हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बेनी प्रवीन

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[ ३०३ ](४८) बेनी प्रवीन––ये लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवल कृष्ण उर्फ ललनजी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से सं॰ १८७४ में इन्होंने 'नवरस-तरंग' नामक ग्रंथ बनाया। इसके पहले 'शृंगार-भूषण' नामक एक ग्रंथ ये बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिये महाराज नाना राव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर "नानाराव प्रकाश" नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। खेद है इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ। इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत कुछ संगृहीत और उद्धृत मिलते है। कहते हैं कि बेनी बंदीजन (भँड़ौवावाले) से इनसे एक बार कुछ वाद हुआ था जिसमें प्रसन्न होकर इन्होंने इन्हें 'प्रवीन' की उपाधि दी थी। पीछे से रुग्ण होकर ये सपत्नीक आबू चले गए और वहीं इनका शरीर-पात हुआ। इन्हें कोई पुत्र न था।

इनका 'नवरस-तरंग' बहुत ही मनोहर ग्रंथ है। उसमे नायिकाभेद के उपरांत रसभेद और भावभेद का संक्षेप में निरूपण हुआ है। उदाहरण और रसों के भी दिए हैं पर रीतिकाल के रससंबधी और ग्रंथों की भाँति यह शृंगार का ही ग्रंथ है। इसमें नायिकाभेद के अंतर्गत प्रेम-क्रीड़ा की बहुत सी सुंदर कल्पनाएँ भरी पड़ी हैं। भाषा इनकी बहुत साफ सुथरी और चलती है, बहुतो की भाषा की तरह लद्द, नहीं। ऋतुओं के वर्णन भी उद्दीपन की दृष्टि से जहाँ तक रमणीय हो सकते हैं किए हैं, जिनमें प्रथानुसार भोग-विलास की सामग्री भी बहुत कुछ आ गई है। अभिसारिका आदि कुछ नायिकाओ के वर्णन बड़े ही सरस हैं। ये ब्रजभाषा के मतिराम ऐसे कवियों के समकक्ष है और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते है। जान पड़ता है, शृंगार के लिये सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे। कविता के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते है––

भोर ही न्योति गई ती तुम्हैं वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी॥
आवै हँसी मोहिं देखत लालन, भाल में दीन्हीं महावर घोरी।
एते बड़े ब्रजमंडल में न मिली कहुँ मांगेहु रंचक रोरी॥

[ ३०४ ]की रचना की है। भाषा में मंजुलता और लालित्य है। हृत्व वर्णों की मधुर योजना इन्होंने बड़ी सुंदर की है। यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती, इसमें संदेह नहीं। इनकी रचना के दो नमूने देखिए––

दासन पै दाहिनी परम हंसवाहिनी हौ,
पोथी कर, बीना सुरमंडल मढ़त है।
आसन कँवल, अंग अंबर धवल,
मुख चंद सो अवँल, रंग नवल चढ़त है॥
ऐसी मातु भारती की आरती करत थान,
जाको जस बिधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दया-दीठि लाख पाथर निराखर के,
मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है॥


कलुष-हरनि सुख-करनि सरनजन,
बरनि बरनि जस कहत धरनिधर।
कलिमल-कलित बलित-अध खलगन,
लहत परमपद कुटिल कपटतर॥
मदन-कदम सुर-सदन बदन ससि,
अमल नवल दुति भजन भगतधर।
सुरसरि! तब जल दरस परस करि,
सुर सरि सुभगति लहत अधम नर॥

(४७) बेनी बंदीजन––ये बैंती (जिला रायबरेली) के रहनेवाले थे और अवध के प्रसिद्ध वजीर महाराज टिकैतराय के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने "टिकैतराय प्रकाश" नामक अलंकार-ग्रंथ संवत् १८४९ में बनाया। अपने दूसरे ग्रंथ "रसविलास" में इन्होंने रस-निरूपण किया है। पर ये अपने इन दोनों ग्रंथों के कारण इतने प्रसिद्ध नहीं है जितने [ ३०५ ]अपने भँड़ौवों के लिये। इनके मँड़ौवों का एक संग्रह "भँड़ौवा-संग्रह" के नाम से भारतजीवन प्रेस द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

भँडौवा हास्यरस के अंतर्गत आता है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्रायः सब देशों में साहित्य का एक अंग रहा है। जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में 'हजों' का एक विशेष स्थान है वैसे ही अँगरेजी में सटायर (Satire) का। पूरबी साहित्य में 'उपहास-काव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और योरपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। इससे योरप के उपहास-काव्य में साहित्यिक मनोरंजन की सामग्री अधिक रहती थी। उर्दू-साहित्य में सौदा 'हजों' के लिये प्रसिद्ध है। उन्होंने किसी अमीर के दिए घोड़े की इतनी हँसी की है कि सुननेवाले लोट पोट हो जाते है। इसी प्रकार किसी कवि ने औरंगजेब की दी हुई हथिंनी की निंदा की है––

तिमिरलंग लइ मोल, चली बाबर के हलके।
रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के॥
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार हटायो।
साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड चटायो॥

बल-रहित भई, पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार-डर।
औरंगजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराल कर॥

इस पद्धति के अनुयायी बेनीजी ने भी कही बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उनकी निंदा जी खोल कर की।

पर जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी-कभी दूसरे कवि पर भी छींटा दे दिया करते हैं, उसी प्रकार बेनीजी ने भी लखनऊ के ललकदास महत (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे "बाजे बाजे ऐसे डलमऊ में बसत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास"। इनका 'टिकैत-प्रकाश' संवत् १८४९ में और 'रसविलास’ संवत् १८७४ में बना। अतः इनका कविता[ ३०६ ]

जान्यो न मैं ललिता अलि ताहि जो सोवत माहिं गई करि हाँसी।
लाए हिए नख केहरि के सम, मेरी तऊ नहिं नींद बिनासी॥
लै गई अंबर बेनी प्रवीन ओढ़ाय लटी दुपटी दुखरासी।
तोरि तनी, तन छोरि अभूषन भूलि गई गर देन को फाँसी॥
घनसार पटीर मिलै मिलै नीर चहै नन लावै न लावै चहै।
न बुझै बिरहागिनि झार झरी हू चहै घन लावै न लावै चहै॥
हम टेरि सुनावतीं बेनी प्रवीन चहै मन लावै न लावै चहै।
अब आवै विदेस तें पीतम गेह, चहैं धन लावै, न लावै चहै॥
काल्हि ही गूँथी बाबा की सौं मैं गजमोतिन की पहिरी अति आला।
आई कहाँ तें यहाँ पुखराज की, संग एई जमुना तट बाला॥
न्हात उतारी हौं बेनी प्रवीन, हँसैं सुनि बैनन नैन रसाला।
जानति ना अँग की बदली, सब सों "बदली बदली" कहै माला॥


सोभा पाई कुंजभौन जहाँ जहाँ कीन्हो गौन,
सरस सुगंध पौन पाई मधुपनि हैं।
बीथिन बिथोरे मुकुताइल मराल पाए,
आली दुसाल साल पाए अनगनि हैं॥
रैनि पाई चाँदनी फटक सी चटक रुख,
सुख पायो पीतम प्रवीन बेनी धनि है।
बैन पाई सारिका, पढ़न लागी कारिका,
सो आई अभिसारिका कि चारु चिंतामनि है॥

(४९) जसवंतसिंह द्वितीय––ये बघेल क्षत्रिय और तेरवाँ (कन्नौज के पास) के राजा थे और बड़े विद्या-प्रेमी थे। इनके पुस्तकालय में संस्कृत और भाषा के बहुत से ग्रंथ थे। इनका कविताकाल संवत् १८५६ अनुमान किया गया है। इन्होंने दो ग्रंथ लिखे––एक सालिहोत्र और दूसरा शृंगार-शिरोमणि। यहाँ इसी दूसरे ग्रंथ से प्रयोजन है, जो शृंगार रस का एक बड़ा ग्रंथ है। कविता साधारण है। एक कवित्त देखिए–– [ ३०७ ]

घनन के ओर, सोर चारों ओर मोरन के,
अति चितचोर तैसे अंकुर मुनै रहैं।
कोकिलन कूक हूक होति बिरहीन हिय,
लूक से जगत चीर चारन चुनै रहैं॥
झिल्ली झनकार तैसी पिकन पुकार डारी,
मारि डारी डारी द्रुम अंकुर सु नै रहैं।
लुनैं रहैं प्रान प्रानप्यारे जसवंत बिनु,
कारे पीरे लाल ऊदे बादर उनै रहैं॥

(५०) यशोदानंद––इनका कुछ भी वृत्त ज्ञात नहीं। शिवसिंहसरोज में जन्म संवत् १८२८ लिखा पाया जाता है। इनका एक छोटा-सा ग्रंथ "बरवै नायिका-भेद" ही मिलता है जो निस्संदेह अनूठा है और रहीमवाले से अच्छा नहीं तो उसकी टक्कर का है। इसमे ९ बरवा संस्कृत में और ५३ ठेठ अवधी भाषा में है। अत्यंत मृदु और कोमल भाव अत्यंत सरल और स्वाभाविक रीति से व्यंजित हैं। भावुकता ही कवि की प्रधान विभूति है। इस दृष्टि से इनकी यह छोटी सी रचना बहुत सी बड़ी बड़ी रचनाओं से मूल्य में बहुत अधिक है। कवियो की श्रेणी में ये निस्संदेह उच्च स्थान के अधिकारी हैं। इनके बरवै के नमूने देखिए––


(संस्कृत)यदि च भवति बुध-मिलनं किं त्रिदिवेन।
यदि च भवति शठ-मिलनं किं निरयेण॥



(भाषा)अहिरिनि मन कै गहिरिनि उतरु ने देई।
नैना करै मथनिया, मन मथि लेइ॥
तुरकिनि जाति हुरुकिनी अति इतराई।
छुवन न देइ इजरवा मुरि मुरि जाइ॥
पीतम तुम कचलोइया, हम गजबेलि।
सारस कै असि जोरिया फिरौं अकेलि॥

(५) करन कवि––ये षट्कुल कान्यकुब्जो के अंतर्गत पाँण्डे थे और [ ३०८ ]छत्रसाल के वंशधर पन्ना-नरेश महाराज हिंदूपति की सभा में रहते थे। इनका कविता-काल संवत् १८६० के लगभग माना जा सकता है। इन्होंने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीतिग्रंथ लिखे हैं। 'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना, ध्वनिभेद, रसभेद, गुण, दोष आदि काव्य के प्रायः सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। इस दृष्टि से यह एक उत्तम रीतिग्रंथ है। कविता भी इसकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। इनका एक कवित्त देखिए––

कंटकित होत गात बिपिन-समाज देखि,
हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है।
एते पै करन धुनि परति मयूरन की,
चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है॥
निपट चवाई भाई बंधु जे बसत गाँव,
दाँव परे जानि कै न कोऊ बरजतु है।
अरज्यो न मानी तू, न गरज्यो चलत बार,
एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है॥


खल खंडन, मंडन धरनि, उद्धत उदित उदंड।
दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड॥

(५२) गुरदीन पाँड़े––इनके संबंध में कुछ ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८६० में 'बागमनोहर' नामक एक बहुत ही बड़ा रीतिग्रंथ कविप्रिया की शैली पर बनाया। 'कवि-प्रिया' से इसमें विशेषता यह है कि इसमें पिंगल भी आ गया है। इस एक ही ग्रंथ में पिंगल, रस, अलंकार, गुण, दोष, शब्दशक्ति आदि सब कुछ अध्ययन के लिये रख दिया गया है। इससे यह साहित्य की एक सर्वांगपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें हर प्रकार के छंद है। संस्कृत के वर्ण-वृत्तों में बड़ी सुंदर रचना है। यह अत्यंत रोचक और उपादेय ग्रंथ है। कुछ पद्य देखिए–– [ ३०९ ]

मुख-ससी ससि दून कला धरे। कि मुकता-गन जावक में भरे।
ललित कुंदकली अनुहारि के। दसन हैं वृषभानु-कुमारि के॥
सुखद जंत्र कि भाल सुहाग के। ललित मंत्र किधौं अनुराग के।
भ्रुकुटियों वृषभानु-सुता लसैं। जनु अनंग-सरासन को हँसें॥
मुकुर तौ पर-दीपति को धनी। ससि कलंकित, राहु-बिथा घनी।
अपर ना उपमा जग में लहैं। तब प्रिया! मुख के सम को कहै?

(५३) ब्रह्मदत्त––ये ब्राह्मण थे और काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह के छोटे भाई बाबू दीपनारायणसिंह के आश्रित थे। इन्होंने संवत् १८६० 'विद्वद्विलास' और १८६५ में 'दीपप्रकाश' नामक एक अच्छा अलंकार का ग्रंथ बनाया। इनकी रचना सरल और परिमार्जित है। आश्रयदाता की प्रशंसा में यह कवित्त देखिए––

कुसल कलानि में, करनहार कीरति को,
कवि कोविदन को कलप-तरुवर है॥
सील सममान बुद्धि विद्या को निधान ब्रह्म,
मतिमान इसन को मानसरवर है॥
दीपनारायन, अवनीप को अनुज प्यारो,
दीन दुख देखत हरत हरबर है।
गाहक गुनी को, निरबाहक दुनी को नीको,
गनी गज-बकस, गरीबपरवर है॥


(५४) पद्माकर भट्ट––रीतिकाल के कवियों में सहृदय-समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आता है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी और प्रतापसाहि की वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर हृासोन्मुख हुई। अतः जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि है उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं।

ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट का जन्म बाँदे में हुआ