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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/४१

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दूसरा अध्याय : सांस्वबोन २७ कर्मकांड या वेदवादका मतलब फल उपजानेके लिए मंथन करनेवाली अगणित क्रियाएं । ये क्रियाएं वेदके रहस्यसे, वेदांतसे अलग और अल्प फलवाली होनेके कारणं निरर्थक हैं। गुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन । निर्दन्द्रो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥४५॥ हे अर्जुन ! जो तीन गुण वेदके विषय हैं, उनसे बू अलिप्त रह । सुख-दुःखादि द्वंद्वोंसे मुक्त हो। नित्य सत्य वस्तुमें स्थित रह । किसी वस्तुको पाने और संभालनेके झंझटसे मुक्त रह । आत्मपरायण हो । ४५ यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके । तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥४६॥ जैसे जो काम कुएंसे निकलते हैं वे सब, सब प्रकारसे सरोवरसे निकलते हैं, वैसे जो सब वेदोंमें है वह ज्ञानवान् ब्रह्मपरायणको आत्मानुभवमेंसे मिल रहता है। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥ कर्ममें ही तुझे अधिकार है, उससे उत्पन्न होने- वाले अनेक फलोंमें कदापि नहीं। कर्मका फल तेरा हेतु न हो। कर्म न करनेका भी तुझे आग्रह न हो। ४७