हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ५ कृष्णभक्ति शाखा (मीराबाई)

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[ १८४ ] (११) मीराबाई––ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं। इनका जन्म संवत् १५७३ में चोकडी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा-कुमार भोजराजजी के साथ हुआ था। ये आरंभ ही से कृष्णभक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति-का परलोकवास हो गया। ये प्रायः मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की मूर्त्ति के सामने आनंद-मग्न होकर नाचती और गाती थीं। कहते हैं कि इनके इस राजकुल-विरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवत्कृपा से विष का कोई प्रभाव इनपर न हुआ। घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहाँ जातीं वहाँ इनका देवियों का सा समान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिखकर भेजा था––

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषन दूषन-हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहुं, अब हरहु सोक-समुदाई॥
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु-संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई॥
मेरे मात-पिता के सम हौ, हरिभक्तह्न सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सौ लिखिए समझाई॥

[ १८५ ]इसपर गोस्वामीजी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा था––

जाके प्रिय न राम वैदेही।
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही॥
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ-लौं।
अंजन कहा आँखि जौ फूटै, बहुतक कहाँ कहाँ लौं।

पर मीराबाई की मृत्यु द्वारका में संवत् १६०३ में हो चुकी थी। अतः यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर चल पड़ी।

मीराबाई की उपासना 'माधुर्य' भाव की थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है[१]। इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे अतः उनका संस्कार भी इन पर अवश्य कुछ पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते तब ये कहतीं कि 'कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष है कौन जिसके सामने मैं लज्जा करूँ?' मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यासजी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है। इनके पद कुछ तो राजस्थानी मिश्रित भाषा में हैं और कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सब में प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पाई जाती है। इनके बनाए चार ग्रंथ कहे जाते हैं––नरसीजी का मायरा, गीत-गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद।

इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

बसो मेरे नैनन में नँदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल॥
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल॥
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल॥
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्तबछल गोपाल॥


[ १८६ ]

मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल-कोमल विविध-ज्वाला-हरन॥
जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र-पदवी-हरन।
जिन वरल ध्रुव अटल कीन्हों राखि अपनी सरन॥
जिन चरन ब्रह्मांड भेंट्यों नखसिखौ श्री भरन।
जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम-घरनि॥
जिन चरन धारयों गोवरधन गरब-मधवा-हरन।
दासि मीरा लाल गिरधर अगम तारन तरन॥

(१२) स्वामी हरिदास––ये महात्मा वृंदावन में निंबार्कमतांतर्गत टट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविंद माने जाते थे। कविता-काल १६०० से १६१७ ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरुवत् संमानकरते थे। यह प्रसिद्ध है, कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिये गया था। कहते है कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जान-बूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी गान को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होने स्वीकृत न की। इनका जन्म-संवत् आदि कुछ ज्ञात नहीं, पर इतना निश्चित है कि ये सनाढ्य ब्राह्मण थे जैसा कि सहचरिसरनदासजी ने, जो इनकी शिष्यपरंपरा में थे, लिखा है। वृंदावन से उठकर स्वामी हरिदास जी कुछ दिन निधुवन में रहे थे। इनके पद कठिन राग-रागिनियों में गाने योग्य है, पढ़ने में कुछ कुछ उबड़-खाबड लगते है। पद-विन्यास भी और कवियों के समान सर्वत्र मधुर और कोमल नहीं है, पर भाव उत्कृष्ट हैं। इनके पदों के तीन-चार संग्रह 'हरिदासजी के ग्रंथ', 'स्वामी हरिदासजी के पद', 'हरिदासजी की बानी' आदि नामों से मिलते है। एक पद देखिए––

ज्योंही ज्योंही तुम राखत हौं, त्योंही त्योंही रहियत हौं, हे हरि!
और अपरचै पाय धरौं सुतौं कहौं कौन के पैंड भरि॥

[ १८७ ]

जदपि हौं अपनो भायो किया चाहौं, कैसे कर सकौं जो तुम राखौ पकरि।
कहै इरिदास पिंजरा के जनावर लौं तरफाय रह्यो उडिंबे को कितोऊ करि॥

(१३) सूरदास मदनमोहन––ये अकबर के समय में सँडीले के अमीन थे। जाति के ब्राह्मण और गौड़ीय संप्रदाय के वैष्णव थे। ये जो कुछ पास में आता प्रायः सब साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे। कहते हैं कि एक बार सँडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रुपए सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सबका सब साधुओं को खिला पिला दिया और शाही खजाने में कंकड़ पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिखकर रख दिए––

तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके।
सूरदास मदनमोहन आधि रातहिं सटके॥

और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए। बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे। इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए। इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं। कुछ फुटकल पद लोग के पास मिलते हैं। इनका रचनाकाल संवत् १५९० और १६०० के बीच अनुमान किया जाता हैं इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं––

मधु के मतवारे स्याम! खोलौं प्यारे पलकैं।
सीस मुकुट लटा छुटी और छुटी अलकैं॥
सुर नर मुनि द्वार ठाढे, दरस हेतु कलकैं।
नासिका के मोती सोहै बीच लाल ललकैं॥
कटि पीताम्बर मुरली कर श्रवन कुंडल झलकैं।
सूरदास मदनमोहन दरस दैहौं भले कै॥


नवल किसोर नवल नागरिया।
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपने उर धरिया॥
करत विनोद तरनि-तनया तट, स्यामा स्याम उमगि रस भरिया।
यौं लपटाइ रहे उर अंतर मरकत मनि कंचन ज्यों जरिया॥

[ १८८ ]

उपमा को घन दामिनि नाहीं, कँदरप कोटि वारने करिया।
सूर मदनमोहन बलि जोरी नँदनंदन वृषभानु दुलरिया॥

(१४) श्री भट्ट––ये निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान् केशव काश्मीरी के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् १५९५ में अनुमान किया जाता हैं अतः इनका कविता-काल संवत् १६२५, या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्रायः छोटे-छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका १०० पदो का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक और छोटी सी पुस्तक 'आदि बानी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उसी पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान् की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे––

भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना॥

कहते हैं कि राधाकष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया––

स्यामा स्याम कुंजतर ठाढें, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमडिं घटा चहुँ दिसि से घिरि आईं जल-सेना॥

इनके 'युगल शतक' से दो पद उद्धृत किए जाते हैं––

ब्रजभूमि मोहनी मैं जानी।
मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना-पानी॥
मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमेरित बानी।
श्रीभट के प्रभु मोहन नागर, मोहनि राधा रानी॥


बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद।
गोर-बदनि वृषभानु-नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद॥
गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनँदकंद।
जय श्रीभट्ट प्रेमरस-बंधन, क्यों छूटै दृढ़ फंद॥

[ १८९ ](१५) व्यासजी––इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढ्य शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछानरेश मधुकरसाह के ये राजगुरु थे। पहले ये गौड़ संप्रदाय के वैष्णव थे, पीछे हितहरिवंशजी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् १६२० के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामी हितहरिवंशजी को शास्त्रार्थ के लिये

ललकारा। गोसाईंजी ने नम्र भाव से यह पद कहा––

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौने सचु पायो।
जहँ तहँ विपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो॥

यह पद सुन व्यासजी चेत गए और हितहरिवंशजी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया––

हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिवंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, वचन सुनावै चार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहि है कौन उदार?
पद-रचना अब कापै ह्वै है? निरस भयो संसार।
बडों अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार॥
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल-कुमुद-चंद्र बिनु उडुगन जूठी थार॥

जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यासजी, वृंदावन में ही रह गए तब महाराज मधुकरसाह इन्हें ओरछा ले जाने के लिये आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए ओर अधीर होकर इन्होने यह पद कहा––

वृंदावन के रूख हमारे मात पिता सुत बंध।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंध॥
इनहिं पीठ दै अनत डीठि करै सो अंधन में अंध।
व्यास इनहिं छोंडै़ औ छुड़ावै ताको परियो कंध॥

[ १९० ]इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषय-भेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है। ये श्रीकृष्ण की बाललीला और शृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच-बीच में संसार पर भी दृष्टि डाला करते थे। इन्होंने तुलसीदासजी के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया है और, रसगान के अतिरिक्त तत्त्व-निरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं। प्रेम को इन्होंने शरीर-व्यवहार से अलग 'अतन' अर्थात् शुद्ध मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों पर बहुत से पद और सखियाँ इनकी मिलती हैं। इन्होंने एक 'रास पंचाध्यायी' भी लिखी है जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है। इनकी रचना के थोड़े से उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं––

आज कछु कुंजन में बरषा सी।
बादल-दल में देखि सखी री! चमकति है चपला सी॥
नान्हीं-नान्हीं बूँदन कछु धुरवा से, पवन बहै सुखरासी।
मंद-मंद गरजनि सी सुनियतु, नाचति मोरसभा सी॥
इंद्रधनुष बगपंगति डोलति, बोलति कोककला सी॥
इंद्रवधू छबि छाइ रही मनु, गिरि पर अरुन-घटा सी।
उमगि महीरुह स्यों महि फूली, भूली मृगमाला सी।
रटति प्यास चातक ज्यों रसना, रस पीवत हू प्यासी॥



सुधर राधिका प्रवीन बीना, बर रासे रच्यो,
स्याम संग वर सुढंग तरनि-तनया तीरे।
आनँदकंद वृंदावन सरद मंद मंद पवन,
कुसुमपुंज तापदवन, धुनित कल कुटीरे॥
रुनित किंकनी सुचारु, नूपुर तिमि बलय हारु,
अँग बर मृदंग ताल तरल रंग भीरे।
गावत अति रग रह्यो, मोपै नहिं जाति कह्यो,
व्यास रसप्रवाह बह्यो निरखि नैन सीरे॥


[ १९१ ]

(साखी) व्यास न कथनी काम की, करनी है इक सार।
भक्ति बिना पंडित वृथा, ज्यों खर चंदन-भार॥
अपने अपने मत लगे, बादि मचावत सोर।
ज्यों त्यों सबको सेइबो एकै नदंकिसोर॥
प्रेम अतन या जगत में, जानै बिरला कोय।
व्यास सतन क्यों परसिहै पचि हार्यो जग रोय॥
सती, सूरमा संत जन, इन समान नहिं और।
अगम पंथ पै पग धरै, डिगे न पावैं ठौर॥

(१६) रसखान––ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने 'प्रेम-बाटिका' में अपने को शाही खानदान का कहा है––

देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा-बस की, ठसक छाँडिं रसखान॥

संभव है पठान बादशाहों की कुल परंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बडे़ भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथजी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। "दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता" में इनका वृत्तात आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए के लड़के पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान् से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए के लड़के पर हैं। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथजीको ढूँढ़ते ढूँढ़ते गोकुल आए और वहाँ गोसाई विझलनाथजी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक दूसरे रूप में भी प्रसिद्ध है। कहते है जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहे थे। उसमें गोपियो के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हे। ध्यान हुआ कि उसी से क्यों न मन लगाया जाय जिसपर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर थे वृंदावन चले आए। 'प्रेमवाटिका' के इस दोहे का संकेत लोग इस घटना की ओर बताते है––

तोरि मानिनी तें हियो फोरि भोहिनी मान। प्रेमदेव को छबिहि लखि भए मियाँ रसखान॥

[ १९२ ]वृंदावन-सत, सिंगार-सत, रस-रत्नावली, नेह-मंजरी, रहस्य-मंजरी, सुख-मंजरी, रति-मंजरी, वन-विहार, रंग-विहार, रस-विहार, आनंद-दसा-विनोद, रंग-विनोद, नृत्य-विलास, रंग-हुलास, मान-रस-लीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजन-कुंडलिया, भक्त-नामावली, मन-सिंगार, भजन-सत, प्रीती-चौवनी, रस-मुक्तावली, वामन वृहत्-पुराण की भाषा, सभा-मंडली, रसानंदलीला, सिद्धात-विचार, रस-हीरावली, हित-सिंगार-लीला, ब्रजलीला, आनंद-लता, अनुराग-लता, जीवदशा,

वैद्यलीला, दान-लीला, ब्याहलो।

नाभाजी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है। जिससे अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए है; जैसे––सभा-मंडली १६८१, वृंदावन-सत १६८६ और रसमंजरी १६९८। अतः इनका रचनाकाल संवत् १६६० से १७०० तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है––

('सिंगार-सत' से)


रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,
अंग अंग भौरन की अति गहराई है।
नैनन को प्रतिबिंब पन्यो हैं कपोलन में,
तेई भए मीन तहाँ, ऐसो उर आई है॥
अरुन कमल मुसुकान मानो फुबि रही,
थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है।
भयो है मुदित सखी लाल को मराल-मन,
जीवन-जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है॥

('नेहमंजरी' से)


प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई। उलटी चाल तहाँ सब भाई॥
प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई॥
तन मन प्रान तिही छिन हारै। भली बुरी कछुवै न विचारै॥
ऐसों प्रेम उपजिहै जनहीं। हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं॥

[ १९३ ]

('भजन-सत' से)
बहु बीती योरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि वृंदावन आय॥
वसि वृंदावन आय त्यागि, लाजहि अभिमानहि।
प्रेमलीन ह्वै दीन आपको तृन सम जानहि॥
सफल सार कौ सार, भजन तू करि रस-रीती।
रे मन सोच विचार, रही थोरी, बहु बीती॥

कृष्णोपासक भक्त कवियों की परंपरा अब यहीं समाप्त की जाती है। पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि ऐसे भक्त कवि आगे और नहीं हुए। कृष्णगढ़-नरेश महाराज नागरीदासजी, अलबेली अलिजी, चाचा हितवृंदावनदासजी, भगवत् रसिक आदि अनेक पहुँचे हुए भक्त बराबर होते गए हैं जिन्होंने बड़ी सुंदर रचनाएँ की है। पर पूर्वोक्त काल के भीतर ऐसे भक्त कवियों की जितनी प्रचुरता रही है उतनी आगे चलकर नहीं। वे कुछ अधिक अंतर देकर हुए है। ये कृष्ण-भक्त कवि हमारे साहित्य में प्रेम-माधुर्य को जो सुधा-स्रोत बहा गए है उसके प्रभाव से हमारे काव्य क्षेत्र में सरसता और प्रफुल्लता बराबर बनी रहेगी। 'दुःख-वाद', की छाया आकर भी टिकने न पाएगी। इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।



[ १९४ ]इन प्रवादों से कम से कम इतना अवश्य सूचित होता है कि आरंभ से ही ये बड़े प्रेमी जीव थे। वही प्रेम अत्यंत गूढ़ भगवद्भक्ति में परिणत हुआ। प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों से निकले कि जन-साधारण प्रेम या शृंगार संबंधी कवित्त-सवैयो को ही 'रसखान' कहने लगे––जैसे 'कोई रसखान सुनाओं'। इनकी भाषा बहुत चलती, सरस और शब्दाडंबर-मुक्त होती थी। शुद्ध ब्रज-भाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनका रचना-काल संवत् १६४० के उपरांत ही माना जा सकता है क्योकि गोसाईं विट्ठलनाथजी का गोलोकवास संवत् १६४३ में हुआ

था। प्रेसवाटिका का रचना-काल सं० १६७१ है। अतः उनके शिष्य होने के उपरांत ही इनकी मधुर वाणी स्फुरित हुई होगी। इनकी कृति परिमाण में तो बहुत अधिक नहीं है, पर जो है वह प्रेमियों के मर्म को स्पर्श करनेवाली है। इनकी दो छोटी छोटी पुस्तके अब तक प्रकाशित हुई हैं––प्रेम-वाटिका (दोहे) और सुजान-रसखान (कवित्त-सवैया)। और कृष्णभक्तों के समान इन्होंने 'गीताकाव्य' का आश्रय न लेकर कवित्त-सवैयों में अपने सच्चे प्रेम की व्यंजना की है ब्रजभूमि के सच्चे प्रेम से पूरिपूर्ण ये दो सवैये इनके अत्यंत प्रसिद्ध है––

मानुष हों तो वही रसखान बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हों तो कहाँ बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्र पुरंदर-धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन॥


या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाय चराय बिसारौं॥
नैनन सों रसखान जबै ब्रज के बन बाग तडांग निहारौं।
केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

अनुप्रास की सुंदर छटा होते हुए भी भाषा की चुस्ती और सफाई कहीं नहीं जाने पाई है। बीच-बीच में भावों की बड़ी ही सुंदर व्यंजना है। लीला-पक्ष को लेकर इन्होंने बड़ी रंजनकारिणी रचनाएँ की है। [ १९५ ]भगवान् प्रेम के वशीभूत है; जहाँ प्रेम है वहीं प्रिय है, इस बात को रसखान यों कहते हैं––

ब्रह्म मैं ढूँढ्यों पुरानन-गानन, वेदरिचा सुनी चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कहूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन॥
टेरत हेरत हरि परयों, रसखान बतायो न लोग लुगायन।
देख्यो दुरो वह कुंज-कुटीर में बैठो पलोटत राधिका-पायँन॥

कुछ और नमूने देखिए––

मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पीतांबर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी॥
भावतो सोई मेरो रसखान सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान-धरी अधर न धरौंगी॥
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरंतर गावैं।
जाहिं अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं॥

(प्रेम-वाटिका से)
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यो जात बिसेस।
सोइ प्रेम जेहिं जान कै रहि न जात कछु सेस॥
प्रेमफाँस सों फँसि मरै सोई जियै सदाहि।
प्रेम-मरम जाने बिना मरि कोउ जीवत नाहिं॥

(१७) ध्रुवदास––ये श्री हितहरिवंशजी के शिष्य स्वप्न में हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ हैं। ये अधिकतर वृंदावन ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्त्व का वर्णन किया है। छोटे मोटे सब मिलाकर इनके ४० ग्रंथ के लगभग मिले हैं जिनके नाम ये हैं––

  1. देखो पृ॰ १५९।