हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ जोधराज

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[ ३५३ ] (१४) जोधराज––ये गौड़ ब्राह्मण बालकृष्ण के पुत्र थे। इन्होंने नीबँगढ़ (वर्तमान नीमराणा––अलवर) के राजा चंद्रभान चौहान के अनुरोध से "हम्मीर रासो" नामक एक बड़ा प्रबंध-काव्य संवत् १८७५ में लिखा जिसमें रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीरदेव का चरित्र वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति पर वर्णन किया गया है। हम्मीरदेव सम्राट् पृथ्वीराज के वंशज थे। उन्होंने दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन को कई बार परास्त किया था और अंत में अलाउद्दीन की चढ़ाई में ही वे मारे गए थे। इस दृष्टि से इस काव्य के नायक देश के प्रसिद्ध वीरों में हैं। जोधराज ने चंद आदि प्राचीन कवियो की पुरानी भाषा का भी यत्र तत्र अनुकरण किया है;––जैसे जगह जगह 'हि' विभक्ति के प्राचीन रूप 'ह' का प्रयोग। 'हम्मीररासो' की कविता बड़ी ओजस्विनी है। घटनाओं का वर्णन ठीक ठीक और विस्तार के साथ हुआ है। काव्य का स्वरूप देने के लिये कवि ने कुछ घटनाओं की कल्पना भी की है। जैसे महिमा मंगोल का अपनी प्रेयसी वेश्या के साथ दिल्ली से भागकर हम्मीरदेव की शरण में आना और अलाउद्दीन को दोनों को माँगना। यह कल्पना राजनीतिक उद्देश्य हटाकर प्रेम-प्रसंग को युद्ध का कारण बताने के लिये, प्राचीन कवियो की प्रथा के अनुसार, की गई है। पीछे संवत् १९०२ में चंद्रशेखर वाजपेयी ने जो हम्मीरहठ लिखा उसमें भी यह घटना ज्यों की त्यो ले ली गई है। ग्वाल कवि के हम्मीरहठ में भी, बहुत संभव है कि, यह घटना ली गई होगी। [ ३५४ ]प्राचीन वीरकाल के अंतिम-राजपूत वीर का चरित जिस रूप में और जिस प्रकार की भाषा में अंकित होना चाहिए था उसी रूप और उसी प्रकार की भाषा में जोधराज अंकित करने में सफल हुए हैं, इससे कोई संदेह नहीं। इन्हें हिंदी-काव्य की ऐतिहासिक परंपरा की अच्छी जानकारी थी, यह बात स्पष्ट लक्षित होती है। नीचे इनकी रचना के कुछ नमूने उद्धृत किए जाते हैं––

कब हठ करै अलावदीं रणभँवर गढ़ आहि। कबै सेख सरनै रहैं बहुरयों महिमा साहि॥
सूर सोच मन में करी, पदवी लहौं न फेरि। जो हठ छडो राव तुम, उत न लजै अजमेरि॥
सरन राखि सेख न तजौ, सीस गढ़ देस। रानी राव हमीर को यह दीन्हौं उपदेस॥



कहँ पँवार जगदेव सीस आपन कर कट्ट्यो। कहाँ भोज विक्रम सुराव जिन पर दुख मिट्ट्यो॥
सवा भार नित करन कनक विप्रन को दीनो। रह्यो न रहिए कोय देव नर नाग सु चीनो॥
यह बात राव हम्मीर सूँ रानी इमि आसा कहीं। जो भई चक्कवै-मंडली सुनौ रवि दीखै नहीं॥


जीवन मरन सँजोग जग कौन मिटावै ताहि। जो जनमै संसार में अमर रहै नहिं आहि॥
कहाँ जैत कहँ सुर, कहाँ सोमेश्वर राणा‌। कहाँ गए प्रथिराज साह दल जीति न आणा॥
होतब मिटै न जगत में कीजै चिंता कोहि। आसा कहै हमीर सौं अब चूकौ मत सोहि॥

पुंडरीक-सुत-सुता तासु पद-कमल मनाऊँ।
बिसद बरन बर बसन विषद भूषन हिय ध्याऊँ॥
विषद जत्र सुर सुद्ध तंत्र तुबर जुत सोहै।
विषद ताल इक भुजा, दुतिय पुस्तक मन मोहै॥
गलि राजहंस हंसह चढ़ी रटी सुरन कीरति बिमल।
जय मातु सदा बरदायिनी, देहु सदा बरदान-बल॥

(१५) बख्शी हंसराज––ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। इनका जन्म संवत् १७९९ में पन्ना में हुआ था। इनके पूर्वज बख्शी हरकिशुनजी पन्ना राज्य के मंत्री थे। हंसराजजी पन्नानरेश श्री अमानसिंह जी के दरबारियों में थे। ये ब्रज की व्यासगद्दी के "विजय सखी" नामक महात्मा के शिष्य थे, जिन्होंने इनका [ ३५५ ]सांप्रदायिक नाम 'प्रेमसखी' रखा था। 'सखी-भाव' के उपासक होने के कारण इन्होंने अत्यंत प्रेम माधुर्यपूर्ण रचनाएँ की है। इनके चार ग्रंथ पाए जाते हैं––

(१) सनेह-सागर, (२) विरहविलास, (३) रामचंद्रिका, (४) बारहमासा (संवत् १८११)

इनमें से प्रथम बड़ा ग्रंथ है। दूसरा शायद इनकी पहली रचना है। 'सनेह सागर' का संपादन श्रीयुत लाला भगवानदीनजी बड़े अच्छे ढंग से कर चुके हैं। शेष ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए है।

'सनेह-सागर' नौ तरंगों में समाप्त हुआ हैं जिनमें कृष्ण की विविध लीलाएँ सार छंद में वर्णन की गई हैं। भाषा बहुत ही मधुर, सरस और चलती है। भाषा का ऐसा स्निग्ध सरल प्रवाह बहुत कम देखने में आता है। पद-विन्यास अत्यंत कोमल और ललित हैं। कृत्रिमता का लेश नहीं। अनुप्रास बहुत ही संयत मात्रा में और स्वाभाविक है। माधुर्य प्रधानतः संस्कृत की पदावली का नहीं, भाषा की सरल सुबोध पदावली का है। शब्द का भी समावेश व्यर्थ केवल भावपूर्णअर्थ नहीं है। सारांश यह कि इनकी भाषा सब प्रकार से आदर्श भाषा हैं। कल्पना भाव-विधान में ही पूर्णतया प्रवृत्त है, अपनी अलग उड़ान दिखाने में नहीं। भाव-विकास के लिये अत्यंत परिचित और स्वाभाविक व्यापार ही रखे गए हैं। वास्तव में 'सनेह-सागर' एक अनूठा ग्रंथ है। उसके कुछ पद नीचे उदधृत किए जाते हैं––

दमकति दिपति देह दामिनि सी चमकत चंचल नैना।
घूँघट बिच खेलत खंजन से उडि उडि दीठि लगै ना॥
लटकति ललित पीठ पर चोटी बिच बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनि कारी॥


इत तें चली राधिका गोरी सौंपन अपनी गैया।
उत तें अति आतुर आनँद सों आए कुँवर कन्हैया॥
कसि भौहै, हँसि कुँवरि राधिका कान्ह कुँवर सों बोली।
अँग अँग उमंगि भरे आनँद, दरकति छिन छिन चोली॥


[ ३५६ ]

एरे मुकुटवार चरवाहे! गाय हमारी लीजौ।
जाय न कहूँ तुरत की ब्यानी, सौंपि खरक कै दोजौ॥
होहु चरावनहार गाय के बाँधनहार छुरैया।
कलि दीजौ तुम आय दोहनी, पावै दूध लुरैया॥


कोऊ कहूँ आय बन-वीथिन या लीला लखि जैहै।
कहि कहि कुटिल कठिन कुटिलन सों सिगरे ब्रज बगरैहै॥
जो तुम्हरी इनकी ये बातैं सुनिहैं कीरति रानी।
तौ कैसे परिहै पाटे तें, घटिहै कुल को पानी॥

(१६) जनकराज-किशोरीशरण––ये अयोध्या के एक वैरागी थे और संवत् १७९७ में वर्तमान थे। इन्होंने भक्ति, ज्ञान और रामचरित-संबंधिनी बहुत सी कविता की है। कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे हैं। हिंदी कविता साधारणतः अच्छी है। इनकी बनाई पुस्तकों के नाम ये है––

आंदोलरहस्य दीपिका, तुलसीदासचरित्र, विवेकसार चंद्रिका, सिद्धातचौंतीसी, बारहखड़ी, ललित-शृंगार-दीपक, कवितावली, जानकीसरणाभरण, सीताराम सिद्धांतमुक्तावली, अनन्य-तरंगिणी, रामरस तरंगिणी, आत्मसबंध-दर्पण, होलिकाविनोद-दीपिका, वेदांतसार, श्रुति दीपिका, रसदीपिका, दोहावली, रघुवर करुणाभरण।

उपर्युक्त सूची से प्रकट है कि इन्होंने राम-सीता के शृंगार, ऋतुविहार आदि के वर्णन में ही भाषा कविता की है। इनका एक पद्य नीचे दिया जाता है––

फूले कुसुम द्रुम विविध रंग सुगंध के चहुँ चाब।
गुंजत मधुप मधुमत्त नाना रंग रज अँग फाब॥
सीरो सुगंध सुमंद बात विनोद कत बहत।
परसत अनंग उदोत हिय अभिलाष कामिनि कंत॥

(१७) अलबेली अलि––ये विष्णुस्वामी संप्रदाय के महात्मा 'वंशीअलि' जी के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त इनका और कोई वृत्त ज्ञात नहीं। अनुमान [ ३५७ ]से इनका कविता-काल विक्रम की १८ वीं शताब्दी का अंतिम भाग आता है। ये भाषा के सत्कवि होने के अतिरिक्त संस्कृत में भी सुंदर रचना करते थे जिसका प्रमाण इनका लिखा 'श्रीस्तोत्र' है। इन्होंने "समय-प्रबंध-पदावली" नामक एक ग्रंथ लिखा है जिसमें ३१३ बहुत ही भाव भरे पद है नीचे कुछ पद उद्धृत किए जाते हैं––

लाल तेरे लोभी लोलुप नैन।
केहि रस-छकनि छके हौ छबीले मानत नाहिंन चैन।
नींद नैन घुरि घुरि आवत अति, घोरि रही कछु नैन॥
अलबेली अलि रस के रसिया, कत बितरह ये बैन।


बने नवल प्रिय प्यारी।
सरद रैन उजियारी॥

सरद रैन सुखदैन मैनमय जमुनातीर सुहायो।
सकल कला-पूरन सति सीतल महि-मंडन पर आयो॥
अतिमय सरस सुगंध मंद गति बहुत पवन रुचिकारी।
नव नव रूप नवल नव जोबन बने नवल पिय प्यारी॥

(१८) चाचा हित वृंदावन दास––ये पुष्कर क्षेत्र के रहनेवाले गौड़ ब्राह्मण थे और संवत् १७६५ में उत्पन्न हुए थे। ये राधावल्लभीय गोस्वामी हितरुपजी के शिष्य थे। तत्कालीन गोसाईंजी के पिता के गुरुभ्राता होने के कारण गोसाईजी की देखादेखी सब लोग इन्हें "चाचाजी" कहने लगे। ये महाराज नागरीदासजी के भाई बहादुरसिंहजी के आश्रय में रहते थे, पर जब राजकुल में विग्रह उत्पन हुआ तब ये कृष्णगढ़ छोड़कर वृंदावन चले आए और अंत समय तक वही रहे। संवत् १८०० से लेकर सवत् १८४४ तक की इनकी रचनाओं का पता लगता है। जैसे सूरदास के सवा लाख पद बनाने की जनश्रुति है वैसे ही इनके भी एक लाख पद और छंद बनाने की बात प्रसिद्ध हैं। इनमें से २०००० के लगभग पद्य तो इनके मिले है। इन्होंने नखशिख, अष्टयाम, समय प्रबंध, छद्मलीला आदि असंख्य प्रसंगों का विशद वर्णन किया [ ३५८ ]है। छंदलीलाओं का वर्णन तो बड़ा ही अनूठा हैं। इनके ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुए हैं। रागरत्नाकर आदि ग्रंथ में इनके बहुत से पद संग्रहीत मिलते हैं। छत्रपुर के राज-पुस्तकालय में इनकी बहुत सी रचनाएँ सुरक्षित हैं।

इतने अधिक परिमाण में होने पर भी इनकी रचना शिथिल या भरती की नहीं है। भाषा पर इनका पूरा अधिकार प्रकट होता हैं। लीलाओं के अंतर्गत वचन और व्यापार की योजना भी इनकी कल्पना की स्फूर्ति का परिचय देती हैं। इनके दो पद नीचे दिए जाते है––

(मनिहारी लीला से)

मिठबोलनी नवल मनिहारी।
भौहैं गोल गरूर हैं, याके नयन चुटीले भारी।
चुरी लखि मुख तें कहै, घूँघट में मुसकाति।
ससि मनु बदरी ओट तें दुरि दरसत यहि भाँति॥
चुरो बड़ो है मोल को, नगर न गाहक कोय।
मो फेरी खाली परी, आई सब घर टोय॥


प्रीतम तुम मो दृगन बसत हौ।
कहीं भरोसे ह्वै पूछत हौं, कै चतुराई करि जु हँसत हौ॥
लीजै, परखि स्वरूप आपनो, पुतरिन में तुमहीं तौ लसत हौ।
वृंदावन हित रूप रसिक तुम, कुंज लड़ावत हिय हुलसत हौ॥

(१९) गिरिधर कविराज––इनका कुछ भी वृत्तांत ज्ञात नहीं। नाम से भाट जान पड़ते हैं। शिवसिंह ने इनका जन्म संवत् १७७० दिया है जो संभवतः ठीक हो। इस हिसाब से इनकी कविताकाल संवत् १८०० के उपरांत ही माना जा सकता है। इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। अपढ़ लोग भी दो चार चरण जानते हैं। इस सर्वप्रियता का कारण है बिल्कुल सीधी सादी भाषा में तथ्य मात्र का कथन। इनमें न तो अनुप्रास आदि द्वारा भाषा की सजावट है, न उपमा उत्पेक्षा आदि का चमत्कार। कथन की पुष्टि मात्र के लिये (अलंकार की दृष्टि से नहीं) दृष्टांत आदि इधर उधर मिलते हैं। कहीं [ ३५९ ]कहीं, पर बहुत कम, कुछ अन्योक्ति का सहारा इन्होंने लिया है। इन सब बातों के विचार से ये कोरे 'पद्यकार' ही कहे जा सकते हैं, सूक्तिकार भी नहीं। वृंद कवि में और इनमें यही अंतर हैं। वृंद ने स्थान-स्थान पर अच्छी घटती हुई और सुंदर उपमाओं आदि का भी विधान किया है। पर इन्होंने कोरा तथ्य-कथन किया है। कहीं कहीं तो इन्होंने शिष्टता का ध्यान भी नहीं रखा है। पर घर गृहस्थी के साधारण व्यवहार, लोकव्यवहार आदि का बड़े स्पष्ट शब्दों में इन्होंने कथन किया है। यही स्पष्टता इनकी सर्वप्रियता का एक मात्र कारण हैं। दो कुंडलियाँ दी जाती हैं––

साई बेटा बाप के बिखरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज॥
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे।
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे॥
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई?


रहिए लटपट काटि दिन बरु धामहि में सोय।
छाहँ न बाकी बैठिए जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहे।
जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै॥
कह गिरिधर कविराय छाह मोटे की गहिए।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिए॥

(२०) भगवत रसिक––ये टट्टी संप्रदाय के महात्मा स्वामी ललितमोहनीदास के शिष्य थे। इन्होंने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और निर्लिप्त भाव से भगवद्भजन में ही लगे रहे। अनुमान से इनका जन्म संवत् १७९५ के लगभग हुआ। अतः इनका रचनाकाल सवत् १८३० और १८५० के बीच माना जा सकता है। इन्होंने अपनी उपासना से सबंध रखनेवाले अनन्य-प्रेम-रसपूर्ण बहुत से पद, कवित्त, कुंडलिया, छप्पय आदि रचे है जिनमें एक ओर तो वैराग्य का [ ३६० ]भाव और दूसरी ओर अनन्य प्रेम का भाव छलकता है। इनका हृदय प्रेम-रसपूर्ण था। इसी से इन्होंने कहा है कि "भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।" ये कृष्णभक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। इन्होंने प्रेमतत्व का निरूपण बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं––

कुंजन तें उठि प्रात गात जमुना में धोवैं।
निधुबन करि दंडवत बिहारी को मुख जोवैं॥
करै भावना बैठि स्वच्छ थल रहित उपाध।
घर घर लेय प्रसाद लगै जब भोजन-साधा॥

संग करै भगवत रसिक, कर करवा, गूदरि गरे।
वृंदावन बिहरन फिरै, जुगल रूप नैनन भरे॥


हमारो वृंदावन उर और।
माया काल तहाँ नहिं ब्यापै जहाँ रसिक-सिरमौर॥
छूट जाति सत असत वासना, मन की दौरा-दौर।
भगवत रसिक बतायो श्रीगुरू अमल अलौकिक ठौर॥

(२१) श्री हठीजी––ये श्रीहितहरिवंशजी की शिष्य-परंपरा में बड़े ही साहित्यमर्मज्ञ और कला-कुशल कवि हो गए है। इन्होंने संवत् १८३७ में "राधासुधाशतक" बनाया जिसमें ११ दोहे और १०३ कवित्त-सवैए है। अधिकांश भक्तों की अपेक्षा इनमे विशेषता यह है कि इन्होंने कला-पक्ष पर भी पूरा जोर दिया है। इनकी रचना में यमक, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का बाहुल्य पाया जाता है। पर साथ ही भाषा या वाक्य-विन्यास में लद्धड़पन नहीं आने पाया है। वास्तव में "राधासुधाशतक" छोटा होने पर भी अपने देश का अनूठा ग्रंथ है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को यह ग्रंथ अत्यत प्रिय था। उससे कुछ अवतरण दिए जाते हैं––

कलप लता के कैधौं पल्लव नवीन दोऊ,
हरन मंजुता के कज ताके बनिता के हैं।

[ ३६१ ]

पावन पतित गुन गावैं मुनि ताके छवि,
छलै सबिता के जनता के गुरुता के हैं॥
नवौ निधि ताके सिद्धता के आदि आलै हठी,
तीनौ लोकता के प्रभुता के प्रभु ताके हैं।
कटै पाप ताकै बढैं पुन्य के पताके जिन,
ऐसे पद ताके वृषभानु की सुता के हैं॥


गिरि कीजै गोधन मयूर नव कुंजन को,
पसु कीजै महाराज नंद के नगर को।
नर कौन? तीन जौन राधे राधे नाम रटै,
तट कीजै वर कूल कालिंदी-कगर को॥
इतने पै जोई कछु कीजिए कुँवर कान्ह,
रखिए न आन फेर हठी के झगर को।
गोपी पद-पंकज-पराग कीजै महाराज,
तृन कीजै रावरेई गोकुल नगर को॥