हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ प्रतापसाहि

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[ ३१७ ] (५६) प्रतापसाहि––ये रतनसेन बंदीजन के पुत्र थे और चरखारी (बुदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इन्होंने संवत् १८८२ में "व्यंग्वार्थ-कौमुदी" और संवत् १८८६ में "काव्य-विलास" की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी बनाई हुई और है––

जयसिंह प्रकाश (सं॰ १८५२), शृंगार-मंजरी (सं॰ १८८९), शृंगार शिरोमणि (सं॰ १८९४), अलंकार-चिंतामणि (सं॰ १८९४), काव्य-विनोद (१८९६), रसराज की टीका (सं॰ १८९६), रत्नचंद्रिका (सतसई की टीका स॰ १८९६), जुगल नखशिख (सीताराम को नखशिख वर्णन), बलभद्र नखशिख की टीका।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८८० से १९०० तक ठहरता है। पुस्तकों के नाम से ही इनकी साहित्य-मर्मज्ञता और पांडित्य का [ ३१८ ]अनुमान हो सकता है। आचार्यत्व में इनका नाम मतिराम, श्रीपति और दास के साथ आता है और एक दृष्टि से इन्होंने उनके चलाए हुए कार्य को पूर्णता को पहुँचाया था। लक्षणा व्यंजना के उदाहरणों की एक अलग पुस्तक ही 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' के नाम से रची। इसमें कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर १३० पद्य हैं जो सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं। साहित्यमर्मज्ञ तो बिना कहे ही समझ सकते हैं कि ये उदाहरण अधिकतर वस्तुव्यंजना के ही होंगे। वस्तुव्यंजना को बहुत दूर तक घसीटने पर बड़े चक्करदार ऊहापोह का सहारा लेना पड़ता है और व्यंग्यार्थ तक पहुँच केवल साहित्यिक रूढ़ि के अभ्यास पर अवलंबित रहती है। नायिकाओं के भेदों, रसादि के सब अंगों तथा भिन्न-भिन्न बँधे उपमान का अभ्यास न रखनेवाले के लिए ऐसे पद्य पहेली ही समझिए। उदाहरण के लिए 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का यह सवैया लीजिए––

सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।
खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै॥
छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।
कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै॥

सहृदयों की सामान्य दृष्टि में तो वयःसंधि की मधुर क्रीड़ावृत्ति का यह एक परम मनोहर दृश्य है। पर फन में उस्ताद लोगों की ऑंखें एक और ही ओर पहुँचती हैं। वे इसमें से यह व्यंग्यार्थ निकालते हैं-घड़े के पानी में अपने नेत्र का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। और चलिए। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है अतः अब इस व्यंग्यार्थ पर पहुँचे कि 'नेत्र मीन के समान हैं।' अब अलंकार का पीछा छोड़िए, नायिकाभेद की तरफ आइए। वैसा भ्रम जैसा ऊपर कहा गया है 'अज्ञात यौवना' को हुआ करता है। अतः ऊपर का सवैया अज्ञातयौवना का उदाहरण हुआ। यह इतनी बड़ी अर्थयात्रा रूढ़ि के ही सहारे हुई है। जब [ ३१९ ]तक यह न ज्ञात हो कि कवि-परंपरा में आँख की उपमा मछली से दिया करते है, जब तक यह सब अर्थ स्फुट नहीं हो सकता।

प्रतापसाहीजी‌ का वह कौशल अपूर्व है कि उन्होंने एक रसग्रंथ के अनुरूप नायिकाभेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिकाभेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं। यदि हम आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से विचार करते हैं। तो मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही रहते हैं। इधर भाषा की स्निग्ध सुख-सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनी प्रवीन के मेल में जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनो से भी और दास से भी कुछ आगे ही दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानों पद्माकर के साथ साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रास-योजना कभी भी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कही नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा भारी गुण यह है कि वह बराबर एक समान चलती है––उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर का अड़गा है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़-मरोड़। हिंदी के मुक्तक-कवियों में समस्यापूर्ति की पद्धति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिक होती है पर शेष तीनों चरणों में यह बात बहुत ही कम पाई जाती है। बहुत से स्थलों पर तो प्रथम तीन चरणों की वाक्यरचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक होती है। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रतापजी की पद्माकरजी के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते है।

प्रतापजी की कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं––

चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो॥

[ ३२० ]

चीज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पैहो, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो॥


तड़पै तडिता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरिशृंगन पै गन मंजु मयूरन के कहरैं॥
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सौं गहरैं।
घन ये नभ मंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं॥


कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।
एड़ भरी अँगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति॥
मंजन के दृग अंजन आँजति, अंग अनंग-उमंग बढ़ावति।
कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन आँगन में खिन पौरि में आवति॥


कहा जानि, मन में मनोरथ विचार कौन,
चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।
कहै परताप छिन डोलिवो पगन कहूँ,
अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात॥
ननद जिठानी सतरानी, अनखानि अति,
रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछू जानी जात।
चाहौ पल बैठी रहौ, चाहौ चठि जाव तौ न,
हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?


चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,
झूमि झूमि धुरवा धरनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद बियौगिन्ह,
सँयोगिन्ह समाज सुखसाज, सरसत है॥
कहैं परताप अति निविड़ अँधेरी माँह,
मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।


[ ३२१ ]

झुमडि झलानि चहुँ कोद तें उमहि आज,
धाराधर धारन अपार बरसत है॥


महाराज रामराज रावरो सजत दल,
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं,
पन्नग पताल त्योंही डरन खगेस के॥
कहैं परताप धरा धँसत त्रसत,
कसमसत कमठ-पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल, दहरत है दिगीस दस,
लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के॥

(५७) रसिक गोविंद––ये निबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यासजी की शिष्यपरंपरा में सर्वेश्वरशरण देवजी बड़े भारी भक्त हुए है। रसिकगोविंदजी उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम शालिग्राम, माता का गुमाना, चाचा का मोतीराम और बड़े भाई का बालमुकुंद था। इनका कविता-काल संवत् १८५० से १८९० तक अर्थात् विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक स्थिर होता है। अब तक इनके ९ ग्रंथो का पता चला है––

(१) रामायण सूचनिका––३३ दोहों में अक्षर-क्रम से रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है। यह सं॰ १८५८ के पहले की रचना है। इसके ढंग का पता इन दोहों से लग सकता है––

चकित भूप बानी सुनत, गुरु बसिष्ठ समुझाय।
दिए पुत्र तब, ताड़का मग में मारी जाय॥
छाँड़त सर मारिच उड्यो, पुनि प्रभु हत्यो सुबाह।
मुनि मख पूरन, सुमन सुर बरसत अधिक उछाह॥