हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ नवलदास कायस्थ

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[ ३८९ ] (४०) नवलदास कायस्थ––ये झाँसी के रहने वाले थे और समथर-नरेश राजा हिंदूपति की सेवा में रहते थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है जो भिन्न भिन्न विषयों पर और भिन्न भिन्न शैली के है। ये अच्छे चित्रकार भी थे। इनका झुकाव भक्ति और ज्ञान की ओर विशेष था। इनके लिखे ग्रंथों के नाम ये हैं––

रासपंचाध्यायी, रामचंद्रविलास, शकमोचन (सं॰ १८७३), जौहरिनतरंग (१८७५), रसिकरंजनी (१८७७), विज्ञान भास्कर (१८७८), ब्रजदीपिका (१८८३), शुकरंभासंवाद (१८८८), नाम-चिंतामणि (१९०३), मूलभारत (१९१२), भारत-सावित्री (१९१२), भारत कवितावली (१९१३), भाषा सप्तशती (१९१७), कविजीवन (१९१८),आल्हा रामायण (१९२२), रुक्मिणीमंगल (१९२५), मुलढोला (१९२५), रहस लावनी (१९२६), अव्यात्म रामायण, रूपक रामायण, नारीप्रकरण, सीतास्वयंवर, रामविवाहखड, भारत वार्तिक, रामायण सुमिरनी, पूर्वशृंगारखंड, मिथिलाखंड, दानलोभसंवाद, जन्म खंड।

उक्त पुस्तकों में यद्यपि अधिकांश बहुत छोटी छोटी हैं फिर भी इनकी रचना की बहुरूपता का आभास देती हैं। इनकी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई हैं। अतः इनकी रचना के संबंध में विस्तृत और निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। खोज की रिपोर्टों में उद्धृत उदाहरणों के देखने से रचना इनकी पुष्ट और अभ्यस्त प्रतीत होती है। ब्रजभाषा में कुछ वार्तिक या गद्य भी इन्होंने लिखा है। इनके कुछ पद्य नीचे देखिए––


अभव अनादि अनंत अपरा। अमन, अप्रान, अमर, अविकार॥
अग अनीह आतम अबिनासी। अगम अगोचर अबिरल वासी॥
अकथनीय अद्वैत अरामा। अमल असेष अकर्म अकामा॥
रइत अलिप्त ताहि उर ध्याऊँ। अनुपम अमल सुजस मैं गाऊँ॥


[ ३९० ]

सगुन सरूप सदा सुषमा-निधान मंजु,
बुद्धि गुन गुनन अगाध बनपति से।
भनै नवलेस फैल्यो बिशद मही में यस,
बरनि न पावै पार झार फनपति से॥
जक्त निज भक्तन के कलुष प्रभजै रंजै,
सुमति बढ़ावै धन धान धनपति से।
अधर न दूजो देव सहज प्रसिद्ध यह,
सिद्धि-बरदैन सिद्ध ईस गनपति से॥

(४१) रामसहायदास––ये चौबेपुर (जिला बनारस) के रहनेवाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे और काशी-नरेश महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। "बिहारी सतसई" के अनुकरण पर इन्होंने "रामसतसई" बनाई। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं। पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकलना नहीं, बिहारी को भी नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जायगा। बिहारी में क्या क्या मुख्य विशेषताएँ हैं यह उनके प्रसंग में दिखाया जा चुका है। जहाँ तक शब्दो की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है। वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है। और सफलता भी हुई है। पर हावो का वह सुंदर विधान, चेष्टाओ का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, सुचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में कहाँ? नकल ऊपरी बातों की हो सकती है, हृदय की नहीं है पर हृदय पहचानने के लिये हृदय चाहिए, चेहरे पर की दो आँखों से नहीं काम चल सकता। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी "रामसतसई" शृंगार-रस का एक उत्तम ग्रंथ है। इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तके और लिखी हैं––

वाणीभूषण, वृत्ततरंगिणी (सं॰ १८७३) और ककहरा।

वाणीभूषण अलंकार का ग्रंथ है और वृत्त-तरंगिणी पिंगल का। ककहरा जायसी की 'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे पिछली [ ३९१ ]रचना है, क्योंकि उसमें धर्म और नीति के उपदेश है। रामसहाय का कविताकाल संवत् १८६० से १८८० तक माना जा सकता है। नीचे सतसई के कुछ दोहे उद्धृत किए जाते हैं––

गढ़े नुकीले लाल के नैन रहैं दिन रैनि।
तब नाजुक ठोढ़ी न क्यों गाड़ परै मृदुबैनि?
भटक न, झटपट चटक कै अटक सुनुट के संग।
लटक पीतपट की निपट हटकति कटक अनंग॥
लागै नैना नैन में कियो कहा धौ मैन।
नहिं लागै नैना, रहैं लागे नैना नैन॥
गुलुफनि लगि ज्यों त्यों गयो, करि करि साहस जोर।
फिर न फिरयो मुरवान चपि, चित अति खात मरोर॥
यौ बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।
पति को नातो मानि कै मनु आई उडुमार॥

(४२) चद्रशेखर––ये वाजपेयी थे। इनका जन्म संवत् १८५५ में मुअज्जमावाद (जिला फतहपुर) में हुआ था। इनके पिता मनीरामजी भी अच्छे कवि थे। ते कुछ दिनों तक दरभंगे की ओर, फिर ६ वर्ष तक जोधपुरनरेश महाराजा मानसिंह के यहाँ रहे। अंत में पटियाला-नरेश महाराज कर्मसिंह के वहाँ गए और जीवन भर पटियाले में ही रहे। इनका देहान्त संवत् १९३२ में हुआ। अतः ये महाराज नरेंद्रसिंह के समय तक वर्तमान थे और उन्हीं के आदेश से इन्होंने अपना प्रसिद्ध वीरकाव्य "हम्मीरहट" बनाया। इसके अतिरिक्त इनके रचे ग्रंथों के नाम ये है––

विवेक-विलास, रसिकविनोद, हरिभक्ति-विलास, नखशिख, वृंदावन-शतक, गुपपंचाशिका, ताजक ज्योतिष, माधवी बंसत।

यद्यपि शृंगाररस की कविता करने में भी ये बहुत ही प्रवीण थे पर इनकी कीर्ति को चिरकाल तक स्थिर रखने के लिये "हम्मीरहठ" ही पर्याप्त है। उत्साह की, उमंग की व्यंजना जैसी चलती, स्वाभाविक और जोरदार भाषा में इन्होंने की है वैसे ढंग से करने में बहुत ही कम कवि समर्थ हुए है। वीररस [ ३९२ ]वर्णन में इस कवि ने बहुत ही सुंदर साहित्यिक विवेक का परिचय दिया है। सूदन आदि के समान शब्दों की तड़ातड़ और भड़ाभड़ के फेर में न पढ़कर उग्रोत्साह-व्यंजक उक्तियों का ही अधिक सहारा इस कवि ने लिया है, जो वीररस की जान है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि वर्णनों के अनावश्यक विस्तार को, जिसमें वस्तुओं की बड़ी लंबी-चौड़ी सूची भरी जाती है, स्थान नहीं दिया गया है। भाषा भी पूर्ण व्यवस्थित, च्युतसंस्कृति आदि दोषों से मुक्त और प्रवाहमयी है। सारांश यह कि वीररस-वर्णन की अत्यंत श्रेष्ठ प्रणाली का अनुकरण चंद्रशेखरजी ने किया है।

रही प्रसंग विधान की बात। इस विषय में कवि ने नई उद्धावनाएँ न करके पूर्ववर्ती कवियों को ही सर्वथा अनुसरण किया है। एक रूपवती और निपुण स्त्री के साथ महिमा मंगोल की अलाउद्दीन के दरबार से भागना, अलाउद्दीन का उसे हम्मीर से वापस माँगना, हम्मीर का उसे अपनी शरण में लेने के कारण उपेक्षापूर्वक इनकार करना, ये सब बातें जोधराज क्या उसके पूर्ववर्ती अपभ्रंश के कवियो की ही कल्पना है, जो वीरगाथा-काल की रूढ़ि के अनुसार की गई थी। गढ़ के घेरे के समय गढ़पति की निश्चितता और निर्भीकता व्यंजित करने के लिये पुराने कवि गढ़ के भीतर नाच रंग का होना दिखाया करते थे। जायसी ने अपनी पद्मावती में अलाउद्दीन के द्वारा चितौरगढ़ के घेरे जाने पर राजा रतनसेन का गढ़ के भीतर नाच कराना और शत्रु के फेके हुए तीर से नर्तकी को घायल होकर मरना वर्णित किया है। ठीक उसी प्रकार का वर्णन "हम्मीरहठ" में रखा गया है। यह चंद्रशेखरजी की अपनी उद्भावना नहीं एक बँधी हुई परिपाटी का अनुसरण है। नर्तकी के मारे जाने पर हम्मीरदेव का यह कह उठना कि "हठ करि मंड्यो युद्ध वृथा ही" केवल उनके तात्कालिक शोक के आधिक्य की व्यंजना मात्र करता है। उसे करुण प्रलाप मात्र समझना चाहिए। इसी दृष्टि से इस प्रकार के करुण प्रलाप राम ऐसे सत्यसंध और वीरव्रती नायकों से भी कराए गए हैं। इनके द्वारा उनके चरित्र में कुछ भी लांछन लगता हुआ नहीं माना जाता।

एक दृष्टि हम्मीरहठ की अवश्य खटकती है। सब अच्छे कवियों ने प्रति[ ३९३ ]नायक के प्रताप और पराक्रम की प्रशंसा द्वारा उससे भिड़नेवाले या उसे जीतनेवाले नायक के प्रताप और पराक्रम की व्यंजना की है। राम का प्रतिनायक रावण कैसा था? इंद्र, मरुत् , यम, सूर्य आदि सब देवताओं से सेवा लेनेवाला; पर हम्मीरहठ अलाउद्दीन एक चुहिया के कोने में दौड़ने से डर के मारे उछल भागता है और पुकार मचाता है।

चंद्रशेखरजी को साहित्यिक भाषा पर बड़ा भारी अधिकार था। अनुप्रास की योजना प्रचुर होने पर भी भद्दी कही नहीं हुई, सर्वत्र रस में सहायक ही है। युद्ध, मृगया आदि के वर्णन तथा संवाद आदि सत्र बड़ी मर्मज्ञता से रखे गए है। जिस रस का वर्णन है ठीक उसके अनुकूल पदविन्यास है। जहाँ शृंगार का प्रसंग है वहाँ यही प्रतीत है कि किसी सर्वश्रेष्ठ शृंगार कवि की रचना पढ़ रहे है। तात्पर्य यह है कि "हम्मीरहठ" हिंदी-साहित्य का एक रत्न है। "तिरिया तेल हम्मीर हठ चढैं न दूजी बार" वाक्य ऐसे ही ग्रंथ में शोभा देता हैं। नीचे कविता के कुछ नमूने दिए जाते है––

उवै भान पच्छिम प्रतच्छ, दिन चंद प्रकासै।
उलटि गंग बरु बहै, काम रति प्रीति बिनासै॥
तजै गौरि अरधंग, अचल ध्रुव आसन चल्लै।
अचल पवन बरु होय, मेरु मंदर गिरि हल्लै॥

सुरतरु सुखाय, लोमस मरै, मीर! संक सब परिहरौ।
मुखबचन बीर हम्मीर को बोलि न यह कबहूँ टरौ॥


आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कोव नजर तिहारी है।
जाके डर डिगत अडोल गढ़धारी, डग-
मगत पहार और डुलति महि सारी है॥
रंक जैसो रहत संसकित सुरेस भयो,
देस देसपति में अतंक अति भारी है।

[ ३९४ ]

भारी, गढ़धारी, सदा जंग की तयारी,
धाक मानै ना तिहारी या हमीर इठयारी है॥


भागे मीरजादे पीरजादे और अनीरजादे,
भागे खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागे गज बाजि रथ पथ न सँभारैं, परैं
गोलन पै गोल, सूर सहमि संकाय कै॥
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि,
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै।
जैसे लगे जंगल में ग्रीष्म की आगि
चलै भागि मृग महिंष बराह बिललाय कै॥


थोरी थोरी बैसवारी नवल किशोरी सवै,
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरती।
बसन विभूषन बिराजते बिभल बर,
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं॥
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रँगीं,
चाय भरी चायल चपल दृग जोरतीं।
काम-अबला सी, कलाधर की कला सी,
चारु चंपक-लत्ता सी चपला सी चित चोरतीं॥

(४३) बाबा दीनदयाल गिरि––ये गोसाई थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंत पंचमी संवत् १८५९ में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक पाठक के कुल में हुआ था। जब ये ५ या ६ वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता इन्हें महत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पचकोशी के मार्ग में पड़नेवाले देहली-विनायक नामक स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंतजी के और भी कई मठ थे। वे विशेषतः गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। बाबा दीनदयाल गिरि भी उनके चेले हो जाने पर प्रायः उसी मठ में रहते थे। जब [ ३९५ ]महंत कुशागिरि के मरने पर बहुत सी जायदाद नीलाम हो गई तब ये देहली-विनायक के पास मठौली गाँववाले मठ में रहने लगे। बाबाजी संस्कृत और हिंदी दोनों के अच्छे विद्वान् थे। बाबू गोपालचंद्र (गिरधरदास) से इनका बड़ा स्नेह था। इनका परलोकवास संवत् १९१५ में हुआ। ये एक अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी सी अन्योक्तियाँ हिंदी के और किसी कवि की नहीं हुई। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिए हुए है पर भाषा-शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। बाबाजी का भाषा पर बहुत ही अच्छा अधिकार था। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। कहीं कहीं कुछ पूरबीपन या अव्यवस्थित वाक्य मिलते हैं, पर बहुत कम। इसीसे इनकी अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिनी हुई हैं। इनका अन्योक्तिकल्पद्रम हिंदी-साहित्य में एक अनमोल वस्तु है अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्यभावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते है। लौकिक विषयों पर तो इन्होंने सरस अन्योक्तियाँ कही ही है, अध्यात्मपक्ष में भी दो एक रहस्यमयी उक्तियाँ इनकी हैं।

बाबाजी को जैसा कोमल-व्यंजक पदविन्यास पर अधिकार था वैसा ही शब्द-चमत्कार आदि के विधान पर भी। यमक और श्लेषमयी रचना भी इन्होंने बहुत सी की हैं। जिस प्रकार थे अपनी भावुकता हमारे सामने रखते है उसी प्रकार चमत्कार-कौशल दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। इससे जल्दी नहीं कहते बनता है कि इनमें कला-पक्ष प्रधान है या हृदय-पक्ष। बड़ी अच्छी बात इनमें यह है कि इन्होंने दोनों को प्रायः अलग अलग रखा है। अपनी मार्मिक रचनाओं के भीतर इन्होंने चमत्कार-प्रवृत्ति का प्रवेश प्रायः नही होने दिया है। अन्योक्तिकल्पद्रुम के आदि में कई श्लिष्ट पद्य आए है पर बीच में बहुत कम। इसी प्रकार अनुरागबाग मे भी अधिकांश रचना शब्द-वैचित्र्य आदि से मुक्त है। यद्यपि अनुप्रासयुक्त सरस कोमल पदावली का बराबर व्यवहार हुआ है, पर जहाँ चमत्कार को प्रधान उद्देश्य रखकर ये बैठे हैं वहाँ श्लेष, यमक, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका सब कुछ मौजूद है। सारांश यह [ ३९६ ]कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविध प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था।

इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है––

अन्योक्ति-कल्पद्रुम (सं॰ १९१२), अनुराग-बाग (सं॰ १८८८), वैराग्यदिनेश (सं॰ १९०६), विश्वनाथ-नवरत्न और दृष्टांत-तरंगिणी (सं॰ १८७९)

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८७९ से १९१२ तक माना जा सकता है। 'अनुराग-बाग' में श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तो में वर्णन हुआ है। मालिनी छंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टात-तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति हैं। 'वैराग्यदिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान-वैराग्य आदि का। इनकी कविता के कुछ नमूने दिए जाते हैं––


केतो सोम कला करौ, करौ सुधा को दान। नहीं चंद्रमणि जो द्रवै यह तेलिया पखान॥
यह तेलिया पखान, बड़ी कठिनाई जाकी। टूटी याके सीस बीस बहु बाँकी टाँकी॥
बरनै दीनदयाल, चंद! तुमही चित चेतौ। कूर न कोमल होहिं कला जौ कीजै केतौ॥



बरखै कहा पयोद इत मानि मोद मन माहिं। यह तौ ऊसर भूमि है अंकुर जमिहै नाहिं॥
अंकुर जमिहै नाहिं बरष सन जौ जल दैहै। गरजै तरजै कहा? बृथा तेरो श्रम जैहे॥
बरनै दीनदयाल न ठौर कुठौरहि परखै। नाहक गाहक बिना, बलाहक! ह्याँ तू बरसै॥



चल चकई तेहिं सर विषै, जहँ नहि रैन-बिछोह। रहत एकरस दिवस ही, सुहृद हंस-संदोह॥
सुहृद हँस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको। भोगत सुख-अंबोह, मोह-दुख होय न ताको॥
बरनै दीनदयाल भाग बिन जाय न सकई। पिय-मिलाप नित रहै, ताहि सर चल तू चकई॥


[ ३९७ ]

कोमल, मनोहर, मधुर, सुरताल सने,
नूपुर-निनादनि सों कौन दिन बोलिहै।
नीके मन ही के बुंद-वृंदन सुमोतिन को,
गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलिहै॥
नेम धरि छेम सों प्रभुद होय दीनद्याल,
प्रेम-कोकनद बीच कब धौ कलोलिहै।
चरन तिहारे जदुबंस-राजहंस! कब,
मरे मन-मानस में मंद मंद डोलिहैं?


चरन-कमल राजै, मंजु मंजीर बाजैं। गमन लखि लजावैं हंसऊ नाहिं पावैं॥
सुखुद कदम-छाहीं क्रीड़ते कुंज माहीं। लखि लखि हरि सोभा चित्त काको न लोभा?


बहु छुद्रन के मिलन तें हानि बली की नाहिं। जूथ जंबुकन तें नहीं, केहरि कहुँ नसि जाहिं॥
पराधीनता दुख महा, सुखी जगत स्वाधीन। सुखी रमत सुक बन विषै कनक पींजरे दीन॥

(४४) पजनेस––ये पन्ना के रहनेवाले थे। इनका कुछ विशेष वृत्तांत प्राप्त नहीं। कविता-काल इनका संवत् १९०० के आसपास माना जा सकता हैं। कोई पुस्तक तो इनकी नहीं मिलती पर इनकी बहुत सी फुटकल कविता संग्रह-ग्रंथों में मिलती और लोगों के मुँह से सुनी जाती है। इनका स्थान ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों में है। ठाकुर शिवसिंहजी ने 'मधुरप्रिया' और 'नखशिख' नाम की इनकी दो पुस्तकों का उल्लेख किया है, पर वे मिलती नहीं। भारतजीवन प्रेस ने इनकी फुटकल कविताओं का एक संग्रह "पजनेस प्रकाश" के नाम से प्रकाशित किया हैं जिसमें १२७ कवित्त-सवैएँ हैं। इनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि ये फारसी भी जानते थे। एक सवैया में इन्होंने फारसी के शब्द और वाक्य भरे है। इनकी रचना शृंगाररस की ही है पर उसमें कठोर वणों (जैसे ट, ठ, ड) का व्यवहार यत्र-तत्र बराबर मिलता है। ये 'प्रतिकूल-वर्णत्व' की परवा कम करते थे। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोमल अनुप्रासयुक्त ललित भाषा का व्यवहार इनमें नहीं है। पद-विन्यास इनका अच्छा है। इनके फुटकल कवित्त अधिक [ ३९८ ]तर अंग-वर्णन के मिलते हैं जिनसे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्द-चमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था। जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था। कुछ नमूने लीजिए––

छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
कवि पजनेस कंज-मंजुल-मुखी के गात,
उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी॥
फैली दीप दीप दीप-दीपति दिपति जाकी,
दीपमालिका की रही दीपति दबक सी।
परत न ताव लखि मुख माहताब जब,
निकसी सिताब आफताब की भभक सी॥


पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फे फुरकत न कबूल कसे।
महबूब चुनाँ बदमस्त सनम अजदस्त अलाबक जुल्फ बसे॥
मजमूए, न काफ शिगाफ रुए सम क्यामत चश्म से खून बरसे।
मिजगाँ सुरमा तहरीर दुताँ नुकते, बिन बे, किन ते, किन से॥