हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ रसनिधि

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[ ३४५ ] (११) रसनिधि––इनका नाम पृथ्वीसिंह था और दतिया के एक [ ३४६ ]जमींदार थे। इनका संवत् १७१७ तक वर्तमान रहना पाया जाता है। ये अच्छे कवि थे। इन्होंने बिहारी-सतसई के अनुकरण पर "रतनहजारा" नामक दोहों का एक ग्रंथ बनाया। कहीं कहीं तो इन्होंने बिहारी के वाक्य तक रख लिए हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने और भी बहुत से दोहे बनाए जिनका संग्रह बाबू जगन्नाथप्रसाद (छत्रपुर) ने किया है। "अरिल्ल और माँझो" का संग्रह भी खोज में मिला है। ये शृंगार-रस के कवि थे। अपने दोहों में इन्होंने फारसी कविता के भाव भरने और चतुराई दिखाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है। फारसी की आशिकी कविता के शब्द भी इन्होंने इस परिमाण में कहीं कहीं रखे हैं कि सुरुचि और साहित्यिक शिष्टता को अघात पहुँचता है। पर जिस ढंग की कविता इन्होंने की है उसमें इन्हें सफलता हुई हैं। कुछ दोहे उद्धृत किए जाते है––

अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस-भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय॥
लेहु न मजनू-गोर ढिग, कोऊ लैला नाम।
दरदवत को नेकु तौ, लेन देहू बिसराम॥


चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय ।
कलम छुवत कर आंगुरी कटी कटाछन जाय ।।
मनगयंद छवि मद-छके तोरि जंजीर भगात ।
हिय के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात ।।

(१२) महाराज विश्वनाथसिंह––ये रीवाँ के बड़े ही विद्यारसिक और भक्त नरेश तथा प्रसिद्ध कवि महाराज रघुराजसिंह के पिता थे। आप संवत् १८७० से लेकर १९१७ तक रीवाँ की गद्दी पर रहे। ये जैसे भक्त थे वैसे ही विद्या-व्यसनी तथा कवियों और विद्वानों के आश्रयदाता थे। काव्यरचना में भी ये सिद्धहस्त थे। यह ठीक है कि इनके नाम से प्रखात बहुत से ग्रंथ दूसरे कवियों के रचे हैं पर इनकी रचनाएँ भी कम नहीं हैं। नीचे इनकी [ ३४७ ]बनाई पुस्तकों के नाम दिए जाते हैं जिनसे विदित होगा कि कितने विषयों पर इन्होंने लिखा है––

(१) अष्टयाम आह्निक (२) आंनद-रघुनंदन नाटक, (३) उत्तमकाव्य-प्रकाश, (४) गीता-रघुनंदन शतिका, (५) रामायण, (६) गीता-रघुनंदन प्रामाणिक, (७) सर्व संग्रह, (८) कबीर बीजक की टीका, (९) विनयपत्रिका की टीका, (१०) रामचंद्र की सवारी, (११) भजन, (१२) पदार्थ, (१३) धनुर्विद्या, (१४) आनन्द रामायण, (१५) परधर्म-निर्णय, (१६) शांति-शतक, (१७) वेदांत-पंचक शतिका, (१८) गीतावली पूर्वार्द्ध (१९) ध्रुवाष्टक, (२०) उत्तम नीतिचंद्रिका, (२१) अबोधनीति, (२२) पाखंड-खंडिनी, (२३) आदिमंगल, (२४) बसंत-चौंतीसी, (२५) चौरासी रमैनी, (२६) ककहरा, (२७) शब्द, (२८) विश्वभोजन-प्रसाद, (२९), ध्यानमंजरी, (३०) विश्वनाथ-प्रकाश, (३१) परमतत्त्व, (३२) संगीत रघुनंदन, इत्यादि।

यद्यपि ये रामोपासक थे पर कुलपरंपरा के अनुसार निर्गुण संत मत की बानी का भी आदर करते थे। कबीरदास के शिष्य धर्मदास का बाँधव नरेश के यहाँ जाकर उपदेश सुनाना परंपरा से प्रसिद्ध हैं। 'ककहरा', 'शब्द', 'रमैनी' आदि उसी प्रभाव के द्योतक हैं। पर इनकी साहित्यिक रचना प्रधानतः रामचरित-संबंधिनी है। कबीर-बीजक की टीका इन्होंने निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण राम पर घटाई है। ब्रजभाषा में नाटक पहले पहल इन्हीं ने लिखा। इस दृष्टि से इनका "आनंद-रघुनंदन नाटक" विशेष महत्त्व की वस्तु है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे हिंदी का प्रथम नाटक माना है। यद्यपि इसमें पद्यों की प्रचुरता हैं पर संवाद सब ब्रजभाषा गद्य में हैं। अंकविधान और पात्रविधान भी है। हिंदी के प्रथम नाटककार के रूप में ये चिरस्मरणीय हैं।

इनकी कविता अधिकतर या तो वर्णनात्मक है अथवा उपदेशात्मक। भाषा स्पष्ट और परिमार्जित है। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते है–

भाइन भृत्यन बिष्णु सो, रैयत भानु सो, सत्रुन काल सो भावै।
शत्रु बली सों बचै करि बुद्धि औ अस्त्र सों धर्म की रीति चलावै॥

[ ३४८ ]

जीतन को करै केते उपाय औ दीरध दृष्टि सबै फल पावै।
भाखत है बिसुनाथ ध्रुवै नृप सो कबहूँ नहिं राज गँवावै॥


बाजि गज सोर रथ सुतुर कतार जेते,
प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजबंसवारे,
सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के॥
केते जातिवारे, केते केते देसवारे,
जीव स्वान सिंह आदि सैलवारे जे सिकार के।
डंका की धुकार द्वै सवार सबैं एक बार,
राज वार पार कार कोशलकुमार के॥


उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे।
हिमरितु प्रात पाय सब मिटिगे नभसर पसरे पुहकर तारे॥
जगवन महँ निकस्यो हरषित हिय बिचरन हेत दिवस मनियारो।
विश्वनाथ यह कौतुक निरखहु रविमनि दसहु दिसिनि उजियार॥


करि जो कर मैं कयलास लियो कसिकै अब नाक सिकोरत है।
दर तालन बीस भुजा झहराय झुको धनु को झकझोरत है॥
तिल एक हलै न हलै पुहुमी रिसि पीसि कै दाँतन तोरत है।
मन में यह ठीक भयो हमरे मद काको महेस न मोरत है॥

(१३) भक्तवर नागरीदासजी––यद्यपि इस नाम के कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उसमें सबसे प्रसिद्ध कृष्णगढ़-नरेश महाराज सावंतसिंह जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण १२ संवत् १७५६ में हुआ था। ये वाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। १३ वर्ष की अवस्था में इन्होंने बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। संवत् १८०४ में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। हम बीच में इनके पिता महाराज राजसिंह का देहांत हुआ। बादशाह [ ३४९ ]अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णगढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया। पर जब वे कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। पर इस गृहकाल से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़-छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल॥
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरिभक्ति को सफल सुखन को सार॥
मैं अपने मन मूढ़ तैं डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें मति कबहूँ फिर जाय॥

वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो "कृष्णगढ़ के राजा" यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने 'नागरीदास', ('नागरी' शब्द श्रीराधा के लिये आता है) नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया––

सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढे दूरि उदास।
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास॥
एक मिलत भुजन भरि दौर दौर। इक टेरि बुलावत और ठौर॥

वृंदावन में उस समय वल्लभाचार्यजी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब जमुना किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव-बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इतना असह्य हो गया कि ये जमुना में कूद [ ३५० ]पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है––

देख्यो श्रीवृंदाबिपिन पार। बिच बदति महा गंभीर धार॥
नहिं नाव, नाहीं कछु और दाव। हे दई! कहा कीजै उपाव॥
रहे वार लगन की लगै लाज। गए पारहि पूरै सकल काज॥
यह चित्त माहिं करि कै विचार। परे कूदि कृदि जलमध्य-धार॥

वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'वणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।

ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविता-काल सं॰ १७८० से १८१९ तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ "मनोरथमंजरी" संवत् १७८० में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् १८१४ में अश्विन शुक्ल १० को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंहजी को प्रतिष्ठित करके घरवार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्ण-भक्ति और ब्रजलीला-संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर ७३ पुस्तके संग्रहीत हैं, जिनके नाम ये है––

सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश (सं॰ १८००), पदप्रसंगमाला, ब्रजबैकुंठ तुला, ब्रजसार (संवत् १७९९), भोरलीला, प्रातरस-मंजरी, बिहार-चंद्रिका (सं॰ १७८८), भोजनानंदाष्टक, जुगलरस माधुरी, फूलविलास, गोधन-आगमन दोहन, अनदलग्नाष्टक, फागविलास, ग्रीष्म-विहार, पावसपचीसी, गोपीवैनविलास, रासरसलता, नैनरूपरस, शीतसार, इश्कचमन, मजलिस मंडन, अरिल्लाष्टक, सदा की माँझ, वर्षा ऋतु की माँझ, होरी की माँझ, कृष्णजन्मोत्सव कवित्त, प्रियाजन्मोत्सव कवित्त, साँझी के कवित्त, रास के कवित्त, चाँदनी के कवित्त, दिवारी के कवित्त, गोवर्धन-धारन के कवित्त, होरी के कवित्त, फागगोकुलाष्टक, हिंडोरा के कवित्त, वर्षा के कवित्त, भक्ति मगदीपिका (सं॰ १८०२), तीर्थानंद (१८१०), फाग बिहार (१८०८), बालविनोद, बन-विनोद, (१८०९), सुजानानंद (१८१०) भक्तिसार (१७९९) देहदशा, वैराग्यवल्ली, रसिक-रत्नावली (१७८२), कलिवैराग्य-वल्लरी (१७९५), अरिल्ल-पचीसी, छूटक-विधि, पारायण-विधि-प्रकाश [ ३५१ ](१७९९), शिखनख, नखशिख, छूटक कवित्त, चचरियाँ रेखता, मनोरथमंजरी (१७८०), रामचरित्रमाला, पद-प्रबोधमाला, जुगल-भक्तिविनोद (१८०८), रसानुक्रम के दोहे, शरद की माँझ, साँझी फूल-बीनन संवाद, वसंत-वर्णन, रसनानुक्रम के कवित्त, फाग-खेलन समेतानुक्रम के कवित्त, निकुंज विलास (१७९४) गोविंद परचई, वनजन-प्रशंसा, छूटक दोहा, उत्सव-माला, पद-मुक्तावली।

इनके अतिरिक्त "वैन-विलास" और "गुप्तरस-प्रकाश" नाम की दो अप्राप्य पुस्तके भी है। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठको को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों या विषयों के कुछ पद्यों में वर्णन मात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो ५ या ७ अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जायँगे।अतः ऊपर लिखे नामों को पुस्तको के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतो को पाँच पाँच, दस दस, पचीस-पचीस पद्य मात्र समझिए। कृष्णभक्त कवियों की अधिकाश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियो की कृष्णलीला-संबंधिनी फुटकल उक्तियो से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखनेवाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिंकाश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य-रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग-ढंग भी कहीं-कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदो का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है, विशेषतः पदों की कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने देखिए––

(वैराग्य-सागर से)

काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरान के,
तै ही कहा? तेरी मूढ़ मूढ़ मति पंग की।

[ ३५३ ]

(इश्क-चमन से)

सब मजहब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद। अरे! इश्क के असर बिनु ये सब ही बरबाद॥
आया इश्क लपेट में लागो चश्म चपेट। सोई आया खलक में, और भरैं सब पेट॥


(वर्षा के कवित्त से)

भादौं की कारी अँध्यारी निसा झुकिं बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै छकी रस-रीति मलारहि गावै॥
ता समै मोहन के दृग दूरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै॥