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भूमिका


न करना चाहिए। ऐसे उदाहरणों से इसके शास्त्रत्व में शङ्का करना उचित नहीं।

सांसारिक व्यवहार में सम्पतिशास्त्र का उपयोग पद पद पर होता है। प्रत्येक राजकीय, सामाजिक, व्यावहारिक और व्यापारविषयक बात का विवेचन करने में इस शास्त्र की थोड़ी बहुत ज़रूरत ज़रूरही पड़ती है। कुछ समय से इस देश में उद्योग-धन्धे, कला-कौशल और राजनीति आदि विषयों की चर्चा पहले की अपेक्षा अधिक होने लगी है। अतएव ऐसे समय में इस शास्त्र के सिद्धान्तों का जानना तो बहुत ही आवश्यक है। बिना इसके तत्वों के लोग इन विषयों की चर्चा करते हैं उनसे कभी कभी बड़ी ही हास्यजनक भूलें हो जाती हैं। यह शास्त्र यद्यपि कठिन और नीरस है, तथापि है बड़े महत्व का। देश की साम्पत्तिक दशा सुधारने और उससे सम्बन्ध रखनेवाले विषयों का शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए इसका अध्ययन सब से अधिक प्रयोजनीय हैं।

इन्हीं बातों के ख़याल से हमने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया है। पहले हमने सम्पतिशास्त्र-सम्बन्धी कई लेख 'सरस्वती' में प्रकाशित किये। हमारा पहला लेख फ़रवरी ०७ की सरस्वती में प्रकाशित हुआ। उसके बाद अारा-नागरी-प्रचारिणी सभा की पत्रिका की जनवरी और एप्रिल ०७ की संख्याओं में "अर्थशास्त्र" नामक छोटे छोटे कई "पाठ"' प्रकाशित हुए। ये संख्यायें यद्यपि जनवरी और एप्रिल की थीं, तथापि प्रकाशित आगस्ट ०७ में हुईं। इसी से इन पाठों को हमने अपनी लेखमाला के बाद का माना है । इसके अनन्तर पण्डित गणेशदत्त पाठक की "अर्थशास्त्र-प्रवेशिका" नामक एक छोटी सी पुस्तक इंडियन प्रेस, प्रयाग, से प्रकाशित हुई। बीच में हमने एक और अर्थशास्त्रविषयक पुस्तक का विज्ञापन अजमेर के "राजस्थान-समाचार" में पढ़ा थ। उसमें लिखा था कि यह पुस्तक शीघ्र ही छपकर प्रकाशित होगी। इस पर हमने प्रकाशक महाशय को लिखा कि जैसे ही यह पुस्तक तैयार हो, इसकी एक कापी हमें वी० पी० द्वारा भेज दी जाय। परन्तु न यह पुस्तक हमारे पास आई और न यही मालूम हुआ कि वह छपी या नहीं। इन बातों के लिखने से हमारा एक मतलब है। इनसे