हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ कुमारमणिभट्ट

विकिस्रोत से

[ २९४ ] (३२) कुमारमणिभट्ट––इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८०३ के लगभग "रसिक रसाल" नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिवल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका एक सवैया देखिए––

गावैं वधू मधुरै सुर गीतन, प्रीतम सँग न बाहिर आई।
छाई कुमार नई छिति में छवि, मानो बिछाई नई दरियाई॥
ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिलि बोली यों बाल गरो भरि आई।
कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलहीं हरिआई॥

(३३) शंभुनाथ मिश्र––इस नाम के कई कवि हुए हैं जिनमें से एक संवत १८०६ में, दूसरे १८६७ में और तीसरे १९०१ में हुए हैं। यहाँ प्रथम का उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने 'रसकल्लोल', 'रसतरंगिणी' और 'अलंकारदीपक' नामक तीन रीतिग्रंथ बनाए हैं। ये असोथर (जि॰ फतेहपुर) के राजा भगवंतराव खीची के यहाँ रहते थे। 'अलंकारदीपक' में अधिकतर दोहे हैं, कवित्त सवैया कम। उदाहरण शृंगार-वर्णन में अधिक प्रयुक्त न होकर आश्रयदाता के यश और प्रताप-वर्णन में अधिक प्रयुक्त है। एक कवित्त दिया जाता है––

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही,
धौंसा की धुकार धूरि परी मुँह माही के।
भय के अजीरन तें जीरन उजीर भए,
सूल उठी उर में अमीर जाहीं ताही के॥
बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानी, इतै
धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के।

[ २९५ ]

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब,
स्याही लाई बदन तमाम पातसाही के॥

(३४) शिवसहायदास––ये जयपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सवत् १८०९ में 'शिवचौपाई' और 'लोकोक्तिरस कौमुदी' दो ग्रंथ बनाए। लोकोक्तिरसकौमुदी में विचित्रता यह है कि पखानों या कहावतों को लेकर नायिकाभेद कहा गया है, जैसे––

करौ रुखाई नाहिंन बाम। बेगिहिं लै आऊँ घनस्याम॥
कहे पखानो भरि अनुराग। बाजी ताँत, कि बूझयौ राग॥
बोलै निठुर पिया बिनु दोस। आपुहि तिय बैठी गहि रोस॥
कहै पखानो जेहि गहि मोन। बैल न कूद्यो, कूदी गौन॥

(३५) रूपसाहि––ये पन्ना के रहने वाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होने संवत् १८१३ में 'रूपविलास', नामक एक ग्रंथ लिखा जिसमे दोहे में ही कुछ पिंगल, कुछ अलंकार, कुछ नायिकाभेद आदि। दो दोहे नमूने के लिये दिए जाते हैं––

जगमगाति सारी जरी, झलमल भूषन-जोति।
भरी दुपहरी तिया की, भेंट पिया सों होति॥
लालन बेगि चलौ न क्यों? बिना तिहारे बाल।
मार मरोरनि सो मरति, करिए परसि निहाल॥


(३६) ऋषिनाथ––ये असनी के रहनेवाले बंदीजन, प्रसिद्ध कवि ठाकुर के पिता और सेवक के प्रपितामह थे। काशिराज के दीवान सदानंद और रघुवर कायस्थ के आश्रय में इन्होने 'अलंकारमाणि-मंजरी' नाम की एक अच्छी पुस्तक बनाई जिसमें दोहों की संख्या अधिक है यद्यपि बीच बीच में घनाक्षरी और छप्पय भी है। इसकी रचना-काल स॰ १८३१ है जिससे यह इनकी वृद्धावस्था का ग्रंथ जान पड़ता है। इनका कविता-काल सं॰ १७९० से १८३१ तक माना जा सकता है। कविता ये अच्ची करते थे। एक कवित्त दिया जाता है–– [ २९६ ]

छाया छत्र ह्वै करि करति महिपालन को,
पालन को पूरो फैलो रजत अपार ह्वै।
मुकुत उदार ह्वै लगत सुख श्रौनन में,
जगत जगत हंस, हास, हीरहार ह्वै॥
ऋषिनाय सदानंद-सुजस बिलंद,
तमवृंद के हरैया चंदचंद्रिका सृढार ह्वै।
हीतल को सीतल करत घनसार ह्वै,
महीतल को पावन करत गंगधार है॥

(३७) बैरीसाल––ये असनी के रहनेवाले ब्रह्मभट्ट थे। उनके वंशधर अब तक असनी में है। इन्होंने 'भाषाभरण' नामक एक अच्छा अलंकार-ग्रंथ स॰ १८२५ में बनाया जिसमें प्रायः दोहे ही हैं। दोहे बहुत सरस हैं और अलंकारों के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दो दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

नहिं कुरंग नहिं ससक यह, नहिं कलंक, नहिं पक।
बीस बिसे बिरहा दही, गडी दीठि ससि अंक॥
करत कोकनद मदहि रद, तुव पद हर सुकुमार।
भए अरुन अति दबि मनो पायजेब के भार॥

(३८) दत्त––ये माढ़ी (जिला कानपुर) के रहने वाले ब्राह्मण थे और चरखारी के महाराज खुमानसिंह के दरबार में रहते थे। इनका कविता-काल संवत् १८३० माना जा सकता है। इन्होंने 'लालित्यलता' नाम की एक अलंकार की पुस्तक लिखी है जिससे ये बहुत अच्छे कवि जान पड़ते है। एक सवैया दिया जाता है––

ग्रीषम में तपै भीषम भानु, गई बनकुंज सखीन की भूल सों।
घाम सों बाम-लता मुरझानी, बयारि करैं घनश्याम दुकूल सों॥
कंपत यों प्रकट्यो तन स्वेद उरोजन दत्त जू ठोढ़ी के मूल सों।
द्वै अरविंद-कलीन पै मानो गिरै मकरंद गुलाब के फूल सों॥

(३९) रतन कवि––इनका वृत्त कुछ ज्ञात नहीं। शिवसिंह ने इनका जन्मकाल सं॰ १७९८ लिखा है। इससे इनका कविता-काल सं॰ १८३० के [ २९७ ]आसपास माना जा सकता है। ये श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतहसाहि के यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम मर 'फतेहभूषण', नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ इन्होंने बनाया। इसमें लक्षणा, व्यंजना, काव्यभेद, ध्वनि, रस, दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। उदाहरण में शृंगार के ही पद्य न रखकर इन्होंने अपने राजा की प्रशंसा के कवित्त बहुत रखे है। संवत् १८२७ में इन्होंने 'अलंकारदर्पण' लिखा। इनका निरूपण भी विशद है और उदाहरण भी बहुत ही मनोहर और सरस हैं। ये एक उत्तम श्रेणी के कुशल कवि थे, इसमे संदेह नहीं। कुछ नमूने लीजिए––

बैरिन की बाहिनी को भीषन निदाघ-रवि,
कुबलय केलि को सरस सुधाकरु है।
दान-झरि सिंधुर है, जग को बसुंधर है,
बिबुध कुलनि को फलित कामतरु है॥
पानिप मनिन को, रतन रतनाकर को,
कुबेर पुन्य जनन को, छमा महीधरु है।
अंग को सनाह, बनराह को रमा को नाह,
महाबाह फतेहसाह एकै नरबरु है॥


काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन,
कारे सटकारे बार छहरे छवानि छूवै।
स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की,
ओपवारी न्यारी रही बदन उजारी ह्वै॥
मृगमद बेंदी भाल में दी, याही आभरन,
हरन हिए को तू है रंभा रति ही अवै।
नीके नथुनी के तैसे सुंदर सुहात मोती,
चंद पर च्वै रहै सु मानो सुधाबुंद द्वै॥

(४०) नाथ (हरिनाथ)––ये काशी के रहनेवाले गुजराती ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १८२६ में "अलंकार-दर्पण" नामक एक छोटा सा ग्रंथ [ २९८ ]बनाया जिसमें एक-एक पद के भीतर कई कई उदाहरण है। इनका क्रम औरों से विलक्षण है। ये पहले अनेक दोहों में बहुत से लक्षण कहते गए हैं फिर एक साथ सबके उदाहरण कवित्त आदि में देते गए हैं। कविता साधारणतः अच्छी है। एक दोहा देखिए––

तरुनि लसति प्रकार तें, मालनि लसति सुबास।
गोरस गोरस देत नहिं गोरस चहति हुलास॥

(४१) मनीरास मिश्र––ये कन्नौज निवासी इच्छाराम मिश्र के पुत्र थे। इन्होंने संवत् १८२९ से 'छंदछप्पनी' और 'आनंदमंगल' नाम की दो पुस्तके लिखीं। 'आनंदमंगल' भागवत दशम स्कंध का पद्य में अनुवाद हैं। 'छदंछप्पनी' छंदःशास्त्र का बड़ा ही अनूठा ग्रंथ है।

(४२) चंदन––ये नाहिल पुवायाँ (जिला शाहजहाँपुर) के रहने वाले बंदीजन थे और गौड़ राजा केसरीसिंह के पास रहा करते थे। इन्होंने 'शृंगारसागर', 'काव्याभरण', 'कल्लोलतरंगिणी' ये तीन रीतिग्रंथ लिखे। इनके निम्नलिखित ग्रंथ और है––

(१) केसरीप्रकाश, (२) चंदन-सतसई, (३) पथिकबोध, (४) नखशिख, (५) नाममाला (क प), (६) पत्रिका-बोध, (७) तत्वसंग्रह, (८) सीतवसंत (कहानी), (९) कृष्णकाव्य, (१०) प्राज्ञ-विलास।

ये एक अच्छे चलते कवि जान पड़ते हैं। इन्होंने 'काव्याभरण' संवत् १८४५ में लिखा। फुटकल रचना तो इनकी अच्छी है ही। सीतवसंत की कहानी भी इन्होंने प्रबंधकाव्य के रूप में लिखी है। सीतवसंत की रोचक कहानी इन प्रातों में बहुत प्रचलित है। उसमें विमाता के अत्याचार से पीडित सीतवसंत नामक दो राजकुमारों की बड़ी लम्बी कथा है। इनकी पुस्तकों की सूची देखने से यह धारण होती है कि इनकी दृष्टि रीतिग्रंथों तक ही बद्ध न रहकर साहित्य के और अंगों पर भी थी।

ये फारसी के भी अच्छे शायर थे और अपनी तखल्लुस 'संदल' रखते थे। इनका 'दीवाने सुंदल' कहीं कहीं मिलता है। इनका कविता-काल संवत् १८२० से १८५० तक माना जा सकता है। इनका एक सवैया नीचे दिया जाता है–– [ २९९ ]

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा, यह चातुरता न लुगायने में।
पुनि बारिनी जानि अनारिनी है, रुचि एती न चंदन नायन में॥
छबि रंग सुरंग के बिंदु बने, लगैं इंद्रवधू लघुतायन में।
चित जो चहै दी चकि सी रहैं दी, केहि दी मेंहदी इन पायन में॥

(४३) देवकीनंदन––ये कन्नौज के पास मकरंदनगर ग्राम के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम शषली शुक्ल था। इन्होंने सं॰ १८४१ में 'शृंगारचरित्र' और १८५७ मे 'अवधूत-भूषण' और 'सरफराज-चद्रिका' नामक रस और अलंकार के ग्रंथ बनाए। संवत् १८४३ में ये कुँवर सरफराज गिरि नामक किसी धनाढ्य महंत के यहाँ थे जहाँ इन्होंने 'सरफराज-चद्रिका' नामक अलंकार का ग्रंथ लिखा। इसके उपरांत ये रुद्दामऊ (जिला हरदोई) के रईस अवधूत सिंह के यहाँ गए जिनके नाम पर 'अवधूत-भूषण' बनाया। इनका एक नखशिख भी है। शिवसिंह को इनके इस नखशिख को ही पता था, दूसरे ग्रथों का नहीं।

'शृंगारचरित्र' में रस, भाव, नायिकाभेद आदि के अतिरिक्त अलंकार भी आ गए हैं। 'अवधूत-भूषण' वास्तव में इसी का कुछ प्रवर्द्धत रूप है। इनकी भाषा मँजी हुई और भाव प्रौढ़ हैं। बुद्धि-वैभव भी इनकी रचना में पाया जाता है। कहीं कहीं कूट भी इन्होंने कहे है। कला-वैचित्र्य की ओर अधिक झुकी हुई होने पर भी इनकी कविता में लालित्य और माधुर्य पूरा है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

बैठी रंग-रावटी में हेरत पिया की बाट,
आए न बिहारी भई निपट अधीर मैं।
देवकीनंदन कहै स्याम घटा घिरि आई,
जानि गति प्रलय की ढरानी बहू, वीर! मैं॥
सैज पै सदासिव की मूरति बनाय पूजी,
तीनि डर तीनहू की करी तदबीर मैं।
पाखन में सामरे, सुलाखन में अखैवट,
ताखन में लाखन की लिखी तसवीर मैं॥


[ ३०० ]

मोतिन की माल तोरि चीर, सब चीरि डारै,
फेरि कै न जैहौं आली, दुख विकरारे हैं।
देवकीनंदन कहै चोखे नागछौनन के,
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरबाने हैं॥
मानि मुख चंद-भाव चोंच दई अधरन,
तीनौ ये निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे, तैसे,
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं॥

(४४) महाराज रामसिंह––ये नरवलगढ़ के राजा थे। इन्होंने रस और अलंकार पर तीन ग्रंथ लिखे हैं––अलंकार-दर्पण, रसनिवास (सं॰ १८३९) और रसविनोद (सं॰ १८६०) अलंकार-दर्पण दोहों में है। नायिकाभेद भी अच्छा है। ये एक अच्छे और प्रवीण कवि थे। उदाहरण लीजिए––

सोहत सुंदर स्याम सिर, मुकुट मनोहर जोर।
मनों नीलमनि सैल पर, नाचत राजत मोर॥
दमकन लागी दामिनी, करन लगे घर रोर।
बोलति माती कोइलै, बोलत माते मोर॥

(४५) भान कवि––इनके पूरे नाम तक का पता नहीं। इन्होंने संवत् १८४५, में 'नरेंद्र-भूषन' नामक अलंकार का एक ग्रंथ बनाया जिससे केवल इतना ही पता लगता है कि ये राजा जोरावरसिंह के पुत्र थे और राजा रनजोरसिंह बुंदेले के यहाँ रहते थे। इन्होंने अलंकारों के उदाहरण शृंगाररस के प्रायः बराबर ही वीर, भयानक, अद्भुत आदि रसो के रखे है। इससे इनके ग्रंथ में कुछ नवीनता अवश्य दिखाई पड़ती है जो शृंगार के सैकड़ों वर्ष के पिष्टपेषण से ऊबे हुए पाठक को विराम सा देती है। इनकी कविता में भूषण की सी फड़क और प्रसिद्ध शृंगारियों की सी तन्मयता और मधुरता तो नहीं है, पर रचना प्राय: पुष्ट और परिमार्जित है। दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

रन-मतवारे ये जोरावर दुलारे तब,
बाजत नगारे भए गालिब दिलीस पर।

[ ३०१ ]

दल के चलत भर भर होत चारों ओर,
चालति धरनि भारी भार सों फनीस पर॥
देखि कै समर-सनमुख भयो ताहि समै,
बरनत भान पैज कै कै बिसे बीस पर।
वेरी समसेर की सिफत सिंह रनजोर,
लखी एकै साथ हाथ अरिन के सीस पर॥


घन से सघन स्याम, इंदु पर छाय रहे,
बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँनि सी।
तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी, लाल!
आरसी से अमल निहारे बहुत भाँति सी॥
ताके ढिग अमल ललौह बिबि विद्रुम से,
फरकति ओप जामैं मोतिन की कांति सी।
भीतर ते कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि,
सुनि करि भान परि कानन सुहाति सी॥

(४६) थान कवि––ये चंदन बंदीजन के भानजे थे और डौड़ियाखेरे (जिला रायबरेली) में रहते थे। इनका पूरा नाम थानराय था। इनके पिता निहालराय, पितामह महासिंह और प्रपितामह लालराय थे। इन्होंने संवत् १८५८ में 'दलेलप्रकाश' नामक एक रीतिग्रंथ चँड़रा (बैसवारा) के रईस दलेलसिंह के नाम पर बनाया। इस ग्रंथ में विषयों का कोई क्रम नहीं है। इसमें गणविचार, रस-भाव-भेद, गुणदोष आदि का कुछ निरूपण है और कहीं कहीं अलंकारों के कुछ लक्षण आदि भी दे दिए गए है। कहीं रागगिनियों के नाम आए, तो उनके भी लक्षण कह दिए। पुराने टीकाकारो की सी गति है। अंत में चित्रकाव्य भी रखे हैं। सारांश यह है कि इन्होंने कोई सर्वाोंगपूर्ण ग्रंथ बनाने के उद्देश्य से इसे नहीं लिखा है। अनेक विषयों में अपनी निपुणता का प्रमाण सा इन्होंने उपस्थित किया है। ये इसमें सफल हुए हैं, यह अवश्य कहना पड़ता है। जो विषय लिया है उसपर उत्तम कोटि [ ३०२ ]काल संवत् १८४९ से १८८० तक माना जा सकता है। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे देखिए––

अलि टसे अधर सुगंध पाय आनन को,
कानन में ऐसे चारु चरन चलाए हैं।
फटि गई कंचुकी लगे तें कट कुंजन के,
वेनी बरहीन खोली, वार छवि छाए हैं॥
वेग तें गवन कोनो, धक धक होत सीनो,
ऊरव उसासैं तन सेट सरसाए हैं।
भली प्रीति पाली वनमाली के बुलावे को,
मेरे हेत्त आली बहुतेरे दुख पाए हैं॥


घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे,
वेला औ कुवेला फिरैं चेला लिए आस पास।
कविन सों वाद करैं, भेद विन नाद करैं,
महा उनमाद करैं, वरम करम नास॥
बेनी कवि कहैं विभिचारिन को बादसाह,
अतन प्रकासत न सतन सरम तास।
ललना ललक, नैन मैन की झलक,
हँसि हेरत अलक रद खलक ललकदास॥


चींटी की चलावै को? मसा के मुख आपु जाय,
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाए मरु मरु कै निहारे जात,
अनु परमानु की समानता खगत है॥
बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं,
मेरी जान ब्रह्म को विचारियो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हे दयाराम मन मोद करि,
जाके आगे सरसों सुमेर सो लगत है॥