हिन्द स्वराज

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(हिंद स्वराज से अनुप्रेषित)
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हिन्द स्वराज्य



गांधीजी

अनुवादक

अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी



यह किताब द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है ;

हिंसाकी जगह आत्म-बलिदानको रखती है ;

पशुबलसे टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है।



नवजीवन प्रकाशन मंदिर

अहमदाबाद-१४

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पंद्रह रुपये


© नवजीवन ट्रस्ट, १९४९


पहली आवृति, प्रति १०,०००, १९४९

पुनर्मुद्रण, प्रति ५,०००, सितम्बर २०११

कुल प्रतियाँ :१,oo,ooo


नवजीवन ट्रस्ट द्वारा यह पुस्तक

रिआयत दरसे प्रकाशित हुई है।


ISBN 978-81–7229–125-9


मुद्रक और प्रकाशक

जितेन्द्र ठाकोरभाई देसाई

नवजीवन मुद्रणालय,

अहमदाबाद-३८० ०१४

Phone : 079 - 27540635, 27542634

Fax : O79 - 27541329

E-mail : jitnavjivan10@gmail.com

Website : www.navajivantrust.org

[  ]गांधीजीके विचार आसान हिन्दुस्तानीमें जनताके सामने रखना 'गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, दिल्ली'के अनेक कामोमें से एक खास काम है । गांधीजी अकसर आसान भाषामें ही लिखते थे । उन्होंने जो गुजराती भाषामें लिखा है, वह बिलकुल सरल है।

फिर भी मुमकिन है कि गुजराती,हिन्दी और दूसरी भाषाओं में जो शब्द आसानीसे समझे जाते हैं,वे सिर्फ उर्दू जाननेवालोके लिए नये हों। इसलिए अनुवादमें ऐसे शब्दोके साथ-साथ आसान उर्दू शब्द भी देना ठीक समझा है । उम्मीद है कि इस तरह उर्दू जबान हिन्दीके नजदीक आयेगी और उर्दू जाननेवाली जनता हिन्दुस्तानकी दूसरी भाषाओंका साहित्य भी आसानीसे समझ सकेगी ।

गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभाने नवजीवनके साथ तय किया है कि गांधीजीके जो किताबें वह तैयार करेगी, उनकी नागरी आवृत्ति छापनेका भार नवजीवनका होगा ।

काका कालेलकर

[  ]लंदनसे दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गांधीजीने रास्तेमें जो संवाद लिखा और ‘हिन्द स्वराज्य' के नामसे छपाया, उसे आज पचास बरस हो गये।

दक्षिण अफ्रीकाके भारतीय लोगोंके अधिकारोंकी रक्षाके लिए सतत लड़ते हुए गांधीजी १९०९ में लंदन गये थे। वहां कई क्रांतिकारी स्वराज्यप्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उनसे गांधीजीकी जो बातचीत हुई उसीका सार गांधीजीने एक काल्पनिक संवादमें ग्रथित किया है। इस संवादमें गांधीजीके उस समयके महत्त्वके सब विचार आ जाते हैं। किताबके बारेमें गांधीजी स्वयं कहा है कि "मेरी यह छोटीसी किताब इतनी निर्दोष है कि बच्चोंके हाथमें भी यह दी जा सकती है। यह किताब द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्म-बलिदानको स्थापित करती है; और पशुबलके खिलाफ टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है।"गांधीजी इस निर्णय पर पहुंचे थे कि पश्चिमके देशोंमें, यूरोप-अमेरिकामें जो आधुनिक सम्यता जोर कर रही है, वह कल्याणकारी नहीं है, मनुष्यहितके लिए वह सत्यानाशकारी है। गांधीजी मानते थे कि भारतमें और सारी दुनियामें प्राचीन कालसे जो धर्म-परायण नीति-प्रधान सभ्यता चली आयी है वही सच्ची सभ्यता है।

गांधीजी का कहना था कि भारतसे केवल अंग्रेजोंको और उनके राज्यको हटानेसे भारतको अपनी सच्ची सभ्यताका स्वराज्य नहीं मिलेगा। हम अंग्रेजोंको हटा दें और उन्हींकी सभ्यताका और उन्हींके आदर्शका स्वीकार करें तो हमारा उद्धार नहीं होगा। हमें अपनी आत्माको बचाना चाहिये। भारतके लिखे-पढ़े चंद लोग पश्चिमके मोहमें फंस गये हैं। जो लोग
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पश्चिमके असर तले नहीं आये हैं, वे भारतकी धर्म-परायण नैतिक सभ्यताको ही मानते हैं। उनको अगर आत्मशक्तिका उपयोग करनेका तरीका सिखाया जाय, सत्याग्रहका रास्ता बताया जाय, तो वे पश्चिमी राज्य-पद्धतिका और उससे होनेवाले अन्यायका मुक़ाबला कर सकेंगे तथा शस्त्रबलके बिना भारतको स्वतंत्र करके दुनियाको भी बचा सकेंगे।

पश्चिमका शिक्षण और पश्चिमका विज्ञान अंग्रेजोंके अधिकारके जोर पर हमारे देशमें आये। उनकी रेलें, उनकी चिकित्सा और रुग्णालय, उनके न्यायालय और उनकी न्यायदान-पद्धति आदि सब बातें अच्छी संस्कृतिके लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि विघातक ही हैं-वगैरा बातें बिना किसी संकोचके गांधीजीने इस किताबमें दी हैं।

मूल किताब गुजरातीमें लिखी गयी थी। उसके हिन्दुस्तान आते ही बंबई सरकारने आक्षेपार्ह बताकर उसे जब्त किया। तब गांधीजीने सोचा कि 'हिन्द स्वराज' में मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह जैसाका वैसा अपने अंग्रेजी जाननेवाले मित्रों और टीकाकारोंके सामने रखना चाहिये। उन्होंने स्वयं गुजराती 'हिन्द स्वराज' का अंग्रेजी अनुवाद किया और उसे छपाया। उसे भी बम्बई सरकारने आक्षेपार्ह घोषित किया।

दक्षिण अफ्रीकाका अपना सारा काम पूरा करके सन् १९१५ में गांधीजी भारत आये। उसके बाद सत्याग्रह करनेका जब पहला मौका गांधीजीको मिला, तब उन्होंने बंबई सरकार के हुक्मके खिलाफ 'हिन्द स्वराज' फिरसे छपवाकर प्रकाशित किया। बम्बई सरकारने इसका विरोध नहीं किया। तबसे यह किताब बम्बई सरकारने राज्यमें, सारे भारतमें और दुनियाके गंभीर विचारकोंके बीच ध्यानसे पढ़ी जाती है।

स्व॰ गोखलेजीने इस किताबके विवेचनको कच्चा कहकर उसे नापसन्द किया था और आशा की थी कि भारत लौटनेके बाद गांधीजी स्वयं इस किताबको रद कर देंगे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। गांधीजीने एकाध सुधार करके कहा कि आज मैं इस किताबको अगर फिरसे लिखता, तो उसकी
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भाषामें जरूर कुछ सुधार करता। लेकिन मेरे भूलभूत विचार वही हैं, जो इस किताबमें मैंने व्यक्त किये हैं।

गांधीजीके प्रति आदर और उनके विचारोंके प्रति सहानुभूति रखनेवाले दुनियाके बड़े बड़े विचारकोंने ‘हिन्द स्वराज'के बारेमें जो संमति प्रगट की है, उसका सार श्री महादेव देसाईने नई आवृत्तिकी अपनी सुन्दर प्रस्तावनामें दिया ही है।

अहिंसाका सामर्थ्य, यंत्रवादका गांधीजीका विरोध और पश्चिमी सभ्यता तीनोंके बारेमें और सत्याग्रहकी अंतिम भूमिकाके बारेमें भी पश्चिमके लोगोंने अपना मतभेद स्पष्ट रूपसे व्यक्त किया है।

गांधीजीके सारे जीवन-कार्यके मूलमें जो श्रद्धा काम करती रही, वह सारी ‘हिन्द स्वराज्य' में पायी जाती है। इसलिए गांधीजीके विचारसागरमें इस छोटीसी पुस्तकका महत्व असाधारण है।

गांधीजीके बताये हुए अहिंसक रास्ते पर चलकर भारत स्वतंत्र हुआ। असहयोग, कानूनोंका सविनय भंग और सत्याग्रह - इन तीनों कदमोंकी मददसे गांधीजीने स्वराज्यका रास्ता तय किया। हम इसे चमत्कारपूर्ण घटनाका त्रिविक्रम कह सकते हैं।

गांधीजीके प्रयत्नका वही हाल हुआ, जो दुनियाकी अन्य श्रेष्ठ विभूतियोंके प्रयत्नोंका होता आया है।

भारतने, भारतके नेताओंने और एक ढंगसे सोचा जाय तो भारतकी जनताने भी गांधीजीके द्वारा मिले हुए स्वराज्य-रूपी फलको तो अपनाया, लेकिन उनकी जीवन-दृष्टिको पूरी तरह अपनाया नहीं है। धर्मपरायण नीति-प्रधान पुरानी संस्कृतिकी प्रतिष्ठा जिसमें नहीं है, ऐसी ही शिक्षा-पद्धति भारतमें आज प्रतिष्ठित है। न्यायदान पश्चिमी ढंगसे ही हो रहा है। इसकी तालीम भी जैसी अंग्रेजोंके दिनोंमें थी वैसी ही आज है। अध्यापक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर और राजनीतिक नेता-ये पांच मिलकर भारतके सार्वजनिक जीवनको पश्चिमी ढंगसे चला रहे हैं। अगर पश्चिमके विज्ञान
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और यांत्रिक कौशल्य (Technology)का सहारा हम न लें और गांधीजीके ही सांस्कृतिक आदर्शका स्वीकार करें, तो भारत जैसा महान देश साउदी अरेबिया जैसे नगण्य देशकी कोटि तक पहुंच जायगा, यह डर भारतके आजके सभी पक्षके नेताओंको है।

भारत शांततावादी है, युद्ध-विरोधी है। दुनियाका साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, शोषणवाद, राष्ट्र-राष्ट्रके बीच फैला हुआ उच्च-नीच भाव इन सबका विरोध करनेका कंकण भारत-सरकारने अपने हाथमें बांधा है। तो भी जिस तरहके आदर्शका गांधीजीने अपनी किताब 'हिन्द स्वराज्य' में पुरस्कार किया है, उसका तो उसने अस्वीकार ही किया है। स्वाभाविक है कि इस तरहके नये भारतमें अंग्रेजी भाषाका ही बोलबाला रहे। सिर्फ अमेरिका ही नहीं, किन्तु रशिया, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, जापान आदि विज्ञान-परायण राष्ट्रोंकी मददसे भारत यंत्र-संस्कृतिमें जोरोंसे आगे बढ़ रहा है। और उसकी आंतरिक निष्ठा मानती है कि यही सच्चा मार्ग है। पू॰ गांधीजीके विचार जैसे हैं वैसे नहीं चल सकते।

यह नई निष्ठा केवल नेहरूजीकी नहीं, किन्तु करीब करीब सारे राष्ट्रकी है। श्री विनोबा भावे गांधीजीके आत्मवादका, सर्वोदयका और अहिंसक शोषण-विहीन समाज-रचनाका जोरोंसे पुरस्कार कर रहे हैं। ग्रामराज्यकी स्थापनासे शांतिसेनाके द्वारा, नई तालीमके ज़रिये, स्त्री-जातिकी जागृतिके द्वारा वे मानस-परिवर्तन, जीवन-परिवर्तन और समाज-परिवर्तनका पुरस्कार कर रहे हैं। भूदान और ग्रामदानके द्वारा सामाजिक जीवनमें आमूलाग्र क्रांति करनेकी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने भी देख लिया है कि पश्चिमके विज्ञान और यंत्र-कौशल्यके बिना सर्वोदय अधूरा ही रहेगा।

जब अमेरिकाका प्रजासत्तावाद, रशिया और चीनका साम्यवाद, दूसरे और देशोंका और भारतका समाजसत्तावाद और गांधीजीका सर्वोदय दुनियाके सामने स्वयंवरके लिए खड़े हैं, ऐसे अवसर पर गांधीजीकी इस युगांतरकारी छोटीसी किताबका अध्ययन जोरोंसे होना चाहिये। गांधीजी
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स्वयं भी नहीं चाहते थे कि शब्द-प्रमाणकी दुहाई देकर हम उनकी बातें जैसीकी वैसी ग्रहण करें।

'हिन्द स्वराज्य' की प्रस्तावनामें गांधीजीने स्वयं लिखा है कि व्यक्तिश: उनका सारा प्रयत्न ‘हिन्द स्वराज्य' में बताये हुए आध्यात्मिक स्वराज्यकी स्थापना करनेके लिए ही है। लेकिन उन्होंने भारतमें अनेक साथियोंकी मददसे स्वराज्यका जो आन्दोलन चलाया, कांग्रेसके जैसी राजनीतिक राष्ट्रीय संस्थाका मार्गदर्शन किया, वह उनकी प्रवृत्ति पार्लियामेन्टरी स्वराज्य (Parliamentary Swarajya)के लिए ही थी।

स्वराज्यके लिए अन्यायका, शोषणका और परदेशी सरकारका विरोध करनेमें अहिंसाका सहारा लिया जाय, इतना एक ही आग्रह उन्होंने रखा है। इसलिए भारतकी स्वराज्य-प्रवृत्तिका अर्थ उनकी इस वामनमूर्ति पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य' से न किया जाय।

गांधीजीकी यह चेतावनी कांग्रेसके स्वराज्य-आन्दोलनका विपर्यास करनेवालोंके लिए थी। आज जो लोग भारतका स्वराज्य चला रहे हैं, उनके बचावमें भी यह सूचना काम आ सकती है। भारतके राष्ट्रीय विकासका दिन-रात चिंतन करनेवाले चिंतक और नेता भी कह सकते हैं कि हमारे सिर पर 'हिन्द स्वराज्य’ के आदर्शका बोझा गांधीजीने नहीं रखा था।

लेकिन अगर गांधीजीकी बात सही है और भारतका और दुनियाका भला ‘हिन्द स्वराज्य’ में प्रतिबिम्बित सांस्कृतिक आदर्शसे ही होनेवाला है, तो इसके चिंतनका, नव-ग्रथनका और आचरणका भार किसीके सिर पर तो होना ही चाहिये।

मैंने एक दफे गांधीजीसे कहा था कि "आपने अपनी स्वराज्यसेवाके प्रारम्भमें 'हिन्द स्वराज्य' नामक जो पुस्तक लिखी उसमें आपके मौलिक विचार हैं, तो भी शंका होती है कि वे रस्किन, थोरो, एडवर्ड कारपेन्टर, टेलर, मैक्स नार्डू आदि लोगोंक चिंतनसे प्रभावित हैं। इन लोगोंने आधुनिक सभ्यताके दोष दिखाये हैं। विश्व-बंधुत्वकी बुनियाद पर स्थापित [ १० ]
पुरानी सभ्यताका इन लोगोंने पुरस्कार किया, इसलिए आपका ‘हिन्द स्वराज्य' पढ़नेसे यही ख़याल होता है कि आप भूतकालको फिरसे जाग्रत करनेके पक्षमें हैं। आपको बार-बार कहना पड़ता है कि आप भूतकालके उपासक नहीं हैं । मानव-जातिने गलत रास्ते जितनी प्रगति की उतना रास्ता पीछे चलकर सच्चे रास्ते पर लगनेके बाद आप फिर नीतिनिष्ठ,आत्मनिष्ठ रास्तेसे नई ही प्रगति करना चाहते हैं। तो:

"आपका जीवन-कार्य करीब करीब समाप्त होने आया है। भारतका स्वराज्य स्थापित होनेकी तैयारी है। ऐसे समय पर आप फिरसे अपने जीवनभरके अनुभव और चिंतनकी बुनियाद पर ऐसी एक नयी ही किताब क्यों नहीं लिखते, जिसमें भविष्यकी एक हजार सालकी महामानव संस्कृतिका बीज दुनियाको मिले?" वे अपने कार्यमें इतने व्यस्त थे और बिगड़ता हुआ मामला सुधारनेकी प्राणपणसे चेष्टा करनेके लिए इतने चिंतित थे कि मेरी सूचना या प्रार्थना सुननेकी भी उनकी तैयारी नहीं थी।

अब जब गांधीजीका दुनियवी जीवन पूरा हो चुका है और उनके लेखोंका, भाषणोंका, पन्नोंका और मुलाकातोंका अशेष संग्रह तैयार हो रहा है, तब आदर्श-संस्कृतिके बारेमें और उसे स्थापित करनेके बारेमें गांधीजीके विचार इकट्ठा करके ऐसा एक प्रभावशाली चित्र किसी अधिकारी व्यक्तिको तैयार करना चाहिये, जिसे हम ‘हिन्द स्वराज्य' की परिणत आवृत्ति नहीं कहेंगे; उसे तो स्वराज्य-भोगी भारतका विश्वकार्य या ऐसा ही कुछ कहना होगा।

जो हो, ऐसी एक किताबकी बहुत ही ज़रूरत है।

इसके मानी यह नहीं कि वह किताब इस ‘हिन्द स्वराज्य’ का स्थान ले सकेगी। इस अमर किताबका स्थान तो भारतीय जीवनमें हमेशाके लिए रहेगा ही।

१ अगस्त, १९५९

काका कालेलकर

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