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जायसी ग्रंथावली/पदमावत/२५. रत्‍नसेन सूली खंड

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[ ९७ ](२५) रत्नसेन सूली वंड बाँधि तपा माने जहूँ सूरी । जुरे प्राइ सब सिंघलपूरी पहिले गुरुहि देख़ कहें याना । देखि रूप सब कोइ पछिताना ॥ लोग कहाँह यह होइ न जोगो। राजकुंवर कोइ है बियोगी ॥ काहुति लागि भएउ है तपा। हिये सो माल, करहु मुख जपा ॥ जस मार्ग कहें बाजा तूरू । सूरी देखि ह सा मंसूरू । चमके दसन भएछ उजियारा :। जो जहूँ तहाँ बीच प्रस मारा। जोगी केर करड पे खोज। मकु यह होझ न राजा भोजू । सब पूछहकलु जोगी ! जाति जनम औ नाँव । जहाँ ठाँव रोवे कर हँसा सो कहु केहि भाव 1 १ ॥ ‘का पूछहु अब जाति हमारी । हम जोगी औ तपा भिखारी ॥ जोगिहि कौन जाति, हो राजा। गारि न कोहमारि नहि लाजा ॥ निजल भिखारि लाज जेइ खोई। तेहि के खोज परे जिनि कोई ॥ जाकर जीउ मरे पर बसा। सूरी देखि सो कस नहि हँसा ? ॥ नाजु नेह साँ होइ निरानाजु पुरूमि तजि गगन बसेरा ॥ नाजु कया पोजर बँदि टूटा। आा हि प्रान परेवा छूटा। ग्राओँ नेह सर्ण होइ निनौरा । प्रार्ता प्रेम सेंग चला पियारा ॥ नाजु अवधि सिर पहुंची, किए जाहु मुख रात । बेगि हो मोहि मार, जिनि चालह यह बात ॥ २ ॥ कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा । हम तोहि करहि केत कर भंवरा ॥ कहेसि ओोहि सँवरॉ हरि फेरा। मुए जियत आाहों जेहि केरा ॥ औौ सँव पदमावति रामा । यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा ॥ रकत क बूद कया जस अहही। पदमावति पदमावति' कहहो । रहै त बूंद बूंद महें टा। परं त सोई लेइ लेइ नाऊँ रोव रॉव तन तास आधा 1 सूतहि सूत वेधि जिउ सोधा। हाड़हि हाड़ सबद सो होई । नस नस माँह उठे धुनि सोई ॥ ज (१) करहु मुख = हाथ से भो औौर मुख से भी। जस = जैसे ही । (२ ) अवधि सिर पहुंचो अवधि किनारे पहुंची अथात् पूरी हुई । बगूि होढ़ जल्दी करो। (३ ) करहि“भौंरा = हम तुम्हें अब सूली से ऐसा हो छेदेंगे जैसा केतकी के काँटे भरे का शरीर छेदते हैं । हरि = प्रत्येक । ग्राहों = हूँ। ऑोधा = लगा, उलझा (० नाबद्ध ) : जैसे, सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे । निज निज काजपाय सिख ऑोंधे ॥-तुलसी । गूद = गूदा । हान = हानि। [ ९८ ]७८ पदमातव जागा विरह तहाँ का, गूद माँसु के हान ?। हीं पुनि साँचा होइ रहा ऑोंहि के रूप समान ॥ ३ ॥ जोगिहि जबह गाढ़ अस परा । महादेव कर शासन टरा । वे हंसि ) पारबती सर्षो कहा। जानलें सूर गहन आस गहा ॥ आाजु चढ़े गढ़ ऊपर तपा। राज गहा सूर तब छपा ॥ जग देख गा कौतुक था। कीन्ह तपा मारै कहें साजू । पारबती सुनि पाँयन्ह परी। चलि, महेस ! देखें एहि घरी ॥ भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा। श्री हनुवंत वीर सैंग लीन्हा ॥ आए पुत होइ देखन लागी । वह मूति कस सती सभागी ॥ कटक असू देखि है, राजा गरब क रेइ । दंड क दसा न , दहूं का कहें जय देइ ॥ ४ ॥ आासन लेइ रहा हो तपा। ‘पदावति पदमावति' जपा ॥ मन समाधि तासों मुनि लागी । जेहि दरसन कारन वैरागी ॥ रहा समाइ रूप नौ नाऊँ। और न सूझ बार जहूँ जाऊ । आ महस कह करा मदे । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू ॥ पारबती पुनि सत्य सराहा। श्री फिर मुख कर चाहा ॥ महेस हिय महेस जों, कहै महेसी। कित सिर नावहि ए परदेसी ? ॥ मरत8 लोन्ह तुम्हारहि नाऊँ। तुम्ह चित किए रहे एहि ठाऊँ । मारत ही परदेसी, राखि लेह एहि बीर । कोइ काह कर नाहीं जो होड़ चले न तीर ॥ ५ ॥ लेइ संदेस सुप्रटा गा तहाँ । सूरी देहि कर रतन जहाँ । देखि रतन हीरामन रोवा। राजा जिउ लोगन्ह हठ खोवा ॥ देखि रुदन हीरामन केरा। रोवहि सब, राजा मुख हेरा । माँगह सब बिधिना सर्ण रोई। उपकार छोड़ाव कोई कहि संदेस सब विपति सुनाई । बिकल बहुतकिछ कहा न जाई ॥ काढ़ि प्रान बैठी लेई हाथा। मरे तौ मरीं, जिौं एक साथा । सुनि संदेस राजा तब हँसा। प्रान प्रान घट घट महें बसा । सूऋटा भाँट दसौंधी भए जिउ पर एक ठाँव । चलि सो जाइ अब देख तहूँ जहें बैठा रह राव ॥ ६ ॥ ।। समान = समाया हुआा।(४) गाढ़ = संकट । देखन लागी। = देखने के लिये । (५) क अदेसू - श्रादेश करता हूँ, प्रणाम करता हूं । चाहा । = ताका। महेसी = पार्वती हि महेस"परदेसी = पार्वती कहती हैं कि जब महेश इनके हृदय में हैं परदेसी किसी सामने तीर होइ तब ये क्यों के सिर झुकाएँ। चले = साथ दे, पास जाकर सहायता करे । (६) हेरा र, ताकते हैं । दसौंधी भाँटों एक जाति । पर हुए की जिउ पर भए = प्राण देने उद्यत । [ ९९ ]रत्नसेन सूली ७ । राजा रहा दिस्टि के ऑौंधी। रहि न सका तब भाँट दसौंधी ॥ कहेसि मेलि के हाथ कटारी। पुरुष न मारे बैठ पेटारी कान्ह कोपि जब मारा कंसू । तब जाना पूरुष के बंस ॥ गंध्रबसेन जहाँ रिस बाढ़ा । जाइ भाँट भागे भा ठाढ़ा ॥ बोला गंध्रबसेन रिसाई। कस जोगी कस भाँट असाई ॥ ठाढ़ देख सब राजा राऊ। बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ ।। जोगी पानि, नागि तू राजा। नागिहि पानि जून नहि छाजा ॥ आागि बुझाइ पानि सौं, जूझ न, राजा वह लीन्हें खप्पर बार तोहि, भिक्षा देहि, न जत जोगि न होई, ग्राहि सो भो। जानलु भेद करहु सो खोज ॥ भारत ग्रोइ जूझ जौ ओोधा। होंहि सहाय आई सब जोधा ॥ रनघट बजावा। सुनि के सबद बरम्हा चलि धावा ॥ फनपति फन पतार स काढ़ा। आस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा ॥ छप्पन कोटि बसंदर बरा। सवा लाख परबत फरहा ॥ चहे अन लै कृ स्न मुरारी। इंद्रलोक सब लाग गोहारी। तैतिस कोटि देवता साजा। औ छानबे मेघदल गाजा ॥ नबौ नाथ चलि श्रावहि, नौ चौरासी सिद्ध । आाज महाभारत चलेगगन गरुड़ औ गिद्ध 1 ८ ॥ भइ ग्रज्ञा को भाँट अभाऊ। बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ ॥ को जोगी आस नगरी मोरी । जो देइ सेंधि चले गढ़ चोरी ॥ इंद्र डरे निति नावें माथा। जानत कृस्न सेस जेइ नाथा ॥ बरम्हा डरे चतुरमुख जासू । औौ पातार बलि बास ॥ डर मही हलै नौ च लै सुमेरू । चाँद सूर औौ गगन कुबेरू मेघ बिजुरी जेहि दीठीं। कूरुम डेरे धरति जेहि पोठी ॥ डर चहाँ नाजु माँगों धरि केसा। औौर को कीट पतंग नरेसा ? ॥ बोला भाँट, नरेस सुनु : गरब न छाजा जीउ । कुंभकरन के खोपरीबूड़त बाँचा भीडें ॥ & ॥ रावन गरव बिरोधा रामू । श्रोही गरब भएड संग्रामू । तस रावन अस को बरिबंडा। जेहि दस सीसबीसभुजदंडा ॥ (७) राजा =गंधर्वसेन। औौंधी = नीची। आसाई = अताई (?) बेंढंगा । (८) भारत = महाभारत का सा युद्ध । शोधा = ठाना, नांधा। अस्टी कुरी अष्टकुल नाग । बसंदर = वैश्वानरअग्नि । फरहरा ८५ फड़क उठे । = यात्र अस्त्र । लाग गोहारी = सहायता के लिये दौड़ा। नव नाथ == गोरखपंथियों के नौ नाथ। चौरासी सिः = बौद्ध बयान योगियों के चौरासी सिद्ध । (९) भाऊ = आदर भाव न जाननेवाला, अशिष्ट, बेअदब । बरम्हाऊ = बरम्हवआशीर्वाद । बाल = बासुकि । माँगौं धरि केसा के बाल पकड़कर व्र ला सँगाऊँ। (१०)"बरिखंड = बलवंत, बली [ १०० ]o o " सूरज जेहिक तप रसोई। नितिहि बसंदर धोती धोई । सूक सुमंता, ससि मसिद्मारा। पौन करे निति बार बोहारा । ॥ जमहिं लाइफ पाटी बाँधा । रहा न दूसर सपने काँधा है. जो अस बज ट नहि टारा । सोड मुवा दुबे तपसी मारा। नाती पूत कोटि दस अहा। रोवनहार न कोई रहा । 1. ओोछ जानि के काहि, जिनि कोई गरब करेइ । प्रोडे पर जो दैड है, जीति पत्र तेइ देइ ।१०। अब जो भाँट उहाँ हुत भागे । बिनै उठा राजहि रिस लागे । । भाँट अहै संकर के कला। राजा सां राख अरगला ।; भाँट मीx पे आए न दीसा । ता कहें कौन करे अस रीसा ? b भएड रजायसु गंध्रबसेनी। काहे मीच के चहे नसेनी ? : कहा आानि बानी अस । करसि न जेहि करे । पड़े ? बुद्धि भंट ॥ जाति भाँट कित औौगुन लावसि। बाएँ हाथगंज बरम्हावसि । भाँट नाँव का मार्ग जीवा ? । अबढ़े बोल नाइ के गीवा । नू रे भाँट, ए जोगी, तोहि एहि काहे क संग है । काह छरे आस पावा, काह भएज चितभंग १ि१। जीं सत पूछसि गें ध्रब राजा। सत पै कहीं परे नहि गाजा ! ! भाँटहि काह मीच सो कटार, पेट । डरना। हाथ हनि मरना जंबूदीप चित्तउर देसा। चित्नसेन बड़ तहाँ नरेसा । रतनसेन यह ताकर बेटा । कुल चौहान जाइ नहि मेटा ॥ खाँई अचल सुमेरु पहारा 11 टरै न जर्न लागे संसारा। दान सुमेरु देत नहि खाँगा। जो ओोहि माँग न औौरहि माँगा । दाहिन हाथ उठाएछं ताही। नौर को अस बरम्हावीं जाही है । नाँव महापातर मोहि, तेहिक भिखारी - ढीठ । जो खरि बात कहे रिस लाशे, कहै " बसीठ 1१२। ततखन पुनि महेस मन लाजा। भाँट करा होइ बिनवा राजा ॥ गंध्रबसेन ! तू राजा महा। हीं महे मूरति, सुनु कहा। । तपे = पकाता (था) । सूक = शुक्र । मसिपारा सुमंता = मंत्री । = मसियार, मशालची द्वार । बार = । बोहात देता काँधा जिसे स्वप्न कुछ समझा । काँधा = माना, स्वीकार किया। उसने में भी करे झाड़ था। सपने छोटा । (११) सतें सामने । अरगला = (सं ० अर्गल ) रोक, टेक, घड़. । नसेनी = सीढ़ी । भेंट जेहि कढ = जिससे इनाम निकले । बरम्हावसि = आाशीवाद देता है । काह छरे आस पावा = ऐसा छल करने से तू क्या पाता है ? चितभंग = विक्षेप । (१२) परे नहि गाजा = चाहे बच ही न पड़े . महापातर = महापात्र (पहले भाँटों की पदवी होती थी) । (१३) भाँट करा = भाँट के समान, भट का कला धारण करके । [ १०१ ]रत्नसेन सूली खंड १०१ जी मै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे । राजकुंवर यहहोहि न जोगी । नि पदमावति भएड वियोगी जंवदीप बेटा। जो है लिखा सो जाइ मेटा राजघर न । तुम्हरहि सु जाइ मोहि माना। श्र जेहि कर, बर के तेइ माना। तोका पुनि यह बात सुनी सिव लोका। करसि बियाह धरम है ॥ माँगे भीख खपर लेइ, मुए न बार । बूझहु, कनक कचोरी भौखि देह, नहिं मार 1१३। औोहट होह रे भाँट भिखारी का तू मोहि देहि असि गारी को मोहि जोग जगत होइ पारा । जा सहें हेरों जाइ पतारा ॥ जोगी जती आव जो कोई। सुनतह वासमान भा सोई ॥ भीख लेहि फिरि माँगह आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे । जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा। नाहि बेधि सूरी जिड लीन्हा ॥ जेहि अस साध होइ जिउ खोवा। सो पतंग दीपक तस रोवा। सुरनरमुनि सब गंध्रब देवा। तेहि को गने ? करेह निति सेवा । मोसों को सरवरि करे ? सु, रे झूठे भट । छार होइ जौ चाल, निज हस्तिन कर ठाट I१४। जोगी घिरि मेले सब पाछे। उरए माल आाए रन काछे ॥ मांमन्ह कहा, सुनह हो राजा। देखह अब जोगिन्ह कर काजा ॥ हम जो कहा तुम्ह करह न जझ । होत अब दर जगत प्रसू ॥ खिन इक महें झुरमुट होइ बीत। दर महें चढ़ि जो रहै सो जीता। के धीरज राजा तब कोसा। अंगद प्राइ पाँव रन रोपा ॥ हस्ति पाँच जो अगमन धाए । तिन्ह अंगद धरि सूड फिराए । ान्ह उड़ाइ सरग कहें गए। लौटि न फिरे, तलैहि के भए । देखत रहे अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न जाय । जोगिन्ह कर अस जूझबभूमि न लागत पाय ।1१५। कहह बात, जोगी अब प्राए 1 खिनक माहें चाहत हैं भाए ॥ जौ लहि धावह अस के खेलह हस्तिन केर जह सब पेलह। जस गज पेलि होहि रन आागे। तस बगमेल करह सेंग लागें । (१४) औोहट = ओोट, हट परे । (१५) मेले = जुटे । उरए = उत्साह या चाव से भरे (उराव = उत्साह, हौसला) । माल = मल्ल, पहलवान । दर दल । झुरमुट = । होइ बीता हुआा चाहता है । चढ़ि जोर है = जो धरा अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन = आगे । अचंभ = अद्भुत व्यापार। (१६) अस के 1 यूथ । जस = जैसे ही। तस = तैसे ही। बगमेल =

इस प्रकार जूह[सम्पादन]

सवारों की पंक्ति । अंगसरी = अग्रसरनागे , । [ १०२ ]१० २ हस्ति क । हनुबृत तबे जूह आाय अगसारी लैंगूर पसारी जस से सब लपट सेन बीच रन आई। लंगूर चलाई ॥ वहुतक टूटि भए नौ खंडा। बहतक जाइ परे बरम्डा ॥ बहुतक भंवत सोह छूतरीखा। रहें जो लाख भए ने लीखा। बहुतक परे समद महेंपरत न पावा खोज । जहाँ गरब तm पीरा, जहाँ हसी तहें रोज 1१६। ॥ ग्राओं का देख राजा। ईसर केर घट रन बाजा ॥ सुना संख जो बिस्नू पूरा। आागे हनुबृत केर लेंगूरा ॥ लीन्हे फिरह लोक बरम्हंडा । सरग पतर लाइ मृदमंडा ॥ बलि। , बासुकि ऑौ इंद्र नरिदृ। राहनखतसूरुज औ औो चंदू ।। जावत दानव राच्यूस पुरे । आाठों बच प्राइ रन जुड़े । जहि कर गरब करत हत राजा। सो सब फिर बैरी हुइ साजा ॥ जहवाँ महादेव रन खड़ा । सीस नाइ नप पायन्ह पर । केहि कारन रिस कीजिये ? हीं सेवक ऑो चेर । जेहि चाहिए तेहि दीजिय, बारि गोसाई केर |१७ll. पुनि महेस अब कीन्ह बसीटी। पहिले करुइ, सोइ अब मीठी | नू गंध्रब राजा जग पूजा । न चौदहसिख देइ को दूजा ॥ हीरामन जो तुम्हार परैवा। गौ चितउर औौ कीन्हेसि सेवा ॥ तेहि बोलाइ पूब्दु “वह देसू । दहें जोगी, की तहाँ नरमू ! हमर कहत न जो तुम्ह मानहु । जो वह कहै सोइ परवानहु ।। जहा बार, बर मावा श्रोका। करहि बियाह धरम बड़ ताका ।। जो पहिले मन मानि न काँधे । परख रतन गाँठि तब बाँध ॥ रतन छपाए ना छपे, पारिख होइ सो परीख । घालि कसौटी दीजिए कनक कचोरी भीख 1१८। सव हीरामन सुना। गएउ रोस, हिरदय मह गुना अज्ञा भई बोलावह सोई। पंडित ढते धोख नहि होई ॥ । एकहि सहत्रक धाए कहत । हीरामनंहि लेइ आाए बाला मार्ग प्रानि मंजसा। मिला निकसि बह दिनकर रूसा। बेगि ॥ अस्तुति करत मिला बह भती। राजे सुना हिये भइ साता ॥ जानतें जरत नागि जल पा । होइ फुलवार रहस हिय भरा। भंवत = चक्कर खाते हए। कुंतरीख = अंतरिक्ष, शाकाश । लीखा=लिख्या, एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है । रोज = रोदम, रोना। (१७) ईसर के महादेव । मृतमंडधूल से छा गया। फिरि = विमुख होकर। बारि=कन्या। (१८) बसोठी = गृत कर्म ।. पहिले करुइ = जो पहले कड़वी थी। परवानहु प्रमाण मानो । काँधे = अँगीकार करता है, स्वीकार करता है। । परीख = परखता है। । (१९) रूसा = रुष्ट । साँती = शांति । फुलवार = प्रफुल्ल । रहस = आानंद । खोज – पता, निशान । । [ १०३ ]रत्नसेन सूली १०३ राजे पुनि पूछी हंसि बाता । कस तन पियरभएउ मुख राता ॥ चतुर बेद तुम पंडित, प& शास्त्र औी वेद । कहा चढ़ाएहु जोगिन्ह, आाड़ कीन्ह गढ़ भेद 1१९। हीरामन रसना रस खोला। असीस, कह अस्तुति बोला। इंद्रराज राजेसर ने महा । सुनि होइ रिसकट जाइ न कहा ॥ पै जो बात होइ भलि भागे। सेवक निडर कहे रिस लागे । सुवा सुफल अमृत मै खोजा। होह न राजा विक्रम भोजा । हाँ सेवक, तुम ‘आादि गोसाई । सेवा कर्ण जिीं जब ताई ॥ जेई जिऊ दीन्ह देखावा देमू । सो थे जिउ महें बसेनरेस जो श्रोहि सँव 'ए' तुही'। सोई पंधि जगत रतमुहीं ॥ नन बैन प्रो सरबन सब ही तोर प्रसाद । सेवा मोरि इहै निति बोल ग्रासिरवाद ।।२०। जो अस सेवक जेइ तप कसा। तेहि क जीभ पै। अमृत बसा ॥ तेहि सेवक के करमहि दोष। सेवा करत करे पति रोष ॥ नौ जेहि दोष सेवक डरा लेइ भागा ॥ निदोषहि लागा। जीउ जो पंछी कहाँ थिर रहना। ताके जहाँ जाइ भए डहना ॥ सप्त दीप फिर देखे, राजा। जंबूदीप जाइ तब बाजा तब चितउर गढ़ देखे* ऊँचा। ऊँचे राज सरि तोहि पहुंचा । रतनसेन यह तहर्ता नरेमृ। एहि आानेजोगी के भेस ॥ सुग्रा सुफल लेउ प्राएSतेहि गुन मुख रात । कया पीत सो तेहि डर सँवरों म् विक्रम बात ।२१। पहिले सत भाखी । पुनि भएड भाँट बोला हीरामन साखी ॥ राजहि भा निसचय, मन माना। बाँधा रतन छोरि के माना। कुल“ पूछा चौहान कुलीना। रतन न बाँधे होइ मलीना (२०) होए न...भोजा = तुम विक्रम के समान भूल न करो । (कहानी प्रसिद्ध एक है कि सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो संयोग यह फल खाय गा वह बुड्ढे से ने फल जवान हो जायगा । राजा रख छोड़े । । से एक के लग गए। वहो फल परोक्षा के लिये एक कुत्ते को फल में साँप दाँत खिलाया गया मर और वह गया। राजा ने क्रुद्ध होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवा दिया। फल को एक बुड्ढ़े माला उस ने। उटाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इसपर विक्रम बहुत पछताया) । रतमुहीं = लाल नेहवालो। (२१) त का = तक में शरीर को कसा। पति = स्वामो । निदोहि बिना दोष के ॥ बाजा = पढ़े चा सरि = बराबरी । सँवरों विक्रम बातबिक्रम के समान जो गंधर्व न =राजा है उसके कोष का स्मरण करता हूँ; ऊपर यह आया है कि हह न राजा विक्रम भोजा' । (२२) साखो = ९ । साक्षी [ १०४ ]१०४ हीरा दसन पान रेंग पा। बिहँसत सवे बीजू बर ताके ॥ मुद्रा नवन विनय स चापा। राजपना उघरा सब झाँपा ॥ थाना काटर एक तुखारू। कहा ‘सो , भा मसवारू । फेरा तुरय, छतीसौ कुरी । सर्वे सिंघलपुरी । कुंवर बतीसरी लच्छना, सहस किरिन जस भान । काह कसौटी कसिए ? कंचन बारह बान २२॥ देखि कुंवर बर कंचन जोगू । 'अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू ॥ मिला सो बंस अंस उजियारो। भा बरोक तब तिलक सँवारा ॥ अनिरुध कहें जो लिखा जयमारा। को मेटे ? बानासुर हारा ॥ नाजु मिली अनिरुध कहें ऊखा। देव आनंद, दैत सिर दुखा। सरग सूरभुर्ती सरवर केवा । बनखंड भंवर होइ रसलेवा । पईि कर बर पुरुब क बारी। जोरी लिखी न होइ निनारी ॥ मानुष साज लाख मन साजा। होइ सोई जो बिधि उपराजा । गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहि । फिर, बाजन तेइ बाजे, मंगलचरि उनाहि ।२३ । बोल गोसाईं कर मैं माना। काह सो जुगुति उतर क हैं माना । माना बोल, हर जिउ बाढ़ा । श्री बरोक भा, टीका काढ़ा । द्रवी मिले, मनावा भला। । सुपुरुष आए श्रा कहें चला लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू। जो तप करे भोगू । सो पावे । वह मन चित जो एक अहामार लान्ह । न दूसर कहा ॥ जो अस कोई जिउ पर छेवा। देवता आइ करहि। निति सेवा । दिन दस जीवन जो दुःख देखा। भा जुग जुग सुख, जाइ न लेखा । रतनसेन संग बरनी, पदमावति क बियाह । मंदिर बेगि सेंवारामादर तूर उछाह ।२४। । मुद्रा नवन चांपा विनयपूर्वक कान कीमुद्र को पकड़ा। चांपा दबाया, थामा । झापा = ढका हुआ काटर = कट्टर तुरय = घोड़ा के । । छतोसी कुरी=छत्तीसों कुल क्षत्रिय (२३) ऑस्ति पुस्ति'=हाँ हां, वाह वाह ! बरोक - बरछा, फल दान में । केवा = कमल (सं० ) उनादि = उन्हीं जयमाजयमाल कुव। (मगलाचार के (२४2आना के लिये) । ) काह सो जTति = दूसरे उत्तर के लिये क्या यक्ति है ? लीन्ह उतारिंजोग = रत्नसेन जिसके लिये। ऐसा योग साध रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया । माएं लीन्ह == मार ही डाला चाहते थे (अवधी) । न दूसर कहा = पर दूसरी बात मुंह से न निकली । छेवा = (दु:ख) , डाला (० क्षेपणअथवा खेला।