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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२०१

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अयोध्या के शाकद्वीपी राजा

में वीरता दिखाई। एक बार छुट्टी लेकर लखनऊ की सैर को आये और बेलीगारद के सामने अपने एक मित्र से बात-चीत कर रहे थे कि उधर से अवध के नव्वाब सआदत अली खाँ की सवारी निकली। ओरी बहुत अच्छे डील डौल के वीर पुरुष थे। नव्वाब साहब ने उनको बहुत पसन्द किया और चोबदार से बोले कि इस जवान से कहो कि हमारी सरकार में नौकरी करे। ओरी ने उत्तर दिया कि हम आपकी सेवा करने में अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं परन्तु हम अंग्रेजी सरकार के नौकर हैं। नव्वाब साहब ने तुरन्त लखनऊ के रेजिडेण्ट डेली साहब को लिखा और ओरी को ८ सवारों का दफादार बना कर अपनी अर्दली में रक्खा। एक दिन नव्वाब साहब हवादार पर बाहर निकले थे। रास्ते में उन पर किसी ने तलवार चलाई। वह हवादार को तान में लगी। दूसरा वार फिर करना चाहता था कि वीर ओरी ने झपट कर उसको एक ऐसा हाथ मारा कि वह वहीं मर गया। इस पर नव्वाब साहब बहुत प्रसन्न हुये और ख़िलअत देकर पलिया उनकी जागीर कर दी और जमादारी का ओहदा देकर उनका सौ सवारों का अफसर बनाया। इसके कुछ ही दिन पीछे रिसालदार बना दिये गये और उनका नाम ओरी से बदल कर बख्तावर सिंह कर दिया गया। नव्वाब सआदत अली खाँ के मरने पर जब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर बादशाह हुये तो उन्हें राजा की उपाधि मिली। उनकी खैरख्वाही के कारण दरबार में उनकी प्रतिष्ठा और उनका अधिकार बढ़ता गया जो किसी दूसरे को प्राप्त न था। कुछ दिन बाद उन्होंने अपने भाई दर्शनसिंह को चकलेदारी दिलवायी। उन्होंने भी अपने इलाके का बहुत अच्छा प्रबन्ध किया और राजा की पदवी पायी । उन्हीं दिनों शिवदीन एक बड़ा डाकू था। वादशाह की आज्ञा से उसका दमन किया गया और राजा को बहादुर का पद मिला। इसी तरह दोनों की बादशाह नसीरुद्दीन के समय में उन्नति होती रही। राजा दर्शनसिंह ने शाहगंज में सुदृढ़ कोट, बाजार और महल बनवाये। श्री अयोध्या में

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