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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/९९

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अप्सरा तकिए के तौर से राजकुमार के कंधे पर कपोल रक्खे हुए अधखुली सरल सप्रम दृष्टि से कनक उसे देख रही थी। इतनी मधुर आवाज कानों के इतने नजदीक से राजकुमार ने कभी नहीं सुनी । उसके तमाम विरोधी गुण उस ध्वनि के तत्व में डूब गए। उसे बहूजी की याद आई । वह बहूजी की तमाम बातों का संबंध जोड़ने लगा । यह वही कनक है, जिस पर उसे संदेह था। कुंज में बाहर की बत्तियों का प्रकाश क्षीण होता हुआ भी पहुँच रहा था। उसने एक बिंदी उसके मस्तक पर लाल-लाल चमकती हुई देख लो, संदेह हुआ कि उसके साथ कनक का विवाह कब हुआ। द्विधा ने मन के विस्तार को संकु चित कर एक छोटी-सी सीमा में बाँध दिया। प्रतिज्ञा जाग उठी। कई कोड़े कस दिए। कलेजा काँप गया धीमी-धीमी हवा बह रही थी। कनक ने सुख से पलकें मूंद लीं । निर्वाक सचित्र राजकुमार को अपनी रक्षा का मार सौंपकर विश्राम करने लगी। राजकुमार ने कई बार पूछने का इरादा किया, पर हिम्मत नहीं हुई। कितनी अशिष्ट अमा- संगिक बात! राजकुमार कनक को प्यार करता था। परं उस प्यार का रंग बाहरी आवरणों से दवा हुश्रा था। वह समझकर भी नहीं समझ पाता था। इसका बहुत कुछ कारण कनक के इतिहास के संबंध में उसका अज्ञान था। बहुत कुछ उसके पूर्व-संचित संस्कार थे। उसके भीतर एक इतनी बड़ी प्रतिज्ञा थी, जिसके बड़े-बड़े शब्द दूसरों के दिल में प्रास पैदा करनेवाले थे, जिनका उद्वेश्य जीवन की महत्ता थी, प्रेम नहीं। प्रेम का छोटा-सा चित्र वहाँ टिक ही नहीं पाता था। इसलिये प्रेम की छाया में पैर रखते ही वह चौंक पड़ता था। अपने सुख की कल्पना कर दूसरों की निगाह में अपने को बहुत छोटा देखने लगता था। इसी- लिये उसका प्यार कनक के प्यार के सामने हल्का पड़ जाया करता था, पानी के तेल की तरह, उसमें रहकर भी उससे जुदा रहता था, उपर तैरता फिरता था। अनेक प्रकार की शंकाएँ जग पड़तीं, दोनो की आत्मा की प्रथि को एक से खुलाकर दोनो को जुदा कर देती थीं।