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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०७

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म अन्याय : ध्यानयोग पानेपर कौन-सी गति पाता है ? ३७ कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥३८।। हे महाबाहो ! योगसे भ्रष्ट हुआ, ब्रह्ममार्गमें भटका हुआ वह छिन्न-भिन्न बादलोंकी भांति उभयभ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ? ३८. एतन्मे सशय कृष्ण छत्तुमर्हस्यशेषतः । त्वदन्यः सशयस्यास्य छेत्ता न झुपपद्यते ।।३९।। हे कृष्ण ! मेरा यह संशय दूर करने में आप समर्थ हैं। आपके सिवा दूसरा कोई इस संशयको दूर करने- वाला नहीं मिल सकता। श्रीभगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याण कृत्कश्चिदुर्गति तात गच्छति ॥४०॥ श्रीभगवान बोले- हे पार्थ ! ऐसे मनुष्योंका नाश न तो इस लोकमें होता है, न परलोकमें । हे तात ! कल्याणमार्गमें जाने- वालेकी कभी दुर्गति होती ही नहीं। प्राप्य पुण्यकृतां लोका- नुषित्वा शाश्वती: समाः ।