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आनन्द मठ/4.8

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आठवां परिच्छेद

सत्यानन्द महाराज बिना किसीसे कुछ कहे सुने चुपचाप रणक्षेत्र से आनन्दमठमें चले आये। वे वहाँ गम्भीर रात्रिमें विष्णु मण्डपमें बैठे ध्यानमें डूबे हुए थे। इसी समय वही चिकित्सक वहां आ पहुचे। देखकर सत्यानन्द उठ खड़े हुए और उन्होंने उन्हें प्रणाम किया। चिकित्सकने कहा-"सत्यानन्द! आज माघकी पूर्णिमा है।"

सत्या०-"चलिये, मैं तैयार हूं; पर महात्माजी! कृपाकर मेरा एक सन्देह दूर कर दीजिये। इधर ज्योंही युद्धजय हुई, सनातनधर्म निष्कण्टक हुआ, त्योंही मुझे लौट चलनेको आज्ञा क्यों दी जा रही है?"

आनेवालेने कहा-"तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया। मुसलमानोंका राज्य चौपट हो गया। अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। व्यर्थमें प्राणियोंकी हत्या करनेसे क्या काम है?"

सत्या०-"मुसलमानी राज्य चौपट हुआ सही; पर हिन्दुओंका राज्य तो नहीं स्थापित हुआ? इस समय कलकत्त में अंगरेजोंका जोर बढ़ता जा रहा है।"

महात्मा-"अभी हिन्दू-राज्यको स्थापना नहीं हो सकती। तुम्हारे यहाँ रहनेसे व्यर्थ ही नरहत्या होगी, इसलिये चलो।" [ १८० ]यह सुनकर सत्यानन्दको बड़ी मर्मवेदना हुई। वे बोले "प्रभो! यदि हिन्दुओंका राज्य न होगा, तो फिर किसका होगा? क्या फिर मुसलमान ही राजा होंगे?"

महात्मा-"नहीं, अब अंगरेजोंका ही राज्य स्थापित होगा।"

सत्यानन्दकी दोनों आँखोंसे आँसू बहने लगे। वे ऊपर रखी हुई मातृ-स्वरूपिणी मातृभूमिकी प्रतिमाकी ओर फिरकर, हाथ जोड़, रुधे हुए कण्ठसे कहने लगे-"हाय! मां! मुझसे तुम्हारा उद्धार करते न बन पड़ा। तुम फिर म्लेछोंके ही हाथमें जा पड़ोगी। सन्तानोंका अपराध मत समझना। माता! आज रणक्षेत्रमें ही मेरी मृत्यु क्यों न हो गयी?”

महात्माने कहा-"सत्यानन्द! कातर मत हो। तुमने बुद्धि-भ्रममें पड़कर दस्यु-वृत्तिद्वारा धन संग्रह कर लड़ाई जीती है। पापका फल कभी पवित्र नहीं होता। इसलिये तुम लोगोंसे इस देशका उद्धार न हो सकेगा। और जो कुछ होनेवाला है, वह अच्छा ही है। अंगरेजोंका राज्य हुए बिना सनातनधर्मका पुनरुद्धार नहीं हो सकता। महापुरुष लोग जिस तरह सब बातोंको समझा करते हैं, मैं उसी तरह तुम्हें बतलाता हूं, सुनो। तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा करना सनातनधर्म नहीं है। वह तो एक निकृष्ट लौकिक धर्म है। इसीके मारे सच्चा सनातन धर्म-जिसे म्लेच्छगण हिन्दूधर्म कहते हैं लुप्त हो रहा है। 'हिन्दूधर्म ज्ञानात्मक है, क्रियात्मक नहीं, वह ज्ञान दो प्रकारका होता है बाहरी और भीतरी। भीतरी ज्ञान ही सनातनधर्मका प्रधान अङ्ग है, किन्तु जबतक बाहरी ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता तबतक भीतरी ज्ञान उत्पन्न होनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। बिना स्थलको जाने, सूक्ष्म नहीं जाना जाता। इस समय इस देशका बाहरी ज्ञान बहुत दिनोंसे लुप्त हो रहा है। इसीलिये सनातनधर्मका भी लोप हो रहा है! सनातनधर्मका पुनरुद्धार करनेके लिये, पहले बाहरी ज्ञान का पचार करना आवश्यक है। [ १८१ ] इस समय इस देशमें वह ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान सिखलानेवाले लोग भी नहीं हैं। हम लोग लोकशिक्षामें निरे अधकचरे हैं। इसलिये और और देशोंसे यह बाहरी ज्ञान लाना पड़ेगा। अंगरेज इस बाहरी ज्ञानमें बड़े प्रवीण हैं। वे लोकशिक्षामें पूरे पण्डित हैं। इसीले हमें अंगरेजोंको राजा मानना पड़ेगा। इस देशके लोग अंगरेजी शिक्षाद्वारा बाहरी तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर अन्तस्तत्वोंको समझनके योग्य बनेंगे। उस समय सनातनधर्मका गर करने में कोई विघ्नबाधा न रह जायगी। उस समय सच्चा धर्म आप-से-आप जगमगा उठेगा। जबतक ऐसा नहीं होता, जबतक हिन्दू फिरसे ज्ञानवान, गुणवान और बलवान नहीं हो जाते, तबतक अङ्गरेजोंका राज्य अटल-अचल बना रहेगा। अंगरेजों के राज्यमें प्रजा सुखी होगी, सब लोग बेखटके अपने, अपने धर्मकी राहपर चलने पायेंगे। अतएव, हे बुद्धिमान! तुम अंगरेजोंके साथ युद्ध करनेसे हाथ खींच लो और मेरे साथ चलो।"

सत्यानन्दने कहा-"महात्मन्! यदि आप लोगोंको अंगरेजोको ही यहांका राजा बनाना था, यदि इस समय अंगरेजी राज्य स्थापित होने में ही इस देशको भलाई थी, तो फिर आपने मुझे इस हिंसापूर्ण युद्धकार्यमें क्यों लगा रखा था?”

महात्माने कहा-"अंगरेज इस समय बनिये होकर टिके हुए हैं। केवल माल बेचने और टके पैदा करनेमें लगे हुए हैं। राज्य-शासनका झंझट सिरपर लेना नहीं चाहते। सन्तान-विद्रोहके कारण वे लोग मजबूत होकर राज्यशासन अपने हाथमें लेंगे; क्योंकि बिना राज्यशासनका प्रबन्ध ठीक धनसंग्रह नहीं होने पाता। अंगरेजोंका राज्य स्थापित करनेहीके लिये यह संतानविद्रोह हुआ है। अब आओ, ज्ञानलाभ करनेपर तुम आप ही सब बातें समझ जाओगे।"

सत्यानन्द-"मुझ शानलाभकी लालसा नहीं। ज्ञानसे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैंने जो व्रत ग्रहण किया है, उसीका [ १८२ ] पालन करूंगा। आशीर्वाद करें कि मेरी मातृभक्ति अचल हो।"

महात्मा-"व्रत तो सफल हो गया। तुमने माताका मंगल साधन कर डाला। अंगरेजी राज्य स्थापित करनेमें मदद पहुंचा ही दी। अब युद्ध-विग्रहकी बात छोड़ो। लोगोंको खेतीबारी करने दो, जिससे लोगोंके भाग्यके दरवाजे खुल जायं।"

सत्यानन्दकी आँखोंसे चिनगारियां निकलने लगीं। उन्होंने कहा मैं तो शत्रुओंके रुधिरसे सींच-सींचकर माताको शल्यशालिनी बनाऊंगा।"

महात्मा-“शत्रु कौन हैं? शत्रु अब रहे कहाँ? अंगरेज मित्र राजा है। अंगरेजोंके साथ युद्ध करने योग्य शक्ति भी नहीं है।"

सत्यानन्द-न सही, मैं यहीं, इसी मातृप्रतिमाके सम्मुख प्राण-त्याग करूंगा।"

महापुरुष–“योंही अज्ञानमें पड़कर? चलो, चलकर ज्ञान लाभ करो। हिमालयके शिखरपर मातृमन्दिर है, वहींसे मैं तुम्हें माताकी मूर्तिका दर्शन कराऊंगा।"

यह कह, महापुरुषने सत्यानन्दका हाथ पकड़ लिया। अहा! कैसो अपूर्व शोभा थी। उस गम्भीर विष्णुमन्दिरमें, विराट चतुर्भुजी मूर्ति के सामने, धुधले प्रकाशमें खड़े वे दोनों महा प्रतिभापूर्ण पुरुष एक दूसरेका हाथ पकड़े खड़े हैं। किसने किसे पकड़ रखा है। मानों ज्ञानने आकर भक्तिको पकड़ लिया है, धर्मने आकर कर्मका हाथ थाम लिया है, विसर्जनने आकर प्रतिष्ठाको पकड़ रखा है, कल्याणीने शान्तिको आ पकड़ा है। यह सत्यानन्द शान्ति हैं और वह महापुरुष कल्याणी हैं। सत्यानन्द प्रतिष्ठा है, महापुरुष कल्याणी हैं। विसर्जन आकर प्रतिष्ठाको ले गया।

*इति शम्*