हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ५ कृष्णभक्ति शाखा (नंददास)

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[ १७४ ](२) नंददास––ये सूरदासजी के प्रायः समकालीन थे और इनकी गणना अष्टछाप में है। इनका कविता-काल सूरदासजी की मृत्यु के पीछे संवत् १६२५ या उसके और आगे तक माना जा सकता है। इनका जीवन-वृत्त पूरा पूरा और ठीक ठीक नहीं मिलता। नाभाजी के भक्तमाल में इनपर जो छप्पय है उसमे जीवन के संबंध में इतना ही है।

चंद्रहास-अग्रज सुहृद परम-प्रेम-पथ में पगे।

इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। इनके गोलोकवास के बहुत दिनों पीछे गोस्वामी विठ्ठलनाथजी के पुत्र गोकुलनाथजी के नाम से जो "दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता" लिखी गई उसमें इनका थोड़ा-सा वृत्त दिया गया है। उक्त वार्ता में नंददासजी तुलसीदासजी के भाई कहे गए हैं। गोकुलनाथजी का अभिप्राय प्रसिद्ध गोस्वामी तुलसीदासजी से ही है, यह पूरी वार्ता पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है‌। उसमें स्पष्ट लिखा है कि नंददासजी का कृष्णोपासक होना राम के अनन्य भक्त उनके भाई तुलसीदासजी को अच्छा नही लगा और उन्होंने उलाहना लिखकर भेजा। यह वाक्य भी उसमें आया है–– "सो एक दिन नंददासजी के मन में ऐसा आई। जैसे तुलसीदासजी ने रामायण भाषा करी है सो हम हूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें।" गोस्वामीजी का नंददास के साथ वृंदावन जाना और वहाँ "तुलसी मस्तक तब नवै धनुषवान लेव हाथ" वाली घटना भी उक्त वार्ता में ही लिखी है। पर गोस्वामीजी का नंददासजी से कोई संबंध न था, यह बात पूर्णतया सिद्ध हो चुकी है। अतः उक्त वार्ता की बातों को, जो वास्तव में भक्तों का गौरव प्रचलित करने और वल्लभाचार्यजी की गद्दी की महिमा प्रकट करने के लिये पीछे से लिखी गई है, प्रमाण-कोटि में नहीं ले सकते है।

उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददासजी सिंधुनंद ग्राम में एक-रूपवती खत्रानी पर असक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिये गोकुल चले गए। वहाँ भी ये जा पहुँचे। अंत में वही पर गोसाईं विठ्ठलनाथजी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में [ १७५ ]ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होने गोसाईं विट्ठलनाथजी से दीक्षा ली। ध्रुवदासजी ने भी अपनी 'भक्त-नामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।

अष्टछाप में सूरदासजी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है, कि "और कवि गढ़िया, नंददास जडिया"। इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रास-पंचाध्यायी' है जो रोला छंदों में लिखी गई है। इसमे, जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादि-युक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नंददासजी में ये बातें पूर्ण रूप में पाई जाती हैं। "रास-पंचाध्यायी" के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तके लिखी है––

भागवत दशमस्कंध, रुक्मिणी मंगल, सिद्धांत-पंचाध्यायी, रूपमंजरी, रस-मंजरी, मानमंजरी, विरह-मंजरी, नामचिंतामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश) ज्ञानमंजरी, दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित। दो ग्रंथ इनके लिखे और कहे जाते हैं––हितोपदेश और नासिकेतपुराण (गद्य में)। दो सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं। जहाँ तक ज्ञात है, इनकी चार पुस्तके ही अब तक प्रकाशित हुई हैं––रासपंचाध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी, और अनेकार्थनासमाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध है, अतः उनसे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते है––

(रास-पंचाध्यायी से)

ताहौ छिन उडुराज उदित रस-रास-सहायक। कुंकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि-नायक॥
कोमल किरन अरुन मानों बन व्यापि रही यों। मनसिज खेल्यो फाग घुमडि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों॥
फटिक-छटा सी किरन कुंज-रंध्रन जब आई। मानहुँ वितत बिनान सुदेस तनाव तनाई॥
तब लीनो कर कमल योगमाया सी मुरली। अघटित-घटना-चतुर बहुरि अधरन सुर जुरली॥

[ १७६ ]

वर उर उरज करज विच अंकित, बाहु जुगल वलयावलि फूटी।
कंचुकि चीर विविध रंग रंजित, गिरधर-अधर-माधुरी घूँटी॥
आलस-बलित नैन अनियारे, अरुन उनींदे रजनी खूटी।
परमानंद प्रभु सुरति समय रस मदन नृपति की सैना लूटी॥

(५) कुंभनदास––ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंददासजी के ही समकालीन थे। ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतहपुर सिकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा संमान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है––

संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पुनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि-नाम॥
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम॥

इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है। फुटकल पद अवश्य मिलते हैं। विषय वही कृष्ण की बाललीला और प्रेमलीला है––

तुम नीके दुहि जानत गैया।
चलिए कुँवर रसिक मनमोहन लगौं तिहारे पैयाँ॥
तुमहिं जानि करि कनक-दोहनी घर तें पठई मैया।
निकटहि है यह खरिक हमारो, नागर लेहुँ बलैया॥
देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँट्यों सुँदरैया।
कुंभनदास प्रभु मानि लई रति गिरि-गोबरधन-रैया॥

(६) चतुर्भुजदास––ये कुंभनदासजी के पुत्र और गोसाईं विठ्ठलनाथजी के शिष्य थे। ये भी अष्टछाप के कवियों में है। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं––द्वादशयश, भक्ति-प्रताप तथा हितजू को मंगल।

इनके अतिरिक्त फुटकल पदों के संग्रह भी इधर-उधर पाए जाते है। एक पद नीचे दिया जाता है–– [ १७७ ]

जसोदा! कहा कहौं हौं बात?
तुम्हरे सुत के करतब मो पै कहत कहे नहिं जात॥
भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौ आंखि दिखावै, रचहू नाहिं सकात॥
और अटपटी कहँ लौं बरनौ, छुवत पानि सों गात।
दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात॥

(७) छीतस्वामी––विट्ठलनाथजी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे। पहले ये मथुरा के एक सुसंपन्न पंडा थे और राजा बीरबल ऐसे लोग इनके यजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथजी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे। इनकी रचनाओं का समय संवत् १६१२ के इधर मान सकते हैं। इनके फुटकुल पद ही लोगों के मुँह से सुने जाते है या इधर उधर संगृहीत मिलते हैं। इनके पदों में शृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेम-व्यंजना भी अच्छी पाई जाती है। 'हे विधना तो सों अँचरा पसारि माँगौं जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो' पद इन्हीं का है। अष्टछाप के और कवियों की सी मधुरता और सरसता इनके पदों में भी पाई जाती है; देखिए––

भोर भए नवकुंज-सदन तें, आवत लाल गोबर्द्धनधारी।
लट पर पाग मरगजी माला, सिथिल अंग डगमग गति न्यारी॥
बिनु-गुन माल बिराजति उर पर, नखछत द्वैजचंद अनुहारी।
छीतस्वामि जब चितए सो तन, तब हौं निरखि गई बलिहारी॥

(८) गोविंदस्वामी––ये अंतरी के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे। पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया। ये गोवर्द्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक "गोविंदस्वामी की कदंब-खंडी" कहलाता है। इनका रचना-काल संवत् १६०० और १६२५ के भीतर ही माना जा सकता है। ये कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैए भी थे। तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिये आया करते थे। इनका बनाया एक पद दिया जाता है–– [ १७८ ]

( भ्रमरगीत से )
कहन स्याम-संदेस एक मैं तुम पै आयो । कहन समय संकेत कहूँ अवसर नहिं पायो ॥
सोचत ही मन में रह्यो, कब पाऊँ इक ठाउँ । कहि सँदेस नँदलाल को, बहुरी मधुपुरी जाउँ ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नैति बखानै । गिरगुन सगुने आतमा-रुचि ऊपर सुख सानै ॥
वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक । गुन ही के गुन होहि तुम, कहौ अकासहि टेक ॥

सुनौ ब्रजनागरी ।


जौ उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते । बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहौ कहाँ ते ॥
वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच । गुन तें गुन न्यारे भए, अमल वारि जल कीच ॥

सखा सुनु स्याम के ।

( ३ ) कृष्णदास---ये भी वल्लभाचार्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । यद्यपि ये शूद्र थे पर आचार्यजी के बड़े कृपापात्र थे और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। "चौरासी वैष्णवो की वार्ता" में इनका कुछ वृत्त दिया हुआ है। एक बार गोसाईं विट्ठलनाथ जी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी ड्योढी बंद कर दी। इस पर गोसाई विठ्ठलनाथजी के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया। पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और इनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। इन्होंने भी और सब कृष्णभक्तों के समान राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार-रस के ही पद गाए है । जुगलमान-चरित्र नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है । इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं--भ्रमरगीत और प्रेमतत्त्व-निरूपण । फुटकल पदों के संग्रह इधर उधर मिलते हैं। सूरदास और नंददास के सामने इनकी कविता साधारण कोटि की हैं । इनके कुछ पद नीचे दिए जाते हैं---

तरनि-तनया-तट आवत है प्रात समय,

कंदुक खेलत देख्यो आनंद को कँदवा ॥

नूपुर पद कुनित, पीतांबर कुटि बाँधे,

लाल उपरना, सिर मोरन के चँदवा ॥

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[ १७९ ]

कंचन मनि मरकत रस ओपी ।
नंदसुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी ॥
मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरत-धुजा सुख रोपी ।
बदन कांति कै सुनु री भामिनी ! सबन चंद-श्री लोपी ॥
प्राननाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी ।
कृष्णदास स्वामी बस कीन्हे, प्रेमपुंज की चोपी ॥

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मो मन गिरिधर-छवि पै अटक्यो ।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गडि ठटक्यो ॥
सजल स्याम-घन-बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यो ।
कृष्णदास किए प्रान निछावर, यह तन जग-सिर पटक्यो ॥

कहते हैं कि इसी अंतिम पद को गाकर कृष्णदासजी ने शरीर छोड़ा था । इनका कविता-काल संवत् १६०० के आगे पीछे माना जा सकता है ।

( ४ ) परमानंददास---ये भी वल्लभाचार्य्यजी के शिष्य और अष्टछाप में थे । ये संवत् १६०६ के आसपास वर्त्तमान थे । इनका निवासस्थान कन्नौज था । इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते है । ये अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ी ही सरस कविता करते थे । कहते हैं, कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य्यजी कई दिनों तक तन बदन की सुध भूले रहे हैं इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुंह से प्रायः सुनने में आते हैं। इनके ८३५ पद ‘परमानंद-सागर' में हैं । दो पद देखिए---

कहा करौं बैकुंठहि जाय ?

जहँ नहि नंद, जहां न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय ।
जई नहिं जल जमुना को निर्मल और नहीं कदमन की छायँ ।
परमानंद प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय ॥

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राधे जू हारावलि टूटी ।

उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल अलक लट छूटी ॥

[ १८० ]

प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सुत को उबटि न्हवावत
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति ।।
छुटे बंद बागे अति सोभित, बिच बिच चोव अरगजा लावति ।
सूथन लाल फूंदना सोभित, आजु कि छबि कहु कहति न आवति ।।
विविध कुसुम की माला उर धरि श्री कर मुरली बेंत गहावति ।
लै दरपन देखे श्रीमुख को, गोविंद प्रभु चरननि सिर नावति ।।

( ९ ) हितहरिवंश---राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोसाई हितहरिवंश का जन्म संवत् १५५६ मे मथुरा से ४ मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था । राधावल्लभी संप्रदाय के पंडित गोपालप्रसाद शर्मा ने जन्म संवत् १५३० माना है, जो सब घटनाओं पर विचार करने से ठीक नहीं जान पड़ता । ओरछा-नरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु श्रीहरिराम व्यासजी संवत् १६२२ के लगभग आपके शिष्य हुए थे । हितहरिवंशजी गौड़ ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था।

कहते हैं हितहरिवंशजी पहले माध्वानुयायी गोपालभट्ट के शिष्य थे । पीछे इन्हें स्वप्न में राधिकाजी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया । अतः हित संप्रदाय को माध्व संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते है । हितहरिवंशजी के चार पुत्र और एक कन्या हुई । पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्ण-चद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे । गोसाईजी ने संवत् १५८२ में श्री राधाबल्लभजी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे । ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् और भाषा-काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे । १७० श्लोकों का "राधासुधानिधि" आप ही का रचा कहा जाता है । ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, पर है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी । आपके पदों का संग्रह "हित चौरासी" के नाम से प्रसिद्ध है क्योकि उसमे ८४ पद हैं । प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (५०० पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है ।

इनके द्वारा ब्रजभाषा की काव्यश्री के प्रसार में बड़ी सहायता पहुँची है । इनके कई शिष्य अच्छे-अच्छे कवि हुए है। हरिराम व्यास ने इनके गोलोकवास पर बड़े चुभते पद कहे है । सेवकजी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर [ १८१ ]
रचना कर गए हैं। अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंशजी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं । इनका रचना-काल संवत् १६०० से संवत् १६४० तक माना जा सकता है । 'हित चौरासी' के अतिरिक्त इनकी फुटकल बानी भी मिलती है जिसमें सिद्धांत-संबंधी पद्य है। इनके 'हित चौरासी' पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है । वृंदावनदास ने इनकी स्तुति और वंदना में 'हितजी की सहस्रनामावली' और चतुर्भुजदास ने 'हितजू को मंगल' लिखा है । इसी प्रकार हित परमानंदजी और ब्रजजीवनदास ने इनकी जन्म बधाइयाँ लिखी है । हितहरिवंश जी की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है जिनसे इनकी वर्णन-प्रचुरता का परिचय मिलेगा---

( सिद्धांत-संबंधी कुछ फुटकल पदों से )
रहो कोउ काहू मनहिं दिए ।
मेरे प्राननाथ श्री स्यामा सपथ करौं तिन छिए ॥
जो अवतार-कदंब भजत हैं धरि दृढ़ ब्रत जु हिए ।
तेऊ उमगि तजत मर्यादा बन बिहार रस पिए ॥
खोए रतन फिरत जो घर घर कौन काज इमि जिए ?
हितहरिबंस अनत सच नाहीं बिन या रसहि पिए ॥
              ( हित-चौरासी से )
ब्रज नव तरुनि कदंब मुकुटमनि स्यामा आजु बनी ।
नख सिख लौं अँग अँग - माधुरी मोहे श्याम धनी ॥
यों राजति कबरी गूथित कच कनक कज-बदनी ।
चिकुर चंद्रिकन बीच अधर बिधु मानौ - ग्रसित फनी ॥
सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी ।
भ्रुकुटि काम-कोदंड, नैन शर, कज्ज्ल-रेख अनी ॥
भाल तिलक, ताटक गंड पर, नासा जलज मनी ।
दसन, कुंद, सरसाधर पल्लव, पीतम-मन-समनी ॥
हितहरिबंस प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी ।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विश्व-दुरित-दवनी ॥
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[ १८२ ]

विपिन धन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि

स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी ।

हृदय अति फूल, रसमूल पिय नागरी

कर निकर मस्त मनु विविध गुत रागिनी ॥

सरस गति हास परिहास आवेस बस

दलित दल मदन बल कोक रस जामिनी ।

हितहरिबंस सुनि लाल लावन्य भिदे

प्रिया अति सूर सुख-सुरत संग्रामिनी ॥

( १० ) गदाधर भट्ट---ये दक्षिणी ब्राह्मण थे । इनके जन्म-संवत् आदि का ठीक-ठीक पता नहीं । पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इनका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है---

भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद ।
गुणनिकर गदाधर भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद ॥

श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत् १५४२ में और गोलोकवास १५८४ में माना जाता है । अतः संवत् १५८४ के भीतर ही आपने श्री महाप्रभु से दीक्षा ली होगी । महाप्रभु के जिन छः विद्वान् शिष्यों ने गौडीय संप्रदाय के मूल संस्कृत ग्रंथों की रचना की थी उनमे जीव गोस्वामी भी थे । वे वृंदावन में रहते थे । एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधर भट्टजी का यह पद सुनाया---

सखी हौं स्याम रंग रँगी ।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरत माहिं पगी ॥
संग हुतो अपनो सपनो सो सोइ रहो रस खोई ।
जागेहु आगे दृष्टि परै, सखि, नेकु न न्यारो होई ॥
एक जु मेरी अँखियनि में निसि द्यौस रह्यो करि भौन ।
गाय चरावन जात सुन्यो, सखि, सो धौं कन्हैया कौन ?
कासों कहौं कौन पतियावै कौन करे बकवाद ?
कैसे कै कहि जात गदाधर, गूँगे तें गुर-स्वाद ?

[ १८३ ]इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजा।

अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममनाश्रित्य वृंदाटवीं तत्पदाङ्कम्।
असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचितान् कुतःश्यामसिन्धोःरसस्यावगाहः॥

यह श्लोक पढ़कर भट्टजी मूर्च्छित हो गए। फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। इस वृत्तांत को यदि ठीक माने तो इनकी रचनाओं का आरंभ १५८० से मानना पड़ता है और अंत संवत् १६०० के पीछे। इस हिसाब से इनकी रचना का प्रादुर्भाव सूरदासजी के रचनाकाल के साथ साथ अथवा उससे भी कुछ पहले से मानना होगा।

संस्कृत के चूडांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पद-विन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृत-गर्भित भाषा-कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं––

जयति श्रीराधिके, सकल-सुख-साधके,
तरुनि-मनि नित्य नवतन किसोरी।
कृष्णतन-लीन-मन, रूप की चातकी,
कृष्ण-मुख हिम-किरन की चकोरी॥
कृष्ण-दृग-भृंग विश्राम हित पद्मनी,
कृष्ण-दृग-मृगज-बंधन सुडोरी।
कृष्ण-अनुराग-मकरंद की मधुकरी,
कृष्ण-गुण-गान-रससिंधु बोरी॥
विमुख पर चित्त तें चित्त जाको सदा,
करति निज नाह की चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे बनै,
अमित महिमा, इतै बुद्धि थोरी॥


झूलति नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखीं झुलावति, गावति गीत रसाल॥

[ १८४ ]

फरहरात पट पीत नील के, अंचल चंचल चाल।
मनहूँ परस्पर उमगि ध्यान छवि प्रकट भई तिहि काल॥
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी भाल।
जन प्रिय-मुकुट-बरहि-भ्रम तहँ व्याल विकल विहाल॥
मल्लीमाल प्रिया के उर की, पिय तुलसीदल माल।
जनु सुरसरि रवितनया मिलिकै सोभित श्रेनि-मराल॥
स्यामल गौर परस्पर प्रति छवि, सोभा बिसद विशाल।
निरखि गदाधर रसिककुँवरि-मन पर्यों सुरस-जंजाल॥