जायसी ग्रंथावली/पदमावत/११. प्रेम खंड

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जायसी ग्रंथावली  (1924) 
द्वारा मलिक मुहम्मद जायसी

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(११) प्रेम खंड

सुनतहि राजा गा मुरछाई। जानौं लहरि सुरुज कै आई॥
प्रेम घाव दुख जान न कोई। जेहि लागै जानै पै सोई॥
परा सो पेम समुद्र अपारा। लहरहिं लहर होइ विसँभारा॥
बिरह भौंर होइ भाँवरि देई। खिन खिन जीउ हिलोरा लेई॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई। खिनहिं उठैं निसरैं बौराई॥
खिनहिं पीत, खिन होइ मुख सेता। खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता॥
कठिन मरन तें प्रेम वेवस्था। ना जिर जियै, न दसवँ अवस्था॥

जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहि॥
एतनै बोल आव मुख, करै 'तराहि तराहि' ॥१॥

जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगो। राजा राय आए सब वेगी॥
जावत गुनो गरुड़ो आए। ओझा, बैद, सयान बोलाए॥
चरचहिं चेष्टा परिखहिं नारी। नियर नाहिं ओषद तहँ बारी॥
राजहिं आहि लखन कै करा। सकति कान मोहा है परा॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी। को लेइ आव सजीवन मूरी॥
विनय करहिं जै जै गढ़पती। का जिउ कीन्ह, कौन मति मती॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा॥

धावन तहाँ पठावहु, देहि लाख दस रोक।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहि सबै बरोक ॥२॥

जब भा चेत उठा बैरागा। बाउर जानौं सोइ उठि गाजा॥
आवत जग बालक जस रोआ। उठा रोइ 'हा ज्ञान सो खोआ'॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा। सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा॥
सोवत रहा जहाँ सुख साखा। कस न तहाँ सोवत विधि राखा॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना। कब लगि रहै परान बिहूना॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा। घट न नीक पै जोउ निसाथा॥

 

(१) बिसँभरा=बेसँभाल, बेसुध। दसवँ अवस्था=दशम दशा, मरण। लेनिहार=प्राण लेनेवाले। हरहिं=धीरे धीरे। तरासिंह=त्रास दिखाते हैं।

(२) गारुड़ि=साँप का विष मंत्र से उतारनेवाला। चरचहिं=भाँपते हैं। करा=लीला, दशा। खाँगा=घटा। रोक=रोकड़, रुपया (सं॰ रोक नकद) पाठांतर 'थोक'। बरोक=बरच्छा, फलदान।

(३) बिहूहुना=बिहीन, बिना। घट=शरीर। निसाथा=बिना साथ के। [ ४५ ]

(११) प्रेम खंड

अहुठ हाथ तन सरवर, हिया कवँल तेहि माँह।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचय औगाह॥३॥

सबन्ह कहा मन समुझहु राजा। काल सेंति जूझ न छाजा॥
तासों जूझ जात जो जीता। जानत कृष्ण तजा गोपीता॥
औ न नेह काह सौं कीजै। नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा। पुनि होइ कठिन निबाहत औरा॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू। पहुँचि न जाइ परा तस फेरू॥
ज्ञान दिस्टि सौं जाइ पहूँचा। पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ। सिर देइ पाँव देह सो छूआ॥

तुम राजा औ सुखिया, करहु राज सुख भोग।
एहि रे पंथ सो पहुँचे। सहै जो दुःख वियोग

सुऐ कहा मन बूझहु राजा। करव पिरीत कठिन है काजा॥
तुम राजा जेई घर पोई। कवँल न भेंटेउ-भेंटेउ कोई॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूट। जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे॥
कठिन आहि सिंघल कर राजू। पाइय नाहिं जूझ कर साजू॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी। जोगी, जती, तपा, सन्यासी॥
भोग किए जौ पावत भोगू। तजि सो भोग कोइ करत न जोगू॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा। भोगहि जोग करत नहिं भावा॥

साधन्ह सिद्धि न पाइय, जौ लगि सधै न तप्प।
सो पै जानै वापुरा, करै जो सीस कलप्प॥५॥

का भा जोग कथनि के कथे। निकसै घिउ न बिना दधि मथे॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई। तौ लहि हेरत पाव न सोई॥
पेम पहार कठिन विधि गढ़ा। सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा॥
पंथ सूरि के उठा अँकूरू। चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू॥
तू राजा का पहिरसि कंथा। तोरे घरहि मांक्ष दस पंथा॥
काम,क्रोध,तिस्ना, मद,माया। पाँचौ चोर न छाँड़हिं काया॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा। घर मूसहिं निसि, को उजियारा॥

 

अहुठ = साढ़े तीन (सं० अर्द्ध-चतुर्थ, कल्पित रूप 'आध्युष्ठ', प्रा० अड्ढुट्ठ); जैसे—कबहूं तो अहुट परग करी वसुधा, कबहुँ देहरी उलँधि न जानी॥ सूर। 'सरवर'—पाठांतर 'तरिवर'।

(४) काल सेंति = काल से (प्रा० वि० संतो)। अहुठ = दे० ३। ध्रुव = ध्रुव। सिर देइ छूआ = सिर काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो; जैसे—'सोस उतारै भूई धरै तापर राखै पाँव। दास कबीरा यों कहै ऐसा होय तो आव॥'

(५) पोई = पकाई हुई। तुम...पोई = अब तक पकी पकाई खाई अर्थात् आाराम चैन से रहे।

साधन्ह = केवल साध या इच्छा से। कलप करै = काट डाले (सं० क्लप्त)।

(६) सूरि = सूली। दिठियार = देख में, देखा हुआ। मूसि जाहिं = चुरा ले [ ४६ ]

अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर।
तब किछु हाथ न लागिहि मूसि जाहि जब चोर॥६॥

सुनि सो बात राजा मन जागा। पलक न मार, पेम चित लागा॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औमूँगा। जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा॥
हिय पै जोति दीप वह सुझा। यह जो दीप अँधियारा बूझा॥
उलटि दीठि माया सौं रूठी। पलटि न फिरी जानि कै झूठी॥
जौ पै नाहीं अहथिर दसा। जग उजार का कीजिय बसा॥
गुरु विरह चिनगसी जो मेला। जो सुलगाइ लेइ सो चेला॥
अब करि फनिग भृंग कै करा। भौंर होहुँ जेहि कारन जरा॥

फूल फूल फिरि पूछौं, जौ पहुँचौं ओहि केत।
तन नेवछावरि कै मिलौं, ज्यों मधुकर जिउ देत॥७॥

बंधू मीत बहुतै समझावा। मान न राजा कोउ भुलावा॥
उपजी पेम पीर जेहि आई। परबोधत होइ अधिक सो आई॥
अमृत बात कहत विष जाना। पेम क बचन मीठ के माना॥
जो ओहि विषै मारि कै खाई। पूँछहु तेहि पेम पम मिठाई॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई। अमृत राज तजा विष खाई॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा। उनहूँ विषै कंठ पै लावा॥
होत आज रवि किरिन विकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा॥

तुम सब सिद्धि मनावहु, होइ गनेस सिधि लेव।
चेला को न चलावै, तुले गुरू जेहि भेव?॥८॥


 

जायें (सं० मूषणा)। (७) अहथिर = स्थिर। उजार = उजाड़। बसा = बसे हुए। फनिग = फनगा, फतिंगा, पतंग। भृंग = कीड़ा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि और फतिंगों को अपने रूप का कर लेता है। करा = कला, व्यापार। केत = कैत, ओर, तरफ अथवा केतकी। (८) अमृत = संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ। विषै = विष तथा अध्यात्म पक्ष में विषय।

होत आव...सुआसा = लक्ष्मण को शक्ति लगने पर जब यह कहा गया था कि सूर्य निकलने के पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी तो वे बेचेंगे, तब राम को हनुमान जी ने आशा बँधाई थी। तुले गुरू जेहि भेव = जिस भेद तक गुरु पहुँचते है, जिस तत्व का साक्षात्कार गुरु करता है।