हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ घनआनंद

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[ ३३७ ] (१०) घनआनंद––ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के प्रधान स्तंभों में हैं। इनका जन्म संवत् १७४६ के लगभग हुआ था और ये संवत् १७९६ में नादिरशाही में मारे गए। ये जाति के कायस्थ और दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीरमुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियो ने बादशाह से कही कि मीरमुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएँगे, यदि इनकी प्रेमिका सुजान नाम की वेश्या कहे तब गाएँगे। वेश्या बुलाई गई। इन्होंने उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इनके गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने इन्हे शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इसपर इन्हे विराग उत्पन्न हो गया और ये वृंदावन जाकर निंवार्क-संप्रदाय के वैष्णव हो गए और [ ३३८ ]वहीं पूर्ण विरक्त भाव से रहने लगे। वृंदावन-भूमि का प्रेम इनके इस कवित्त से झलकता है––

गुरनि बतायो, राधा मोहन हू गायो,
सदा सुखद सुहायो वृंदावन गाढ़े गहि रे।
अद्भुत अभूत महिमंडन, परे तें परे,
जीवन को लाहु हा हा क्यों न ताहि लहि रे॥
आनंद को घन छायो रहत निरंतर ही,
सरस सुदेय सो, पपीहापन बहि रे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर ऐसी,
पावन पुलिन पै पतित परे रहि रे॥

संवत् १७९६ में जब नादिरशाह की सेना के सिपाही मथुरा तक आ पहुँचे तब कुछ लोगों ने उनसे कह दिया कि वृंदावन में बादशाह का मीरमुंशी रहता है; उसके पास बहुत कुछ माल होगा। सिपाहियों ने इन्हें आ घेरा और 'जर जर जर' (अर्थात् धन, धन, धन, लाओ) चिल्लाने लगे। घनानंदजी ने शब्द को उलटकर 'रज' 'रज' कहकर तीन मुट्ठी वृंदावन की धूल उनपर फेंक दी। उनके पास सिवा इसकें और था ही क्या? सैनिकों ने क्रोध में आकर इनका हाथ काट डाला। कहते है कि मरते समय इन्होंने अपने रक्त से यह कवित्त लिखा था––

बहुत दिनान की अवधि आसपास परे,
खरे अरबरनि भरै हैं उठिं जान को।
कहि कहि आवन छबीले मन-भावन को,
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को॥
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब ना घिरत घनआनँद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को॥

[ ३३९ ]घनआनंदजी के इतने ग्रंथों का पता लगता है––सुजान सागर, बिरहलीला, कोकसागर, रसकेलिवल्ली और कृपाकंड। इसके अतिरिक्त इनके कवित्त सवैयो के फुटकल संग्रह डेढ़ सौ से लेकर सवा चार सौ कवित्तों तक के मिलते हैं। कृष्णभक्ति संबंधी इनका एक बहुत बड़ा ग्रंथ छत्रपुर के राज-पुस्तकालय में है जिसमें प्रियाप्रसाद, ब्रजव्यवहार, वियोगवेली, कृपाकद निबंध, गिरिगाथा, भावनाप्रकाश, गोकुलविनोद, धाम चमत्कार, कृष्णकौमुदी, नाममाधुरी, वृंदावनमुद्रा, प्रेमपत्रिका, रसबसंत इत्यादि अनेक विषय वर्णित हैं। इनकी 'विरहलीला' ब्रजभाषा में पर फारसी के छंद में है।

इनकी सी विशुद्ध, सरस, और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है। विप्रलभ शृंगार ही अधिकतर इन्होंने लिया है। ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि है। "प्रेम की पीर" ही लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखनेवाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। अतः इनके संबंध में निम्नलिखित उक्ति बहुत ही संगत है––

नेही महा, ब्रजभाषा-प्रवीन औ सुंदरताहु के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै॥
चाह के रंग में भीज्यो हियों, बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।
भाषाप्रबीन, सुछंद सदा रहै सो घन जू के कवित्त बखानै॥

इन्होंने अपनी कविताओं में बराबर 'सुजान' को संबोधन किया है जो शृंगार में नायक के लिये और भक्तिभाव में कृष्ण भगवान् के लिये प्रयुक्त मानना चाहिए। कहते हैं कि इन्हें अपनी पूर्व प्रेयसी 'सुजान' का नाम इतना प्रिय था कि विरक्त होने पर भी इन्होंने उसे नहीं छोड़ा। यद्यपि अपने पिछले जीवन में घनानंद विरक्त भक्त के रूप में वृंदावन जा रहे पर इनकी अधिकांश कविता भक्ति-काव्य की कोटि में नहीं आएगी, शृंगार की ही कही जायगी। लौकिक प्रेम की दीक्षा पाकर ही ये पीछे भगवत्प्रेम में लीन हुए। कविता इनकी भावपक्षप्रधान है। कोरे विभावपक्ष का चित्रण इनमें कम मिलता है। जहाँ रूप छटा का वर्णन [ ३४० ]इन्होंने किया भी है वहाँ उसके प्रभाव का ही वर्णन मुख्य हैं। इनकी वाणी की प्रवृत्ति अंतर्वृत्ति-निरूपण की ओर ही विशेष रहने के कारण बाह्यार्थ-निरूपक रचना कम मिलती है। होली के उत्सव, मार्ग में नायक-नायिका की भेंट, उनकी रमणीय चेष्टाओं आदि के वर्णन के रूप में ही वह पाई जाती है। संयोग का भी कहीं कहीं बाह्य वर्णन मिलता है, पर उसमें भी प्रधानता बाहरी व्यापारों या चेष्टाओं की नहीं है, हृदय के उल्लास और लीनता की ही है।

प्रेमदशा की व्यंजना ही इनको अपना क्षेत्र है। प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिंदी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं। इस दशा का पहला स्वरूप है हृदय या प्रेम का आधिपत्य और बुद्धि का अधीन पद, जैसा कि घनानंद ने कहा है––

"रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुधि बापुरी ह्वै करि दासी‌।"

प्रेमियों की मनोवृत्ति इस प्रकार की होती है कि वे प्रिय की कोई साधारण चेष्टा भी देखकर उसको अपनी ओर झुकाव मान लिया करते हैं और फूले फिरते हैं। इसका कैसा सुंदर आभास कवि ने नायिका के इस वचने द्वारा दिया है जो मन को संबोधन करके कहा गया है––

"रुचि के वे राजा जान प्यारे हैं आनंदघन,
होत कहा हेरे, रंक! मानि लीनो मेल सो"॥

कवियों की इसी अंतर्दृष्टि की ओर लक्ष्य करके एक प्रसिद्ध मनस्तत्ववेत्ता ने कहा है कि भावो या मनोविकारों के स्वरूप-परिचय के लिये कवियो की वाणी का अनुशीलन जितना उपयोगी है उतना मनोविज्ञानियों के निरूपण नहीं।

प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानंद ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है। उनके विरोध-मूलक वैचित्र्य की प्रवृत्ति का कारण यहीं समझना चाहिए।

यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षो को लिया है, पर वियोग की अंतर्दशाऔ की ओर ही दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग संबंधी पद्य ही प्रसिद्ध है। वियोग-वर्णन भी अधिकतर अंतर्वृत्ति-निरूपक है, बाह्यार्थ-निरूपक नहीं। घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरह ताप को बाहरी मान से मापा है, न बाहरी उछल-कूद दिखाई है, जो कुछ हलचल है वह भीतर की है–– [ ३४१ ]बाहर से वह वियोग प्रशांत और गभीर है; न उसमें करवटें बदलना है, न सेज की आग की तरह तपना है, न उछल-उछल कर भागना है। उनकी "मौन मधि पुकार" है।

यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़ कर ऐसी वशवर्त्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे उस रूप में मोड़ सकते थे। इनके हृदय का योग पाकर भाषा को नूतन गतिविधि का अभ्यास हुआ और वह पहले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी। जब आवश्यकता होती थी तब ये उसे बँधी प्रणाली पर से हटाकर अपनी नई प्रणाली पर ले जाते थे। भाषा की पूर्व अर्जित शक्ति से ही काम न चला कर इन्होंने उसे अपनी ओर से शक्ति प्रदान की है। घनानंदजी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिये भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिंदी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।

लक्षण का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिंदी-कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए है जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग-वैचित्र्य की जो छटा इनमें दिखाई पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिक काल के उत्तरार्द्ध में, अर्थात् वर्तमान, काल की नूतन काव्यधारा में ही, 'अभिव्यंजना-वाद' के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग, लिए प्रकट हुई। घनानंद का प्रयोगवैचित्र्य दिखाने के लिये कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैं––

(क) अरसानि गही वह वानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।

(ख) ह्वै है सोऊ घरी भाग-उघरी अनंदघन सुरस बरसि, लाल! देखिहौ हरी हमे। ('खुले भाग्यवाली घड़ी' में विशेषण-विपर्यय)।

(ग) उघरो जग, छाय रहे घन-आनँद, चातक ज्यों तकिए अब तौ। (उघरो जग=संसार जो चारो ओर घेरे था वह दृष्टि से हट गया।) [ ३४२ ](घ) कहिए सु कहा, अब मौन भली, नहिं खोवते जौ हमैं पावते जू। (हमैं=हमारा हृदय)।

विरोधमूलक वैचित्र्य भी जगह जगह बहुत सुंदर मिलता है, जैसे––

(च) झूठ की सचाई छाक्यो, त्यों हित-कचाई पाक्यो, ताके गुनगन घनानंद कहा गनौं।

(छ) उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखौ, सुब्स सुदेस जहाँ रावरे बसत हो।

(ज) गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।

(झ) तेरे ज्यौं न लेखो, मोहिं मारत परेखो महा, जान घनानँद पै खोयबो लहत हैं।

इन उद्धरणो से कवि की चुभती हुई वचन-वक्रता पूरी पूरी झलकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि की उक्ति ने वक्र पथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।

भाव का स्रोत जिस प्रकार टकराकर कहीं कहीं वक्रोक्ति के छींटे फेंकता है उसी प्रकार कहीं कहीं भाषा के स्निग्ध, सरल और चलते प्रवाह के रुप में भी प्रकट होता है। ऐसे स्थलों पर अत्यंत चलती और प्रांजल ब्रजभाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है––

कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहाँ तुम?
हौ मन-मोहन, मोहे कहूँ न, बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वै, हाय! कछु उर आनौ कहो तुम?
आरतिवंत पपीहन को घन आनँद जू! पहिचानौ कहा तुम?


कारी कूर कोकिल कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै।
पैंढ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही,
चातक रे घातक ह्वै तूहू कान फोरि लैं॥

[ ३४३ ]

आनँद के घन प्रान-जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरो-दल जोरि लै।
जौ लौं करैं आवन विनोद-बरसावन वे,
तौ लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै॥

इस प्रकार की सरल रचनाओं में कहीं-कहीं नाद-व्यंजना भी बड़ी अनूठी है। एक उदाहरण लीजिए––

ए रे बीर पौन! तेरो सबै और गौन, वारि
तो सों और कौन मनै ढरकौहीं बानि दै।
जगत के प्रान, ओछे बडे़ को समान, घन
आनंद-निधान सुखदान दुखियानि दै॥
जान उजियारे, गुन-भारे अति मोहि प्यारे
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचान दै।
बिरह बिथा को मूरि आँखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन्ह पायँन की हा हा! नैकु आनि दै॥

ऊपर के कवित्त के दूसरे चरण में आए हुए "आनँद-निधान सुखदान दुखियानि दै" में मृदंग की ध्वनि का बड़ा सुंदर अनुकरण हैं।

उक्ति का अर्थगर्भव भी धनानंद का स्वतंत्र और स्वावलंबी होता है, बिहारी के दोहों के समान साहित्य की रूढ़ियों (जैसे, नायिकाभेद) पर आश्रित नहीं रहता। उक्तियो की सांगोपांग योजना या अन्विति इनकी निराली होती है। कुछ उदाहरण लीजिए––

पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
ताही के चारु चरित्र विचित्रनि यों पचि कै रचि राखि विसेख्यो॥
ऐसो हियो-हित-पत्र पवित्र जो आन कथा न कहूँ अवरेख्यो।
सो घन-आनँद जान अजान लौं टूक कियो,पर वाँचि न देख्यो॥


आनाकानी आरसी निहारिबो करोगे कौलो?
कहा भो चकित दसा त्यों न दीठि डोलि है?

[ ३४४ ]

मौन हू सो देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूक-भरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घन-आनँद यों मोहिं तुम्हैं पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौंन धौं भलोलिहे।
रूई दिए रहौगे कहाँ लौं बहरायबे की?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै॥


अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है,
मेरी न सुनत, दैया! आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब, सुझी नाहिं,
बुझी न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ॥
हौं तौ जानराय, जाने जाहु न, अजान यातें,
आनँद के घन छाया छाय उधरे रहौ।
मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैए नैकु,
हमैं खोय या बिधि हो! कौन धौं लहा लहौ॥


मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति,
दीठि-लासला के लोयननि लै लै आँजिहौ।
रति-रसना-सवाद पाँवड़े पुनीतकारी पाय,
चूमि चूमि कै कपोलनि सों माँजिहौ॥
जान प्यारे प्रान अंग-अंग-रुचि-रंगनि में,
बोरि सब अंगन अनंग-दुख भाँजिहौं।
कब घन-आनँद ढ़रौही बानि देखें,
सुधा हेत मन-घट दरकनि सुठि राँजिहौं॥
(राँजना=फूटे बरतन में जोड़ या टाँका लगाना।)


[ ३४५ ]

निसि द्यौस खरी उतर माँझ अरी छबि रंगभरी मुरी चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हित ढोरनि बाहनि की॥
चट दै कटि पै बंट प्रान गए गति सों मति में अवगाहनि की।
घनआँनद जान लख्यों जब तें जक लागियै मोहि कराहनि की॥

इस अंतिम सवैये के प्रथम तीन चरणों में कवि ने बहुत सूक्ष्म कौशल दिखाया है। 'मुरि चाहनि' और 'तकि मोरनि' से यह व्यक्त किया गया है कि एक बार नायक ने नायिका की ओर मुड़कर देखा फिर देखकर मुड़ गए और अपना रास्ता पकड़ा। देख कर जब वे मुड़े तब नायिका का मन उनकी ओर इस प्रकार ढल पड़ा जैसे पानी नाली में दल जाता है। कटि में बल देकर प्यारे नायिका के मन में डूबने के भय से निकल गए।

घनानंद के ये दौ सवैये बहुत प्रसिद्ध है––

पर कारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करो, सबही बिधि सुंदरता सरसौ॥
घनआनँद जीवनदायक हौ, कबौं मैरियौं पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुज्ञान के आँगन गो अँसुवान कौ लै बरसौ॥


अति सूधो सनेह को मारग हैं, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं॥
घनआनँद प्यारे सुजान सुनौ, इत एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़ें हो लला, मन लैहु पै देहु छटाँक नहीं।


('विरहलीला' से)

सलोने श्याम प्यारे क्यों न आवौ। दरस प्यासी मरैं तिनकौं जिवावौ॥
कहाँ हौ जू, कहाँ हौ जू, कहाँ हौ। लगे ये प्रान तुमसों हैं जहाँ हौ॥
रहौ किन प्रान प्यारे नैन आगैं। तिहारे कारनै दिनरात जागैं॥
सजन! हित मान कै ऐसी न कीजै! भई हैं बावरी सुध आय लीजै॥