सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तेजोभिरापूर्य जगत्सम भासस्तयोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥३०॥ सब लोकोंको सब ओरसे निगलकर आप अपने धधकते हुए मुखसे चाट रहे हैं । हे सर्वव्यापी विष्णु ! आपका उग्र प्रकाश समूचे जगतको तेजसे पूरित कर रहा है और तपा रहा है। ३० आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाचं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥३१॥ उग्ररूप आप कौन हैं सो मुझसे कहिए। हे देव- वर! आप प्रसन्न होइए। आप जो आदि कारण हैं उन्हें मैं जानना चाहता हूं। आपकी प्रवृत्ति में नहीं जानता। श्रीमगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥३२॥ भीमगवान बोले- लोकोंका नाश करनेवाला, बढ़ा हुआ मैं काल हूं।