हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ६ फुटकल कवि (केशवदास)

विकिस्रोत से

[ २०७ ] ( १३ ) केशवदास-ये सनाढ्य ब्राह्मण कृष्णदत्त के पौत्र और काशी-नाथ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् १६१२ में और मृत्यु १६७४ के आसपास हुई। ओरछानरेश महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीतसिंह की सभा में ये रहते थे, जहाँ इनका बहुत मान था। इनके घराने में बराबर संस्कृत के अच्छे पंडित होते आए थे। इनके बड़े भाई बलभद्र मिश्र भाषा के अच्छे कवि थे। इस प्रकार की परिस्थिति में रहकर ये अपने समय के प्रधान साहित्य-शास्त्रज्ञ कवि माने गए। इनके आविर्भाव-काल से कुछ पहले ही रस, अलंकार आदि कव्यांगों के निरूपण की ओर कुछ कवियों को ध्यान जा चुका था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि हिंदी-काव्य-रचना प्रचुरमात्रा में हो चुकी थी। लक्ष्य ग्रंथों के उपरांत ही लक्षण-ग्रंथों का निर्माण होता है। केशवदासजी संस्कृत के पंडित थे अतः शास्त्रीय पद्धति से साहित्य-चर्चा का प्रचार भाषा में पूर्ण रूप से करने की इच्छा इनके लिये स्वाभाविक थी।

केशवदास के पहले सं॰ १५९८ में कृपाराम थोड़ा रस-निरूपण कर चुके थे। इसी समय मे चरखारी के मोहनलालमिश्र ने 'शृंगार-सागर' नामक एक [ २०८ ] ग्रंथ शृंगाररस-संबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथ अकबरी दरबार में जानेवाले करनेस कवि ने 'कर्णाभरण', 'श्रुतिभूषण' और 'भूप-भूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार-संबंधी लिखे थे पर अब तक किसी कवि ने संस्कृत साहित्य-शास्त्र में निरूपित काव्यांगों का पूरा परिचय नहीं कराया था। यह काम केशवदासजी ने किया।

ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त। भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त॥

अपनी इसी मनोवृत्ति के अनुसार इन्होंने भामह, उद्भट और दंडी आदि प्राचीन आचार्यों का अनुसरण किया जो रस रीति आदि सब कुछ अलंकार के ही अंतर्गत लेते थे; साहित्य-शास्त्र को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत रूप से लाने वाले मम्मट, आनंदवर्द्धनाचार्य और विश्वनाथ का नहीं। अलंकार के सामान्य और विशेष दो भेद करके इन्होंने उसके अंतर्गत वर्णन की प्रणाली ही नहीं, वर्णन के विषय भी ले लिए हैं। 'अलंकार' शब्द का प्रयोग इन्होनें व्यापक अर्थ में किया है। वास्तविक अलंकार इनके विशेष अलंकार ही हैं। अलकारों के लक्षण इन्होंने दंडी के 'काव्यादर्श' से तथा और बहुत सी बातें अमर-रचित 'काव्य-कल्पलता वृत्ति' और केशव मिश्र कृत 'अलंकार शेखर' से ली हैं। पर केशव के ५० या ६० वर्ष पीछे हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की जो परपरा चली वह केशव के मार्ग पर नहीं चली। काव्य के स्वरूप के संबंध में तो वह रस की प्रधानता माननेवाले काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण के पक्ष पर रही और अलंकारो के निरूपण में उसने अधिकतर चंद्रालोक और कुवलयानंद का अनुसरण किया। इसी से केशव के अलंकार-लक्षण हिंदी में प्रचलित अलंकार-लक्षणों से नहीं मिलते। केशव ने अलंकारों पर 'कवि-प्रिया' और रस पर 'रसिकप्रिया' लिखी।

इन ग्रंथों में केशव का अपना विवेचन कहीं नहीं दिखाई पड़ता। सारी सामग्री कई संस्कृत-ग्रंथों से ली हुई मिलती है। नामों में अवश्य कहीं कहीं [ २०९ ]थोड़ा हेरफेर मिलता है जिससे गड़बड़ी के सिवा और कुछ नहीं हुआ है। 'उपमा' के जो २२ भेद केशव ने रखे हैं उनमें से १५ तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं, ५ के केवल नाम भर बदल दिए गए हैं। शेष रहे दो भेद––संकीर्णोपमा और विपरीतोपमा। इनमें विपरीतोपमा को तो उपमा कहना ही व्यर्थ है। इसी प्रकार 'आक्षेप' के जो ९ भेद केशव ने रखे हैं उनमें ४ तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं। पाँचवाँ 'मरणाक्षेप' दंडी का' 'मूर्च्छाक्षेप' ही है। कविप्रिया का 'प्रेमालंकार' दंडी के (विश्वनाथ के नहीं) 'प्रेयस' का ही नामांतर है। 'उत्तर' अलंकार के चारों भेद वास्तव में पहेलियाँ हैं। कुछ भेदों को दंडी से लेकर भी केशव ने उनका और का और ही अर्थ समझा है।

केशव के रचे सात ग्रंथ मिलते हैं––कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, विज्ञानगीता, रतनबावनी और जहाँगीर-जस-चद्रिंका।

केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचना-कौशल की धाक जमाना चाहते थे। पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए वैसा उन्हें प्राप्त न था। अपनी रचनाओं में उन्होंने अनेक संस्कृत काव्यों की उक्तियाँ लेकर भरी हैं। पर उन उक्तियों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में उनकी भाषा बहुत कम समर्थ हुई है। पदों और वाक्यों की न्यूनता, अशक्त फालतू शब्दों के प्रयोग और संबंध के अभाव आदि के कारण भाषा भी अप्रांजल और ऊबड-खाबड़ हो गई है और तात्पर्य भी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हो सका है। केशव की कविता जो कठिन कही जाती है, उसका प्रधान कारण उनकी यही त्रुटि है––उनकी मौलिक भावनाओं की गंभीरता या जटिलता नहीं। 'रामचंद्रिका' में 'प्रसन्नराधव', 'हनुमन्नाटक', 'अनर्घराघव', 'कादंबरी' और 'नैषध' की बहुत सी उक्तियों का अनुवाद करके रख दिया गया है। कहीं कहीं अनुवाद अच्छा न होने के कारण उक्ति विकृत हो गई है, जैसे––प्रसन्नराघव के "प्रियतमपदैरङ्कितात्भूमिभागान्" का अनुवाद "प्यौ-पद-पंकज ऊपर" करके केशव ने उक्ति को एकदम बिगाड़ डाला है। हाँ, जिन उक्तियों में जटिलता नहीं हैं––समास[ २१० ] शैली का आश्रय नहीं लिया गया है-उनके अनुवाद में कहीं कहीं बहुत अच्छी सफलता प्राप्त हुई है, जैसे भरत के प्रश्न और कैकेयी के उत्तर में-

'मातु, कहाँ नृप तात? गए सुरलोकहि; क्यों? सुत-शोक लए। जो कि हनुमन्नाटक के एक श्लोक का अनुवाद है।

केशव ने दो प्रबंध-काव्य लिखे-एक 'बीरसिंहदेव चरित' दूसरा रामचंद्रिका'। पहला तो काव्य ही नहीं कहा जा सकता है। इसमें वीरसिंहदेव का चरित तो थोड़ा है, दान, लोभ आदि के संवाद भरे हैं। 'रामचंद्रिका' अवश्य एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। पर यह समझ रखना चाहिए कि केशव केवल उक्ति-वैचित्र्य और शब्द-क्रीड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी। अतः वे मुक्तक-रचना के ही उपयुक्त थे, प्रंबध-रचना के नहीं। प्रबंध पटुता उनमें कुछ भी न थी। प्रबंध-काव्य के लिये तीन बातें अनिवार्य्य हैं-१ सबंध-निर्वाह, २ कथा के गंभीर और मार्मिक स्थलों की पहचान और ३ दृश्यों की स्थानगत विशेषता।

संबंध निर्वाह की क्षमता केशव में न थी। उनकी 'रामचंद्रिका' अलग अलग लिखे हुए वर्णनों का संग्रह सी जान पड़ती है। कथा का चलता प्रवाह न रख सकने के कारण ही उन्हें बोलने वाले पात्रों के नाम नाटकों के अनुकरण पर पद्यों से अलग सूचित करने पड़े हैं। दूसरी बात भी केशव में कम पाई जाती है। रामायण के कथा का केशव के हृदय पर कोई विशेष प्रभाव रहा हो, यह बात नहीं पाई जाती। उन्हें एक बड़ा प्रबंध-काव्य भी लिखने की इच्छा हुई और उन्होंने उसके लिये राम की कथा ले ली। उस कथा के भीतर जो मार्मिक स्थल हैं उनकी ओर केशव का ध्यान बहुत कम गया है। वे ऐसे स्थलों को या तो छोड़ गए हैं या यों-ही इतिवृत्त मात्र कहकर चलता कर दिया है। राम आदि को वन की ओर जाते देख मार्ग में पड़ने वाले लोगों से कुछ कहलाया भी तो यह कि "किधौ मुनिशाप-हत, किधौ ब्रह्मदोष-रत, किंधौ कोऊ ठग हौ।" ऐसा अलौकिक सौंदर्य्य और सौम्य आकृति सामने पाकर सहानुभूतिपूर्ण शुद्ध सात्विक भावों का उदय होता है, इसका अनुभव शायद एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने वाले नीतिकुशल दरबारियों के बीच रहकर केशव के लिये कठिन था। [ २११ ]दृश्यों को स्थानगत विशेषता (Local colour) केशव की रचनाओं में ढूँढ़ना तो व्यर्थ ही है। पहली बात तो यह है कि केशव के लिये प्राकृतिक दृश्यों में कोई आकर्षण नहीं था। वे उनकी देशगत विशेषताओं का निरीक्षण करने क्यो जाते? दूसरी बात यह है कि 'केशव' के बहुत पहले से ही इसकी परंपरा एक प्रकार से उठ चुकी थी। कालिदास के दृश्य-वर्णनों में देशगत विशेषता का जो रंग पाया जाता है, वह भवभूति तक तो कुछ रहा, उसके पीछे नहीं। फिर तो वर्णन रूढ़ हो गए। चारों ओर फैली हुई प्रकृति के नाना रूपों के साथ केशव के हृदय का सामंजस्य कुछ भी न था। अपनी इस मनोवृत्ति का आभास उन्होने यह कहकर कि-

"देखे मुख भावै, अनदेखेई कमल चंद,
ताते मुख मुखै, सखी, कमलौ न चंद री॥
"

साफ दे दिया है। ऐसे व्यक्ति से प्राकृतिक दृश्यों के सच्चे वर्णन की भला क्या आशा की जा सकती है? पंचवटी और प्रवर्षण गिरि ऐसे रमणीय स्थलों में शब्द-साम्य के आधार पर श्लेष के एक भद्दे खेलवाड़ के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। केवल शब्द-साम्य के सहारे जो उपमान लाए गए हैं वे किसी रमणीय दृश्य से उत्पन्न सौंदर्य की अनुभूति के सर्वथा विरुद्ध या बेमेल हैं-जैसे प्रलयकाल, पांडव, सुग्रीव, शेषनाग। सादृश्य या साधर्म्य की दृष्टि से दृश्य वर्णन में जो उपमाएँ उत्प्रेक्षाएँ आदि लाई गई हैं वे भी सौंदर्य की भावना में वृद्धि करने के स्थान पर कुतूहल मात्र उत्पन्न करती हैं। जैसे श्वेत कमल के छत्ते पर बैठे हुए भौंरे पर यह उक्ति-

केशव केशवराय मनौ कमलासन के सिर ऊपर सोहै।

पर कहीं-कहीं रमणीय और उपयुक्त उपमान भी मिलते हैं; जैसे, जनकपुर के सूर्योदयवर्णन में; जिसमें "कापालिक-काल" को छोड़कर और सब उपमान रमणीय हैं।

सारांश यह कि प्रबंधकाव्य-रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति। परंपरा से चले आते हुए कुछ नियत विषयों के (जैसे, युद्ध, सेना की तैयारी, उपवन, राजदरबार के ठाटबाट तथा शृंगार और वीर रस) फुटकल [ २१२ ]वर्णन ही अलंकारों की भरमार के साथ वे करना जानते थे इसीसे बहुत से वर्णन यों ही, बिना अवसर का विचार किए, वे भरते गए है। वे वर्णन-वर्णन के लिये करते थे, न कि प्रसंग था अवसर की अपेक्षा से। कहीं कहीं तो उन्होंने उचित अनुचित की भी परवा नहीं की है, जैसे––भरत की चित्रकूट-यात्रा के प्रसंग में सेना की तैयारी और तड़क-भड़क का वर्णन। अनेक प्रकार के रूखे सूखे उपदेश भी बीच-बीच में रखना वे नहीं भूलते थे। दान-महिमा, लोभ-निंदा के लिये तो वे प्राय: जगह निकाल लिया करते थे। उपदेशों का समावेश दो एक जगह तो पात्र का बिना विचार किए अत्यत अनुचित और भद्दे रूप में किया गया है, जैसे––वन जाते समय राम का अपनी माता कौशल्या को पातिव्रत का उपदेश।

रामचंद्रिका के लंबे चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी। उनका मन राजसी ठाटबाट, तैयारी, नगरों की सजावट, चहल-पहल आदि के वर्णन में ही विशेषतः लगता है।

केशव की रचना को सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करने वाली वस्तु है आलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति जिसके कारण न तो भावों की प्रकृत व्यंजना के लिये जगह बचती है, न सच्चे हृदयग्राही वस्तु-वर्णन के लिये। पददोष, वाक्यदोष, आदि तो बिना प्रयास जगह-जगह मिल सकते है। कहीं कहीं उपमान भी बहुत हीन और बेमेल है; जैसे, राम की वियोग-दशा के वर्णन में यह वाक्य––

"वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत।"

रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल, क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है (जैसे, लक्ष्मण, राम, परशुराम-संवाद तथा लवकुश के प्रसंग के संवाद) तथा वाक्कटुता और राजनीति के दाँव-पेच का आभास भी प्रभावपूर्ण है। उनका रावण-अंगद-संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है। 'रामचंद्रिका' और 'कविप्रिया' दोनों का रचनाकाल कवि ने १६५८ दिया है; केवल मास में अंतर है। [ २१३ ]रसिकप्रिया (सं० १६४८) की रचना प्रौढ़ है। उदाहरणो में चतुराई और कल्पना से काम लिया गया है और पद-विन्यास भी अच्छे हैं। इन उदाहरणों में वाग्वैदग्ध के साथ साथ सरसता भी बहुत कुछ पाई जाती है। 'विज्ञानगीता' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय नाटक' के ढंग की पुस्तक हैं। 'रतन बावनी' में इन्द्रजीत के बड़े भाई रत्नसिंह की वीरता को छप्पयों में अच्छा वर्णन है। यह वीररस का अच्छा काव्य है।

केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यागों को विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिये मार्ग खोला। कहते हैं, वे रसिक जीव थे। एक दिन बुड्ढे होने पर किसी कुएँ पर बैठे थे‌। वहाँ स्त्रियों ने 'बाबा' कहकर संबोधन किया। इस पर इनके मुँह से अह दोहा निकला––

केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिँ।
चंन्द्रबदनि मृगलोचनी 'बाबा' कहि-कहि जाहिँ॥

केशवदास की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

जो हौ कहौँ रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति,
चलन कहौँ तौ हितहानि नाहिँ सहनो।
'भावै सो करहु' तौ उदासभाव प्राननाथ!
'साथ लै चलहू' कैसे लोकलाज बहनो॥
केसवदास की सौ तुम सुनहु, छबीले लाल,
चलेही बनत जौ पै, नाहीं आज रहनो।
जैसियै सिखाओ सीख तुमहीं सुजान प्रिय,
तुमहिं चलत मोहिं जैसो कछु कहनो॥

xxxx

चंचल न हूजै नाथ, अचल न खैंचौ हाथ,
सोवै नेक सारिकाऊ, सुकतौ सोवायो जू।
मंद करौ दीप दुति चंद्रमुख देखियत,
दारिकै दुराय आऊँ द्वार तौ दिखायो जू॥
मृगज मराल बाल बाहिरै बिढारि देऊँ,

[ २१४ ]

भायो तुम्है केशव सो मोहूँ मन भायो जू॥
छल के निवास ऐसे वचन-विलास सुनि,
सौंगुनो सुरत हू तें स्याम सुख पायो जू॥


कैटभ सो, नरकासुर सो, पल में मधु सो, मुर सो निज मारयो।
लोक चतुर्दश रक्षक केशव, पूरन वेद पुरान विचारयो॥
श्री कमला-कुच-कुंकुम-मंडन-पंडित देव अदेव निहारयो।
सो कर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो॥


(रामचंद्रिका से)

अरुण गात अति प्रात पद्मिनी-प्राननाथ भय। मानहु केशवदास कोकनद कोक प्रेममय॥
परिपूरन सिंदूर पूर कैधौं मंगल घट। किधौं शक्र को छत्र मढ्यों मानिक-मयूख पट॥

कै सोनिव-कलित कपाल यह किल कापालिक काल को।
यह ललित लाज कैधौं लसत दिग-भामिनि के भाल को॥


विधि के समान हैं विमानीकृत राजहंस,
विविध विबुध-युत मेरु सो अचल है।
दीपति दिपति अति सातौ दीप देखियत,
दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।
सागर उजागर सो बहु बाहिनी को पति,
छनदान प्रिय कैधौं सूरज अमल है॥
सब बिधि समरथ राजै राजा दशरथ,
भगीरथ-पथ-गामी गंगा कैसो जल है॥


मूलन ही की जहाँ अधोगति केसव गाइय। होम-हुतासन-धूम नगर एकै मलिनाइय॥
दुर्गति दुर्गन ही, जो कुटिलगति सरितन ही में। श्रीफल कौ अभिलाष प्रगट कविकुल के जी में॥


[ २१५ ]

कुंतल ललित नील, झुकुटी धनुष, नैन
कुमुंद कटाच्छ बान सबल सढाई है।
सुग्रीव सहित तार अंगदादि भूषनन,
मध्यदेश केशरी सु जग गति भाई है॥
विग्रदानुकूल सब लच्छ लच्छ कच्छ बल,
ऋच्छराज-मुखी मुख केसौदास गाई है॥
रामचंद्र जू को चमू, राजश्री विभीषन की,
रावन की मीचु दर कूच चलि आई है॥


पढौं विरचि मोन वेद, जीव सोर छाढि रे। कुबेर बेर कै कही, न जच्छ भीर मढि रे॥
दिनेस जाइ दूर बैठु नारददि संगही। न बोलु चंद मंदबुद्धि, इंद्र की सभा नहीं॥


(१४) होलराय––ये ब्रह्मभट्ट अकबर के समय में हरिवंश राय के आश्रित थे और कभी-कभी शाही दरबार में भी जाया करते थे। इन्होंने अकबर से कुछ जमीन पाई थी जिसमें होलपुर गाँव बसाया था। कहते है कि गोस्वामी तुलसी दासजी ने इन्हें अपना लोटा दिया था पर इन्होने कहा था––

लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल।

गोस्वामीजी ने चट उत्तर दिया––

मोल तोल कछु है नहीं, लेहु राय कवि होल॥

रचना इनकी पुष्ट होती थी, पर जान पड़ता है कि ये केवल राजाओं और रईसो की विरुदावली वर्णन किया करते थे जिसमें जनता के लिये ऐसा कोई विशेष आकर्षक नहीं था कि इनकी रचना सुरक्षित रहती। अकबर बादशाह की प्रशंसा में इन्होंने यह कवित्त लिखा है––

दिल्ली तें न तख्त ह्वै है, बख्त ना मुगन कैसो,
ह्वै है ना नगर बढ़ि आगरा नगर तें‌।
गंग तें ने गुनी, तानसेन तें न तानबाज,
मान तें न राजा ओ न दाता बीरबर तें॥

[ २१६ ]

खान खानखानाँ तें न, नर नरहरि तें न,
ह्वैहै ना दीवान कोऊ वेडर टुडर तें।
नवौ खंड सात दीप, सात हू समुद्र पार,
हवैहै ना जलालुदीन साह अकबर तें॥