सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप्सरा १३३ तो मारे प्रसन्नता के लाल पड़ गए । राजकुमार उसी तरह निर्विकार चिन्त से किताब पढ़ने का ठाट दिखा रहा था। भीतर से सांच रहा था, किसी तरह कलकत्ता पहुंचे, ता बताऊँ। सब रंग फीका पड़ गया। ____"अभी पिसनहर के यहाँ पिसना देने जाना है" कहकर, काँखकर, वैसे ही त्रिभंगी दृष्टि से कनक को देखती हुई मुँह बनाकर तारा की माता उठीं और धीरे-धीरे नीचे उतर गई। जीने से एक दमन चंदन को भी घूरा । उनके जाने के बाद घर की और और त्रियों ने भी "महाजनो येन गतः स पन्या:" को अनुसरण किया । कनक बैठे-बैठे सबको देखती रहो । सब चली गई, वो तारा से पूछा, "दीदी, ये लोग कोई पढ़ी-लिखी नहीं थीं शायद ?" "नः, यहाँ तो बड़ा पाप समझा जाता है।" "श्राप तो पढ़ी-लिखी जान पड़ती हैं।" "मेरा लिखना-पढ़ना वहीं हुआ है। घर में कोई काम था ही नहीं। छोटे साहब के भाई साहब की इच्छा थी कि कुछ पड़ लू। उन्हों से तोन-चार साल में हिंदी और कुछ अँगरेजो पढ़ ली" . ___ कनक बैठी सोच रही थी और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे सब त्रियाँ जो अपने मकान में भी इतनी असभ्यता से पेश आई, किस अंश में उससे बड़ो थों। दीदी की सहृदयता और चंदन का स्नेह स्मरण कर रोमांचित हो उठती, पर राजकुमार की याद से उसे वैसी ही निराशा हो रही थी। उसके अविचल मौन से यह समझ गई कि अब वह उसे पनी-रूप से प्रण नहीं करेगा। इस चिंता से उसका चित्त न जाने कैसा हो जाता, जैसे पक्षी के उड़ने की सब दिशाएँ अंधकार से ढक गई हों और ऊपर धाकाश हो और नीचे समुद्र । अपने पेशे का जैसा अनुभव तथा उदाहरण वह लेकर आई थी, उसकी याद आते ही घृणा और प्रतिहिंसा की एक लपट बनकर जल उठती जो जलाने से दूसरों को दूर देखकर अपने ही तृण और काष्ट जला रही थी।