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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४०

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अनासक्तियोग न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिहि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥२॥ देव और महर्षि मेरी उत्पत्तिको नहीं जानते, क्योंकि मैं ही देवोंका और महर्षियोंका सब प्रकारसे आदि कारण हूं। २ यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असंमूढः स मर्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥ मृत्युलोकमें रहता हुआ जो ज्ञानी लोकोंके महेश्वर मुझको अजन्मा और अनादि रूपमें जानता है वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। ३ बुद्धिनिमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुःखं भवोऽभावो भय चाभयमेव च ॥ ४ ॥ अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ ५ ॥ बुद्धि, ज्ञान, अमूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रिय-निग्रह, शांति, सुख, दुःख, जन्म, मृत्यु, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश, अपयश, इस प्रकार प्राणियोंके भिन्न-भिन्न भाव मुझसे उत्पन्न होते हैं। ४-५ महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६ ॥