हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ देव

विकिस्रोत से

[ २६४ ](१३) देव––ये इटावा के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे। कुछ लोगों ने इन्हें कान्यकुब्ज सिद्ध करने का भी प्रयत्न किया है। इनका पूरा नाम देवदत्त था। 'भावविलास' का रचनाकाल इन्होंने १७४६ दिया है और उस ग्रंथ-निर्माण के समय अपनी अवस्था सोलह ही वर्ष की कही है। इस हिसाब से इनका जन्म-संवत् १७३० निश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इनका और कुछ वृत्तांत नहीं मिलता। इतना अवश्य अनुमित होता है कि इन्हें कोई अच्छा उदार आश्रयदाता नहीं मिला जिसके यहाँ रहकर इन्होंने सुख से कालयापन किया हो। ये बराबर अनेक रईसों के यहाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहे, पर कहीं जमे नहीं। इसका कारण या तो इनकी प्रकृति की विचित्रता मानें या इनकी कविता के साथ उस काल की रुचि का असामंजस्य। इन्होंने अपने 'अष्टयाम' और 'भावविलास' को और औरंगजेब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया था जो हिंदी-कविता के प्रेमी थे। इसके पीछे इन्होंने भवानीदत्त वैश्य के नाम पर "भवानीविलास" और कुशलसिंह के नाम पर 'कुशलविलास' की रचना की। फिर मर्दनसिंह के पुत्र राजा उद्योतसिंह वैस के लिये 'प्रेमचंद्रिका' बनाई। इसके उपरांत ये बराबर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते रहे। इस यात्रा के अनुभव का इन्होंने अपने 'जाति-विलास' नामक ग्रंथ में कुछ उपयोग किया। इस ग्रंथ में भिन्न-भिन्न जातियों और भिन्न-भिन्न प्रदेशों की स्त्रियों को वर्णन है। पर वर्णन में उनकी विशेषताएँ अच्छी तरह व्यक्त हुई हों, यह बात नहीं है। इतने पर्यटन के उपरांत जान पड़ता है कि इन्हें एक अच्छे आश्रयदाता राजा भोगीलाल मिले जिनके नाम पर संवत् १७८३ में इन्होंने 'रसविलास' नामक ग्रंथ बनाया। इन राजा भोगीलाल की इन्होंने अच्छी तारीफ की है, जैसे, "भोगीलाल भूप लाख पाखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।"

रीति काल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ-रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या ५२ और कोई ७२ तक बतलाते हैं। जो हो, इनके निम्नलिखित ग्रंथों का तो पता है––

(१) भाव-विलास, (२) अष्टयाम, (३) भवानी-विलास, (४) सुजान[ २६५ ]विनोद, (५) प्रेम-तरंग, (६) राग-रत्नाकर, (७) कुशल-विलास, (८) देव-चरित्र, (९) प्रेम-चंद्रिका, (१०) जाति-विलास, (११) रस-विलास, (१२) काव्य-रसायन या शब्द-रसायन, (१३) सुख-सागर-तरंग, (१४) वृक्ष-विलास, (१५) पावस-विलास, (१६) ब्रह्म-दर्शन पचीसी, (१७) तत्व-दर्शन पचीसी, (१८) आत्म-दर्शन पचीसी, (१९) जगद्दर्शन पचीसी, (२०) रसानंद लहरी, (२१) प्रेमदीपिका, (२२) सुमिल-विनोद, (२३) राधिका-विलास, (२४) नीति शतक और (२५) नख-शिख-प्रेमदर्शन।

ग्रंथों की अधिक संख्या के संबंध में यह जान रखना भी आवश्यक है कि देवजी अपने पुराने ग्रंथों के कवित्तों को इधर उधर दूसरे क्रम से रखकर एक नया ग्रंथ प्रायः तैयार कर दिया करते थे। इससे वे ही कवित्त बार बार इनके अनेक ग्रंथों में मिलेंगे। 'सुखसागर तरंग' तो प्रायः अनेक ग्रंथों से लिए हुए कवित्तों का संग्रह है। 'राग-रत्नाकर' में राग-रागिनियो के स्वरूप का वर्णन है। 'अष्टयाम' तो रात-दिन के भोग-विलास की दिनचर्या है जो मानो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के सामने कालयापन-विधि का ब्योरी पेश करने के लिये बनी थी। 'ब्रह्मदर्शन-पचीसी' और 'तत्त्व-दर्शन-पचीसी' में जो विरक्ति का भाव हैं वह बहुत संभव है कि अपनी कविता के प्रति लोक की उदासीनता देखते देखते उत्पन्न हुई हो।

ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि आचार्यत्व के पद के अनुरूप कार्य करने में रीतिकाल के कवियों में पूर्ण रूप से कोई समर्थ नहीं हुआ। कुलपति और सुखदेव ऐसे साहित्य-शास्त्र के अभ्यासी पंडित भी विशद रूप में सिद्धांत-निरूपण का मार्ग नहीं पा सकें। बात यह थी कि-एक तो ब्रजभाषा का विकास काव्योपयोगी रूप में ही हुआ; विचार-पद्धति के उत्कर्ष-साधन के योग्य-वह न हो पाई। दूसरे उस समय पद्य में ही लिखने की परिपाटी थी। अतः आचार्य के रूप में देव को भी कोई विशेष स्थान नहीं दिया जा सकता। कुछ लोगो ने भक्तिवश अवश्य और बहुत सी बातों के साथ इन्हें कुछ शास्त्रीय उद्भावना को श्रेय भी देना चाहा है। वे ऐसे ही लोग हैं जिन्हें "तात्पर्य वृत्ति" एक नया [ २६६ ]नाम मालूम होता है और जो संचारियों में एक 'छल' और बढ़ा हुआ देखकर चौकते हैं। नैयायिकों की तात्पर्य-वृत्ति बहुत काल से प्रसिद्ध चली आ रही है। और वह संस्कृत के सब साहित्य-मीमांसकों के सामने थी। तात्पर्य-वृत्ति वास्तव में वाक्य के भिन्न-भिन्न पदों (शब्दों) के वाक्यार्थ को एक में समन्वित करनेवाली वृत्ति मानी गई है अतः वह अभिधा से भिन्न नहीं, वाक्यगत अभिधा ही है। रहा 'छलसंचारी'; वह संस्कृत की 'रसतरंगिणी' से; जहाँ से और बातें ली गई हैं, लिया गया है। दूसरी बात यह कि साहित्य के सिद्धांतग्रंथों से परिचित मात्र जानते हैं कि गिनाए हुए ३३ संचारी उपलक्षण मात्र हैं, संचारी और भी कितने हो सकते हैं।

अभिधा, लक्षणा आदि शब्दशक्तियों का निरूपण हिंदी के रीति-ग्रंथों में प्रायः कुछ भी नहीं हुआ है। इस विषय का सम्यक् ग्रहण और परिपाक जरा है भी कठिन है। इस दृष्टि से देवजी के इस कथन पर कि––

अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस-बिरस, उलटी कहत नवीन॥

यहाँ अधिक कुछ कहने का अवकाश नहीं। व्यंजना की व्याप्ति कहाँ तक है, उसकी किस-किस प्रकार क्रिया होती है, इत्यादि बातों का पूरा विचार किए बिना कुछ कहना कठिन है। देवजी का यहाँ 'व्यंजना' से तात्पर्य पहेली बुझौवलवाली "वस्तुव्यंजना" का ही जान पड़ता है। यह दोहा लिखते समय उसी का विकृत रूप उनके ध्यान में था।

कवित्व-शक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि विशेष प्रायः बाधक हुई है। कभी कभी वे कुछ बड़े और पेचीले मजमून का हौसला बाँधते थे पर अनुप्रास के आडंबर की रुचि बीच ही में उसका अंग-भंग करके सारे पद्य को कीचड़ में फँसा छकड़ा बना देती थी। भाषा में कहीं-कहीं स्निग्ध प्रवाह न आने का एक कारण यह भी था। अधिकतर इनकी भाषा में प्रवाह पाया जाता है। कहीं-कहीं शब्दव्यय बहुत अधिक है और अर्थ अल्प। [ २६७ ]अक्षर-मैत्री के ध्यान से इन्हें कहीं-कहीं अशक्त शब्द रखने पड़ते थे जो कभी-कभी अर्थ को आच्छन्न करते थे। तुकांत और अनुप्रास के लिये ये कहीं-कहीं शब्दों को ही तोड़ते मरोड़ते न थे, वाक्य को भी अविन्यस्त कर देते थे। जहाँ अभिप्रेत भाव का निर्वाह पूरी तरह हो पाया है, या जहाँ उसमें कम बाधा पड़ी है, वहाँ की रचना बहुत ही सरस हुई है। इनका सा अर्थ-सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियो में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभा-संपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं। इस काल के बड़े कवियो में इनका विशेष गौरव का स्थान है। कहीं-कहीं इनकी कल्पना बहुत सूक्ष्म और दूरारूढ़ है। इनकी कविता के कुछ उत्तम उदाहरण नीचे दिए जाते हैं।


सूनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद,
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।
महिमा मुनीसन की, संपति दिगीसन की,
ईसन की सिद्धि ब्रजवीथी बिथुरै परी॥
भादों की अँधेरी अधिराति मथुरा के पथ,
पाय के सँयोग 'देव' देवकी दुरै परी।
पारावार पूरन अपार परब्रह्म-रासि,
जसुदा के कोरै एक बारही कुरै परी॥


डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के,
सुमन झँगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झुलावै, केकी कीर बहरावैं देव,
कोकिल हलावै हुलसावै कर तारी दै॥
पूरित पराग सों उतारो करै राई लोन,
कँजकली-नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसत तोहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥


[ २६८ ]

सखी के सकोच, गुरु-सोच मृगलोचनि
रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात।
दैव वै सुभाय मुसकाय उठि गए, यहाँ
सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात॥
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह-बिथा,
हाय हाय करि पछिताय न कछू सुहात।
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि-भरि ढरि
गोरो-गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात॥


झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानों,
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चली झूलिबे को आज'
फूली ना समानी भई ऐसी हौ मगन मैं॥
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोडी नींद,
सोय गए भाग मेरे जागि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न धन हैं, न धनश्याम
वेई छाई बूँदै मेरे आँसु ह्वै दृगन मे॥


साँसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरी।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि॥
'देव' जियै मिलिबेई की आस कै, आसहु पास अकास रह्यो भरि।
जा दिन तें मुख फेरि हरै हँसि हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि॥


जब तें कुँवर कान्ह रावरी, कलानिधान!
कान पूरी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
तब ही तें देव देखी देवता सी हँसति सी,
रीझति सी, खीझति सी, रूठति रिसानी सी॥

[ २६९ ]

छोही सी, छली सी, छीन लीनी सी, छकी सी, छिन
जकी सी, टकी सी, लगी थकी थहरानी सी।
बीधी सी, बँधी सी, विष बूड़ति बिमोहित सी,
बैठी बाल बकती, बिलोकति बिकानी सी॥


'देव' मैं सीस बसायो सनैह सों, भाल मृगम्मद-बिंदु कै भाख्यो।
कंचुकि में चुपयो करि चोवा, लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो॥
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवत सिंगार कै चाख्यो।
साँवरे लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो॥


धार में धाय धँसी निरधार ह्वै, जाय फँसी, उक़सीं न उधेरी।
री! अगराथ गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न, घिरीं नहिं घेरी॥
'देव', कछू अपनो बस ना, रस-लालच लाल चितै भई चेरी।
बेगि ही बूडि गई पँखियाँ, अँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी॥

(१४) श्रीधर या मुरलीधर––ये प्रयाग के रहनेवाले ब्राह्मण थे और सवत् १७३७ के लगभग उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अभी तक इनका "जगनामा" ही प्रकाशित हुआ है जिसमें फर्रुखसियर और जहाँदार के युद्ध का वर्णन है, पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इनके, बनाए कई रीति-ग्रंथों का उल्लेख किया है; जैसे, नायिकाभेद, चित्रकाव्य आदि। इनका कविताकाल संवत् १७६० के आगे माना जा सकता हैं।

(१५) सूरति मिश्र––ये आगरे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, जैसा कि इन्होंने स्वयं लिखा है–– "सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास"। इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत् १७६६ में और बिहारी सतसई की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत् १७९४ में लिखी। अतः इनका कविता काल विक्रम की अठारहवी शताब्दी को अंतिम चरण माना जा सकता है।

ये नसरुल्लाखाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने 'बिहारी-सतसई', 'कविप्रिया' [ २७० ]और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं जिनसे इनके साहित्य-ज्ञान और मासिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में है। इन टीकाओं के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल-पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीति-ग्रंथ रचे है––

१––अलंकार माला, २––रसरत्न माला ३––सरस रस, ४––रस-ग्राहक चद्रिका ५––नख शिख, ६––काव्य सिद्धांत, ७––रस-रत्नाकर।

अलंकार-माला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्रायः एक ही दोहे में मिलते हैं। जैसे––

(क) हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि॥
(ख) सो असँगति, कारन अवर, कारज औरे थान॥
चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान॥

इनके ग्रंथ सब मिले नहीं हैं। जितने मिले है उनसे ये अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं। इनकी कविता में तो कोई विशेषता नही जान पढती पर साहित्य का उपकार इन्होंने बहुत कुछ किया है। 'नख-शिख' से इनका एक कवित्त दिया जाता है––

तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल,
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उसमान,
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है॥
नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,
भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।
'सूरति' सो याही तें जगत-बीच आजहूँ लौ
उनके बदन पर छार ढारियत है॥

(१६) कवींद्र (उदयनाथ)––ये कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे और संवत् १७३६ कें लगभग उत्पन्न हुए थे। इनका "रसचंद्रोदय" नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'विनोदचद्रिका' और 'जोगलीला' नामक इनकी दो और पुस्तकों का पता खोज मे लगा है। 'विनोदचंद्रिका' संवत् [ २७१ ]१७७७ और 'रसचंद्रोदय' संवत् १८०४ मे बना। अतः इनका कविता-काल संवत् १८०४ या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। ये अमेठी के राजा हिम्मतसिंह और गुरुदत्तसिंह (भूपति) के यहाँ बहुत दिन रहे।

इनका 'रसचंद्रोदय' शृंगार का एक अच्छा ग्रंथ है। इनकी भाषा मधुर और प्रसादपूर्ण है। वणर्य विषय के अनुकूल कल्पना भी ये अच्छी करते थे। इनके दो कवित्त नीचे दिए जाते हैं––

शहर मँझार ही पहर एक लागि जैहै,
छोरे पै नगर के सराय है उतारे की।
कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की॥
घर के हमारे परदेस को सिधारे,
बातें दवा कै बिचारी हम रीति राहबारे की।
उतरो नदी के तीर, बर के तरे ही तुम,
चौंकौं जनि चौंकी तही पाहरू हमारे की॥


राजे रसमै री तैसी बरषा समै री चढ़ी,
चंचला नचै री चकचौंधा कौधा बारैं री।
व्रती व्रत हारैं हिए परत फुहारै,
कछू छोरैं कछू धारैं जलधर जल-धारैं री॥
भनत कविंद कु जभौन पौन सौरभ सो,
काके न कँपाय प्रान परहथ पारै री?
काम-कदुका से फूल डोलि डोलि ढारैं, मन,
औरै किए ढारैं ये कदंबन की ढारैं री॥

(१७) श्रीपति––ये कालपी के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने संवत् १७७७ में 'काव्य-सरोज' नामक रीतिग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त इनके निम्नलिखित ग्रंथ और है–– [ २७२ ]१––कविकल्पद्रुम, २––रस-सागर, ३––अनुप्रास-विनोद, ४––विक्रमविलास, ५––सरोज-कलिका, ६––अलंकार-गंगा।

श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया हैं। दोषों का विचार पिछले ग्रंथों से अधिक विस्तार के साथ किया है और दोषों के उदाहरणों में केशवदास के बहुत से पद्य रखे हैं। इससे इनका साहित्यिक विषयों का सम्यक् और स्पष्ट बोध तथा विचार-स्वातंत्र्य प्रगट होता है। 'काव्य-सरोज' बहुत ही प्रौढ़ ग्रंथ है। काव्यांगों का निरूपण जिस स्पष्टता के साथ इन्होंने किया है उससे इनकी स्वच्छ बुद्धि का परिचय मिलता है। यदि गद्य में व्याख्या की परिपाटी चल गई होती तो आचार्यत्व ये और भी अधिक पूर्णता के साथ प्रदर्शित कर सकते। दासजी तो इनके बहुत अधिक ऋणी हैं। उन्होंने इनकी बहुत सी बातें ज्यों की त्यों अपने "काव्य निर्णय" में चुपचाप रख ली हैं। आचार्यत्व के अतिरिक्त कवित्व भी इनमें ऊँची कोटि का था। रचना-विवेक इनमें बहुत ही जाग्रत और रुचि अत्यंत परिमार्जित थी। झूठे शब्दाडंबर के फेर में ये बहुत कम पडे हैं। अनुप्रास इनकी रचनाओं में बराबर आए हैं पर उन्होंने अर्थ या भाव-व्यंजना में बाधा नहीं डाली है। अधिकतर अनुप्रास रसानुकूल वर्णविन्यास के रूप में आकर भाषा में कहीं ओज, कहीं माधुर्य घटित करते पाए जाते हैं। पावस ऋतु का तो इन्होंने बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है। इनकी रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते है––

जलमरे ,झूमै मानौ झूमै परसत आय,
दसहू दिसान घूमै दामिनि लए लए।
धूरिधार धूमरे से, धूम से धुँधारे कारे,
धुरवान धारे धावैं छवि सों छए छए॥
श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहि,
तकत अतन तन ताव तें तए तए।
लाल बिनु कैसे लाज-चादर रहैगी आज,
कादर करत मोहि बादर नए-नए॥


[ २७३ ]


सारस के नादन को, बाद ना सुनात कहूँ,
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,
फुल न फुलत जाहि चित दै चहा करै॥
बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,
काई सों कलित पानी फेरत हह्वा करै।
घोंघन के जाल, जामे नरई सेवाल व्याल,
ऐसे पापी ताल को, मराल लै कहा करे?


घूँघट-उदयगिरिवर तें निकसि रूप,
सुधा सों कलित छवि-कीरति बगारो है।
हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरपत,
करपन सोक, अति तिमिर विदारो है॥
श्रीपति बिलोकि सौति-बारिज मलिन होत,
हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।
रजन मदन, तन गंजन विरह, बिवि,
खंजन सहित चंदवदन तिहारो है॥

(१८) वीर––ये दिल्ली के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने "कृष्णचंद्रिका" नामक रस और नायिकाभेद का एक ग्रंथ संवत् १७७९ में लिखा। कविता साधारण है। वीररस का एक कवित्त देखिए––

अरुन बदन और फरकैं बिसाल बाहु,
कौन को हियो है करै सामने जो रुख को।
प्रबल प्रचंड निसिचर फिरै धाए,
धूरि चाहत मिलाए दसकध-अंध मुख को॥
चमकै समरभूमि बरछी, सद्स फन,
कहत पुकारे लक-अक दीह दुख को।
बलकि बलकि बोलैं वीर रघुवर धीर,
महि पर मीडि मारौं आज दसमुख को॥