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कामना/3.2

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कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ ९४ ]

दूसरा दृश्य

स्थान––स्कंधावार में पट-मंडप

(कामना रानी)

कामना––प्रकृति शांत है, हृदय चंचल है। आज चाँदनी का समुद्र बिछा हुआ है। मन मछली के समान तैर रहा है, उसकी प्यास नहीं बुझती। अनंत नक्षत्र-लोक से मधुर वंशी की झनकार निकल रही है; परंतु कोई गाने वाला नहीं है। किसी का स्वर नहीं मिलता। दासी। प्यास––

(सन्तोष का प्रवेश)

कामना––कौन? सन्तोष।

सन्तोष––हाँ रानी। [ ९५ ]कामना-बहुत दिनो पर दिखाई पड़े।

सन्तोष-हाँ रानी।

कामना-किधर भूल पड़े? अब क्या डर नहीं लगता?

सन्तोष-लगता है रानी।

कामना-(कुछ संकोच से) फिर भी किस साहस से यहाँ आये।

सन्तोष-(मुस्कुराकर) देखने के लिए कि मेरी आवश्यकता अब भी है कि नहीं।

कामना-परिहास न करो सन्तोष।

सन्तोष-परिहास। कभी नहीं। जब हृदय ने पराभव स्वीकार करके विजय-माला तुम्हे पहना दी और तुम्हारे कपोलो पर उत्साह की लहर खेल रही थी, उसी समय तुमने ठोकर लगा कर मेरी सुन्दर कल्पना को स्वप्न कर दिया रमणी का रूप-कल्पना का प्रत्यक्ष–सम्भावना की साकारता और दूसरे अतीन्द्रिय रूप-लोक का आलोक, जिसके सामने मानवीयमहत् अहम्-भाव लोटने लगता है। जिस पिच्छल भूमि पर स्खलन विवेक बनकर खड़ा होता है। जहाँ प्राण अपनी अतृप्त अभिलाषा का आनन्द[ ९६ ] निकेतन देखकर पूर्ण वेग से धमनियो में दौड़ने लगता है। जहाँ चिन्ता विस्मृत होकर विश्राम करने लगती है। वही रमणी का तुम्हारा-रूप देखा था-और यह नहीं कह सकता कि मै झुक नहीं गया। परन्तु मैने देखा कि उस रूप मे पूर्ण चन्द्र के वैभव की चन्द्रिका-सी सबको नहला देने वाली उच्छृंखल वासना। वह अपार यौवन-राशि समुद्र के जल-स्तूप के समान समुन्नत-गर्व से ऊँची उसमें लहरियाँ चढ़ती थीं-गिरती थीं। वह जलराशि मेरे लिए रहस्यपूर्ण कुतूहल की प्रेरक थी। मैने विचारा कि यह प्यास बुझाने का मधुर स्रोत नहीं है, जो मल्लिका की मीठी छाँह में बहता है।

कामना-क्या यह सम्भव नहीं कि तुमने भूल की हो, उसे उजेले मे न देखा हो! अँधेरे मे अपनी वस्तु न पहचान सके हो?

सन्तोष-वह तमिस्रा न थी, और न तो अन्धकार था, हमारे प्रेम की गोधूली थी, संन्ध्या थी। जब वृक्षों की पत्तियाँ सोने लगती है, जब प्रकृति विश्राम करने का संकेत करती है। पवन रुक कर सन्ध्या-सुन्दरी के सीमन्त मे सूर्य का सिन्दूर की रेखा [ ९७ ] लगाना देखने लगता है। पक्षियों का घर लौटने का मंगल गान होने लगता है सृष्टि के उस रहस्यपूर्ण समय मे जब न तो तीव्र, चौका देने वाला आलोक था-न तो नेत्रों को ढक लेने वाला तम था, तुम्हें देखने की—पहचानने की चेष्टा की, और तुम्हें, कुहक के रूप मे देखा।

कामना-और देखते हुए भी ऑखें बन्द थीं।

सन्तोष-मेरे पास कौन सम्बल था-कामना रानी।

कामना-ओह। मेरा भ्रम था।

सन्तोष-क्या तुम्हें दुःख है कामना।

कामना-मेरे दुःखों को पूछकर और दुःखी न बनाओ।

सन्तोष-नहीं कामना, क्षमा करो। तुम्हारे कपोलों के ऊपर और भौहो के नीचे एक श्याम मंडल है, नीरव रोदन हृदय मे है, गम्भीरता ललाट मे खेल रही है। और भी एक लज्जा नाम की नई वस्तु पलको के परदे मे छिपी है, जो कुछ मर्म की बातें जानती है, जिन्हे हम लोग पहले नहीं जानते थे।

कामना-जाने दो सन्तोष! तुम्हे अब इससे क्या। तुम तो सुखी हो। [ ९८ ]सन्तोष-सुखी। मै सबसे सुखी हूँ-मेरी एक ही अवस्था है। दुःखों की बात उनसे पूछो, तुम्हारी राज्य-कल्पना से जिनकी मानसिक शुभेच्छा एक बार ही दब गई है। जिन पर कल्याण की मधु-वर्षा नहीं होती, उन अपनी प्रनाओ से पूछो, और पूछो अपने मन से।

कामना-जाओ सन्तोष, मुझे और दुखी न बनाओ

(सिर झुका लेती है)

सन्तोष-अच्छा रानी, मै नाता हूँ। (जाता है)

कामना-(कुछ देर बाद सिर उठाकर) क्या चला गया-

(दासी पात्र लिये आती है, और सखियाँ जाती हैं)

१-रानी, मन कैसा है?

२-मैं बलिहारी, यह उदासी क्यों है?

कामना-यह पूछकर तुम क्या करोगी?

१-फिर किससे कहोगी?

२-पगली! देखती नहीं? स्त्री होकर भी नही जानती, नहीं समझती।

१-रानी, देश में अन्य बहुत-से युवक हैं।

कामना-तो फिर? [ ९९ ]२-ब्याह कर लो रानी।

कामना-चुप मूर्ख। मै पवित्र कुमारी हूँ। मैं सोने से लदी हुई परिचारिकाओं से घिरी हुई अपने अभिमान-साधना की कठिन तपस्या करूँगी। अपने हाथों से जो विडम्बना मोल ली है, उसका प्रतिफल कौन भोगेगा? उसका आनंद, उसका ऐश्वर्य और उसकी प्रशंसा, क्या इतना जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है?

१-परंतु-

२-जीवन का सुख, स्त्री होने का उच्चतम अधिकार कहाँ मिला? रानी, तुम किसी पुरुष को अपना नहीं बना सकी।

कामना-देखती हूँ; तू बहुत बढ़ी चली ना रही है। क्या तुझे-

१-क्षमा हो, अपराध क्षमा हो।

२-रानी, मुझे चाहे तीरो से छिदवा दो, परंतु मैं एक बात बिना कहे न मानूँगी। जब इस विदेशी विलास को तुम्हारे साथ देखती हूँ, तब मैं क्रोध से काँप उठती हूँ। कुछ वश नहीं चलता, इससे रोने लगती हूँ। बस, और क्या कहूँ। [ १०० ]कामना-प्यारी, तू उस बात को न कह, उसे बधिरता के घने परदे मे छिपी रहने दे। मेरे जीवन के निकटतम रहस्य को अमावास्या से भी काली चादर मे छिपा रख। मै रोना चाहती हूँ; पर रो नहीं सकती। हाँ-

२-अच्छा, मै कुछ गाऊँ, जिसमे मन बहले।

कामना-सखी-

(गान)

जाओ, सखी, तुम जी न जलाओ,
हमें न सताओ जी।

१-तुम व्यर्थ रहीं बकती,

कामना-तुम जान नही सकती, मन की कथा है कहने की नही

२-मत बात बनाओ जी ।

१-समझोगी नही सजनी,

२-भव प्रेममयी रजनी,

भर नैन सुधा-छवि चाख गई
अब क्या समझाओ जी।

(विलास का प्रवेश)।

विलास-रानी! [ १०१ ] कामना-(सम्हलकर) क्यों विलास? यह नगर कैसा बसाया जा रहा है?

विलास-आज भयानक युद्ध होगा। कल बताऊँगा।

कामना-अच्छा खेल होगा, सभ्यता का तांडव नृत्य होगा। वीरता की तृष्णा बुझेगी, और हाथ लगेगा सोना!

विलास-व्यंग्य न करो रानी! विनोद आज मदिरा मे उन्मत्त है; कोई सेनापति नही है।

कामना-तो मैं चलूँ?

विलास-मैं तो पूछ रहा हूँ।

कामना-अच्छी बात है, आन तुम्ही सेनापति का काम करो। लीला और लालसा भी रणक्षेत्र में साथ जायँगी कि नहीं? (नेपथ्य मे कोलाहल)

विलास-(बिगड़कर) स्त्रियों के पास और होता क्या है।

कामना-कुछ नही, अपना सब कुछ देकर ठोकरें खाना! उपहास का लक्ष्य बन जाना।

विलास-इस समय युद्ध के सिवा और कुछ नहीं। फिर किसी दिन उपालम्भ सुन लूँगा। [ १०२ ]

(वेग से जाता है)

(लीला और लालसा के साथ मद्यप विनोद का प्रवेश)

विनोद-रानी, सब पागल हैं।

कामना-एक तुमको छोड़कर विनोद।

विनोद-मैं तो कहता हूँ; दस घड़े रक्त के न बहाकर यदि एक पात्र मदिरा पी लो, सब कुछ हो गया।

लीला-रानी, देखो, यह सोने का नाल नया बनकर आया है।

कामना-बहुत अच्छा है।

लालसा-और यह सोने के तारों से बिनी हुई नई साड़ी तो देखी ही नहीं। (दिखाती है)

कामना-वाह। कितनी सुंदर शिल्पकला है।

विनोद-इस देश से खूब सोना घर भेजा गया है। वहाँ नये-नये सौंदर्य-साधन बनाये जा रहे हैं। रानी, लाल रक्त गिराने से पीला सोना मिलने लगा। कैसा खेल है?

कामना-बहुत अच्छा।

लालसा-आज विलास सेनापति होकर आक्रमण करने गये हैं, तो विनोद, तुम्हीं मेरे पटमंडप मे चलो। मैं अकेली कैसे रहूँगी? [ १०३ ]विनोद-हाँ, यह तो अत्यंत खेद की बात है। परंतु कोई चिंता नहीं। चलो।

(दोनो जाते हैं)

लीला-रानी।

कामना-लीला।

लीला-यह सब क्या हो रहा है?

कामना-ऐश्वर्य और सभ्यता के परिणाम।

लीला-तुम रानी हो, इसको रोको।

कामना-मेरा स्वर्ण-पट्ट देखकर प्रथम तुम्हीं को इसकी चाह हुई, आकांक्षा हुई। अब क्या, देश में धनवान और निर्द्धन, शासकों का तीव्र तेज, दीनों की विनम्र दयनीय दासता, सैनिक-बल का प्रचंड प्रताप, किसानों की भारवाही पशु की-सी पराधीनता, ऊँच और नीच, अभिनात और बर्बर, सैनिक और किसान, शिल्पी और व्यापारी, और इन सभी के ऊपर सभ्य व्यवस्थापक-सब कुछ तो है। नये-नये संदेश, नये-नये उद्देश, नई-नई संस्थाओं का प्रचार, कुछ सोना और मदिरा के बल से हो रहा है। हम जागते में स्वप्न देख रहे है।

लीला-ओह। (जाती है) [ १०४ ]

(दो सैनिक एक स्त्री को बाँधकर लाते है)

कामना-यह कौन है?

सैनिक-युद्ध मे यह बंदी बनाई गई है।

कामना-इसका अपराध?

सैनिक-सेनापति के आने पर वह स्वयं निवेदन करेंगे। हम लोगो को आज्ञा हो, तो जायँ, युद्ध समाप्त होने के समीप है।

कामना-जाओ।

(दोनों जाते हैं)

स्त्री-तुम रानी हो?

कामना-हाँ।

स्त्री-रानी बनने की साध क्यों हुई? क्या आँखें इतनी रक्त-धारा देखने की प्यासी थी? क्या इतनी भीषणता के साथ तुम्हारा ही जयघोष किया जाता है?

कामना-मेरे दुर्भाग्य से।

स्त्री-और तुम चुपचाप देखती हो।

कामना-तुम बंदी हो, चुप रहो।

(रक्तात कलेवर विजयी विलास का प्रवेश)

विलास-जय, रानी की जय। [ १०५ ]कामना-क्या शत्रु भाग गये?

विलास-हाँ रानी।

कामना-अच्छा विलास, बैठो, विश्राम करो।

विलास-(देखकर) आहा। यह अभी यहीं है। इसको मेरे पटमंडप मे न ले जाकर यहाँ किसने छोड़ दिया?

कामना-वह सैनिक इसे यही पकड़ लाया। परंतु कहो तो विलास, इसे क्यों पकड़ा?

विलास-तुमको रानी, राज्य करने से काम, इन पचड़ो में क्यों पड़ती हो? युद्ध में स्त्री और स्वर्ण, यही तो लूट के उपहार मिलते है। विजयी के लिए यही प्रसन्नता है। इसे मेरे यहाँ भेज दो।

कामना-विलास, तुमको क्या हो गया है? मैं रानी हूँ, तुम्हारी शय्या सजाने की दासी नहीं। अभी चले जाओ।

स्त्री-दोहाई रानी की। तुम्हारे राज्य के बदले भी मुझे ऐसा पुरुष नहीं चाहिये। मुझे बचाओ, यह नरपिशाच! ओह-

(मुँह ढकती है)

विलास-अच्छा, जाता हूँ।

(सरोष प्रस्थान)