पद भी वैष्णव भक्त रामानंदजी के नहीं है; और किसी रामानंद के हों तो हो सकते हैं।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वास्तव में रामानंदजी के केवल दो संस्कृत ग्रंथ ही आज तक मिले है। 'वैष्णव-मताब्जभास्कर' में रामानंदजी के शिष्य सुरसुरानंद ने नौ प्रश्न किए हैं जिनके उत्तर में रामतारकं मंत्र की विस्तृत व्याख्या, तत्वोपदेश, अहिंसा का महत्त्व, प्रपत्ति, वैष्णवों की दिनचर्या, षोडशोपचार पूजन इत्यादि विषय हैं।

अर्चावतारों के चार भेद––स्वयंव्यक्त, दैव, सैद्व और मानुष––करके कहा गया है कि वे प्रशस्त देशों (अयोध्या, मथुरा आदि) में श्री सहित सदा [ १२४ ]यह पदावली अँगरेजी-समीक्षा-क्षेत्र में प्रचलित The True, the Good and the Beautiful का अनुवाद है, जिसका प्रचार पहले पहल ब्रह्मोसमाज में, फिर बँगला और हिंदी की आधुनिक समीक्षाओं में हुआ, यह हम अपने 'काव्य में रहस्यवाद' के भीतर दिखा चुके है।

यह बात अवश्य है कि 'गोसाई चरित्र' में जो वृत्त दिए गए हैं, वे अधिकतर वे ही है जो परंपरा से प्रसिद्ध चले आ रहे है।

गोस्वामीजी का एक और जीवन-चरित, जिसकी सूचना मर्यादा पत्रिका की ज्येष्ठ १९६९ की संख्या में श्रीयुत इंद्रदेव नारायणजी ने दी थी, उनके एक दूसरे शिष्य महात्मा रघुवरदासजी का लिखा 'तुलसी-चरित' कहा जाता है। यह कहाँ तक प्रामाणिक है, नहीं कहा जा सकता। दोनो चरितो के वृत्तातों में परस्पर बहुत कुछ विरोध है। बाबा बेनीमाधवदास के अनुसार गोस्वामीजी के पिता जमुना के किनारे दुबे पुरवा नामक गाँव के दूबे और मुखिया थे और इनके पूर्वज पत्यौजा ग्राम से यहाँ आए थे। पर बाबा रघुबरदास के 'तुलसीचरित' में लिखा है कि सरवार में मझौली से तेईस कोस पर कसया ग्राम में गोस्वामीजी के प्रपितामह परशुराम मिश्र––जो गाना के मिश्र थे––रहते थे। वे तीर्थाटन करते करते चित्रकूट पहुँचे और उसी ओर राजापुर में बस गए। उनके पुत्र शंकर मिश्र हुए। शंकर मिश्र के रुद्रनाथ मिश्र और रुद्रनाथ मिश्र के मुरारि मिश्र हुए जिनके पुत्र तुलाराम ही आगे चलकर भक्त चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदासजी हुए।

दोनों चरितों में गोस्वामीजी का जन्म संवत् १५५४ दिया हुआ है। बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में तो श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि भी दी हुई है। पर इस संवत् को ग्रहण करने से तुलसीदासजी की आयु १२६-१२७ वर्ष आती है। जो पुनीत आचरण के महात्माओं के लिये असंभव तो नहीं कही जा सकती। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि गोस्वामीजी संवत् १५८३ के लगभग उत्पन्न हुए थे। मिरजापुर के प्रसिद्ध रामभक्त और रामायणी पं॰ रामगुलाम द्विवेदी भक्तों की जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म संवत्, १५८९ मानते थे। इसी सबसे पिछले संवत् को ही डा॰ ग्रियर्सन ने स्वीकार किया है। इनका सरयूपारी [ १२५ ]ब्राह्मण होना तो दोनों चरितों में पाया जाता है, और सर्वमान्य है। "तुलसी परासर गोत दुबे पतिऔजा के" यह वाक्य भी प्रसिद्ध चला आता है और पंडित रामगुलाम ने भी इसका समर्थन किया है। उक्त प्रसिद्धि के अनुसार गोस्वामीजी के पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। माता के नाम के प्रमाण मे रहीम का यह दोहा कहा जाता है––

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सी सुत होय॥

तुलसीदासजी ने कवितावली में कहा है कि "मातु पिता जग जाइ तज्यो विधिहू न लिख्यों कछु भाले भलाई।" इसी प्रकार विनयपत्रिका में भी ये वाक्य है––"जनक जननी तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे" तथा "तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यो मातु पिता हू"। इन वचनों के अनुसार यह जनश्रुति चल पड़ी कि गोस्वामीजी अभुक्तमूल में उत्पन्न हुए थे, इससे उनके माता पिता ने उन्हे त्याग दिया था। उक्त जनश्रुति के अनुसार गोसाई चरित्र में लिखा है कि गोस्वामीजी जब उत्पन्न हुए तब पाँच वर्ष के बालक के समान थे और उन्हें पूरे दाँत भी थे। वे रोए नहीं, केवल 'राम' शब्द उनके मुँह से सुनाई पड़ा। बालक को राक्षस समझ पिता ने उसकी उपेक्षा की। पर माता ने उसकी रक्षा के लिये उद्विग्न होकर उसे अपनी एक दासी मुनिया को पालने पोसने का दिया और वह उसे लेकर अपनी ससुराल चली गई। पाँच वर्ष पीछे जब मुनिया भी मर गई तब राजापुर में बालक के पिता के पास संवाद भेजा गया पर उन्होंने बालक लेना स्वीकार न किया। किसी प्रकार बालक का निर्वाह कुछ दिन हुआ। अंत में बाबा नरहरिदास ने उसे अपने पास रख लिया और शिक्षा-दीक्षा दी। इन्हीं गुरु से गोस्वामीजी रामकथा सुना करते थे। इन्हीं अपने गुरु बाबा नरहरिदास के साथ गोस्वामीजी काशी में आकर पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंदजी के स्थान पर रहने लगे। वहाँ पर एक परंम विद्वान् महात्मा शेषसनातनजी रहते थे जिन्होंने तुलसीदासजी को वेद, वेदांत, दर्शन, इतिहास-पुराण आदि में प्रवीण कर दिया। १५ वर्ष तक अध्ययन करके गोस्वामीजी, फिर अपनी जन्मभूमि राजापुर को लौटे; पर वहाँ इनके परिवार में कोई नहीं रह गया था और घर भी गिर गया था। [ १२६ ]निवास करते हैं। जातिभेद, क्रिया-कलाप आदि की अपेक्षा न करने वाले भगवान् की शरण में सबको जाना चाहिए––

प्राप्तु परा सिद्धिमकिंचनो जनो-द्विजादिच्छंछरणं हरिं ब्रजेत्।
परम दयालु स्वगुणानपेक्षितक्रियाकलापादिकजातिभेदम्॥

  1. देखो पृ० १५––१६
  2. देखो पृष्ठ १६––१७।