सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासनसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥७॥ हे कोंतेय ! रजोगुण रागरूप होनेसे तृष्णा और आसक्तिका मूल है, वह देहधारीको कर्मपाशमें बांधता है। तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ ८॥ हे भारत ! तमोगुण अज्ञानमूलक है । वह देह- धारीमात्रको मोहमें डालता है और वह देहीको असाव- धानी, आलस्य तथा निद्राके पाशमें बांधता है। ८ सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥९॥ हे भारत ! सत्त्व आत्माको शांतिसुखका संग कराता है, रजस् कर्मका और तमस् ज्ञानको ढककर प्रमादका संग कराता है। रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥१०॥ हे भारत ! जब रजस् और तमस् दबते हैं तब सत्त्व ऊपर आता है; सत्त्व और तमस् दबते हैं तब रजस् और सत्त्व तथा रजस् दबते हैं तब तमस् उभरता ९