हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ गिरिधरदास

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[ ३९८ ] (४५) गिरिधरदास—ये भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो बाबू गोपालचंद्र था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरिधर', 'गिरिधारन' रखते थे। भारतेंदु ने इनके संबंध में लिखा है कि "जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस"। इनका जन्म पौष कृष्ण १५ संवत् १८९० को हुआ। इनके पिता काले हर्षचंद, जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे, इन्हें ग्यारह वर्ष के छोड़ कर ही परलोक सिधारे। इन्होंने अपने निज के परिश्रम से संस्कृत और हिंदी में बड़ी, स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों का एक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम उन्होंने "सरस्वती भवन" रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डाक्टर राजेंद्रलाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और [ ३९९ ]इनका समय अधिकतर काव्य-चर्चा में ही जाता था। इनका परलोकवास संवत् १९१७ में हुआ।

भारतेंदु जी ने इनके लिखे ४० ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमे से बहुतों का पता नहीं है भारतेंदुजी के दौहित्र, हिंदी के उत्कृष्ट लेखक श्रीयुत बाबू ब्रजरत्नदासजी ने अपनी देखी हुई इन अठारह पुस्तको के नाम इस प्रकार दिए हैं––

जरासंधवध महाकाव्य, भारतीभूषण (अलंकार), भाषा-व्याकरण (पिंगल संबंधी), रसरत्नाकर, ग्रीष्म वर्णन, मत्स्यकथामृत, वाराहकथामृत, नृसिंहकथामृत, वामनकथामृत, परशुरामकथामृत, रामकथामृत, बलरामकथामृत, (कृष्णचरित ४७०१ पदों में), बुद्धकथामृत, कल्कि-कथामृत, नहुष नाटक, गर्गसंहिता (कृष्णचरित का दोहे चौपाई में बड़ा ग्रंथ), एकादशी माहात्म्य।

इनके अतिरिक्त भारतेंदू जी के एक नोट के आधार पर स्वर्गीय बाबू राधाकृष्णदास ने इन २१ और पुस्तकों का उल्लेख किया है––

वाल्मीकि रामायण (सातों कांड पद्यानुवाद), छंदोर्णव, नीति, अद्भुत रामायण, लक्ष्मीनखशिख, वार्तासंस्कृत, ककारादि सहस्रनाम, गयायात्रा, गयाष्टक, द्वादशदलकमल, कीर्तन, संकर्षणाष्टक दनुजारिस्तोत्र, शिवस्तोत्र, गोपालस्तोत्र, भगवतस्तोत्र, श्रीरामस्तोत्र, श्रीराधास्तोत्र, रामाष्टक, कालियकालाष्टक।

इन्होंने दो ढंग की रचनाएँ की हैं। गर्गसंहिता आदि भक्तिमार्ग की कथाएँ तो सरल और-साधारण पद्यों में कहीं है, पर काव्यकौशल की दृष्टिसे जो रचनाएँ की हैं––जैसे जरासंधवध, भारती-भूषण, रस-रत्नाकर, ग्रीष्मवर्णन––वे यमक और अनुप्रास आदि से इतनी लदी हुई है कि बहुत स्थलो पर दुरूह हो गई हैं। सबसे अधिक इन्होंने यमक और अनुप्रास की, चमत्कार दिखाया है। अनुप्रास और यमक का ऐसा विधान जैसा जरासंघवध में है और कहीं नहीं मिलेगा। जरासंधवध अपूर्ण है, केवल ११ सर्गों तक लिखा गया है, पर अपने ढंग का अनूठा है। जो कविताएँ देखी गई हैं उनसे यही धारणा होती है कि इनका झुकाव चमत्कार की ओर अधिक था। रसात्मकता इनकी रचनाओं में वैसी नहीं पाई जाती। २७ वर्ष की ही आयु पाकर इतनी अधिक पुस्तकें लिख [ ४०० ]डालना पद्यरचना का अद्भुत अभ्यास सूचित करता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते है।

(जरासंधवध से)

चल्यो दरद जेहि फरद रच्यो विधि मित्र-दरद-हर।
सरद सरोरुह बदन जाचकन-बरद मरद बर॥
लसत सिंह सम दुरद नरद दिसि-दुरद-अरद-कर।
निरखि होत अरि सरद, हरद सम जरद-कांति-धर॥

कर करद करत बेपरद जब गरद मिलत बपु गाज को!
रन-जुआ-नरद वित नृप लस्यो करद मगध-महराज को॥


सबके सब केशव के सबके हित के गज सोहते सोभा अपार हैं।
जब सैलन सैलन सैलन ही फिरैं सैलन सैलहि सीस प्रहार हैं॥
'गिरिधारन' धारन सों पदकंज लै धारन लै बसु धारन फार हैं।
अरि बारन बारन बारन पै सुर वारन वारन वारन वार हैं॥


(भारती-भूषण से)

असंगति––सिंधु-जनि गर हर पियो, मरे असुर समुदाय।
नैन-बान नैनन लग्यो, भयो करेजे घाय॥

(रसरत्नाकर से)

जाहिं विवाहि दियो पितु मातु नै पावक साखि सबै जग जानी।
साहब से 'गिरिधारन जू' भगवान् समान कहैं मुनि ज्ञानी॥
तू जो कहैं वह दच्छिन हैं, तो हमैं कहा बाम हैं, बाम अजानी।
भागन सों पति ऐसो मिलै, सबहींन को दच्छिन जो सुखदानी॥


[ ४०१ ]

( ग्रीष्म वर्णन से )


जगह जड़ाऊ जामे जड़े हैं जवाहिरात,
जगमग जोति जाकी जग में जमति है।
जामे जदुजानि जान प्यारी जातरूप ऐसी,
जगमुख ज्वाल ऐसी जोन्ह सी जगति है॥
‘गिरिधरदास’ जोर जबर जवानी को है,
जोहि जोहि जलजा हू जीव में जकति है।
जगत के जीवन के जिय को चुराए जोय,
जोए जोपिता को जेठ-जरनि जरति है॥

(४६) द्विजदेव (महाराज मानसिह)—ये अयोध्या के महाराज थे और बड़ी ही सरस कविता करते थे। ऋतुओं के वर्णन इनके बहुत ही मनोहर हैं। इनके भतीजे भुवनेशजी (श्री त्रिलोकीनाथजी, जिनसे अयोध्यानरेश ददुआ साहब से राज्य के लिये अदालत हुई थी) ने द्विजदेवजी की दो पुस्तके बताई हैं, शृंगारबत्तीसी और श्रृंगारलतिका। ‘शृंगारलतिका’ का एक बहुत ही विशाल और सटीक संस्करण महारानी अयोध्या की ओर से हाल में प्रकाशित हुआ है। इसके टीकाकार है भूतपूर्व अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायण सिंह। श्रृंगारबत्तीसी’ भी एक बार छपी थी। द्विजदेव के कवित्त काव्य-प्रेमियों में वैसे ही प्रसिद्ध हैं जैसे पद्माकर के। ब्रजभाषा के शृंगारी कवियों की परंपरा में इन्हें अंतिम प्रसिद्ध कवि समझना चाहिए। जिस प्रकार लक्षण-ग्रंथ लिखनेवाले कवियों में पद्माकर अंतिम प्रसिद्ध कवि है उसी प्रकार समूची शृंगार परंपरा में ये। इनकी सी सरस और भावमयी फुटकल शृंगारी कविता फिर दुर्लभ हो गई।

इनमें बड़ा भारी गुण है भाषा की स्वच्छता। अनुप्रास आदि शब्दचमत्कारों के लिये, इन्होंने भाषा भद्दी कहीं नहीं होने दी है। ऋतुवर्णनों में इनके हृदय का उल्लास उमड़ पडता है। बहुत से कवियों के ऋतुवर्णन हृदय की सच्ची उमंग का पता नहीं देते, रस्म सी अदा करते जान पड़ते हैं। पर इनके चकोरों की चहक के भीतर इनके मन की चहक भी साफ झलकती [ ४०२ ]है। एक ऋतु के उपरांत दूसरी ऋतु के आगमन पर इनका हृदय अगवानी के लिये मानों आपसे आप आगे बढ़ता था। इनकी कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––

मिलि माधवी आदिक फूल के ब्याज विनोदलवा बरसायो करैं।
रचि नाच लतादन तान बितान सबै विधि चित्त चुरायो करैं॥
द्विजदेव, जू देखि अनोखी प्रभा अलिचारन कीर्ति गायो करैं।
चिरंजीवी, बसंत! सदा द्विजदेव प्रसुनन की भरि लायो करैं॥


सुरही के भार सूधे सबद सुकीरन के,
मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूं न गौन।
द्विजदेव त्यौं ही मधुभारन अपारन सों
नेकु झुकि झूमि रहें मोगरे मरुअ दौन॥
खोलि इन नैनन निहारौं तौ निहारौं कहा?
सुषमा अभूत छाय रही प्रति भौन भौन।
चाँदनी के भारन दिखात उनयो सो चंद,
गंध ही के भारत बहन मंद मंद पौन॥


बोलि हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगज,
सिखै हारी सखी सब जुगुति नई नई।
द्विजदेव की सौं लाज-बैरिन कूसंग इन
अंगन हू आपने अनीति इतनी ठई॥
हाय इन कुंजन तें पलटि पधारे स्याम,
देखन न पाई वह मूरति सुधामई।
आवन समैं में दुखदाइनि भई री लाज,
चलन समैं में चल पलन दगा दई॥


[ ४०३ ]

आजु लुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
ताहि समै तहँ आए गोपाल, तिन्हैं लखि औरौं गयो हियरो ठगि॥
पै द्विजदेव न जानि पर्यो धौं कहा तेहि काल परे अँसुवा जगि।
सू जो कही, सखि! लोनो सरुप सो मो अँखियान को लोनी गई लगि॥


बाँके कहीने रातें कंज-छबि छीने माते,
झुकि झुकि झूमि झूमि काहू को कछू गनै न।
द्विजदेव की सौं ऐसी कनक बनाय बहु,
भाँतिन बगारे चित चाहन चहूँघा चैन॥
पेखि परे प्रात जौ पै गातन उछाह भरे,
बार बार तातें तुम्हें बूझती कछूक बैन।
एहो ब्रजराज! मेरो प्रेमधन लूटिबे को,
बीरा खाए आए कितै आपके अनोखे नैन॥


भूले भूले भौंर बन भाँवरे भरैंगे चहूँ,
फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जायहै।
द्विजदेव की सौं वह कूजन बिसारि कूर,
कोकिल कलकी ठौर ठौर पछितायहै॥
आवत बसंत के न ऐहैं जौ पै स्याम तौ पै,
बावरी! बलाय सों, हमारेऊ उपाय हैं।
पीहैं पहिलेई तें हलाहल मँगाय या,
कलानिधि की एकौ कला चलन न पायहैं॥


घहरि घहरि घन सघन चहूँघा घेरि,
छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।
द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव,
एरे पातकी पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना॥

[ ४०४ ]

फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ, एरे,
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।
हौं तौ बिन प्रान, प्रान चहत तजोई अब,
कत नभ चंद तू अकास चढ़ि धावै ना॥