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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/७०

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अनासक्तियोग . । . में उतार-चढ़ाव हुआ ही करता है, परंतु अंतमें धर्मकी ही जय होती है। संतोंका नाश नहीं होता, क्योंकि सत्यका नाश नहीं होता। दुष्टोंका नाश ही है, क्योंकि असत्यका अस्तित्व नहीं है । मनुष्यको चाहिए कि इसका खयाल रखकर अपने कर्तापनके अभिमानके कारण हिंसा न करे, दुराचार न करे । ईश्वरकी गहन माया अपना काम करती ही रहती है। यही अवतार या ईश्वरका जन्म है। वस्तुतः तो ईश्वरका जन्मना होता ही नहीं। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥ हे अर्जुन ! इस प्रकार जो मेरे दिव्य जन्म और कर्मका रहस्य जानता है वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्म नहीं पाता, बल्कि मुझे पाता है । टिप्यसी-क्योंकि जब मनुष्यका दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ईश्वर सत्यकी ही जय कराता है तब वह सत्यको नहीं छोड़ता, धीरज रखता है, दुःख सहन करता है और ममतारहित रहनेके कारण जन्म-मरणके चक्करसे छूटकर ईश्वरका ईश्वरका ही ध्यान धरते उसीमें लय हो जाता है। वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥१०॥