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जायसी ग्रंथावली/भूमिका/प्रबंध कल्पना

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जायसी ग्रंथावली  (1924) 
द्वारा मलिक मुहम्मद जायसी

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प्रबंधकल्पना

किसी प्रबंधकल्पना पर और कुछ विचार करने के पहले यह देखना चाहिए कि कवि घटनाओं को किसी आदर्श परिणाम पर ले जाकर तोड़ना चाहता है अथवा [ ५३ ] यों ही स्वाभाविक गति पर छोड़ना चाहता है। यदि कवि का उद्देश्य सत् और असत का परिणाम दिखाकर शिक्षा देना होगा तो वह प्रत्येक पात्र का परिणाम वैसा ही दिखाएगा जैसा न्यायनीति की दृष्टि से उचित प्रतीत होगा। ऐसे नपे तुले परिणाम काव्यकला की दृष्टि से कुछ कृत्रिम जान पड़ते हैं।

'पदमावत' के कथानक से यह स्पष्ट है कि घटनाओं को आदर्श परिणाम पर पहँचाने का लक्ष्य कवि का नहीं है। यदि ऐसा लक्ष्य होता तो राघव चेतन का बरा परिणाम बिना दिखाए वह ग्रंथ समाप्त न करता। कर्मों के लौकिक शुभाशुभ परिणाम दिखाना जायसी का उद्देश्य नहीं प्रतीत होता। संसार को गति जैसी दिखाई पड़ती है वैसे ही उन्होंने रखी है। संसार में अच्छे आदर्श चरित्रवालों का परिणाम भी आदर्श अर्थात् अत्यंत आनंदपूर्ण हो होता है और बुरे कर्म करनेवालों पर अंत में आपत्ति का पहाड़ ही आ टूटा हो, ऐसा कोई निर्दिष्ट नियम नहीं दिखाई पड़ता। पर आदर्श परिणाम के विधान पर लक्ष्य न रहने पर भी जो बात बचानी चाहिए वह बच गई है। किसी सत्पात्र का न तो ऐसा भीषण परिणाम ही दिखाया गया है जिससे चित्त को क्षोभ प्राप्त होता हो और न किसी बुरे पात्र की ऐसी सूख समृधि ही दिखाई गई है जिससे अरुचि और उदासीनता उत्पन्न होती हो। अंतिम दृश्य से अत्यंत शांतिपूर्ण उदासीनता बरसती है। कवि की दृष्टि में मनुष्यजीवन का सच्चा अंत करुण क्रंदन नहीं, पूर्ण शांति है। राजा के मरने पर रानियाँ विलाप नहीं करती हैं, बल्कि इस लोक से अपना मुँह फेरकर दूसरे लोक की ओर दृष्टि किए पानंद के साथ पति की चिता में बैठ जाती हैं। इस प्रकार कवि ने सारी कथा का शांत रस में पर्यवसान किया है। पुरुषों के वीरगति प्राप्त हो जाने और स्त्रियों के सती हो जाने पर अलाउद्दीन गढ़ के भीतर घुसा और

'छार उठाइ लीन्ह एक मूठी। दीन्ह उठाइ पिरिथिवी झूठी॥'

प्रबंध काव्य में मानवजीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है। उसमें घटनाओं की संबंधशृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक ठीक निर्वाह के साथ साथ हृदय को स्पर्श करनेवाले--उसे नाना भावों का रसात्मक अनुभव करानेवाले--प्रसंगों का समावेश होना चाहिए। इतिवृत्त मात्र के निर्वाह से रसानुभव नहीं कराया जा सकता। उसके लिये घटनाचक्र के अंतर्गत ऐसी वस्तुओं और व्यापारों का प्रतिबिंबवत् चित्रण चाहिए जो श्रोता के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में समर्थ हो। अतः कवि को कहीं तो घटना का संकोच करना पड़ता है, कहीं विस्तार।

घटना का संकुचित उल्लेख तो केवल इतिवृत्त मात्र होता है। उसमें एक एक ब्योरे पर ध्यान नहीं दिया जाता और न पात्रों के हृदय की झलक दिखाई जाती है। प्रबंधकाव्य के भीतर ऐसे स्थल रसपूर्ण स्थलों को केवल परिस्थिति को सूचना देते हैं। इतिवृत्तरूप इन वर्णनों के बिना उन परिस्थितियों का ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता जिनके बीच पात्रों को देखकर श्रोता उनके हृदय को अवस्था का अपनी सहृदयता के अनुसार अनुमान करते हैं। यदि परिस्थिति के अनुकूल पात्र के भाव नहीं हैं तो विभाव, अनभाव और संचारी द्वारा उनकी अत्यंत विशद व्यंजना भी फीकी लगती है। प्रबंध और मुक्तक में यही बड़ा भारी भेद होता है। मुक्तक में किसी भाव की रसपद्धति के अनुसार अच्छी व्यंजना हो गई, बस। पर प्रबंध में [ ५४ ] इस बात पर भी ध्यान रहता है कि वह भाव परिस्थिति के अनुरूप है या नहीं। पात्र की परिस्थिति भी सहृदय श्रोता के हृदय में भाव का उद्बोधन करती है। उसके ऊपर से जब श्रोता के भाव के अनुकूल उसकी पूर्ण व्यंजना भी पात्र द्वारा हो जाती है तब रस की गहरी अनुभूति उत्पन्न होती है। 'बनवासी राम स्वर्णमृग को मार जब कुटी पर लौटे तब देखा कि सीता नहीं हैं' यह इतिवृत्त मात्र है; पर यह सहृदयों के हृदय को उस दुःखानुभव को ओर प्रवृत्त कर देता है जिसकी व्यंजना राम ने अपने विरहवाक्यों में की। इसी बात को ध्यान में रखकर विश्वनाथ ने कहा है कि प्रबंध के रस से नीरस पद्यों में भी रसवत्ता मानी जाती है रसवत्पद्यांतर्गत नीरसपदानामिव पद्यरसेन प्रबंधरसेनैव तेषां रसवत्ताङ्गीकारात्।

जिनके प्रभाव से सारी कथा में रसात्मकता आ जाती है वे मनुष्य जीवन के मर्मस्पर्शी स्थल हैं जो कथाप्रवाह के बीच बीच में आते रहते हैं। यह समझिए कि काव्य में कथावस्तु को गति इन्हीं स्थलों तक पहुँचने के लिये होती है। 'पद्मावत' में ऐसे स्थल बहुत से हैं--जैसे, मायके में कुमारियों की स्वच्छंद क्रीड़ा, रत्नसेन के प्रस्थान पर नागमती आदि का शोक, प्रेममार्ग के कप्ट रत्नसेन को सुली की व्यवस्था उस दंड के संवाद से विप्रलंभ दशा में पद्मावती की करुण सहानुभूति, रत्नसेन और पद्मावती का संयोग, सिंहल से लौटते समय की सामुद्रिक घटना से दोनों की विह्वल स्थिति, नागमती की विरहदशा और वियोगसंदेश, उस संदेश को पाकर रत्नसेन की स्वाभाविक प्रणयस्मति, अलाउद्दीन के सँदेसे पर रत्नसेन का गौरवपूर्ण रोष और युद्धोत्साह, गोरा बादल की स्वामिभक्ति और क्षात्रतेज से भरी प्रतिज्ञा, अपनी सजलनेत्रा भोली भाली नवागता वधू की ओर पीठ फेर बादल का युद्ध के लिये प्रस्थान, देवपाल की दूती के आने पर पद्मावती द्वारा सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना, पद्मावती और नागमती का उत्साहपूर्ण सहगमन, चित्तौर की दशा इत्यादि। इनमें से पाँच स्थल तो बहुत ही अगाध और गंभीर हैं--नागमतीवियोग, गोराबादल प्रतिज्ञा कुँवर बादल का घर से निकलकर युद्ध के लिये प्रस्थान, दूती के निक पद्मावती द्वारा सतीत्वगौरव की व्यंजना और सहगमन। ये पाँचों प्रसंग ग्रंथ के उत्तरार्ध में हैं। पूर्वार्ध में तो प्रेम ही प्रेम है; मानव जीवन की और और उदात्त वृत्तियों का जो कुछ समावेश है वह उत्तरार्ध में है।

जायसी के प्रबंध की परीक्षा के लिये सभीते के विचार से हम उसके दो विभाग कर सकते हैं--इतिवृत्तात्मक और रसात्मक।

पहले इतिवृत्त लीजिए। प्रबंधकाव्य में इतिवत्त की गति इस ढंग से होनी चाहिए कि मार्ग में जीवन की ऐसी बहुत सी दशाएँ पड़ जायँ जिनमें मनुष्य के हृदय में भिन्न भिन्न भावों का स्फुरण होता है और जिनका सामान्य अनुभव प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः कर सकता है। इन्हीं स्थलों में रसात्मक वर्णनों को प्रतिष्ठा होती है। अतः इनमें एक प्रकार से इतिवृत्त या कथा के प्रवाह का विराम सा रहता है। ऐसे रसात्मक वर्णन यदि छोड़ भी दिए जाएँ तो वत्त खंडित नहीं होता। रसानुकूल परिस्थिति तक श्रोता को पहुँचाने के लिये बीच बीच में घटनाओं के सामान्य कथन या उल्लेख मात्र को ही शुद्ध इतिवृत्त समझना चाहिए, जैसी 'रामचरितमानस' की ये चौपाइयाँ हैं-[ ५५ ]

आगे चले बहुरि रघुराया। ऋष्यमूक पर्वत नियराया।।
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सीवा।।
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना।।
धरि बटुरूप देखु तैं जाई। कहेसि जानि जिय सैन बुझाई।।

हितोपदेश, कथासरित्सागर, सिंहासन बत्तीसी, वैताल पच्चीसी आदि की कहानियाँ इतिवत्त रूप में ही हैं, इसी से उन्हें कोई काव्य नहीं कहता। ऐसी कहानियों से भी श्रोता या पाठक का मनोरंजन होता है पर वह काव्य के मनोरंजन से भिन्न होता है। रसात्मक वाक्यों में मनुष्य के हृदय को वृत्तियाँ लीन होती हैं और इतिवृत्त से उसको जिज्ञासावृत्ति तुष्ट होती है। 'तब क्या हुआ?' इस वाक्य द्वारा श्रोता अपनी जिज्ञासा प्रायः प्रकट करते हैं। इससे प्रत्यक्ष है कि जो कहा गया है उसमें कुछ देर के लिये भी श्रोता का ह्रदय रमा नहीं है, आगे की बात जानने को उत्कंठा हो मुख्य है। कोरी कहानियों में मनोरंजन इसी कुतूहलपूर्ण जिज्ञासा के रूप में होता है। उनके द्वारा हृदय की वृत्तियों (रति, शोक आदि) का व्यायाम नहीं होता, जिज्ञासावृत्ति का व्यायाम होता है। उनका प्रधान गुण घटनावैचित्य द्वारा कुतुहल को बनाए रखना ही होता है। कही जानेवाली कहानियाँ अधिकतर ऐसी ही होती हैं। पर कुछ कहानियाँ ऐसी भी जनसाधारण के बीच प्रचलित होती हैं जिनके बीच बीच में भावोदेवा करनेवालो दशाएँ भोपडतो चलती हैं। इन्हें हम रसात्मक कहानियाँ कह सकते हैं। इनमें भावकता का अंश बहुत कुछ होता है और ये अपढ़ जनता के बीच प्रबंधकाव्य का ही काम देती हैं। इनमें जहाँ जहाँ मार्मिक स्थल पाते हैं वहाँ वहाँ कथोपकथन आदि के रूप में कुछ पद्य या गाना रहता है।

ऐसी रसात्मक कहानियों का घटनाचक्र ही ऐसा होता है जिसके भीतर सुखदःख-पूर्ण जीवनदशाओं का बहुत कुछ समावेश रहता है। पहले कहा जा चुका है कि 'पद्मिनी और हीरामन तोते को कहानो' इसी प्रकार को है। इसके घटनाचक्र के भीतर प्रेम, वियोग, माता की ममता, यात्रा का कष्ट, विपत्ति, आनंदोत्सव, युद्ध, जय, पराजय आदि के साथ साथ विश्वासघात, वैर, छल, स्वामिभक्ति. पातिव्रत, वीरता प्रादि का भी विधान है। पर 'पद्मावत' शृंगारप्रधान काव्य है। इसी से इसके घटनाचक्र के भीतर जीवनदशाओं और मानव संबंधों को वह अनेकरूपता नहीं है जो रामचरितमानस में है। इसमें रामायण की अपेक्षा बहुत कम मानव दशानों और संबंधों का रसपूर्ण प्रदर्शन और बहुत कम प्रकार के चरित्रों का समावेश है। इसका मुख्य कारण यह है कि जायसी का लक्ष्य प्रेमपथ का निरूपण है। जो कुछ हो, यह अवश्य मानना पड़ता है कि रसात्मकता के संचार के लिये प्रबंधकाव्य का जैसा घटनाचक्र चाहिए पद्मावत का वैसा ही है। चाहे इसमें अधिक जीवन दशाओं को अंतर्भूत रनेवाला विस्तार और व्यापकत्व न हो, पर इसका स्वरूप बहुत ठीक है।