हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण ३ रीतिकाल के अन्य कवि

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प्रकरण ३
रीतिकाल के अन्य कवि

रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों का, जिन्होंने लक्षणग्रंथ के रूप में रचनाएँ की हैं, संक्षेप में वर्णन हो चुका है। अब यहाँ पर इस काल के भीतर होने वाले उन कवियों का उल्लेख होगा जिन्होंने रीति-ग्रंथ न लिखकर दूसरे प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं। ऐसे कवियों में कुछ ने तो प्रबंध-काव्य लिखे हैं, कुछ ने नीति या भक्ति संबंधी पद्य और कुछ ने शृंगार रस की फुटकल कविताएँ लिखी हैं। ये पिछले वर्ग कवि प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात में भिन्न हैं कि इन्होंने क्रम से रसों, भावों, नायिकाओं और अलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत अपने पद्यों को नहीं रखा है। अधिकांश में ये भी शृंगारी कवि हैं और उन्होंने भी शृंगार-रस के फुटकल पद्य कहे हैं। रचना-शैली में किसी प्रकार का भेद नहीं है। ऐसे कवियों में घनानंद सर्वश्रेष्ठ हुए हैं। इस प्रकार के अच्छे कवियों की रचनाओं में प्रायः मार्मिक और मनोहर पद्यों की संख्या कुछ अधिक पाई जाती हैं। बात यह है कि इन्हें कोई बंधन नहीं था। जिस भाव की कविता जिस समय सूझी ये लिख गए। रीतिबद्ध ग्रंथ जो लिखने बैठते थे उन्हें प्रत्येक अलंकार या नायिका को उदाहृत करने के लिये पद्य लिखना आवश्यक था जिनमें सब प्रसंग उनकी स्वाभाविक रुचि या प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं हो सकते थे। रसखान, घनानंद, आलम, ठाकुर आदि जितने प्रेमोन्मत्त कवि हुए हैं उनमें किसी ने लक्षणबद्ध रचना नहीं की है।

प्रबंध-काव्य की उन्नति इस काल में कुछ विशेष न हो पाई। लिखे तो अनेक कथा-प्रबंध गए पर उनमें से दो ही चार में कवित्व का यथेष्ट आकर्षण पाया जाता है। सबलसिंह का महाभारत, छत्रसिंह की विजयमुक्तावली, गुरु गोविदसिंहजी का चडीचरित्र, लाल कवि का छत्रप्रकाश, जोधराज का हम्मीररासो, गुमान मिश्र का नैषवचरित, सरयूराम का जैमिनि पुराण, सूदन का सुजानचरित्र, देवीदत्त की बैतालपचीसी, हरनारायण की माधवानल कामकंदला, [ ३२३ ]ब्रजवासीदास का ब्रजविलास, गोकुलनाथ आदि की, महाभारत, मधुसूदनदास का रामाश्वमेध, कृष्णदास की भाषा भागवत, नवलसिंहकृत भाषा सप्तशती, आल्हारामायण, आल्हाभारत, मूलढोंला तथा चंद्रशेखर का हम्मीर हठ, श्रीधर का जंगनाम, पद्मकार का रामरसायन, ये इस काल के मुख्य कथात्मक काव्य है। इनमें चद्रशेखर के हम्मीरहठ, लाल कवि के छत्रप्रकाश, जोधराज के हम्मीरासो, सूदन के सुजानचरित्र और गोकुलनाथ आदि के महाभारत में ही काव्योपयुक्त रसात्मकता भिन्न भिन्न परिमाण में पाई जाती है। 'हम्मीररासो' की रचना बहुत प्रशस्त हैं। 'रामाश्वमेध' की रचना भी साहित्यिक है। 'ब्रजविलास' में काव्य के गुण अल्प हैं पर उसका थोड़ा बहुत प्रचार कम पढ़े लिखे कृष्णभक्तों में हैं।

कथात्मक प्रबंधों से भिन्न एक और प्रकार की रचना भी बहुत देखने में आती है जिसे हम वर्णनात्मक प्रबंध कह सकते हैं। दानलीला, मानलीला,जलविहार, वनविहार, मृगया, झूला, होलीवर्णन, जन्मोत्सव वर्णन, मंगलवर्णन, रामकलेवा, इत्यादि इसी प्रकार की रचनाएँ है। बड़े बड़े प्रबंधकाव्यों के भीतर इस प्रकार के वर्णनात्मक प्रसंग रहा करते हैं। काव्य-पद्धति में जैसे शृंगाररस से 'नखशिख', 'षट्ऋतु' आदि लेकर स्वतंत्र पुस्तकें बनने लगी वैसे ही कथात्मक महाकाव्यो के अंग भी निकालकर अलग पुस्तके लिखी गई। इनमें बड़े विस्तार के साथ वस्तुवर्णन चलता है। कभी कभी तो इतने विस्तार के साथ कि परिमार्जित साहित्यिक रुचि के सर्वथा विरुद्ध हो जाता है। जहाँ कविजी अपने वस्तुपरिचय का भंडार खोलते है––जैसे बरात का वर्णन है तो घोड़े की सैकड़ों जातियों के नाम, वस्त्रों का प्रसंग आया तो पचीसों प्रकार के कपड़ों के नाम और भोजन की बात आई तो सैकड़ों मिठाइयों, पकवानों और मेवों के नाम––वहाँ तो अच्छे अच्छे धीरों का धैर्य छूट जाता है।

चौथा वर्ग नीति के फुटकल पद्य कहने वालो का है। इनको हम 'कवि' कहना ठीक नहीं समझते। इनके तथ्य-कथन के ढंग में कभी कभी वाग्वैद्य रहता है पर केवल वाग्वैदग्ध्य के द्वारा काव्य की सृष्टि नहीं हो सकती। यह ठीक है कि कही कहीं ऐसे पद्य भी नीति की पुस्तकों में आ जाते हैं, जिनमें कुछ [ ३२४ ](२) रसिक गोविंदानंदघन––यह सात आठ सौ पृष्ठों का बड़ा भारी रीतिग्रंथ है जिसमें रस, नायक-नायिकभेद, अलंकार, गुण-दोष आदि का विस्तृत वर्णन है। इसे इनका प्रधान ग्रंथ समझना चाहिए। इसका निर्माणकाल बसंत पंचमी संवत् १८५८ है। यह चार प्रबंधों में विभक्त है। इसमें बड़ी भारी विशेषता यह है कि लक्षण गद्य में हैं और रसों अलंकारो आदि के स्वरूप गद्य में समझाने का प्रयत्न क्रिया गया है। संस्कृत के बड़े बड़े आचार्यों के मतों का उल्लेख भी स्थान स्थान पर है। जैसे, रस का निरूपण इस प्रकार है––

"अन्य-ज्ञानरहित जो आनंद सो रस। प्रश्न––अन्य-ज्ञान-रहित आनंद तो निद्रा ही हैं। उत्तर––निद्रा जड़ है, वह चेतन। भरत आचार्य सूत्रकर्ता को मत––विभाव, अनुभाव, संचारी, भाव के जोग तें रस की सिद्धि। अथ काव्यप्रकाश को मत––कारण कारज सहायक हैं जे लोक में इन्हीं को नाट्य में, काव्य में, विभाव संज्ञा है। अथ टीकाकर्ता को मत तथा साहित्यदर्पण को मत––सत्व, विशुद्ध, अखंड, स्वप्रकाश, आनंद, चित्, अन्य ज्ञान नहिं संग, ब्रह्मास्वाद, सहोदर रस"।

इसके आगे अभिनवगुप्ताचार्य का मत कुछ विस्तार से दिया है। सारांश यह कि यह ग्रंथ आचार्यत्व की दृष्टि से लिखा गया है और इसमें संदेह नहीं कि और ग्रंथों की अपेक्षा इसमें विवेचन भी अधिक हैं और छूटी हुई बातो का समावेश भी। दोषो का वर्णन, जो हिंदी के लक्षण ग्रंथो में बहुत कम पाया जाता है, इन्होंने काव्यप्रकाश के अनुसार विस्तार से किया है। रसो, अलंकारो आदि के उदाहरण कुछ तो अपने हैं, पर बहुत से दूसरे कवियों के उदाहरणों के चुनने में इन्होंने बड़ी सहृदयता का परिचय दिया है। संस्कृत के उदाहरणों के अनुवाद भी बहुत सुंदर करके रखे हैं। साहित्यदर्पण के मुग्धा के उदाहरण (दत्ते सालसमंथरं...इत्यादि) को देखिए हिंदी में ये किस सुंदरता से लाए हैं––

आलम सों मंद मंद धरा पै धरति पाय,
भीतर तें बाहिर न आवै चित चाय कै।
रोकति दृगनि छिनछिन प्रति लाज साज,
बहुत हँसी की दीनी बानि बिसराय कै॥

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बोलति वचन मृदु मधुर बनाय, उर
अंतर के भाव की गँभीरता जनाय कै।
बात सखी सुंदर गोबिंद की कहात तिन्हैं,
सुंदरि बिलोकै बंक भृकुटी नचाय कै॥

(३) लछिमन चंद्रिका––'रसिकगोविंदानंदघन' में आए लक्षणों का संक्षिप्त संग्रह जो संवत् १८८६ में लछिमन कान्यकुब्ज के अनुरोध से कवि ने किया था।

(४) अष्टदेशभाषा––इसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, पूरबी आदि आठ बोलियों में राधा-कृष्ण की शृंगारलीला कही गई हैं।

(५) पिंगल।

(६) समय प्रबंध––राधाकृष्ण की ऋतुचर्या ८५ पद्यों में वर्णित है।

(७) कलियुग रासो––इसमें १६ कवित्तों में कलिकाल की बुराइयों का वर्णन है। प्रत्येक कवित्त के अंत में "कीजिए सहाय जू कृपाल श्रीगोविंदराय, कठिन कराल कलिकाल चलि आयो हैं" यह पद आता है। निर्माणकाल संवत् १८६५ है।

(८) रसिक गोविंद––चंद्रालोक या भाषाभूषण के ढंग की अलंकार की एक छोटी पुस्तक जिसमें लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में है। रचनाकाल सं॰ १८९० हैं।

(९) युगलरस माधुरी––रोला छंद मे राधाकृष्ण बिहार और वृंदावन का बहुत ही सरस और मधुर भाषा में वर्णन है जिससे इनकी सुहृदयता और निपुणता पूरी पूरी टपकती है। कुछ पंक्तियाँ दी जाती हैं––

मुकलित पल्लव फूल सुंगध परागहि झारत।
जुग मुख निरखि बिपिन जनु राई लोन उतारत॥
फूल फलन के भार डार झुकि यों छबि छाजै।
मनु पसारि दइ भुजा देन फल पथिकन काजै॥
मधु मकरंद पराग-लुब्ध अलि मुदित मत्त मन।
बिरद पढ़त ऋतुराज नृपन के मनु बंदीजन॥


[ ३२६ ]मार्मिकता होती है, जो हृदय की अनुभूति से भी संबंध रखते हैं, पर उनकी संख्या बहुत ही अल्प होती है। अतः ऐसी रचना करने वालों को हम 'कवि' न कहकर 'सूक्तिकार' कहेंगे। रीतिकाल के भीतर वृंद, गिरिधर, घाघ और बैताल अच्छे सूक्तिकार हुए हैं।

पाँचवाँ वर्ग ज्ञानोपदेशकों का है जो ब्रह्मज्ञान और वैराग्य की बातों को पद्य में कहते हैं। ये कभी कभी समझाने के लिये उपमा रूपक आदि का प्रयोग कर देते हैं, पर समझाने के लिये ही करते हैं, रसात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिये नहीं। इनका उद्देश्य अधिकतर बोधवृति जाग्रत करने का रहता है, मनोविकार उत्पन्न करने का नहीं। ऐसे ग्रंथकारों को हम केवल 'पद्यकार' कहेंगे। हाँ, इनमें जो भावुक और प्रतिभा-संपन्न हैं, जो अन्योक्तियों आदि का सहारा लेकर भगवत्प्रेम, संसार के प्रति विरक्ति, करुणा आदि उत्पन्न करने में समर्थ हुए हैं वे अवश्य ही कवि क्या, उच्चकोटि के कवि कहे जा सकते हैं।

छठा वर्ग कुछ भक्त कवियों का है जिन्होंने भक्ति और प्रेमपूर्ण विनय के पद आदि पुराने भक्तों के ढंग पर गाए हैं।

इनके अतिरिक्त आश्रयदाताओं की प्रशंसा मे वीर रस की फुटकल कविताएँ भी बराबर बनती रहीं, जिनमें युद्धवीरता और दानवीरता दोनों की बड़ी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा भरी रहती थी। ऐसी कविताएँ थोड़ी बहुत तो रसग्रंथों के आदि में मिलती हैं, कुछ अलंकार ग्रंथों के उदाहरण रूप (जैसे, शिवराजभूषण) और कुछ अलग पुस्तकाकार जैसे "शिवाबावनी", "छत्रसाल-दशक", "हिम्मतबहादुर-विरुदावली" इत्यादि। ऐसी पुस्तकों में सर्वप्रिय और प्रसिद्ध वे ही हो सकी हैं जो या तो देवकाव्य के रूप में हुई है अथवा जिनके नायक कोई देश-प्रसिद्ध वीर या जनता के श्रद्धाभाजन रहे हैं––जैसे, शिवाजी, छत्रसाल, महाराज प्रताप आदि। जो पुस्तके यों ही खुशामद के लिये, आश्रित कवियों की रूढ़ि के अनुसार लिखी गईं, जिनके नायको के लिये जनता के हृदय में कोई स्थान न था, वे प्राकृतिक नियमानुसार प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। बहुत सी तो लुप्त हो गईं। उनकी रचना से सच पूछए तो कवियों ने अपनी प्रतिभा का अपव्यय ही किया। उनके द्वारा कवियो को अर्थ-सिद्धि भर प्राप्त हुई, यश [ ३२७ ]का लाभ न हुआ। यदि बिहारी ने जयसिंह की प्रशंसा में ही अपने सात सौ दोहे बनाए होते तो उनके हाथ केवल अशर्फियाँ ही लगी होती। संस्कृत और हिंदी के न जाने कितने कवियों का प्रौढ़ साहित्यिक श्रम इस प्रकार लुप्त हो गया। काव्यक्षेत्र में यह एक शिक्षाप्रद घटना हुई है।

भक्तिकाल के समान रीतिकाल में भी थोड़ा बहुत गद्य इधर-उधर दिखाई पड़ जाता हैं पर अधिकांश कच्चे रूप में। गोस्वामियों की लिखी 'वैष्णववार्ताओं' के समान कुछ पुस्तकों में ही पुष्ट ब्रजभाषा मिलती है। रही खड़ी बोली। वह पहले कुछ दिनों तक तो मुसलमानों के व्यवहार की भाषा समझी जाती रहीं। मुसलमानों के प्रसंग में उसका कभी-कभी प्रयोग कवि लोग कर देते थे, जैसे––अफजल खान को जिन्होंने मैदान मारा (भूषण)। पर पीछे दिल्ली राजधानी होने से रीतिकाल के भीतर ही खड़ी बोली शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो गई थी और उसमें अच्छे गद्य ग्रंथ लिखे जाने लगे थे। संवत् १७९८ में रामप्रसाद निरंजनी ने 'योगवासिष्ठ भाषा' बहुत ही परिमार्जित गद्य में लिखा। (विशेष दे॰ आधुनिक काल)।

इसी रीतिकाल के भीतर रीवाँ के महाराज विश्वनाथसिंह ने हिंदी का प्रथम नाटक (आनंदरघुनंदन) लिखा। इसके उपरांत गणेश कवि ने 'प्रद्युम्न-विजय' नामक एक पद्यबद्व नाटक लिखा जिसमें पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि रहने पर भी इतिवृत्तात्मक पद्य रखे जाने के कारण नाटक का प्रकृत स्वरूप न दिखाई पड़ा।


(१) बनवारी––ये संवत् १६९० और १७०० के बीच वर्तमान थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने महाराज जसवंतसिंह के बड़े भाई अमरसिंह की वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि एक बार शाहजहाँ के दरबार में सलाबतखाँ ने किसी बात पर अमरसिंह को गँवार कह दिया, जिस पर उन्होंने चट तलवार खींचकर सलावतखाँ को वही मार डाला। इस घटना का बड़ा ओजपूर्ण वर्णन, इनके इन पद्यों में मिलता है––

धन्य अमर छिति छत्रपति, अमर तिहारो मान।
साहजहाँ की गोद में, इन्यो सलावत खान।